शंकरी प्रसाद बनाम भारत सरकार क्या है | सज्जन सिंह बनाम राजस्थान सरकार | गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य wikipedia

गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य wikipedia शंकरी प्रसाद बनाम भारत सरकार क्या है | सज्जन सिंह बनाम राजस्थान सरकार अभियोग में न्यायालय ने क्या निर्णय दिया ?

संविधायी भूमिका (संविधान में संशोधन करना): संविधान के अनुच्छेद 368 के अधीन, जिसमें संविधान में संशोधन संबंधी विशिष्ट उपबंध किया गया है, संघ की संविधायी शक्ति संसद को प्राप्त है । संविधान में संशोधन करने की प्रक्रिया के कुछ विशेष तत्व हैं जिनसे संसद की एक विधानमंडल के रूप में साधारण भूमिका से उसकी संविधायी क्षमता का स्पष्ट भेद किया गया है। प्रथम, संविधान में संशोधन की शुरुआत “केवल‘‘ संसद के किसी एक सदन में विधेयक पेश करके की जा सकती है, क्योंकि संविधान में संशोधन करने की पहल केवल संसद के लिए रक्षित है। दूसरे, अधिकांशतया संसद द्वारा संविधान के उपबंध में संशोधन विशेष बहुमत से किया जा सकता है, अर्थात प्रत्येक सदन की कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा तथा उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के कम से कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा। केवल सीमित श्रेणी के संवैधानिक उपबंधों के मामले में ही (अर्थात सातवीं अनुसूची की सूचियों, संसद में राज्यों के प्रतिनिधित्व, अनुच्छेद 368 आदि से संबंधित उपबंध) संसद के प्रत्येक सदन द्वारा निर्धारित विशेष बहुमत से संशोधन विधेयक पास किए जाने के पश्चात कम से कम आधे राज्यों के विधानमंडलों द्वारा उनके अनुसमर्थन की आवश्यकता होती है। तीसरे, संविधान संशोधन विधेयक को विधिवत रूप से पास/अनुसमर्थित किए जाने के पश्चात राष्ट्रपति के समक्ष पेश किए जाने पर उसे उस पर अपनी अनुमति प्रदान करनी पड़ती है और राष्ट्रपति के पास अनुमति रोकने या विधेयक पर पुनर्विचार के लिए उसे सदन को लौटाने का कोई विकल्प नहीं है, जैसाकि साधारण विधेयकों के मामले में होता है। अंततः, यह महत्व की बात है कि संविधान का ऐसा कोई भी उपबंध नहीं है जिसमें संशोधन न किया जा सके क्योंकि संसद संविधान के किसी भी उपबंध का किसी भी प्रकार का संशोधन, परिवर्तन या निरसन कर सकती है और ऐसे संशोधन को किसी भी आधार पर किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती, यदि उससे संविधान के मूल तत्वों में परिवर्तन या उनका हनन नहीं होता।
1950 से 1972 तक की अवधि के दौरान, मूल अधिकारों में संशोधन कर सकने का प्रश्न तीन अलग अलग मामलों में उच्चतम न्यायालय के समक्ष आया, अर्थात शंकरी प्रसाद बनाम भारतीय संघ, सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य और गोलक नाथ बनाम पंजाब राज्य में । गोलक नाथ के मामले में उच्चतम न्यायालय का फैसला होने तक, विधि इस प्रकार थी:
(1) संविधान संशोधन अधिनियम साधारण विधि नहीं होता और उसे संसद द्वारा साधारण विधायी शक्तियों के बजाय अपनी संविधायी शक्तियों का प्रयोग करते हुए पास किया जाता है । संविधायी शक्ति “संसद‘‘ में ही निहित होने के कारण संविधान में संशोधन के प्रयोजनार्थ कोई पृथक संविधायी निकाय नहीं है।
