तारा मछली में प्रजनन कैसे होता है , reproduction in starfish in hindi मादा जनन अंग , परिवर्धन

इससे जान पाएंगे तारा मछली में प्रजनन कैसे होता है , reproduction in starfish in hindi मादा जनन अंग , परिवर्धन ?

प्रजनन (Reproduction)

ऐस्टेरिआस की अधिकांश जातियाँ एकलिंगी होती है। कुछ जातियाँ जैसे- ऐस्टेरिआस रूबेन्स (Asterias rubens) उभयलिंगी होती है। एस्टीरिआस में कोई स्पष्ट लैंगिक द्विरूपता नहीं पायी जाती है। ऐस्टेरिआस में जनन ग्रन्थियों के अलावा सहायक जनन अंगों का अभाव होता है।

नर जनन अंग (Male reproductive organs) – नर ऐस्टेरिआस की प्रत्येक भुजा के आधार में जठर निर्गमी अंधनालों एवं नाल पदों के बीच एक जोड़ी वृषण पाये जाते हैं। इस तरह नर ऐस्टेरिआस में कुल पांच जोड़ी वृषण पाये जाते हैं। वृषण भूरे रंग के अंगूर के गुच्छों की तरह के होते हैं। जनन काल में ये अति विकसित होते हैं तथा सम्पूर्ण परि आन्तरंग गुहा में फैले रहते हैं। प्रत्येक वृषण का समीपस्थ सिरा एक बहुत छोटी जनन वाहिका में खुलता है। यह जनन वाहिनी एक छोटे जनन छिद्र द्वारा बाहर खुलती है। जनन छिद्र दो सहवर्ती भुजाओं के बीच के कोण में स्थित होता है।

मादा जनन अंग (Female reproductive organs)

नर ऐस्टेरिआस की तरह मादा में भी प्रत्येक भुजा के आधार पर उसी स्थिति में एक जोड़ी अण्डाशय पाये जाते हैं। एक मादा ऐस्टेरिआस में पाँच जोड़ी अण्डाशय पाये जाते हैं। ये अण्डाशय गुलाबी रंग के होते हैं तथा जनन काल में अतिविकसित होकर पूरी परिआन्तरांग गुहा में फैल जाते हैं। वृषण की तरह ये भी अत्यधिक शाखित या अंगूर के गुच्छों की तरह होते हैं। वृषण की तरह ये भी एक जनन वाहिनी द्वारा दो सहवर्ती भुजाओं के बीच के कोण पर जनन छिद्र द्वारा बाहर खुलते हैं।

प्रत्येक जनन ग्रंथि चाहे वृषण हो या अण्डाशय सीलोमिक प्रकृति के एक थैलेनुमा संरचना में बंद होती है। इस थैले की भित्ति पेशियों तथा संयोजी ऊत्तक की बनी होती है तथा बाहर से सीलोमिक उपकला द्वारा ढ़की रहती है। जनन ग्रन्थि के भीतर जनन उपकला का अस्तर पाया जाता है जिससे जनन कोशिकाओं का निर्माण होता है। परिपक्व अण्डाणु तथा शुक्राणु क्रमशः मादा एवं नर द्वारा सीधे जल में मुक्त कर दिये जाते हैं।

निषेचन (Fertilization)

ऐस्टेरिआस में निषेचन बाह्य होता है। जनन काल में नर व मादा अपने-अपने युग्मकों को समुद्री जल में छोड़ देते हैं जहाँ ये एक दूसरे से संगलित होकर निषेचित होते हैं। ऐस्टेरिआस में जनन काल वर्ष में केवल एक बार आता है। निषेचन के फलस्वरूप जाइगोट या युग्मनज का निर्माण हो जाता है। शीघ्र ही युग्मनज के चारों तरफ एक पतली निषेचन कला (fertilization membrane) का निर्माण हो जाता है।

ऐस्टेरिआस में परिवर्धन अप्रत्यक्ष ( indirect ) होता है अर्थात् अण्डों में पीतक की मात्रा कम होने के कारण लारवा अवस्था पायी जाती है। परिवर्धन के फलस्वरूप भ्रूण पहले डाइप्लूरूला लारवा या प्रारम्भिक बाइपिनेरिया लारवा ( diplurula larva or early bipinnaria larva) में विकसित होता है उसके बाद यह बाइपिनेरिया लारवा (bipinnaria larva) में रूपान्तरित हो जाता है। अन्त में यह लारवा वयस्क एस्टीरिआस में कायान्तरित हो जाता है।

परिवर्धन (Development)

