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bacilli in hindi , बेसिलस बैक्टीरिया का आकार होता है , बैसिलाई जीवाणु से कौन सा रोग फैलता है , उपचार
पढ़िए bacilli in hindi , बेसिलस बैक्टीरिया का आकार होता है , बैसिलाई जीवाणु से कौन सा रोग फैलता है , उपचार ?
बैसिलाई (Bcilli)
शलाखा रूपी जीवाणु (Rod-like bacteria) – शलाखा रूपी जीवाणुओं को बेसिली (bacilli) अर्थात् दण्डाणु [ एकवचन बेसिलस (bacillus )] जीवाणु कहा जाता है। ये सामान्यतः मुक्त अवस्था में पाये जाते हैं। आमाप में 11 से कुछ तक पाये जाते हैं। कभी-कभी दण्डाणु आकृतियों के युग्मों में पायें जाते हैं, इनका नामकरण शलाखा आकृतियों की संख्या के आधार पर किया जाता है। जैसे (अ) डिप्लोबैसिली (diplobacilli) जब दो शलाखा रूपी आकृतियाँ युग्मों में उपस्थित रहती हैं। (ब) स्ट्रेट्रोबैसिली (streptobacilli) जब से अधिक शलाखा रूपी आकृतियाँ श्रृंखलाबद्ध अवस्था में उपस्थित होती है।
बैसिली डिप्थीरिया (Bacilli- Diptheria) या कार्निबैक्टीरिया (Cornybacterium)
(a) कॉनीबैक्टीरियम ग्रैम ग्राही एवं अचल प्रकृति के जीवाणु हैं जो अभिरंजित अवस्था में अनियमित क्षेत्र सहित या कणीय खण्ड युक्त दिखाई देते हैं। अधिकतर इस शलाखा रूपी जीवाणु की कोशिकाओं के सिरे मुग्दराकार होते हैं, अतः इनका नामकरण कॉर्नीबैक्टीरिया (कॉर्नी – मुग्दराकार) (Cornybacterium) डिप्थीरिएइ (diptheriae) किया गया है। ये बहुरूपी (pleomorphic) प्रकृति के होते हैं इनमें समूह या ढेर बनाने की प्रवृत्ति (palisade arrengement) पायी जाती हैं। कोशिकाओं के भीतर वाल्यूटिन के कण पाये जाते हैं। इस वंश की कॉ. डिफ्थीरियेई जाति के द्वारा डिप्थीरिया रोग उत्पन्न होता है। इस रोग की जानकारी आदि काल से ही मनुष्य को थी। इस रोग को चिकित्सा महत्व बिटोन्यू (Britonu ; 1826) द्वारा दिया गया था इसका नाम “डिप्थीराइट्” रखा गया क्योंकि रोग के दौरान अंगों की झिल्ली मोटी चम्मड़ (leathery) समान हो जाती है। डिप्थीरिया बोसिलस को एडविन क्लेब्स (Klebs ; 1883) द्वारा पहली बार जन्तुओं के उत्तकों में देखा गया और लुइफर (Loefer ; 1884) ने इसका संवर्धन प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की अतः इसे क्लेब्स लुइफर बेसिलस भी कहा जाता है । बैहरिंग ( Behring; 1890) ने इस जीवाणु द्वारा उत्पन्न आविष को उदासीन बनाने वाले प्रति आविष तैयार किये।
आकारिकी (Morphology)
यह जीवाणु बेलनाकार शलाखा के समान होता है जिसके एक या दोनों सिरे मुग्दर के समान फूले हुए होते हैं। यह लगभग 3.6 u x 0.6- 0.8u आमाप होता है। यह जीवाणु बहुरूपी (pleomorphic) होता है। कॉर्नीबैक्टीरियम अचल प्रकार के असम्पुटी जीवाणु होते हैं जिनमें जीवाणु बनाने की क्षमता नहीं पायी जाती है। जीवाणु कोशिकाओं में पट्ट (septa) व शाखाएँ भी कभी-कभी विकसित होती हैं। कोशिकाओं में पॉलीमेटाफॉस्फेट के कण पाये जाते हैं। कोशिकाएँ ग्रैम ग्राही प्रकार की होती है। लुइफर के मिथाइलीन ब्लू ध्रुवों पर एकत्रित होकर ध्रुव काय बनाते हैं। कोशिकाएँ युग्मों या समूह के रूप में व्यवस्थित दिखाई देती हैं। कोशिकाओं के समूह V या L की आकृति के रूप में एकत्रित पाये जाते हैं। यह आकृतियाँ पुत्री कोशिकाओं के द्विभाजन की क्रिया के उपरान्त अपूर्ण कोशिका झिल्ली बनने के कारण बनती है।