(2) संशोधन करने की शक्ति पर कोई निर्बंध नहीं है, अर्थात संविधान का कोई ऐसा उपबंध नहीं है जिसमें संशोधन न किया जा सकता हो । अनुच्छेद 368 पूर्णतया सामान्य है और उसके द्वारा संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्ति प्राप्त है और ऐसी शक्ति बिना किसी अपवाद के है।
(3) संविधान (भाग 3) के अधीन जिन मूल अधिकारों की गारंटी दी गई है, वे संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति के अध्यधीन हैं।
गोलक नाथ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने 6: 5 के बहुमत से अपने पहले के फैसलों को उलट दिया और यह फैसला सुनाया कि सम्मिलित मूल अधिकार अपरिवर्तनीय हैं, कि संविधान के अनुच्छेद 368 में केवल संशोधन करने की प्रक्रिया ही निर्धारित है और उसके द्वारा संविधान में संशोधन करने की कोई मूल शक्ति अथवा साधारण विधायी शक्ति से अलग कोई संविधायी शक्ति संसद को प्रदान नहीं की गई है, कि संविधान संशोधन अधिनियम भी अनुच्छेद 13 के अर्थों में एक विधि है और इस प्रकार संसद अनुच्छेद 368 के अधीन पास किए गए किसी संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा भी मूल अधिकार समाप्त नहीं कर सकती या इनमें कोई कमी नहीं कर सकती।
1973 में, केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने गोलक नाथ के मामले में अपने फैसले का पुनर्विलोकन किया। 13 न्यायाधीशों में से 10 ने यह फैसला दिया कि स्वयं अनुच्छेद 368 में ही संविधान में संशोधन करने की शक्ति अंतर्निष्ट है और अनुच्छेद 13 (2) में “विधि‘‘ का अभिप्राय अनुच्छेद 368 के अधीन संवैधानिक संशोधन से नहीं है। तदनुसार गोलक नाथ के मामले में घोषित विधि रद्द कर दी गई। इस प्रश्न पर कि क्या अनुच्छेद 368 के अधीन संशोधन शक्ति पूर्ण है और असीम है, सात न्यायाधीशों ने, जिनका बहुमत था, यह फैसला दिया कि अनुच्छेद 368 के अधीन संशोधन शक्ति एक अंतर्निहित सीमा के अध्यधीन है; ऐसी सीमा जो इसके “संविधान में संशोधन‘‘ करने की शक्ति होने के कारण आवश्यक अंतर्निहीत अर्थों द्वारा उत्पन्न हुई। 7: 6 के बहुमत से न्यायालय ने निर्णय दिया कि “अनुच्छेद 368 से संसद को संविधान के मूल ढांचे‘‘ को बदलने की शक्ति प्राप्त नहीं होती‘‘ परंतु मूल ढांचा क्या है इसकी स्पष्ट व्याख्या नहीं की गई और यह एक खुला प्रश्न रहा।
केशवानन्द के मामले में इस फैसले के बाद संसद की संशोधन की शक्तियों के “मून तत्वष् की सीमा का प्रभाव कम करने के लिए संविधान (42वां संशोधन) अधिनियम 1976 द्वारा अनुच्छेद 368 में खंड (4) तथा (5) सम्मिलित कर दिए गए। उपरोक्त खंडों में कहा गया है कि (क) अनुच्छेद 368 (1) के अधीन संविधान की संशोधन शक्ति, जो एक “संविधायी शक्ति‘‘ है, की स्पष्ट अथवा अंतनिर्हित कोई सीमाएं नहीं हैं और कि (ख) इसलिए किसी भी संविधान संशोधन अधिनियम का किसी भी आधार पर न्यायिक पुनर्विलोकन नहीं किया जा सकता। परंतु उच्चतम न्यायालय द्वारा खंड (4) तथा (5) को शून्य करार देकर मिनर्वा मिल्स बनाम भारतीय संघ के मामले में मूल ढांचे के सिद्धांत के लागू होने की बात की फिर पुष्टि की गई और उसका आधार यह था कि इस संशोधन द्वारा न्यायिक पुनर्विलोकन को पूर्णतया समाप्त किया जा रहा था, जो संविधान का “मूल तत्व‘‘ है।
