kathak dance meaning in hindi कथक : लोकप्रिय नृत्य रूप कथक का क्या अर्थ है , कत्थक के कितने घराने है ?
कथक
उत्तर प्रदेश की धरती पर जन्में इस नृत्य की उत्पत्ति ब्रजभूमि की रासलीला से हुई है। 14वीं 15वीं सदी तक सभी भारतीय नृत्य, धर्म और मंदिरों से जुड़े हुए थे। कथक भी इसका अपवाद न था। इसका नाम ‘कथिका’ यानी कहानी कहने वाले, से निकला है, जो महाकाव्यों के प्रसंगों का वर्णन संगीत और मुद्राओं से किया करते थे। धीरे-धीरे यह नृत्य का रूप लेता गया। फिर भी इसके केंद्र में राधा-कृष्ण ही रहे। मुगल काल में इसका रूप दरबारी होता गया।
कथक की चर्चा घरानों के बिना अधूरी है। लखनऊ, जयपुर और रायगढ़ में से सबसे अधिक प्रसिद्ध लखनऊ घराना हुआ। कला-विलासी नवाब वाजिद अली शाह के शासन काल में यह लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचा। नवाब साहब स्वयं ठाकुर प्रसाद से नृत्य सीखा करते थे। ठाकुर प्रसाद उत्तम नर्तक थे, जिन्होंने कथक नृत्य का प्रवर्तन किया। ठाकुर प्रसाद के तीन पुत्रों-बिन्दादिन महाराज, कालका प्रसाद, भैंरों प्रसाद ने अपने पिता व पितामह की परम्परा को बना, रखा। कालका प्रसाद के तीनों पुत्रों अच्छन महाराज, लच्छू महाराज व शम्भू महाराज ने भी कथक की पारिवारिक शैली को बना, रखा। आज अच्छन महाराज के पुत्र बिरजू महाराज ने कथक को नई ऊंचाइयों तक ले जागे में कोई कसर नहीं छोड़ी है। लखनऊ घराने की विशेषता उसके नृत्य में भाव, अभिनय व रस की प्रधानता है। दूसरी तरफ जयपुर घराने के नृत्य में जिसके प्रवर्तक भानुजी थे गति को अधिक महत्व दिया जाता है। रायगढ़ घराने का विकास राजा चक्रधर सिंह के संरक्षण में हुआ, जिन्होंने ‘रागरत्न मंजूषा’ और ‘नर्तन सर्वस्व’ जैसी पुस्तकें लिखीं।
कथक के जयपुर घराने की स्थापना मास्टर गिरधर ने की थी, उनके पुत्र हरिप्रसाद व हनुमान प्रसाद ने कत्थक नृत्य को ऊंचाइयों तक पहुंचाया। जयलाल, नारायण प्रसाद, सुंदर प्रसाद, मोहन लाल, चिरंजीलाल आदि ने इस घराने के (कत्थक जयपुर घराना) के प्रमुख कलाकार हुए हैं।
कथक की खास बात उसके पद संचालन एवं घूमने (घिरनी खाना) में है। इसमें घुटनों को नहीं मोड़ा जाता है। इसमें भारतीय और पारसी दोनों पोशाकें पहनी जाती हैं। इसके विषय ध्रुपद से तराना तक, ठुमरी और गजल की विविधता रखते हैं। एकल नृत्य ‘गणेश वंदना’ या ‘सलामी’ (मुगल शैली) से प्रारंभ होता है। फिर ‘आमद’ में नर्तक/नर्तकी मंच पर आते है। इसके बाद ‘थाट’ में धीमा नृत्य होता है। फिर ‘तोड़ा’, ‘टुकड़ा’ पर लययुक्त नृत्य किया जाता है। ‘गात निकास’ से प्रसंग का संक्षिप्त विवरण दिया जाता है। कथक में सबसे खूबसूरत बात यह होती है कि एक ही बोल को अलग-अलग भाव भंगिमाओं और हस्त संचालन से दिखाया जाता है। ‘पधांत’ में नर्तक बोल के साथ नृत्य करता है। अंत में ‘क्रमाल्य या तटकार’ है, जिसमें तीव्र गति से पद संचालन किया जाता है। एकल प्रदर्शनों के अतिरिक्त नृत्यनाटिकाओं का भी कथक शैली में मंचन किया जाता है। कुमुदिनी लखिया, बिरजू महाराज, अदिति मंगलदास इस शैली में प्रशंसनीय कार्य कर रहे हैं।
कथक के कुछ जागे-पहचाने नाम इस प्रकार हैं बिरजू महाराज, दुग्रलाल एवं देवी लाल, उमा शर्मा, शाश्वती सेन, गोपी कृष्ण, अलका नूपुर, रानी कर्णा, दमयंती जोशी, कुमुदिनी लखिया इत्यादि।
कथक के कुछ प्रसिद्ध व्यक्तित्वों का वर्णन इस प्रकार है
