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रसिक प्रिया किसकी रचना है ? rasik priya ke lekhak kaun hai ?

अध्याय- मेवाड़ का उत्कर्ष

रसिक प्रिया’ – यह कृति कुम्भा द्वारा रचित है तथा जगदेय रचित ‘गीत गोविन्द’ की टीका है।

पृष्ठभूमि  = 1300 ई० में दिल्ली के सुल्तान ने चित्तौड़ पर अधिकार स्थापित कर लिया था। उसने इस पर नियंत्रण बनाये रखने के लिए अपने पुत्र खिजखों को यहाँ का शासनाधिकारी बनाया। राजपूत स्वप्रिय जाति है, अतः खिजखों पर निरतंर दबाव बनाये रखा गया. वह अपने आपको संकट में फँसा हुआ पाकर मुक्त होने के प्रयास करने लगा। परिणामस्वरूप उसे दिल्ली बुलवा लिया गया तथा चौहान सरदार मालदेव को चित्तौड़ सौंप दिया गया। मालदेव के पश्चात् बनवीर को चित्तौड़ का अधिकारी बनाया गया। हम्मीर ने बनवीर को हटाकर स्वयं शासन सत्ता संभाली इस प्रकार सुल्तान के अधिकार से चित्तौड़ स्वतंत्र हुआ।

सिसोदिया राजवंश

प्रारंभिक काल  = सिसोद घराने के राजपूत सरदार हम्मीर द्वारा 1326 ई० में चित्तौड़ में सिसोदिया राजवंश की नींव डाली गयी। हम्मीर प्रतिभाशाली शासक था। उसकी मृत्यु के पश्चात् क्षेत्रसिंह और तत्पश्चात् लाखासिंह मेवाड़ राज्य के शासक बने वृद्धावर में किसी बात पर महाराणा लाखासिंह को मारवाड़ की राजकुमारी हंसाबाई से विवाह करना पड़ा और महाराणा लाखा के बड़े पुत्र चूण्डा को प्रतिज्ञा करनी पड़ी कि हंसाबाई के पुत्र होने पर वह मेरा के सिंहासन से अपना अधिकार त्याग देगा। हंसाबाई ने पुत्र को जन्म दिया, उसका नाम मोकल रखा गया महाराणा लाखा की मृत्यु के पश्चात् • 12 वर्षीय अल्पवयस्क मोकल मेवाड़ के महाराणा बने मोकल की अल्पायु को ध्यान में रखकर मेवाड़ के यारों ओर स्थित राज्य अपने अपने राज्य का विस्तार करने हेतु तथा मेवाड़ से पूर्वकाल में प्राप्त पराजयों का प्रतिशोध लेने हेतु तत्पर हो गये।

मालवा के सुल्तान ने मेवाड़ राज्य के दक्षिण-पूर्व में स्थित गागरोन का दुर्ग छीन लिया। नागौर हे मुस्लिम शासक ने उत्तर-पश्चिमी भाग पर अधिकार कर लिया। गुजरात के सुल्तान ने मेवाड़ राज्य डूंगरपुर केलवाड़ा एवं देलवाड़ा क्षेत्रों पर अधिकार जमा लिया।

मेवाड़ पर मुस्लिम आक्रमण के अलावा अन्य आक्रमण भी हुए बूंदी के हाड़ाओं ने माण्डलगढ़ पर अपना अधिकार कर लिया सिरोही के शासक ने गोड़वाड़ क्षेत्र में भारी अव्यवस्था उत्पन्न कर दी। परिणामस्वरूप, युवा एवं उत्साही मोकल अपनी मेवाड़ी सेना सहित गुजरात के सुल्तान को दण्डित रने के लिए आगे बढ़ा। मार्ग में जब वह जीलवाड़ा नामक स्थान पर सेना सहित पड़ाव डाले हुए था, ब उसके दो चाचाओं याचा एवं मेरा ने मिलकर उसकी हत्या कर दी। इस समय कुंभा भी इस पड़ाव था, जिसे शुभ चिंतक राजपूत सरदारों ने सुरक्षित चित्तौड़ पहुँचा कर, मेवाड़ का महाराणा घोषित कर

इस प्रकार महाराणा मोकल एवं उसकी परमारवंशीया रानी सौभाग्य देवी का यह तेजस्वी पुत्र मामेवाड़ का महाराणा बना

महाराणा कुम्भा (1433-1468 ई०)

तहास के स्रोत – महाराणा कुम्मा के शासन काल के विषय में जानकारी के विविध स्रोत लब्ध होते हैं। लगभग 60 शिलालेख प्रकाश में आ चुके

एकलिंग महात्म्य  – यह ग्रंथ एकलिंग मंदिर से प्राप्त हुआ है। इसमें कुम्मा के शासन काल महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध होती है।

रसिक प्रिया’ – यह कृति कुम्भा द्वारा रचित है तथा जगदेय रचित ‘गीत गोविन्द’ की टीका है।

“कुंभलगढ़ प्रशारित  – यह कुंभलगढ़ दुर्ग में नामदेव मंदिर से शिलाओं पर उत्कीर्णित प्राप्त है। इससे महाराणाओं की उपलब्धियों पर अच्छा प्रकाश पड़ता है।

कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति  – 1400 ई0 में महेश द्वारा रचित यह प्रशारित कई शिलाओं पर खुदी हुई ह इसमें कुम्भा के व्यक्तिगत गुणों पर अच्छा प्रकाश पड़ता है।

इसके अतिरिक्त कुम्मा के काल की कुछ घटनाओं का उल्लेख फारसी तवारीखों में उपलब्ध होता है।

प्रारंभिक कठिनाइयाँ  – सिंहासनारोहण के समय महाराणा कुंभा के समक्ष अनेक समस्यायें थी, जि से कुछ आन्तरिक और कुछ बाह्य थी। आन्तरिक समस्याओं में सबसे बड़ी-चाचा और मेरा की समा थी. जिन्होंने उसके पिता मोकल का वध कर दिया था तथा वे महाराणा बनना चाह रहे थे। इसी क्रम में मेवाड़ी सामन्त भी दो गुटों में बंट गये थे एक गुट चाचा, मेरा तथा उनके सहयोगी महपा पंवार का समर्थक था. दूसरा कुंभा का समर्थक गुट

दूसरी समस्या इस अव्यवस्था का लाभ उठाकर अनेक राजपूत सामन्त अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करना चाह रहे थे।

तीसरी समस्या: मालवा, गुजरात एवं नागौर के लम शासक जो मोकल के समय से ही मेवाड़ राज्य क्षेत्र में अपना अना साम्राज्य विस्तार करना चाह रहे थे, वे अब मेवाड़ पर आक्रमणकी फिराक में थे। इतना ही नहीं सिरोही एवं आबू के राजपूत सरदारों ने सुल्तान का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया था कुंभा ने इन समस्याओं के निराकरण हेतु निम्नानुसार कदम उठाये ।

महाराणा कुम्भा समर्थक सामन्तों की उपपत्नी की संतान थे

चाचा, मेरा का दमन– महाराणा ने सर्वप्रथम चाचा एवं मेरा तथा उसके का दमन किया, जो उसके पिता के हत्यारे थे चाचा एवं मेरा, क्षेत्रसिंह की गत तीन पीढ़ियों से शक्ति बढ़ाते हुए मेवाड़ की सत्ता हस्तगत करना चाहते थे। उन्होंने अनेक स को भी अपने पक्ष में कर लिया था।

ये मेवाड़ के दक्षिणी क्षेत्र में भीलों की सेना को संगठित करके मेवाड़ से युद्ध करने की तैयारी रहे थे तथा कोटरा पहाड़ी में छिपे हुए थे। महाराणा में पता लगाकर इनका दमन करने हेतु रण राघवदेव के नेतृत्व में एक सेना भेजी, जिसके साथ संघर्ष में चाचा, मेरा तथा उनके समर्थक भारे

“इस प्रकार विद्रोही सामन्तों की शक्ति का दमन कर कुंभा ने स्वयं की स्थिति को मजबूत भीलों को अपनी ओर मिला कर भावी योजनाओं को क्रियान्वित किया।

सामन्तों पर नियंत्रण  -कुंभा के पितामह लाखासिंह ने वृद्धावस्था में मारवाड़ की राजकुमारी की बहिन हंसाबाई से विवाह किया था। रणमल ने इस विवाह की अनुमति सर्शत दी थी कि इससे पुत्र ही मेवाड़ का उत्तराधिकारी होगा। लाखा के ज्येष्ठ पुत्र चूण्डा ने पितृ भक्ति का उदाहरण प्रस्तु हुए स्वयं का राज्याधिकार त्याग दिया था। जब लाखा की मृत्यु हो गयी तो हंसाबाई का पुत्र अल्पवयस्कावस्था में महाराणा बना। इसको चूण्डा ने पूर्ण निष्ठा के साथ साम्राज्य संचालन ‘सहयोग दिया, लेकिन शासन में चूण्डा के प्रभाव को देखकर हंसाबाई अनायास ही सशंकित अपने पुत्र मोकल की सहायता करने के लिए मारवाड़ से अपने भाई रणगल को मेवाड़ बुला लिया। रणमल ने अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के उद्देश्य से अन्य अनेक मारवाड़ी सामन्तों को उच्च पदों पर नियुक्त करणा दिया। इससे मेवाड़ के सामन्तों में यह भावना घर करने लग गयी कि मेवाड़ पर अप्रत्यक्ष रूप से मारवाड का शासन स्थापित होता जा रहा है। चूण्डा, रणमल की नीतियों से परेशान होकर माण्डू चला गया। चूण्डा के भाई राघवदेव का रणमल ने षड़यंत्रपूर्वक का करवा दिया। सरदारों में रणमल के विरूद्ध असंतोष बढ़ता जा रहा था।

ऐसी स्थिति में माण्डू से चूण्डा भी मेवाड़ आ गया और सरदारों ने षड़यंत्र रच कर रणमल की हत्या करवा दी। इस कृत्य में कुंभा की कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं थी, लेकिन मारवाड़ के राठौड़ों का जो प्रभाव बढ़ता जा रहा था वह समाप्त हो गया।

पांच वर्ष की अवधि में ही चाचा, मेरा तथा रणमल के कारण पैदा हो जाने वाली समस्याओं को हल – कर महाराणा ने अपनी घरेलू समस्याओं का अंत कर दिया।

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