मूल तत्व के सिद्धांत की वर्तमान स्थिति यह है कि जब तक केशवानन्द के मामले के फैसले को उच्चतम न्यायालय की एक अन्य पूर्ण पीठ द्वारा रद्द नहीं कर दिया जाता तब तक। संविधान के किसी भी संशोधन में न्यायालय इस आधार पर हस्तक्षेप कर सकता है कि उससे संविधान के एक या दूसरे मूल तत्व पर प्रभाव पड़ता है।
केशवानन्द के मामले में न्यायाधीश सीकरी ने संविधान के मूल तत्वों को इस प्रकार सारणीबद्ध करने का प्रयास किया थाः
(1) संविधान की सर्वाेच्चता;
(2) गणतंत्रात्मक और लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली;
(3) संविधान का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप;
(4) शक्तियों का पृथक्करण; और
(5) संविधान का संघीय स्वरूप
उसी मामले में, न्यायाधीश हेगड़े और न्यायाधीश मुखर्जी ने भारत की प्रभुसत्ता एवं एकता, हमारी राजनीतिक व्यवस्था के लोकतंत्रात्मक स्वरूप और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को संविधान के मूल ढांचे के तत्वों में जोड़ दिया। उनका विश्वास था कि कल्याणकारी राज्य और समतावादी समाज का निर्माण करने के लिए जनादेश को समाप्त करने की शक्ति संसद को प्राप्त नहीं है। न्यायाधीश खन्ना ने भी कहा कि संसद हमारी लोकतंत्रात्मक सरकार को तानाशाही सरकार में या वंशागत राजतंत्र में नहीं बदल सकती, न ही लोक सभा और राज्य सभा का उत्सादन करने की अनुमति है । इसी प्रकार राज्य का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप समाप्त नहीं किया जा सकता।
इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण के मामले में न्यायाधीश चन्द्रचूड़ ने निम्न तत्वों को संविधान के मूल ढांचे का मूल तत्व पाया:
(1) प्रभुसत्ता संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य के रूप में भारत;
(2) दर्जे और अवसर की समानता;
(3) धर्मनिरपेक्षता और अन्तःकरण की स्वतंत्रता; और
(4) विधि द्वारा शासन
उसी न्यायाधीश ने मिनर्वा मिल्स के मामले में “संसद की संशोधी शक्तियों‘‘, ‘‘न्यायिक पनर्विलोकन‘‘ और ‘‘मल अधिकारों तथा निदेशक सिद्धांतों के बीच संतलन‘‘ को संविधान के मल तत्वों की सची में जोड दिया।
कुछ मामलों में न्यायाधीशों में मतभेद है कि कोई तत्व विशेष मूल तत्व है या नहीं। उदाहरणार्थ, मुख्य न्यायाधीश राय ने निर्बाध एवं निष्पक्ष निर्वाचन के सिद्धांत को मूल ढांचे का तत्व नहीं माना, जबकि न्यायाधीश खन्ना ने उस मामले में इस सिद्धांत को संविधान का मूल तत्व माना। न्यायाधीश चन्द्रचूड़ इस विचार पर सहमत नहीं हुए कि संविधान की उद्देशिका मूल ढांचे की कुंजी है। दूसरी ओर, न्यायाधीश बेग ने कहा कि न्यायालय संवैधानिक वैधता का परीक्षण मुख्यतया संविधान की उद्देशिका से कर सकता है। उनका विश्वास था कि उद्देशिका एक ऐसा मापदंड है जिसे संवैधानिक संशोधनों पर भी लागू किया जा सकता है।
मध्य प्रदेश, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश के भारतीय जनता पार्टी की तीन सरकारों की बर्खास्तगी के संबंध में एस. आर. बोम्मई के मामले में न्यायमूर्ति जीवन रेड्डी तथा न्यायमूर्ति रामास्वामी ने दोहराया कि अन्य बातों के साथ साथ संघवाद संविधान का मूल तत्व है। न्यायमूर्ति रामास्वामी ने कहा:
