रैयतवाड़ी व्यवस्था क्या थी | रैयतवाड़ी व्यवस्था की मुख्य विशेषताएं के गुण और दोष | ryotwari system in india in hindi

ryotwari system in india in hindi रैयतवाड़ी व्यवस्था क्या थी | रैयतवाड़ी व्यवस्था की मुख्य विशेषताएं के गुण और दोष ?

रैय्यतवाड़ी व्यवस्था (Ryotwari System)
सामान्यतया रैय्यतवाड़ी व्यवस्था एक वैकल्पिक व्यवस्था थी जो स्थायी बंदोबस्त के साथ कंपनी के मोहभंग होने के कारण एक विकल्प के रूप में सामने आई। इस व्यवस्था के लिए उत्तरदायी एक महत्वपूर्ण कारण विचारधारा एवं दृष्टिकोण का प्रभाव था। अन्य शब्दों में ऐसा माना जाता है कि उन्नीसवीं सदी के शुरूआती दशकों में भारत में किये जाने वाले भू-राजस्व सुधार की प्रक्रिया शास्त्रीय अर्थशास्त्र (Classical Econimies) तथा..रिकार्डो के लगान सिद्धांत (Recardo’s Theory of Rent) से प्रभावित थी।
रिकाडों का यह मानना था कि कृषि उत्पादन से कृषि उपकरण के मूल्य एवं किसानों के श्रम के मूल्य के अंश को अलग करने संे जो रकम बचती है, वह विशुद्ध अधिशेष (Net Surplus) होता है। लगान की दृष्टि से उसके एक भाग पर सरकार अपना दावा कर सकती है। उसी प्रकार जमींदार एक निर्भर वर्ग है जो स्वयं तो उत्पादन में हिस्सा नहीं लेता लेकिन केवल भूमि पर स्वामित्व के आधार पर वह भूमि के अधिशेष पर अपना दावा करता है। अतः यदि उस पर कर लगाया जाता है तो भूमि का उत्पादन दुष्प्रभावित नहीं होगा। मुनरो और एलफिंस्टन जैसे ब्रिटिश अधिकारियों पर स्कॉटिश प्रबोधन (ैबवजजपेी म्दसपहीजमदउमदज) का भी असर माना जाता है। स्कॉटिश प्रबोधन के तहत जमींदारों की आलोचना की गयी थी तथा स्वतन्त्र किसानों में आस्था प्रकट की गयी थी। इसके अतिरिक्त, रैय्यतवाड़ी व्यवस्था पर पितृसत्तावादी दृष्टिकोण (Patriarchal Approach) का भी प्रभाव माना जाता है। मुनरो का यह मानना था कि दक्षिण भारत में भूमि पर राज्य का ही स्वामित्व रहा था तथा राज्य प्रत्यक्ष रूप से भू-राजस्व की वसूली करता रहा था। राज्य का नियंत्रण कमजोर पड़ने के बाद पोलीगार जैसे बिचैलिये, जो स्थानीय जमींदार थे, ने भू-राजस्व के संग्रह की शक्ति अपने हाथों में ले ली।
रैय्यतवाड़ी व्यवस्था को प्रेरित करने में भौतिक अभिप्रेरणा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उसहरण के लिए, अब कंपनी को ऐसा महसूस होने लगा था कि स्थायी बंदोबस्त उसके लिए घाटे का सौदा सावित हो रहा है तथा इससे कंपनी भविष्य के लाभ से वंचित हो गयी है। एक अन्य कारण यह भी था कि मद्रास प्रेसीडेंसी में निरंतर युद्ध और संघर्ष के कारण कंपनी पर वित्तीय दबाव बहुत ज्यादा था। इसलिए भी कंपनी ने मध्यस्थ और बिचैलियों के अंश को समाप्त करने का प्रयास किया। तीसरे, बंगाल में तो जमींदार वर्ग था, लेकिन पश्चिम व दक्षिण भारत में भू-राजस्व प्रबंधन के लिए कोई स्पष्ट वर्ग नहीं था।