कार्तिक राम एवं कल्याण दास का जन्म वर्ष 1910 में बिलासपुर में एक गांव महनवरमल में हुआ था। शुरुआती दौर में उनको पंडित शिवनारायण ने प्रशिक्षित किया लेकिन बाद में श्री जयपाल, लच्छू महाराज एवं शंभु महाराज ने उन्हें प्रशिक्षण दिया। कार्तिक राम एवं कल्याण दास लोक नृत्यों में पारंगत थे, जिसने उनके कथक नृत्य को भी अधिक सृजनात्मक बनाया।
कथक नृत्य के हाल के बेहद प्रसिद्ध नर्तक बिरजू महाराज हैं। वे अच्छन महाराज के एकमात्र पुत्र और शिष्य थे। वह लखनऊ घराना जैसे प्रसिद्ध परिवार से ताल्लुक रखते हैं। वह अपनी कोरियोग्राफी के लिए जागे जाते हैं। उनकी परम्परागत थीम्स में बेबाक एवं बुद्धिमत्तापूर्ण संकलन काबिले तारीफ होती है। बिरजू महाराज ने शतरंज के खिलाड़ी जैसी फिल्मों में संगीत दियाए और गदर एवं देवदास (संजय लीला भंसाली की फिल्म) में नृत्य कोरियोग्राफ किया।
सितारा देवी की कथक प्रस्तुतियों में बनारस एवं लखनऊ परम्पराओं का मिश्रण है।
दमयंती जोशी कथक को इसके दरबारी शान के क्षेत्र से निकालकर सभी जगह इसकी उपस्थिति, सम्मान एवं गरिमा स्थापित करने में अगुआ थी। परम्परागत दरबारी नर्तक अंगरखा के साथ चूड़ीदार पायजामा और टोपी पहनते थे। दमयंती में ऐसी वेशभूषा यदा-कदा ही पहनी लेकिन उन्होंने अधिकांशतः साड़ी एवं घाघरा ही पहना और बाद में साड़ी उनकी मुख्य वेशभूषा बन गई। दमयंती ने लखनऊ घराने के तीनों भाइयों-अच्छन महाराज, लच्छू महाराज एवं शंभू महाराज से कथक सीखा। उन्होंने जयपुर घराने के गुरु गौरी शंकर से भी शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने कथन की अपनी शैली उत्पन्न की। दमयंती अपने लाभकारी एवं भाव दोनों के लिए प्रसिद्ध थी। वह सरलता के साथ पंच जाति ताल पर नृत्य कर सकती थीं। वह अपने सुर सुंदरी एवं अष्ट नृत्य के संयोजन के लिए प्रसिद्ध थी।
उमा शर्मा को कथक में जयपुर घराने के गुरु हीरालाल जी एवं शिखर दयाल द्वारा लाया गयाए और बाद में पंडित सुंदर प्रसाद, शंभु महाराज एवं बिरजू महाराज की शिष्या रहीं। उन्होंने भारत एवं विदेशों में व्यापक रूप से प्रस्तुति दी, और कथक में भाव की परम्परा को बना, रखा।
मोहिनीअट्टम
केरल के इस नृत्य की उत्पत्ति के सम्बंध में अधिक ज्ञात नहीं है। आमतौर पर यह माना जाता है कि 19वीं सदी के प्रारंभ में त्रावनकोर के महाराजा स्वाति तिरुनल के शासनकाल में इसका जन्म हुआ। इसके अधिकांश गीतों को स्वाति तिरुनल ने ही संगीत दिया है। मोहिनीअट्टम में भरतनाट्यम और कथकली दोनों के अंश पाए जाते हैं, जिसमें पहले का लालित्य और दूसरे का वीरत्व भाव होता है। कन्याएं ही इसका एकल प्रदर्शन करती हैं। भस्मासुर वध के लिए विष्णु द्वारा मोहिनीरूप धरने की कथा इसका प्रधान विषय है।
लगभग लुप्त हो चुके इस नृत्य को नारायण मेनन ने पुगर्जीवित किया। वह कल्याणी अम्मा को कलामंडलम में इस नृत्य की शिक्षा देने के लिए लाए। बाद में वैजयंतीमाला, शांता राव, रोशन वजीफ़दार, भारती शिवाजी, कनक रेले और हेमामालिनी जैसी नृत्यांगनाओं ने इसे अधिक लोकप्रिय बनाया।
मोहिनी अट्टम की एक अग्रणी पवर्तक, सुनंदा नायर इस शैली की उत्कृष्ट नर्तकी हैं। सुनंदा ने इसमें पेशेवर नर्तकी एवं नृत्य शिक्षिका दोनों के तौर पर काम किया। वह श्रुतिलया इंस्टीट्यूट आॅफ फाइन आर्ट्स, मुम्बई की संस्थापक निदेशक हैं जहां उन्होंने इसकी गहन शिक्षण प्रदान किया।
जयप्रदा मेनन मोहिनीअट्टम की एक संपूर्ण नर्तकी हैं। उन्होंने अपने नृत्य में परम्परागत अनुशासन के साथ मौलिकता का समन्वय किया है।
पल्लवी कृष्णन इस नृत्य के प्रोत्साहन एवं इसे जीवित रखने के लिए जागी जाती हैं। उनकी कौशलपूर्ण कोरियोग्राफी ने कई युवाओं को इस नृत्य शैली को अपनाने को प्रेरित किया है। 1955 में, पल्लवी कृष्णन ने त्रिशूर, केरल में लास्य एकेडमी आॅफ मोहिनीट्टम की स्थापना की।