“संविधान की उद्देशिका संविधान का एक अभिन्न अंग है । लोकतांत्रिक स्वरूप की सरकार, संघीय ढांचा, राष्ट्र की एकता तथा अखंडता, धर्म निरपेक्षता, समाजवाद, सामाजिक न्याय और न्यायिक पुनर्विलोकन संविधान के मूल तत्व हैं।‘‘
यह स्पष्ट है कि अब तक इस बारे में न्यायाधीशों में मतैक्य नहीं रहा है और बहुमत का कोई ऐसा फैसला उपलब्ध नहीं है जिसमें निर्धारित किया गया हो कि संविधान के कौन कौन से तत्वों को ‘‘मूल तत्व‘‘ माना जाए । न्यायालय द्वारा ऐसा कुछ नहीं किया गया है कि मूल तत्वों की सूची में और तत्व नहीं जोड़े जाएं, जैसाकि विभिन्न मामलों में विभिन्न न्यायाधीशों ने कहा भी है। इंदिरा गांधी के मामले में न्यायाधीश चन्द्रचूड़ ने कहा है कि “मूल ढांचे के सिद्धांत पर प्रत्येक मामले के प्रसंग में विचार किया जाना चाहिएरू इस पर विचार अमूर्त रूप से नहीं बल्कि ठोस समस्या के प्रसंग में किया जाना चाहिए।
1950 में संविधान के प्रारंभ के पश्चात संविधान में 77 संशोधन किए जा चुके हैं। और ये कुछ संसद की संविधायी शक्तियों का प्रयोग करते हुए और प्रायः न्यायालयों के फैसलों और उनकी संवैधानिक उपबंधों की व्याख्याओं के परिणामस्वरूप पैदा हुई अप्रत्याशित कठिनाइयों और स्थितियों का सामना करने के लिए किया गया है। कभी कभी संविधान के विशेष उपबंधों के पीछे संविधान के निर्माताओं के आशय को स्पष्ट करने के लिए और संविधान के पाठ को स्वीकृति राष्ट्रीय लक्ष्यों एवं उद्देश्यों के निकट लाने के लिए उसमें संशोधन करना आवश्यक हो जाता है।

नेतृत्व (भर्ती और प्रशिक्षण): संसद का अंतिम और महत्वपूर्ण कृत्य है कि वह प्रतिभा के राष्ट्रीय रक्षित भंडार के रूप में कार्य करती है जहां से कि राजनीतिक नेता उभरते हैं । संसद एक ऐसा मंच है जहां मंत्रीगण कार्य क्षेत्र में प्रवेश करते हैं और प्रशिक्षण पाते हैं। दोनों सदनों में और उनकी समितियों में सदस्यों के कार्य निष्पादन को देखकर प्रधानमंत्री को अधिकतम योग्यता रखने वालों का चयन करने में सहायता मिलती है। विभिन्न संसदीय समितियों में काम करते हुए सदस्यगण विशिष्ट क्षेत्रों में काफी जानकारी और विशेषज्ञता प्राप्त कर लेते हैं और वे आमतौर पर योग्य मंत्री सिद्ध होते हैं।

विधि निर्माण, विकास, सामाजिक परियोजन तथा वैधीकरण: विधि निर्माण विधानमंडल का परंपरागत कृत्य है। भारत के संविधान के अधीन राष्ट्रीय स्तर पर संसद सर्वाेच्च विधायी निकाय है। संविधान की सातवीं अनुसूची में संघ तथा समवर्ती सूचियों में इसके लिए आवंटित अनेक विषयों पर यह विधान बना सकती है। अवशिष्ट शक्ति चूंकि संसद में निहित है अतः यह उन विषयों पर भी विधान बना सकती है जो विशिष्टतया राज्यों को न सौंपे गए हों। राज्यों को राज्य सूची में विशेष रूप से सौंपे गए विषयों के संबंध में भी, कुछ परिस्थितियों में, संसद विधान बना सकती है।
विधान का सबसे महत्वपूर्ण पहलू उसके महत्वपूर्ण सामाजिक परिणाम होते हैं। कानून शांति और विधि तथा व्यवस्था बनाए रखने, विदेशी खतरों और आंतरिक उपद्रवों से देश की रक्षा करने और मजबूत तथा कुशल प्रशासन व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए ही आवश्यक नहीं होते बल्कि आर्थिक तथा सामाजिक परिवर्तन द्वारा लोगों के कल्याण के लिए भी जरूरी हैं। समाज में, विशेषकर हमारे जैसे परिवर्तनशील समाज में, सामाजिक परिवर्तन के लिए