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सकारात्मक और नकारात्मक संदर्भ समूह क्या है affirmative and negative reference group in hindi
affirmative or positive and negative reference group in hindi सकारात्मक और नकारात्मक संदर्भ समूह
मर्टन के कथनानुसार संदर्भ समूहों के दो प्रकार हैं। पहला है सकारात्मक संदर्भ समूह, जिसे व्यक्ति पसंद करता है और अपने आचरण का निर्धारण करने तथा उपलब्धियों एवं काम-काज का मूल्यांकन करने के लिए उसे गंभीरता से अपनाता है। दूसरा है नकारात्मक संदर्भ समूह, जिसे व्यक्ति नापसंद तथा अस्वीकार करता है और उसके अनुरूप आचरण करने की बजाय उसके विपरीत प्रतिमानों को अपनाता है। मर्टन के अनुसार, ‘‘सकारात्मक प्रकार में समूह के प्रतिमानों अथवा मानकों का अभिप्रेरणात्मक आत्मसात किया जाता है और वह स्वयं के मूल्यांकन का आधार होता है, जबकि नकारात्मक प्रकार में अस्वीकृति का भाव निहित है, जिसमें प्रतिमानों की अस्वीकृति ही नहीं, बल्कि विपरीत प्रतिमानों की रचना भी शामिल है।‘‘
जब इस चर्चा के बीच में है तो क्यों न अभी ही सोचिए और करिए 1 को पूरा कर लें।
सोचिए और करिए 1
अपने मित्रों के बारे में यह जानने की चेष्टा कीजिए कि वे किस तरह के संदर्भ समूह (सकारात्मक या नकारात्मक) का चयन करते है। उस पर लगभग एक पृष्ठ का नोट लिखिए यदि संभव हो तो अपने उत्तर की अपने अध्ययन केंद्र के अन्य विद्यार्थियों के उत्तर से तुलना कीजिए।
इस विभाजन के उदाहरण ढूंढने कठिन नहीं है। कल्पना कीजिए कि देश विशेष के लोंगों का उपनिवेशवादी सत्ताधारियों के प्रति क्या रूख रहता है। कुछ ऐसे देशवासी होते हैं जो अपने उपनिवेशवादी शासकों की सफलता की कहानी पर मुग्ध हो जाते हैं और उनकी जीवन-शैली अपनाने, उनकी भाषा बोलने तथा उनकी खान-पान की आदतों को अपने जीवन में उतारने में गर्व महसूस करते हैं। दूसरे शब्दों में उनके लिए उपनिवेशवादी वर्ग सकारात्मक संदर्भ समूह है।
दूसरी ओर, ऐसे देशवासी भी होते हैं, जो उनकी शोषणकारी प्रवृत्ति, अहंकार, अत्याचार आदि के कारण उपनिवेशवादियों से नफरत करते हैं और उनके प्रतिमानों का अनुसरण करने की बजाय उपनिवेशवादियों से अपनी भिन्नता बनाए रखने के लिए विपरीत प्रतिमानों की रचना कर लेते हैं। उनके लिए उपनिवेशवादी नकारात्मक संदर्भ समूह है।
अगले चर्चा बिंदु पर जाने से पहले बोध प्रश्न 2 को अवश्य पूरा करें।
संदर्भ समूह के निर्धारक तत्व
उन कारकों को जान लेना आवश्यक है जिनके आधार पर संदर्भ समूह का चयन किया जाता है। यही कारण है कि मर्टन ने लोगों द्वारा उनके संदर्भ व्यक्ति के चयन, विभिन्न सदस्यता समूहोंमें से किन्हीं समूहों के चयन, और अंततः गैर-सदस्यता समूहों के चयन को वरीयता दिए जाने की असंख्य संभावनाओं का उल्लेख किया है। मर्टन ने उन निर्धारक तत्वों की चर्चा की है, जिनसे प्रेरित होकर एक ही व्यक्ति के लिए आर्थिक, राजनीतिक तथा धार्मिक जीवन जैसे अलग-अलग उद्देश्यों के लिए अलग-अलग संदर्भ समूहों का चयन करना संभव हो जाता है। इन सभी तत्वों के बारे में जानकारी मिल जाने से संदर्भ समूह के आचरण की गतिकी को समझने में निश्चय ही काफी मदद मिलेगी।
संदर्भ समूहों के संरचनात्मक तत्व
संदर्भ समूहों के संरचनात्मक तत्वों की जानकारी के बगैर इस विषय का ज्ञान अधूरा है। संदर्भ समूहों के बारे में इस जानकारी के बिना आपको मर्टन के इस क्षेत्र में योगदान का आभास नहीं होगा। उदाहरण के लिए, रॉबर्ट मर्टन का प्रश्न यह है कि समूह विशेष की संरचना क्या अपने सदस्यों और अधिकारियों को मूल्यों, प्रतिमानों एवं भूमिका-निर्वाहन के संबंध में पूर्ण अथवा आंशिक जानकारी प्राप्त करने की अनुमति देती है। मर्टन का यह कहना है कि अपने समूह से अनुरूपता न रखने में गैर-सदस्यता समूहों को संदर्भ समूह के रूप में काम करने की संभावना दिखाई देती है। इसके अतिरिक्त मर्टन यह भी स्पष्ट करता है कि व्यक्ति विशेष भूमिका-पटल और प्रस्थिति-पटल के संरचनात्मक परिणामों से उत्पन्न संघर्ष की मात्रा को किस तरह कम करता है।
प्रेक्षणीयता और दृश्यमानताः प्रतिमानों, मूल्यों और भूमिका निर्वाहन