कर्नल रीड ने मद्रास प्रेसीडेन्सी में सर्वप्रथम 1792 ई. में तमिलनाडु के बारामहल क्षेत्र में रैय्यतवाड़ी व्यवस्था लागू करने का प्रयास किया, किंतु कर्नल रीड का इससे विश्वास टूटने पर टामस मुनरो का विश्वास इस पर और भी गहरा गया। मुनरो ने 1809 ई. में कुछ क्षेत्रों में इसका प्रयोग किया। फिर आगे मद्रास के गवर्नर की हैसियत से उसने 1818 ई. एवं इसके पश्चात् मद्रास में इसे लागू किया। उसी प्रकार मुनरो के शिष्य एलफिंस्टन ने इसे बॉम्बे प्रेसीडेन्सी में लागू किया। सम्पूर्ण ब्रिटिश भारत के 51 प्रतिशत क्षेत्र में यह व्यवस्था लागू थी।
रैय्यतों के पंजीकरण की व्यवस्था भी रैय्यतवाड़ी पद्धति का ही एक अंग था, जिसके अंतर्गत पंजीकृत रैय्यतों (किसानों) को भूमि स्वामी माना गया तथा बिना किसी मध्यस्थ और बिचैलिये के प्रत्यक्षतः इनके साथ भू-राजस्व का प्रबंधन किया गया। स्थायी बंदोबस्त की तरह इस व्यवस्था के. अंतर्गत भी भूमि बेची जा सकती थी। रैय्यतवाड़ी क्षेत्र में सामुदायिक सम्पत्ति को राज्य के नियंत्रण में कर गया। इसके बाद इस क्षेत्र में भू-राजस्व की व्यवस्था स्थायी रूप में नहीं वरन् अस्थायी रूप में की गई। समय-समय पर इसका परीक्षण भी किया जाता था। अधिकारियों के द्वारा कृषि भूमि का सर्वेक्षण कराया गया तथा सम्बन्धित भूमि की उत्पादक क्षमता को राजस्व का आधार बनाया गया। यह सामान्यतः कुल उत्पादन का 2/5 भाग होता था। किसानों को यह छूट दी गयी थी कि वे जिस की भूमि को जोतना चाहें. उसी प्रकार की भूमि को ग्रहण करें। लेकिन भूमि के आधार पर ही उन्हें राजस्व अदा करना होगा। . 1820 ई. के बाद इस व्यवस्था में परिवर्तन आने लगा। किसानों का यह विकल्प समाप्त कर दिया गया तथा उन पर जबरदस्ती जीतने के लिए दबाव डाला गया। दूसरा बदलाव यह आया कि भूमि के वास्तविक सर्वेक्षण के बदले अनुमान के आधार पर भू-राजस्व निर्धारण किया जाने लगा। समग्र रूप से कहा जा सकता है कि इस काल में किसानों का व्यापक शोषण हुआ। इस बात का खुलासा यातना आयोग के द्वारा किया गया। परन्तु 1855 ई. के पश्चात् स्थिति में कुछ सुधार देखा गया जब भू-राजस्व की राशि पहले तुलना में कम की गई।
कालांतर में इस पद्धति को एलफिंस्टन के द्वारा बॉम्बे में लागू किया गया। बॉम्बे प्रेसीडेन्सी में आरम्भिक सर्वेक्षण प्रिंगले के अतंर्गत लाया गया। प्रिंगले के प्रबंधन पर रिकार्डो के लगान सिद्धान्त का प्रभाव परिलक्षित होता था। इसलिए भू-राजस्व की राशि अधिकतम में निर्धारित की गयी। परन्तु इसके परिणामस्वरूप किसानों को अत्यधिक परेशानी होने लगी क्योंकि उन्हें पहले की अपेक्षा कहीं तक राशि चुकानी होती थी। इसके बाद विंगेर और गोल्डस्मिथ के द्वारा नये सर्वेक्षण कराये गये। इन नए सर्वेक्षणों के अंतर्गत भू-राजस्व निर्धारण में किसी विशेष सिद्धांत को आधार न बनाकर वास्तविक सर्वेक्षण को आधार बनाया गया। इस प्रकार 1836 ई. के पश्चात् प्रेसीडेंसी की स्थिति में आशिक रूप से थोड़ा-बहुत सुधार देखने में आया।