ऐस्टेरिआस में परिवर्धन अप्रत्यक्ष ( indirect ) अर्थात् परिवर्धन की अवस्था में लारवा अवस्था पायी जाती है। विदलन पूर्णभंजी, लगभग समान, अरीय एवं अनिर्धारी प्रकार की होती है। अर्थात् प्रारम्भिक अवस्था में कोरक खण्डों का भविष्य निर्धारित नहीं होता है। अतः यदि प्रारम्भिक अवस्था में कोरक खण्ड पृथक-पृथक हो जाते हैं तो प्रत्येक भाग से एक लारवा विकसित हो जाता है। विदलन के परिणामस्वरूप दूसरे दिन ब्लास्टुला का निर्माण हो जाता है। ब्लास्टुला गोलाकार खोखला एक स्तरीय एवं पक्ष्माभित होता है जो इधर-उधर स्वतंत्रतापूर्वक तैरता रहता है। खोखला या गुहीय होने के कारण इसे सीलो ब्लास्टुला (coeloblastula) भी कहते हैं। इसकी गुहा ब्लास्टोसील या कोरक गुहा (blastocoel) कहते हैं। इसकी गुहा में कोरक गुहीय द्रव भरा रहता पश्चात् अन्तर्वलन (invegination) की क्रिया द्वारा कोरक द्विस्तरीय हो जाता है जिसे गेस्टुला कहते हैं। गेस्टुला द्विस्तरीय होता है जिसका बाहरी स्तर एक्टोडर्म व भीतरी स्तर एण्डोडर्म कहलाता है। गेस्टुला में अर्न्तवलन द्वारा बनी गुहा आद्यान्त्र गुहा (archenteron) कहलाती है। यह एक चौड़े छिद्र द्वारा बाहर खुलती है जिसे कोरक रन्ध्र (blastopore) कहते हैं ।

गेस्टूलाभवन की क्रिया के अन्तर्गत आद्यान्त्र के अग्र सिरे की ओर से एण्डोडर्म की कोशिकायें मुकुलन द्वारा नयी कोशिकाओं का निर्माण करती है। ये मुकुलन द्वारा बनी कोशिकायें मीजोडर्म या मध्यजन स्तर का विकास करती है। विकसित हो रही आद्यान्त्र के पार्श्व से दो पॉकेट समान संरचनायें बनती हैं जो धीरे-धीरे बड़ी होकर दाहिने व बायें गुहीय कोष्ठों (coelomic pouches) के रूप में आद्यान्त्र से पृथक हो जाती है। इस तरह विकसित प्रगुहा एन्टेरोसीलिक सीलोम (enterocoelic coelome) कहलाती है। बाद में इन्हीं कोष्ठों से प्रगुहा मध्य चर्मीय आस्तर एवं जाल संवहनी तंत्र का विकास होता है। इस अवस्था में भ्रूण मुक्त – प्लावी लारवा बन जाता है।

एस्टेरिआस में परिवर्धन के दौरान तीन लारवल अवस्थाएँ पायी जाती हैंका डिप्लूरुला (Diplurula), (ii) बाझपिन्नेरिया (bipinnaria), (iii) बेकिओलेरिया (brachiolaria)।

  • डिप्लूरुला लारवा (Diplurulalarva) या प्रारम्भिक बाइपिन्नेरिया (early bipinnaria): यह लारवा अवस्था सभी इकाइनोडर्म जन्तुओं की प्रथम लारवा अवस्था होती है। इसे प्रारम्भिक बाइपिन्नेरिया लारवा भी कहलाता है। यह माना जाता है कि समस्त इकाइनोडर्म जन्तुओं की उत्पत्ति डिप्लूरुला के समान पूर्वज से हुई है। प्रारम्भिक बाइपिन्नेरिया लारवा एक अण्डे के आकार का द्विपार्श्व सममित होता है। लारवा की अग्र मध्य अधर सतह अन्तर्वलित होकर मुख पथ (stomodacum) का निर्माण करती है। मुख पथ भीतर से एक्डोडर्म द्वारा आस्तरित रहता है। मुख पथ आद्यान्त्र के साथ मिलकर मुख का निर्माण करता है। पश्च सिरे की ओर कोरक रन्ध्र लारवा की गुदा में बदल जाता है। आद्यान्त्र से आहारनाल विकसित हो जाती है। आहारनाल में मुख्य रूप से आमाशय व आन्त्र भाग पाये जाते हैं। गेस्टुला पर उपस्थित पक्ष्माभ डिप्लूरुला लारवा में दो पक्ष्माभी पट्टिकाओं से प्रतिस्थापित हो जाते हैं। इन पक्ष्माभी पट्टिकाओं में से एक मुख के चारों ओर परिमुख पट्टिका (perioral band) तथा दूसरी मुख के अन्दर अभिमुख पट्टिका (adoral band) कहलाती है। लारवा सक्रिय रूप से डायटमों को खाता है। अभिमुख या मुख पथ के पक्ष्माभों द्वारा उत्पन्न जल धारा से भोजन के कणों का संकलन दिया जाता है। लारवा अपनी परिमुख पट्टिका की सहायता से दक्षिणावृत्त चक्रण (clockwise rotation) करता हुआ तैरता है।