यह एकदम स्पष्ट है कि अपनी स्थिति की तुलना दूसरों से करते समय व्यक्ति को उनकी स्थिति की जानकारी के अनुकृत माध्यम यह एकदम स्पष्ट है कि अपनी स्थिति की तुलना दूसरों से करते समय व्यक्ति को उनकी स्थिति की जानकारी होना आवश्यक है जिनसे उसने अपनी तुलना की है। मर्टन का कहना है कि संदर्भ समूह आचरण के सिद्धांत में संप्रेषण के उन माध्यमों का भी अध्ययन शामिल होना चाहिए जिनसे यह जानकारी प्राप्त होती है।
इस विषय पर आगे बढ़ने से पहले एक मूर्त स्थिति पर विचार कर लेना उपयोगी होगा। कल्पना कीजिए कि छात्र के रूप में व्यक्ति एक ऐसी संस्था से जुड़ा है जिसके अपने प्रतिमान एवं मूल्य हैं। स्वाभाविक है कि वह उस संस्था के प्रतिमानों और मूल्यों के अनुरूप अपने आचार-विचार बनाना चाहेगा। ऐसे में इस प्रश्न से वह नहीं बच सकता कि क्या उसके भूमिका निर्वाहन की तुलना उस संस्था के अन्य लोगों से की जा सकती है।
अब प्रश्न यह है कि व्यक्ति को यह कैसे मालूम होता है कि समूह के अन्य सदस्य किस तरह का आचरण कर रहे हैं। वह यह कैसे जान पाता है कि दूसरों ने कौन से मूल्य तथा प्रतिमान अपनाए हैं? इन प्रतिमानों तथा वास्तविक भूमिका निर्वाहन की पूरी जानकारी प्राप्त करना कठिन है। इसका कारण यह है कि व्यक्ति के मित्र यानी संस्था के कर्मचारी हमेशा उसको यह बताने को तैयार नहीं होंगे कि वे वास्तव में क्या कर रहे हैं और संस्था के मूल्यों तथा प्रतिमानों को कितनी गंभीरता से लेते हैं। इसलिए यह सब समूह की संरचना पर निर्भर करता है। अतः हो सकता है कि लोकतांत्रिक तथा समतावादी समूह में, जिसमें सदस्य स्वतंत्र तथा स्पष्टवादी हैं, निर्बाध संप्रेषण संभव हो और समूह की वास्तविक स्थितियों को जानना अधिक आसान हो। किंतु क्या हमेशा ऐसा होता है?
इसी प्रसंग में मर्टन एक महत्वपूर्ण बात सामने लाता है कि क्या सभी लोग एक जैसी जानकारी प्राप्त नहीं कर सकते? सामान्यतया सत्ताधारी लोगों को समूह के आम सदस्यों की अपेक्षा कहीं अधिक जानकारी रहती है। इसीलिए मर्टन का कहना है कि सत्ता के ढांचे को कारगार ढंग से चलाने के लिए यह आवश्यक है कि मूल्य और भूमिका निर्वाहन दोनों स्पष्ट हों। संस्था के मुखिया तथा अन्य अधिकारियों को उन प्रक्रियाओं से जुड़े होने के कारण वास्तविक भूमिका निर्वाहन के बारे में बेहतर जानकारी होती है।
किंतु मर्टन की मान्यता है कि प्रेक्षणीयता और दृश्यमानता की इस मात्रा की भी सीमा होती है क्योंकि ‘‘गोपनीयता की आवश्यकता‘‘ बनी रहती है और यदि अधिकारीगण भूमिका निर्वाहन के संबंध में जानकारी रखने के मामले में सीमा से बाहर जाते हैं तो उसका विरोध होने की संभावना रहती है। इसलिए “दृश्यमानता की पर्याप्त व्यावहारिक मात्रा‘‘ की आवश्यकता है। अर्थात् दूसरों के भूमिका निर्वाहन की सूचना उतनी ही हो, जितनी काम चलाने के लिए पर्याप्त है।
इस प्रकार यह समझा जा सकता है कि किसी समूह के मूल्यों एवं प्रतिमानों तथा उसके सदस्यों के भूमिका निर्वाहन के संबंध में पूर्ण जानकारी प्राप्त करना कितना कठिन है। प्रेक्षणीयता और दृश्यमानता संभव न होने के कारण व्यक्ति के मन में सदस्यता समूह के मूल्यों एवं प्रतिमानों के प्रति शंका एवं अनिश्चितता उत्पन्न हो सकती है। संभवतः यह भी विश्वास होने लगता है कि आदर्श एवं यथार्थ में अंतर है। किंतु जब व्यक्ति गैर-सदस्यता समूह की ओर ध्यान देता है तो अपने सदस्यता समूह के प्रति रहने वाली शंका अथवा भ्रम का अस्तित्व नहीं रह जाता। इसे यों भी समझा जा सकता है कि दूर के ढोल सुहावने होते हैं। सामान्यतया बाहरी लोगों के मन में गैर-सदस्यता समूहों की अवास्तविक छवि बैठ जाती है।
आइए एक सीधा-सा उदाहरण लें। गैर-सदस्य के रूप में अनेक भारतीयों का विश्वास है कि अमरीकी लोगों ने अपनी सभी समस्याएं हल कर ली हैं। वहां अभाव अथवा भ्रष्टाचार नहीं है और सभी सुखी हैं। किंतु यह पूरी तरह सच नहीं है। अमरीकियों को निकट से देखने पर पता चलता है कि उनकी भी अपनी अनेक समस्याएं हैं। वहां अपराध तथा तलाक की दर निरंतर बढ़ रही है और यह समस्या जटिल होती जा रही है।
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