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अगादिर संकट क्या था , what was agadir crisis 1911 in hindi

प्रश्न: अगादियर संकट क्या था ? इसका विश्व राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तरः वर्ष 1911 ई. में फेज के विद्रोह को दबाने के लिए तथा यूरोपियन लोगों के जन-जीवन की रक्षा करने के लिए फ्रांस ने वहाँ अपनी सेना भेज दी, तो इस पर जर्मनी ने इसका विरोध किया और अपना श्पेन्थरश् नामक युद्ध-पोत अगादियर के बन्दरगाह पर भेज दिया। इससे अन्तर्राष्ट्रीय युद्ध का खतरा बढ़ गया। इंग्लैण्ड की चेतावनी के कारण जर्मनी को झुकना पड़ा तथा फ्रांसीसी काँगो का बहुत-सा भाग जर्मनी को देना पड़ा। इस संकट में इंग्लैण्ड द्वारा फ्रांस को समर्थन देने से इंग्लैण्ड और जर्मनी के संबंधों में और अधिक कटुता उत्पन्न हुई।

प्राचीन काल में शिक्षा
वैदिक काल
प्राचीन भारत में शिक्षा शिक्षक से जुड़ी हुई थी जिन्हें गुरू कहा जाता था। शिष्य उनके आस-पास रहते और उनके घर में एक परिवार के सदस्य के तौर पर रहने के लिए आते थे। ऐसे स्थान को गुरुकुल कहा जाता था। गुरुकुल एक घरेलू विद्यालय के तौर पर कार्य करता था, एक आश्रम, जहां बच्चों को गुरू द्वारा शिक्षा में दीक्षित किया जाता था जो विद्यार्थियों पर व्यक्तिगत ध्यान एवं निर्देश देता था। प्रारंभिक रूप से शिक्षा उच्च जातियों का विशेषाधिकार था। अधिगम शिक्षक और शिष्य के बीच एक गहन रिश्ता था जिसे गुरू-शिष्य परम्परा कहा गया। सामान्य तौर पर, अधिगम प्रक्रिया एक धार्मिक आयोजन के साथ शुरू होता था जिसे ‘उपनयन’ (पवित्र धागा आयोजन) कहा जाता था। शिक्षा आमतौर पर मौखिक होती थी। इसमें वेदों एवं धर्मशास्त्रों जैसे पाठों का पूर्णतः या आंशिक स्मरण भी शामिल था। बाद में व्याकरण, तर्कशास्त्र एवं भौतिक मीमांसा जैसे विषयों का अध्ययन एवं अध्यापन होने लगा। मैत्रयणी उपनिषद् हमें सिखाता है कि ब्रह्म ज्ञान, अधिगम, चिंतन एवं तपस का परिणाम है। आत्म विश्लेषण के माध्यम से विभिन्न चरणों में कोई सत्व, आत्मशुद्धि एवं आत्म संतुष्टि को प्राप्त करता था। इस समयावधि के दौरान स्व-शिक्षण को सर्वोच्च ज्ञान की प्राप्ति की उचित प्रक्रिया माना जाता था। इसका सर्वोच्च उदाहरण तैत्तरिय उपनिषद् में ढूंढा जा सकता है, जहां भृगु, वरुण के पुत्र, अपने पिता से उसे ब्रह्म क्या
है, बताने का अनुरोध करता है। उसके पिता उसे ध्यान के माध्यम से इसे खोजने को कहते हैं।
वैदिक शिक्षा की मुख्य विशेषताएं
 निःशुल्क शिक्षा
 शिक्षा पर राज्य का कोई नियंत्रण नहीं
 शिक्षक का उच्च दर्जा
 व्यापक स्तर पर महिला शिक्षा
 आवासीय विद्यालय
 वैयक्तिक शिक्षण
 वन शिक्षा के मुख्य केंद्र
 संस्कृत भाषा अधिगम का मुख्य माध्यम
 आत्म नियंत्रण एवं आत्म अनुशासन
 शिक्षक अभिभावक के समान
मौर्य काल
मौर्य काल एवं मौर्योत्तर काल के दौरान, भारतीय समाज एक भारी बदलाव से गुजरा। शहरी केंद्रों और व्यापार के विकास के साथ, व्यापारी समुदाय ने महत्वपूर्ण स्थिति हासिल कर ली। परिणामस्वरूप, व्यापारी संगठन शिक्षा प्रदान करने में एक सक्रिय भूमिका निभाने लगे। वे तकनीकी शिक्षा के केंद्र बन गए और खनन, धातुकर्म, बढ़ईगीरी, बुनाई एवं कढ़ाई का ज्ञान देने लगे। इस काल में भवन एवं स्थापत्य में नई संरचनाएं सामने आईं। शहरी जीवन के उद्भव के साथ नवीन स्थापत्य रूपों का जन्म हुआ। इस व्यापारी संघ ने खगोल विज्ञान, नक्षत्र विज्ञान एवं महासागरीय खोज को भी संरक्षण प्रदान