रैय्यतवाड़ी पद्धति को लागू करने के पीछे निम्नलिखित दो उद्देश्य थे-
(1) राज्य की आय में वृद्धि
(2) रैय्यतों को सुरक्षा।
पहला उद्देश्य तो पूरा हुआ, लेकिन दूसरा उद्देश्य पूरा नहीं हो का क्योंकि शीघ्र ही किसानों ने ऐसा अनुभव किया कि कई जनींदारों के बंदले अब राज्य सरकार ही बड़े जमींदार की भूमिका नीभा रहा थी। भू-राजस्व की राशि रैय्यतवाड़ी क्षेत्र में अधिकतम रूप रखी गयो तथा उसका समय-समय पर पुनर्निरीक्षण किया गया।
वस्तुतः स्थिति यह थी कि किसान इतनी बड़ी राशि चुकाने में ‘असमर्थ थे। नतीजा यह हुआ कि वे भू-राजस्व की रकम तथा अन्य आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु महाजनों से कर्ज लेने लगे और मृण जाल में फँसते चले गये। चूँकि भू-राजस्व अत्यधिक होने के कारण भूमि की ओर लोगों का आकर्षण कम हो गया। अतः आरंभ ़ महाजनों ने भूमि अधिग्रहण के संबंध में रुचि कम दिखाई। परन्तु 1836 ई. के पश्चात् बॉम्बे तथा 1855 ई. के बाद मद्रास प्रेसीडेन्सी में गैर-कृषक वर्ग का आकर्षण भूमि के प्रति बढ़ गया। अब धीरे-धीरे भूमि का हस्तांतरण किसानों से महाजनों की ओर होने नगा। दूसरी ओर. रैय्यतवाड़ी क्षेत्र में कुछ समृद्ध किसानों ने भूमि को खरीदकर अपनी जोत को अत्यधिक बढ़ा लिया और वे फिर भूमिहीन कृषकों को बटाई पर भूमि देने लगे। इस स्थिति को कृत्रिम जमींदार वर्ग के उदय के रूप में देखा जाता है।

भारत में अंग्रेजों की भू-राजस्व व्यवस्था (British Land Revenue System in India)

स्थायी भू-राजस्व व्यवस्था (इस्तमरारी बंदोबस्त) (Permanent Land Revenue System)
कंपनी के अंतर्गत बंगाल में भू-राजस्व व्यवस्था के निर्धारण का प्रश्न खड़ा हुआ, जब ब्रिटिश कंपनी को बंगाल की दीवानी प्राप्त हुई। आरम्भ में लॉर्ड क्लाइव ने भारतीय अधिकारियों के माध्यम से ही भू-राजस्व की वसूली जारी रखी तथा भू-राजस्व व्यवस्था में परम्परागत ढाँचे को ही बरकरार रखा। भू-राजस्व की अधिकतम वसूली पर कंपनी शुरू से ही बल देती थी। इसके पीछे उसका उद्देश्य भू-राजस्व संग्रह से प्राप्त एक बड़ी रकम का व्यापारिक वस्तुओं की खरीद में निवेश करना था। इसके अतिरिक्त सैनिक एवं अन्य प्रकार के खर्च को भी पूरा करना कंपनी का उद्देश्य था। अतः बंगाल की दीवानी प्राप्त करने के शीघ्र बाद ही कंपनी ने बंगाल में भू-राजस्व की रकम बढा दी। फिर भी कंपनी भारतीय अधिकारियों के माध्यम से ही भू-राजस्व की वसूली करती रही। भू-राजस्व की वसूली की देख-रेख ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा ही की जाती थी। किन्तु. इस व्यवस्था का दुष्परिणाम यह रहा कि इस प्रकार की दोहरी व्यवस्था ने एक प्रकार के भ्रष्टाचार को जन्म दिया तथा किसानों का भरपूर शोषण आरम्भ हुआ। सन् 1769-70 ई. के भयंकर अकाल को अंग्रेजों की इसी राजस्व नीति के परिणाम के रूप में देखा जाता है।