आधार एवं माध्यम की व्यवस्था केवल संसद ही कर सकती है। अतः सामाजिक विधान विधि निर्माण का प्रमुख क्षेत्र है, ऐसा विधान जिसका उद्देश्य सामाजिक परिवर्तन लाना तथा आर्थिक विकास करना हो । सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन को ठोस रूप देने के लिए वर्तमान संस्थाओं का पुनर्गठन करना होगा और विभिन्न सामाजिक शक्तियों और ग्रुपों के परस्पर विरोधी हितों के बीच एक नया संतुलन लाना होगा। ऐसा संसद द्वारा विधान बनाकर ही किया जा मकला हे वास्तव, में संसद सामाजिक सुधार लाने में सबसे आगे रही है । संविधान के प्रारंभ में संसद द्वारा समाज सुधार के अनेक विधान बनाए गए हैं अर्थात ऐसे विधान जिनमें समाज के पिछड़े, पद-दलित या परंपरागत रूप से दुव्र्यवहार के शिकार वर्गों के लिए आरक्षण, सामाजिक सुरक्षा, निर्याेग्यताओं के निवारण, न्यूनतम मजदूरी, वृद्धावस्था पेंशन, आवास आदि के रूप में गारंटी और लाभों के विशेष उपबंध दिए गए हैं।
विधि का निर्माण करने में संसद की भूमिका, अर्थात प्रस्तावित विधान का पुनरीक्षण, निरीक्षण और उस पर चर्चा करने और संभवतया अंतिम रूप में उसे प्रभावित करने का अवसर प्रदान करने की भूमिका यद्यपि बहुत महत्व रखती है तथापि तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। संसद विधियों का निर्माण नहीं करती । इस प्रयोजन के लिए न तो उसके पास समय है और न ही आवश्यक जानकारी । जैसाकि अन्य मामलों में होता है, विधान के मामले में भी पहल पूर्णतया कार्यपालिका और प्रशासनिक विभागों द्वारा की जाती है।
‘‘विधायी प्रस्ताव सूत्रबद्ध करने का अर्थ है तकनीकी स्तर पर तैयारी करना और विभिन्न स्पर्धी दावों तथा आधारों में तालमेल बैठाना । यह कार्य, इसके स्वरूप को देखते हुए, विधानमंडल में नहीं किया जा सकता क्योंकि तकनीकी सामग्री तथा आंकड़े, लंबा प्रशासनिक अनुभव एवं विशेषज्ञता जैसे विधान के लिए महत्वपूर्ण संसाधन केवल कार्यपालिका को ही उपलब्ध होते हैं।‘‘
कार्यपालिका द्वारा सूत्रबद्ध विधायी प्रस्तावों, अर्थात विधेयकों, नियमों तथा विनियमों आदि पर संसद केवल विचार करती है, छानबीन करती है और उन पर स्वीकृति की अपनी मुहर लगाकर उन्हे वैध बनाती है । अतः संसद की भूमिका विधि निर्माण की भूमिका न होकर ज्यादा वैधीकरण की है।
एक ओर संसद बहुत-सा ऐसा कार्य करती है जो विधि निर्माण का कार्य नहीं है, संसद के समय का केवल 1/5वां भाग विधान कार्य पर लगता है, तो दूसरी ओर विधि निर्माण के कार्य में अकेले संसद की भूमिका नहीं निभाती । संसद ऐसे बहुत से निकायों में से एक है जो उस भूमिका में भागीदार हैं । विधि के बारे में आधुनिक विचार यह नहीं है कि यह सामान्य रूप से लागू किए जाने वाले नियमों का समूह है इत्यादि । विधि एक प्रक्रिया है, एक लंबी और जटिल प्रक्रिया, जो प्रारंभिक सामाजिक प्रवृत्तियों से आरंभ होती है, फिर महसूस की जाने वाली पहली आवश्यकता और कार्यवाही ही मांग, फिर नीति निर्माताओं की धारणा और राजनीतिक शक्तियों और विभिन्न हितों वाले ग्रुपों की भूमिका, फिर विधेयक का प्रारूप तैयार करने वाले विधि एवं अन्य विभागों की भूमिका, फिर सत्ताधारी दल, संबद्ध मंत्रिमंडल, संसद के दोनों सदनों और उसकी समितियों और फिर राष्ट्रपति की भूमिका, और फिर नियम तथा विनियम