बाइपिन्नेरिया लारवा (Bipinnaria larva) : कुछ समय तक स्वतंत्र जीवनयापन करने के उपरान्त डिप्लूरुला लारवा बाइपिन्नेरिया लारवा में रूपान्तरित हो जाता है। इस दौरान इसमें निम्न परिवर्तन होते हैं-डिप्लूरुला लारवा के सामने के तल पर एक बड़ी मुखपूर्व पालि (pre oral lobe) विकसित हो जाती है जो चारों ओर से पक्ष्माभों द्वारा घिर कर मुख पूर्व पाश (pre oral loop) का निर्माण करता है। इसी प्रकार प्रत्येक पार्श्व में पार्श्व पालियाँ (lateral lobes) का निर्माण करता है। इसी प्रकार प्रत्येक पार्श्व में पार्श्व पालियाँ (lateral lobes) का विकास होता है जो पक्ष्माभों के पश्च मुख पाश (post oral loop) से आवृत्त हो जाती है। इस प्रकार डिप्लूरुला लारवा बाइपिन्नेरिया लारवा में रूपान्तरित हो जाता है, जो द्विपार्श्व सममित होता है। यह स्वतंत्रतापूर्वक तैरते हुए अशन करता है व कुछ सप्ताह बाद अगली लारवा अवस्था ब्रैकिओलेरिया लारवा (brachiolaria larva) में बदल जाता है।

3.बैकिओलेरिया लारवा (Brachiolaria larva): बाइपिन्नेरिया लारवा की पालियाँ लम्बी, ही पक्ष्माभित एवं संकुचनशील संरचनाओं में विकसित हो जाती है, जिन्हें लारवीय भुजायें ( larval arms) कहते हैं। मुख पूर्व पालि से तीन छोटे एवं पक्ष्माभ विहीन उपांग निकलते हैं. जिनमें पत्येक एक चूषक (sucker) या आसंजक बिम्ब (adhesive disc) में समाप्त होता है। इस उपांगों की ब्रैकिआलेरियाई भुजाएँ (brachiolar arms) या आसंजक प्रवर्ध कहते हैं। इस लारवा को बैकिओलेरिया लारवा (brachiolaria larva) कहते हैं। यह भी स्वतंत्र जीवी व द्विपार्श्व सममित होता है। यह लारवा सक्रिय रूप से तैरते हुए पोषण करता है व धीरे-धीरे कायान्तरित होकर एक छोटी ऐस्टेरिआस में परिवर्तित हो जाता है।

कायान्तरण : लगभग छः से सात सप्ताह में ब्रैकिओलरिया लारवा अपने आसंजक प्रवर्षों की सहायता से किसी ठोस आधार पर चिपक जाता है। लारवा के अग्र सिरे पर मुख पालि से आसंजन के लिए एक वृन्त विकसित होता है। कुछ समय पश्चात् यह वृन्त धीरे-धीरे हासित होकर विलुप्त हो जाता है एवं लारवा के पिछले गोल सिरे से वयस्क का विकास हो जाता है।

लारवा मुख, गुदा, पक्ष्माभित पट्टियाँ भी विलुप्त हो जाती हैं। नये मुख एवं गुदा का निर्माण क्रमशः बायीं तथा दाहिनी ओर हो जाता है। मुख-अपमुख अक्ष के चारों ओर पांच भुजाओं के आद्यावशेष दिखाई देने लगते हैं। इन भुजाओं के अद्यावशेषों पर कंकाली संरचनायें बनने लगती है और अन्दर अरीय नाल विकसित हो जाती है। लारवा के दाहिनी तथा बांयी प्रगुहीय कोषों से वयस्क जन्तु की सामान्य देहगुहा का विकास हो जाता है। इसके बाद प्रत्येक भुजा में नाल पादों का विकास होत है जो चिपकाने का कार्य करते हैं। इसके बाद जटिल पुर्नसंगठनात्मक परिवर्तनों के परिणामस्वरूप वयस्क ऐस्टेरिआस का निर्माण हो जाता है।

पुनरुद्भवन एवं स्वागोंच्छेदन (Regeneration and Anatotomy)

ऐस्टेरिआस में पुनरुद्भवन की अद्भुद क्षमता पायी जाती है। यदि किसी कारणवश ऐस्टेरिआस की भुजा कहीं उलझ जाये या फंस जाये या घायल हो जाये या अनावश्यक रूप से उत्तेजित किया जाये तो यह अपनी ऐसी भुजा को तत्काल स्वागोंच्छेदन की क्रिया द्वारा स्वयं उस भुजा को त्याग देता है या छोड़ देता है। इस प्रकार पृथक हुई भुजा का पुनरुद्भव की क्रिया द्वारा पुर्ननिर्माण कर लिया जाता  है। स्वागोंच्छेदन को यह अपनी सुरक्षा के साधन के रूप में प्रयोग में लाता है। शत्रु द्वारा पकड़े जाने पर यह एक या एक से अधिक भुजाओं को भी त्याग कर अपनी रक्षा कर लेती है।

टूटे हुए भागों का पुनरुद्भवन धीरे-धीरे होता है। यदि किसी जन्तु में सभी भुजायें नष्ट हो जाये बल केन्द्रीय बिम्ब बच जाये तो भी पुनरुद्भवन द्वारा पुनः भुजाओं का निर्माण हो जाता है परन्तु इस प्रकार बनने वाली भुजायें सामान्य से छोटी होती हैं।