1772 ई. तक क्लाइव की व्यवस्था चलती रही। इसके बाद वारेन हेस्टिंग्स के समय बंगाल का प्रशासन प्रत्यक्ष रूप में कंपनी के अंतर्गत आ गया। वारेन हेस्टिंग्स ने भू-राजस्व सुधार के लिए अनेक कदम उठाये। उसने पूर्वकाल में घटित सभी प्रकार के भ्रष्टाचार के लिए बंगाल के दीवान रिजा खान को उत्तरदायी ठहराकर उसे अपदस्थ कर दिया। वारेन हेस्टिंग्स ने भारतीय अधिकारियों को हटाकर भू-राजस्व की वसूली को ब्रिटिश अधिकारियों के माध्यम से आगे बढ़ाया। कारण यह रहा कि इसी समय कंपनी को भी एक बड़ी रकम की आवश्यकता थी। इसकी पूर्ति के लिए वारेन हेस्टिंग्स ने 1772 ई. में एक नयी पद्धति की शुरूआत की, जिसे फार्मिंग पद्धति (थ्ंतउपदह ैलेजमउ) कहा जाता है। इस पद्धति के तहत भू-राजस्व की वसूली ठेके पर नीलामी द्वारा की जाने लगी। आरम्भ में यह योजना 5 वर्षों के लिए लायी गयी थी तथा इसमें जमींदारों को अलग रखा गया था, क्योंकि वारेन हेस्टिंग्स ऐसा मानता था कि इसमें जमींदारों को सम्मिलित किये जाने का अर्थ होगा- सरकार का भू-राजस्व की एक बड़ी रकम से वंचित हो जाना। चूँकि जमींदारों का ग्रामीण क्षेत्रों में वर्चस्व था और वे भू-राजस्व के विशेषज्ञ थे, अतः उनके सहयोग के बिना यह योजना सफल नहीं हो सकी। यही कारण रहा कि 1776 ई. में वारेन हेस्टिंग्स ने पंचवर्षीय योजना को रद्द कर एक वर्ष की योजना लागू की तथा इसमें जमींदारों को प्राथमिकता दी गयी। इस प्रकार, वारेन हेस्टिंग्स प्रयोग की प्रक्रिया से ही गुजरता रहा। दूसरी ओर. फार्मिंग पद्धति (Farming System) से किसानों पर भू-राजस्व का अधिभार अत्यधिक बढ़ गया था। अतः कृषि अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई।
इसी-समय ब्रिटेन अपना अमेरिकी उपनिवेश खो चुका था। अतः वह भारतीय उपनिवेश के आधार को मजबूत करने का प्रयास कर रहा था। इन्हीं परिस्थितियों में बंगाल के गर्वनर जनरल के रूप में कार्नवालिस का आगमन हुआ लॉर्ड कार्नवालिस ने यह अनुभव किया कि कृषि अर्थव्यवस्था में गिरावट के कारण कंपनी की रकम में उतार-चढ़ाव आ रहा था। बंगाल से निर्यात की जाने वाली दो प्रमुख वस्तुएँ थीं सूती वस्त्र व रेशम। इन वस्तुओं के कृषि उत्पाद से ही सम्बन्धित होने के कारण और दूसरे कृषि अर्थव्यवस्था में गिरावट के कारण कंपनी का निर्यात प्रभावित होना स्वाभाविक ही था।
1793 ई. में कार्नवालिस ने भू-राजस्व प्रबंधन के लिए स्थायी बंदोबस्त को लागू किया। इसके द्वारा लागू किए गए भू-राजस्व सुधार के दो महत्वपूर्ण पहलूं सामने आये–
