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counter current mechanism in hindi , प्रतिधारा गुणक तंत्र क्या है समझाइये , परिभाषा किसे कहते हैं

जाने counter current mechanism in hindi , प्रतिधारा गुणक तंत्र क्या है समझाइये , परिभाषा किसे कहते हैं ?

प्रतिधारा गुणक तंत्र (Counter-current multiplier system)

“अनेक वैज्ञानिकों जैसे शमिड्ट नीलसन (Schmidt neilson 1958), उल्लरिच एवं उनके सहयोगियों (Uirich et.al. 1961 ) एवं रीगेल (Riegel, 1972) के अनुसार स्तनियों के वृक्कों द्वारा बनाया गया उच्च सान्द्र मूत्र वृक्क नलिका में उपस्थित हेनले लूप ( Henle’s loop) का अभिलक्षण होता है। अधिक सान्द्र (highly concentrated) मूत्र निर्माण की इस क्रिया को प्रतिधारा, गुणक सिद्धान्त या तंत्र (counter current theory of system) कहा जाता है।

आधुनिक प्रयोगों के आधार पर वृक्क नलिका के विभिन्न भागों में उपस्थित नेफ्रिक फिल्ट्रेट के नमूनों में उपस्थित विभिन्न पदार्थों की मात्रा का तुलनात्मक अध्ययन किया जा सकता है। इन अध्ययनों में मालूम चला है कि रूधिर प्लाज्मा की तुलना में ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेट समपरासरणीय (isotonic) होता है। हेनले लूप को शीर्ष पर यह अति परासरणीय (hypertonic) एवं दूरस्थ कुण्डलित नलिका पर अल्प परासरणीय (hypotonic) होता है । अन्त में संग्रह नलिका में ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेट अतिपरासरणीय वृक्कीय निस्पंद (renal filtrate) के रूप में होता है।

चित्र 5.20 : प्रति गुणक तन्त्र द्वारा मूत्र का सान्द्रण

मूत्र निर्माण की क्रियाविधि कोष्ठों (boxes) में उपस्थित संख्या मूत्र नलिका में शेष रहे ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेट के प्रतिशत को दर्शाता है । नलिका एवं अन्तरालीय द्रव में उपस्थित पदार्थों की सान्द्रता को m.osm/lit. में निरूपित किया गया है।

पूर्व में वर्णित मूत्र-निर्माण की क्रिया विधि के अनुसार वृक्कीय निस्पंद का लगभग 90 से 99 प्रतिशत मूत्र नलिका द्वारा अवशोषित होकर रूधिर को वापिस भेज दिया जाता है। वृक्कीय निस्पंद में उपस्थित अधिकांश उपयोगी पदार्थों के पश्चात् समीपस्थ कुण्डलित नलिका में उपस्थित शेष वृक्कीय निस्पंद रूधिर प्लाज्मा की तुलना में समपरासरणीय (isotonic) होता है।

इस प्रकार प्राप्त समपरासरणीय वृक्कीय निस्पंद हेनले लूप की अवरोही भुजा (descending limb) में प्रवेश करता है। अवरोही भुजा जल के लिये पारगम्य (permeable) तथा अनेक लवणों के लिये अपारगम्य (impermeable) होती है। जैसे-जैसे वृक्कीय निस्पंद अवरोही भुजा में नीचे की ओर बढ़ता है वैसे ही इसमें उपथित जल का अवशोषण होता जाता है। इस प्रकार इसमें लवणों (Nat) की सान्द्रता बढ़ जाती है। अवरोही भुजा के शीर्ष पर यह सर्वाधिक 1200 मि.ली. ओसमोल / लीटर होता है।

पानी का यह अवशोषण निष्क्रिय अभिगमन (passive limb) जल हेतु अपारगम्य एवं लवणों हेतु पारगम्य होती है। इस कारण वृक्कीय फिल्ट्रेट में उपस्थित Nat (CI के साथ) विसरण द्वारा वृक्कीय नलिका से बाहर उपस्थित अन्तरालीय द्रव्य में आ जते हैं। Na+ का अवशोषण सक्रिय अभिगमन तथा CI का निष्क्रिय अभिगमन द्वारा होता है । इस प्रकार वृक्कीय निस्पंद एवं अन्तरालीय द्रव्य के मध्य 200 मिली ओसमोल्स/लीटर की प्रवणता (gradient) स्थापित हो जाती है। इस प्रकार वृक्क में कार्टेक्स से मेड्ला की ओर एक सान्द्रता प्रवणता (concentration gradient) कार्य करता है। इससे आरोही भुजा में दूरस्थ कुण्डलित नलिका तक वृक्कीय निस्पंद अल्प परासरणीय (hypotonic) हो जाता है। इस प्रकार अवरोही भुजा में जल का अवशोषण आरोही भुजा में Na’ के अवशोषण अवरोही भुजा में पानी के अवशोषण को प्रेरित करता है। ये दोनों क्रियाएँ एक दूसरे से युग्मित (coupled) होती है तथा एक दूसरे को प्रचलित (operate) करती है।

चित्र 5.21 : प्रतिधारा गुणक सिद्धान्त 1. समीपस्थ कुण्डलित नलिका 2. अवरोही भुजा 3. आरोही भुजा 4. दूरस्थ कुण्डलिल नलिका एवं 5. संग्रह नलिका

इस प्रकार प्राप्त अल्प परासरणीय फिल्ट्रेट संग्रह नलिका में प्रवेश करता है। मूत्र नलिका के इस भाग से पानी का अवशोषण होता है। यह क्रिया पीयूष ग्रन्थि द्वारा स्त्रावित एन्टीडाइयूरेटिक हारमोन द्वारा पूर्ण होती है। जल के इस प्रकार के अवशोषण को विकल्पी अवशोषण (facultative absorption) कहा जाता है। दूरस्थ नलिका में जल का अवशोषण प्रारम्भ होता है जिससे वृक्कीय फिल्ट्रेट की सान्द्रता बढ़कर 300 मिली ओंसमोल्स/लीटर हो जाती है। संग्रह नलिका से पानी के अवशोषण के पश्चात् इसमें वृक्कीय निस्पंद की सान्द्रता बढ़कर 1200 मि.ली. ओसमोल्स/लीटर हो इस प्रकार प्राप्त, स्तनियों का मूत्र काफी अधिक सान्द्र माना जाता है। यह द्रव वृक्क स मूत्र जाती है। यह सांद्रता मेड्यूला भाग में उपस्थित अन्तरालीय द्रव को सान्द्रता के बराबर हो जाती है। द्वारा मूत्राशय में एकत्रित कर लिया जाता है।

से मूत्र नलिका पानी की कमी अर्थात् शुष्क स्थानों में रहने वाले जन्तुओं में हैनले के लूपका आकार काफी अधिक बड़ा होता है जिससे ये जन्तु अधिक सान्द्र मूत्र का निर्माण करते हैं। यह इनके स्थलीय एवं शुष्क वातावरण में जीवित रहने में अति आवश्यक होता है। मछलियों में एम्फीबिया के जन्तुओं में हेनले का लूप अनुपस्थित रहता है अतः इनका मूत्र अल्प परासरणीय होता है। मनुष्य में हैनले का लूप अधिक बड़ा नहीं होता है, इस कारण मूत्र बहुत अधिक सान्द्र नहीं बन पाता है।