गोपिका वर्मा इन्होंने मात्र 10 वर्ष की आयु में मोहिनीअट्टम नृत्य शैली सीखनी प्रारंभ कर दी थी। विजयलक्ष्मी इनका जन्म परम्परागत कलाओं एवं नृत्य का अनुसरण करने वाले परिवार में हुआ।
विजयलक्ष्मी को विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय नृत्य महोत्सवों में भाग लेने का अवसर मिला और उन्होंने 20 वर्षों में इस नृत्य को पूरे विश्व में फैलाया। उन्होंने गुरु भारती शिवाजी के साथ मिलकर मोहिनीअट्टम पुस्तक लिखी।
मणिपुरी
भारत की अन्य नृत्य शैलियों से भिन्न मणिपुरी नृत्य में भक्ति पर अधिक बल रहता है। इसकी उत्पत्ति भी पौराणिक मानी जाती है। वैष्णववाद के आगमन के बाद इसे अधिक विकसित किया गया।
इस नृत्य की आत्मा ढोल-पुंग है। इसमें कई ‘कोलम’ या नृत्य हैं पुंग कोलम, करताल कोलम, ढोल कोलम इत्यादि। रासलीला इसका अभिन्न अंग है। मणिपुरी नृत्य में ताण्डव और लास्य दोनों का समावेश रहता है। बंगाली, मैथिली, ब्रजभाषा और संस्कृत में इसके गीत जयदेव, चंडीदास एवं अन्यों ने लिखे हैं।
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ तक मणिपुरी नृत्य अपनी प्रादेशिक सीमा पार नहीं कर पाया था। वर्ष 1920 में कविवर गुरु रवींद्र नाथ टैगोर ने इस लावण्यमय नृत्य से प्रभावित होकर एक दक्ष नर्तक को शिक्षक के रूप में अपने साथ शांतिनिकेतन ले आए। तभी से समस्त भारत में इसका प्रचार हुआ। झावेरी बहनों का इस पर आधिपत्य जैसा है नयना, सुवर्णा, रंजना और दर्शना। इनके अतिरिक्त चारू माथुर, साधोनी बोस, बिपिन सिंह ने भी इस नृत्य में महारत हासिल की है।
मणिपुरी नृत्य की वेशभूषा बड़ी ही आकर्षक होती है। इसमें मुद्राओं का सीमित प्रयोग है और इसके नर्तक घुंघरू नहीं बांधते हैं।
मणिपुरी नृत्य से बेहद घनिष्ठ रूप से झावेरी बहनों नयना, सुवर्णा, एवं दर्शना का नाम जुड़ा है जिन्होंने इस नृत्य शैली को लोकप्रिय बनाने में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इसके अतिरिक्त, चारू माथुर एवं साधोन बोस ने भी इस नृत्य शैली को ऊंचाई तक पहुंचाया।
कुछ अन्य मशहूर मणिपुरी नर्तक इस प्रकार हैं
गुरु विपिन सिंह को मणिपुरी नृत्य का अगुआ माना जाता है। उन्हें नवोन्मेषी नृत्य संरचना एवं कोरियोग्राफी के लिए अच्छी तरह जागा जाता है। उन्होंने परम्परागत मणिपुरी नृत्य शैली में एकल (सोलो) नृत्य प्रस्तुत किया। झावेरी बहनें एवं कलावती देवी उनके जागे-माने शिष्यों में हैं। उन्होंने मुम्बई, कोलकाता एवं जयपुर में मणिपुरी नृतनालय की स्थापना की।
गुरु नीलेश्वर मुखर्जी मणिपुरी नृत्य में एक महत्वपूर्ण नाम है। उन्होंने इस नृत्य शैली को पूरे विश्व में लोकप्रिय बनाया।
राजकुमार सिंघजीत सिंहएवं उनके नृत्य समूह ने व्यापक रूप से कई देशों का भ्रमण किया। उन्होंने नई दिल्ली में एक नृत्य विद्यालय ‘मणिपुरी नृत्याश्रम’ की स्थापना की। उन्हें वर्ष 1986 में पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया।
एक संपूर्ण नृत्यांगना पोउशली चटर्जी ने कृष्णा लीला, कालमृग्मा एवं महर्षि भाग्यचंद्र जैसे कई नृत्य-नाटिकाएं वर्ष 1996 में प्रस्तुत कीं। उन्होंने स्वयं का नृत्य प्रशिक्षण संस्थान ‘नंदैनिक मणिपुरी डांस एकेडमी’ खोली।
सोहिनी राॅय अपनी सोलो प्रस्तुतियों के लिए जागी जाती हैं। उन्होंने स्वयं की एक अलग मणिपुरी नृत्य शैली ईजाद की जिसमें बैले एवं जापानी नृत्य शैलियों जैसे नृत्य पहलू शामिल हैं।