(1) भूमि में निजी सम्पत्ति को अवधारणा को लागू करना. तथा
(2) स्थायी बंदोबस्ता
लॉर्ड कार्नवालिस की पद्धति में मध्यस्थों और बिचैलियों को भूमि का स्वामी घोषित कर दिया गया। दूसरी ओर, स्वतन्त्र किसानों को अधीनस्थ रैय्यत के रूप में परिवर्तित कर दिया गया और सामुदायिक सम्पत्ति को जमींदारों के निजी स्वामित्व में रखा गया। भूमि को विक्रय योग्य बना दिया गया। जमींदारों को एक निश्चित तिथि का भू-राजस्व सरकार को अदा करना होता था। 1793 ई. के बंगाल रेग्यूलेशन के आधार पर 1794 ई. में ‘सूर्यास्त कानून’ (Sunset Law) लाया गया. जिसके अनुसार अगर एक निश्चित तिथि को सूर्यास्त होने तक जमींदार जिला कलेक्टर के पास भू-राजस्व की रकम जमा नहीं करता तो उसकी पूरी जमींदारी नीलाम हो जाती थी। इसके बाद 1799 और 1812 ई. के रेग्यूलेशन के आधार पर किसानों को पूरी तरह जमींदारों के नियंत्रण में कर दिया गया, अर्थात प्रावधान किया गया कि यदि एक निश्चित तिथि को किसान जमीदार को भू-राजस्व की रकम अदा नहीं करते तो जमीदार उनको चल और अचल दोनों प्रकार की सम्पत्ति का अधिग्रहण कर सकता है। इसका, परिणाम हुआ कि भू-राजस्व की रकम अधिकतम रूप में निर्धारित की गयी तथा इसके लिए 1790-91 ई. के वर्ष की आधार वर्ष बनाया गया। निष्कर्षतः 1165-93 ई. के बीच कंपनी ने बंगाल में भू-राजस्व को दर में दुगुनी बढ़ोतरी कर दी।
यहाँ यह प्रश्न विचारणीय है कि जब बंगाल में जमींदार इससे पहले कभी भी भूमि के स्वामी नहीं रहे थे तो फिर स्थायी बंदोबस्त में उन्हें भूमि का मालिक में पोषित किया गया? यह माना जाता है कि कार्नवालिस की इस सोच पर फ्रांसीसी प्रवृत्ति के तंत्रवादियों का प्रभाव था। 1770 ई. के दशक में कार्नवालिस से पहले भी इस तरह की अवधारणा सामने आयी थी कि भूमि में निजी स्वामित्व को स्थापित कर दिया जाए तो समाज को समृद्धि तथा स्थायित्व की स्थिति आती है। फिलिप फ्रैंसिस एवं हेनरी पाडुल्यो जैसे ब्रिटिश अधिकारी भूमि को निजी स्वामित्व के अंतर्गत रखे जाने के पक्षधर थे। जमींदारों के प्रति कार्नवालिस का झुकाव स्वाभाविक ही था क्योंकि वह खुद भी जमींदार वर्ग से संबंध रखता था।
कार्नवालिस की पद्धति मुख्यतः भौतिक अभिप्रेरणा से परिचालित थी। वस्तुतः स्थायी बंदोबस्त लागू करने के पीछे कार्नवालिस के कई उद्देश्य थे यथा-
(1) उसका मानना था कि इस पद्धति को लागू करने के बाद कंपनी को भू-राजस्व की रकम अधिकतम तथा स्थायी रूप से
प्राप्त होगी।
(2) कृषि के विस्तार का लाभ सरकार के बजाय जमींदारों को प्राप्त होगा।
(3) जमींदार प्रगतिशील जमींदार सिद्ध हो सकेंगे। परिणामतः वे कृषि में निवेश करने के लिए उन्मुख होंगे। अतः कृषि का
विकास होगा।
(4) जमींदारी की खरीद-बिक्री की व्यवस्था के कारण नगरीय क्षेत्र से ग्रामीण क्षेत्र में मुद्रा का आगमन होगा।