संवर्धन लक्षण (Cultural characteristics)
कॉर्नीबेक्टीरियम बैसिलाई का संवर्धन रक्त सीरम, अण्डे युक्त माध्यमों में तीव्र गति से होता है। ये 15-40°C आदर्श तापक्रम 37°C तथा pH 7.2 पर उचित वृद्धि करते हैं। ये वायुवीय तथा विकल्पी अवायुवीय प्रकृति के जीवाणु हैं। प्रयोगशाला में इनका संवर्धन लुइफर के सीरम तथा टेल्यूराइट रक्त एगार पर किया जाता है। आरम्भ में निवह छोटी वृत्ताकार, तश्वरी के समान श्वेत अल्पपादर्शी होती है तो बड़ी होकर पीले रंग की हो जाती है। इनका तीन संवर्गों में वर्गीकरण किया गया है। ग्रेविस तथा इन्टरमिडियस बैसिलाई अधिक घातक हैं जबकि माइटिस बैसिलाई कम हानि पहुँचाते हैं। प्रथम दोनों बैसिलाई रोगी की श्वांस नलिका में इस प्रकार वृद्धि कर घाव बनाते हैं कि यह अवरुद्ध हो जाती है। ये अवस्थाएँ एक स्थान से दूसरे स्थान तक तेजी से फैलती हैं। माइटिस अवस्था रोगी के साथ सहभोजी जैसे संबंध बना कर रहती है। डिप्थीरिया बैसिलाई कुछ शर्कराओं जैसे ग्लूकोज, गलैक्टोज एवं डेक्सट्रिन का किण्वन करते हैं जिसके दौरान अम्ल बनता है, किन गैस नहीं बनती। ये लेक्टोज, मेन्नीटॉल एवं सूक्रोज का किण्वन करने में असमर्थ होते हैं किन्तु उग्र विभेदों द्वारा सूक्रोज का भी किण्वन किया जाता है।
आविष (Toxin)
कॉ. बैसिलस के उग्र विभेद अत्यन्त तीव्र आविष उत्पन्न करते हैं। आविष पदार्थ प्रोटीन प्रकृति के होते हैं जिनका अणु भार 62,000 के लगभग होता है। इन्हें एक्सोटॉक्सिन (exotoxins) कहते हैं। आविष जीवाणु के द्वारा उत्पन्न किये जाने पर आरम्भ में निष्क्रिय होता है जो ऊत्तकों या संवर्धन माध्यमों में उपस्थि प्रोटीएज द्वारा सक्रिय अवस्था में बदल जाता है। आविष बनने की क्रिया एक अन्य सहजीवी जीवाणु की उपस्थिति तथा माध्यम में Fet की सान्द्रता पर निर्भर करती है। ये आविष प्रोटीन संश्लेषण की क्रिया को एक तंत्रिकाओं को प्रभावित करते हैं।
प्रतिरोधकता (Resistance)
कॉ. बैसिलाई के संवर्धन को 2-3 सप्ताह तक 25-30°C पर रखा जाता है | ये 58°C पर 10 मिनट तक रखने पर नष्ट किये जा सकते हैं। प्रकाश, आर्द्रता तथा अल्प ताप का इन पर कम प्रभाव होता है।
रोगजनकता (Pathogenicity)
इस रोग के जीवाणुओं के देह में प्रवेश करने के 3-4 दिनों के भीतर ही रोग के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। कभी-कभी यह समय सिर्फ 1 दिन का ही होता है संक्रमण देह के लेरिंक्स, नाक, आंख, कान, गुदीय अथवा त्वक भागों में होता है। मुख व नाक के पास यह अधिक फैलता है। यह ग्रीवा या देह के अन्य भागों में घाव उत्पन्न कर परिसंचरण तन्त्र को प्रभावित करता है जिससे रोगी की मृत्यु हो जाती है। श्वसन नाल को अवरुद्ध कर श्वास लेने में कठिनाई उत्पन्न कराता