बनाया जाना; फिर प्रशासन द्वारा वास्तविक क्रियान्वयन और विवाद की स्थिति में/ न्यायालयों द्वारा व्याख्या और न्यायिक पुनर्विलोकन । प्रत्येक अवस्था में वास्तव में विधि का निर्माण हो रहा है और उसमें रूपभेद हो रहा है। इस प्रकार यह नहीं कहा जा सकता कि विधि निर्माण का कार्य व्यक्तियों का कोई एक निकाय या राज्य का कोई अंग करता है, राज्य के तीन अंग, कार्यपालिका, विधानमंडल और न्यायपालिका, मिलकर विधान निर्माण की भूमिका निभाते हैं।
इस अध्याय के अंत में परिशिष्ट 3.1 में दिखाया गया है कि लोक सभा ने विभिन्न प्रकार के कार्यों पर कितना समय (प्रतिशत) खर्च किया।
संदर्भ
1. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 75, 114-116 तथा 265
2. देखिए अंतर्संसदीय संघ (संपा.), पार्लियामेंट आफ द वल्र्ड, लंदन, 1976, पृ. 801-802 और 825-827
3. लोक सभा के प्रक्रिया तथा कार्य-संचालन नियम, नियम 198
4. नियम 56
5. अनु. 114-116 और 265
6. सुभाष काश्यप, “कमेटीज इन द इंडियन लोक सभा” इन जॉन डी. लीज़ और मालकम शॉ. कमेटीज इन लेजिस्लेचर्स, ड्यूक, यूनिवर्सिटी प्रेस, दरहम, 1979, पृ. 291
7. एम.एन. कौल, पार्लियामेंटरी इंस्टीच्यूशंज एंड प्रोसीज्योर्ड, नेशनल, नयी दिल्ली, 1978, पृ. 14
8. एस.एल. शकघर, ग्लिम्पसिज आफ द वर्किंग आफ पार्लियामेंट, मेट्रोपोलिटन, नयी दिल्ली, 1977, पृ. 160-184
9. सुभाष काश्यप, इन्फारमेशन मेनेजमेंट फार पार्लियामेंटेरियंस, मंथली पब्लिक ओपीनियन सर्वेज, 18, 6, 1973; और मीस आफ इन्फारमेशन एट द डिस्पोजल आफ द एम. पी. पर उनकी रिपोर्ट इन द मेंबर आफ पार्लियामेंटः हिज रिक्वायरमेंट्स फार इन्फारमेशन इन द माडर्न वल्र्ड, खंड 1 और 2 अंतर्संसदीय संघ, जेनेवा 1973 (अंतर्राष्ट्रीय विचार गोष्ठी के शोध-पत्र और कार्यवाही वृत्तांत)
10. शकधर, ग्लिम्पसिज, ऊपर उद्धृत, पृ. 186-187
11. काश्यप, इन्फारमेशन मनेजमेंट, ऊपर उद्धृत
12. काश्यप, कमेटीज, ऊपर उद्धृत, पृ. 296
13. अनु. 245-246 और सातवीं अनुसूची
14. सुभाष काश्यप, घूमन राईट्स एंड पार्लियामेंट, मेट्रोपोलिटन, नयी दिल्ली, 1978, अध्याय 9, “संसद और सामाजिक-आर्थिक विधान‘‘, पृ. 124-133
15. सुभाष काश्यप, अंतर्संसदीय संघ में (सम्प.), हू लेजिस्लेट्स इन द माडर्न वल्र्ड, जेनेवा, 1976, पृ. 68
16. वही, पृ. 65-69
17. काश्यप, पुमन राईट्स, ऊपर उद्धत, अध्याय 10, संसद की संविधायी शक्ति और न्यायिक पुनर्विलोकन, पृ. 134-143
18. ए.आई.आर. 1951, उच्चतम न्यायालय, 458
19. ए.आई.आर. 1965, उच्चतम न्यायालय, 845
20. ए. आई. आर. 1967, उच्चतम न्यायालय, 1643
21. ए. आई. आर. 1973, उच्चतम न्यायालय, 1461
22. सुभाष काश्यप, पार्लियामेंट एंड रीसेंट कांस्टीट्यूशनल डवेलपमेंट्स इन इंडिया, द टेबल, (लंदन), खंड 24, 1976, पृ. 15-18
23. केशवानन्द बनाम केरल राज्य, ए. आई. आर. 1973, न्यायालय, 1461, पैरा 302
24. वही, पैरा 682
25. वही, पैरा 1437
26. इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण, ए. आई. आर. 1975, उच्चतम न्यायालय, 2299, पैरा 665
27. मिनर्वा मिल्स लि. बनाम भारतीय संघ, ए. आई. आर. 1980, उच्चतम न्यायालय, 1789
28. इंदिरा गांधी का मामला, ऊपर उद्धत, पैरा 55 और 213
29. वही, पैरा 665
30. वही, पैरा 623 31. वही, पैरा 2465