(5) उसका विश्वास था कि कृषि के क्षेत्र में होने वाला विकास, व्यापार-वाणिज्य के विकास को भी बढ़ावा देगा क्योंकि बंगाल
से निर्यात की जाने वाली अधिकतर वस्तुएँ कृषि उत्पाद से जुड़ी हुई थीं। यद्यपि भू-राजस्व में सरकार का अंश स्थायी रूप में निश्चित हो जायेगा तथापि, समय-समय पर व्यापारिक वस्तुओं पर कर की राशि में वृद्धि कर सरकार उसकी भरपाई कर सकेगी।
(6) स्थायी बंदोबस्त को लागू करने के पश्चात् सरकार प्रशासनिक झंझटों से बच सकेगी क्योंकि जमींदारों के माध्यम से भू-राजस्व की वसूली अपेक्षाकृत आसान हो जायेगी।
उसे एक राजनैतिक लाभ प्राप्त होने की आशा थी कि इस व्यवस्था को लागू करने के पश्चात् एक ब्रिटिश-समर्थक जमींदार वर्ग तैयार हो जायेगा।
यदि उपर्युक्त बिंदुओं का विवेचन किया जाए तो व्यावहारिक दृष्टि से कार्नवालिस का कोई भी उद्देश्य स्पष्ट रूप में पूरा नहीं हो सका। सरकार को एक निश्चित रकम स्थायी रूप से भले ही मिलने लगी थी.किन्तु यह भी सही है कि वह भविष्य में होने वाले कृषि के विस्तार के लाभ से वंचित हो गयी थी। दूसरे, जमींदार प्रगतिशील जमींदार सिद्ध नहीं हो सके तथा उन्होंने कृषि के विकास में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। इसके अतिरिक्त जमींदारी व्यवस्था के अंतर्गत अनुपस्थित जमींदारी (Absentee Landlordism) एवं उप-सामंतीकरण (Sub-feudalçation) जैसी बुराइयाँ उभरकर सामने आयीं। उदाहरणार्थ. यद्यपि कार्नवालिस इस बात का विरोधी रहा था कि किसान और जमींदार के बीच बिचैलियों का कोई स्तर कायम हो. परन्तु आगे चलकर उपसामंतीकरण की व्यवस्था विकसित हो गयी। 19वीं सदी के पूर्वार्ध में वर्दवान के राजा ने अपनी जमींदारी को कई अधीनस्थ जमींदारों के बीच बांट दिया और सरकार ने इस स्थिति को स्वीकार किया, इसे पटनी पद्धति (Patni System) के नाम से जाना जाता है। कई क्षेत्रों में तो स्थिति यह हो गई कि किसान-जमींदारों के बीच मध्यस्थों के बारह स्तर कायम हो गये। इसका नतीजा यह निकला कि जमींदारी न रहने के कारण ग्रामीण क्षेत्र से ही नगरीय क्षेत्र में मुद्रा का पलायन शुरू हो गया।
अंततः स्थिति यह हुई कि कंपनी प्रशासनिक परेशानियों से मुक्त होने की बजाय नये प्रकार की प्रशासनिक दिक्कतों में उलझ गयो। वस्तुतः स्थायर्या बंदोबस्त के तहत भू-राजस्व की राशि अधिकतम रूप में निर्धारित की गयी थी, इसलिए आरम्म में बंगाल के जमींदारों को यह रकम अदा करने में बड़ी परेशानी हुई तथा अनेक जमींदारियाँ नीलाम हो गयों तथा इसके कारण प्रशासनिक परेशानियाँ कम होने के बजाय और भी बढ़ गई। कंपनी राज का समर्थन प्राप्त होने के कारण कार्नवालिस अपने उद्देश्य में कुछ हद तक सफल भी रहा। यह भी सत्य है कि इन जमींदारों का शोषण इतना बढ़ गया कि अधिसंख्यं किंसान ब्रिटिश शासन से विक्षुब्ध होते चले गये।