किया। खगोलशास्त्रियों एवं ब्रह्म ज्ञानियों ने ‘समय’ (कला) के ऊपर चर्चा प्रारंभ की। इसने अतीत की तुलना में ‘समय’ के प्रति समझ में तीव्र विकास में मदद की। आयुर्वेद के तौर पर चिकित्सीय ज्ञान की व्यवस्थित पद्धति का शुभारंभ हुआ। इस तत्व ने भारतीय चिकित्सा पद्धति के लिए आधार तैयार किया। औषधियों की चिकित्सकीय संपदा का ज्ञान एवं उनके प्रयोग एक नई ऊंचाई एवं उन्नत अवस्था में पहुंच गए। चरक औषधि के लिए प्रसिद्ध हुए और सुश्रुत शल्यक्रिया के लिए। चरक द्वारा लिखित ‘चरक संहिता’ औषधियों पर एक प्रामाणिक एवं गहन कार्य है।
आपने चाणक्य का नाम अवश्य सुना होगा, जो एक प्रसिद्ध दार्शनिक, शोधार्थी एवं शिक्षक थे। उनकी सुप्रसिद्ध कृति ‘अर्थशास्त्र’ है। अर्थशास्त्र में प्राथमिक तौर पर राजकुमारों की शिक्षा की बात कही गई है। उपनयन के पश्चात् राजकुमार चार वेदों का अध्ययन करते और वैदिक अध्ययन में विज्ञान का अध्ययन भी शामिल था। वे तर्कशास्त्र, अर्थशास्त्र एवं राजनीति में भी पारंगत होते थे। उस समय की शिक्षा मुख्य रूप से जीवन कौशल पर आधारित थी, जो आज की शिक्षा से काफी भिन्न थी। रामायण में राजकुमारों के लिए निर्धारित पाठ्यक्रम में धनुर्विद्या, नीतिशास्त्र, हाथी सवारी एवं रथ सवारी, आलेख एवं लेख (चित्रकला एवं लेखन) लांघना एवं तैरना शामिल थे।
गुप्तकाल
गुप्तकाल में, जैन एवं बौद्ध धर्म की शिक्षा पद्धति ने एक नया आयाम अख्तियार किया। बौद्ध विहारों में विद्यार्थियों को 10 वर्षों के लिए प्रवेश दिया गया। शिक्षा की मौखिक पद्धति शुरू हुई। बाद में वे साहित्यिक कृतियों को पढ़ने की तरफ मुड़े। बौद्ध विहारों के अपने पुस्तकालय थे। महत्वपूर्ण पाण्डुलिपियों को सुरक्षित रखा गया। चीन एवं दक्षिण-पूर्व एशिया जैसे देशों से विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करने के लिए बौद्ध विहारों में आए। सामान्य तौर पर बौद्ध विहारों का प्रबंधन राजाओं एवं धनी व्यापारी वग्र से प्राप्त अनुदान से किया जाता था। इन विहारों ने दूर एवं पास के क्षेत्रों से शोधार्थियों को आकर्षित किया। फाहियान ने भी बौद्ध धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन हेतु पाटलिपुत्र के बौद्ध विहार में सात वर्ष व्यतीत किए। पाटलिपुत्र के अतिरिक्त, वाराणसी, मथुरा, उज्जैन एवं नासिक जैसे अन्य शिक्षा के केंद्र भी मौजूद थे। नालंदा विश्वविद्यालय अपने उच्च स्तर के ज्ञान एवं शोध के लिए पूरे एशिया में जागा जाता था। वेदांत, दर्शन, पुराणों का अध्ययन, महाकाव्य, व्याकरण, तर्कशास्त्र, खगोलशास्त्र, औषधि इत्यादि नालंदा विश्वविद्यालय में पढ़ा, जागे वाले विषयों में शामिल थे। शुरुआती चरण में शिक्षा के उद्देश्य के निमित्त जैन धर्म ने ‘आदिपुराण’ एवं ‘यश्टिलका’ जैसे संस्कृत साहित्य का इस्तेमाल किया। लेकिन शिक्षा को अधिक लोकप्रिय बनाने के लिए इसका माध्यम बदलकर प्राकृत, तमिल, कन्नड एवं इसी प्रकार की अन्य प्रादेशिक भाषाओं में किया गया। जैन एवं बौद्ध पुस्तकालयों में पुस्तकें ताड़ के पत्ते पर लिखी गईं थीं और उन्हें एक-दूसरे से बांधकर रखा गया था जिसे ‘ग्रंथ’ कहा जाता था। धीरे-धीरे, जैन एवं बौद्धों, को राजसी संरक्षण मिलना बंद हो गया और उनके विहारों का शिक्षा एवं अधिगम के केंद्र के रूप में पतन होना शुरू हो गया। ब्राह्मणों द्वारा चला, जागे वाले ‘मठ’ जैन एवं बौद्ध विहारों के समानांतर संस्थान थे। ‘मठ’ शैक्षिक उद्देश्यों के लिए ‘आश्रम’ की भांति कार्य करते थे।