है, हृदय या अन्य भागों को रक्त पहुँचने के रास्ते अवरोध उत्पन्न करता है । रोग के जीवाणु संक्रमण केन्द्रों पर वृद्धि कर आविष उत्पन्न करते हैं जो उत्तकों को नष्ट करते हैं। नष्ट हुई उपकला कोशिकाएँ रक्त कणिकाएँ झिल्लियों के रूप में उपस्थित होकर मार्ग अवरुद्ध कर देती है। श्लेष्म कला को नष्ट कर ये एक गाढ़ा तन्तुमय तरल बनाते हैं जो मृत कोशिकाओं, रक्त कणिकाओं व फाइब्रिन से बना होता है। यह लेरिंक्स के ऊपर मोटी धूसर झिल्ली के रूप में फैल जाता है और कूट कला (pseudo membrance) बनाता है। इसके हटाये जाने पर रक्त स्त्राव होता है। इसके बनने व दम घुटने के कारण रोगी की मृत्यु हो सकती है। रोग के दौरान हल्का, बुखार, खांसी, घुटन, निगलने में कठिनाई व गले में सूजन होती है। 3-4 सप्ताह बाद स्वयं यह झिल्ली हटने लगती है व रोगी स्वस्थ हो जाते हैं। आविष सामान्य क्रियाओं में होने में अवरोध उत्पन्न करते हैं । संक्रमण स्थानों से ऊत्तकीय द्रव स्त्रावित होता है जो हानिकारक पदार्थों युक्त होता है। बच्चों में यह रोग अधिक होता है। जिसे टीका लगाकर नियंत्रित किया जा चुका है।
निदान (Diagnosis)
सामान्यतः लक्षणों के आधार पर ही बिना समय नष्ट किसे चिकित्सा आरम्भ कर देनी चाहिये । प्रायोगिक लक्षणों में समय लगाने के कारण रोगी की स्थिति घातक हो सकती है। संक्रमण स्थल से प्राप्त लेप पदार्थ की स्लाइड बनाकर सूक्ष्मदर्शी से आकृति के आधार पर परीक्षण किया जाता है। अन्य विधियों के द्वारा भी संवर्धन माध्यम की सहायता से परीक्षण किये जाते हैं। संवर्धन हेतु टैलुराइट अथवा चाकलेट एगार माध्यम को उपयोग में लाते हैं।
टीकाकरण द्वारा रोग नियंत्रण (Control by vaccination)
विकसित देशों में बच्चों की यह जान लेवा बीमारी है जिससे 2- 10 साल के बच्चों में मृत्यु दर अधिकतर प्रभावित हुई है। स्कूलों आदि स्थलों पर जहाँ बच्चे साथ रहते हैं, गले व नाक द्वारा संक्रमण होता है। खिलौनों, पेन्सिल, खाने के पदार्थ, मिट्टी आदि संक्रमण वाहक कार्य करते हैं।
बच्चों में इस रोग का नियंत्रण टीके का अभियान चला कर किया जाता है। टीक लगाकर बच्चों की देह में प्रतिआविष (antitoxin) प्रवेश करा दिया जाता है। अतः रोग की जीवाणु के प्रति प्रतिरोधकता उत्पन्न हो जाती है। डी. पी. टी (DPT) के टीकें 1-3 माह के बच्चों को ही लगा दिये जाते हैं। वैसे यह रोग विश्वव्यापी है जिसका लगभग नियंत्रण किया जा चुका है।
उपचार (Therapy)
डिप्थीरिया रोग का उपचार प्रतिआविष को रोगी की देह में प्रवेश करा कर किया जाता है। प्रतिआविष घोड़े की देह में प्रतिरोधकता प्राप्त करने पर सीरम के रूप में प्राप्त किया जाता है। यह सीरम इंजेक्शन द्वारा सीधे रक्त में पहुँचाता जाता है ताकि रोग का उपचार शीघ्रता से होता है। पेनिसिलिन द्वारा भी रोगी का उपचार किया जाता है किन्तु सभी विभेदों में पेनिसिलीन को पूर्ण सफलता नहीं मिली है अतः अन्य औषधियों का भी उपयोग किया जाता है, जिनमें इरिथ्रोमाइसिन प्रमुख है।
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