मौर्य कालीन स्थापत्य कला क्या है (Mauryan Architecture in hindi) मौर्यकालीन कला की विशेषताएं

मौर्यकालीन कला की विशेषताएं मौर्य कालीन स्थापत्य कला क्या है (Mauryan Architecture in hindi)

कला से आशय (Meaning of Art)
विद्वानों के अनुसार ‘कला‘ शब्द की व्युत्पत्ति ‘संस्कृत‘ की ‘कल्‘ धातु से हुई है। इसका अर्थ ‘संख्यान‘ से है। शब्द संख्यान का आशय है-स्पष्ट वाणी में प्रकट करना। यानी कला शब्द से यह अर्थ निकला कि जिसे स्पष्ट रूप में अभिव्यक्त किया जा सके। तब हम कह सकते हैं कि कला ऐसी प्रक्रिया है जिसका प्रमुख लक्षण प्रकटीकरण है। ऐसी कृति का निर्माण जिससे कुछ प्रकट हो सके कला है। कला का दूसरा अर्थ चंद्रमा के अंशों, शोभित होने या अलंकरण करने से है। इस शब्द के अंग्रेजी अनुवाद ‘आर्ट‘ का आशय भी कौशल या निपुणता से है। इससे एक अर्थ यह निकाला जा सकता है कि कला में प्रकटीकरण, अलंकरण और कौशल की विशेषताएँ सम्मिलित होती हैं। कला की एक शाखा ‘ललित कला‘े है। ललित कला से आशय सर्जनात्मक और सौंदर्यशास्त्रीय दृष्टि से प्रेरित कला से है। इसमें ऐतिहासिक रूप से पाँच प्रकार की कलाओं चित्रकला, मूर्तिकला, संगीत, काव्य और स्थापत्य को रखा गया है। आधुनिक समय में इसे दृश्यकला और प्रस्तुतिपरक कला में विभाजित करते हुए इसमें फोटोग्राफी, वीडियो आर्ट, कैलीग्राफी आदि को शामिल कर लिया गया है। इनमें स्थापत्य कला का अपना ही महत्त्व है। इसे वास्तुकला भी कहा गया है।
वास्तु शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द ‘वस्‘ से मानी गई है। इसका आशय बसने या रहने से है। इसी से वास आवास, निवास आदि शब्द बने हैं। वास्तु शब्द का अर्थ भी इसी ‘बसने की जगह‘ से है। ‘स्थापत्य‘ शब्द वास्तु का ही पर्यायवाची है और दोनों ही शब्द पर्याप्त प्रचलित हैं। स्थापत्य शब्द का मूल भी संस्कृत में देखा जा सकता है। स्थापत्य ‘स्थपति‘ से बना है। इसी से ‘स्थिति, स्थावर, स्थान आदि शब्द विकसित हुये हैं। स्थपति द्वारा की गई रचता ही स्थापत्य है। देश में वास्तुकला का इतिहास काफी पुराना है। विद्वानों के अनुसार देश की प्राचीन पुस्तकों में से करीब 180 पुस्तकें ऐसी है जिनमें स्थापत्य संबंधी बातों का दिशा-निर्देश दिया गया है। इनमें समरांगण-सूत्रधार, शिल्परत्नसार आदि प्रमुख है। पुराणों में भी वास्तुकला संबंधी सामान्य जानकारी मिलती है।
भारतीय स्थापत्य कला को विशेषताओं को उनके काल के संदर्भ में देखना ज्यादा उपयोगी होगा। इन विशेषताओं को निम्नलिखित काल खंडों में बांटा गया है।

सिंधु कालीन स्थापत्य (Indus Architecture)
हड़प्पाकालीन स्थलों से मिले प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि यह सभ्यता वास्तुकला के क्षेत्र में अति उन्नत अवस्था में भ्ेाी। सिंधु सभ्यता की नगर योजना में दुर्ग योजना, स्नानागार एवं अन्नागार जैसे विशाल भवनों की योजना से पता चलता है कि प्राचीन काल में ही भारत ने वास्तुकला के क्षेत्र में पर्याप्त उन्नति कर ली थी। हडप्पा सभ्यता के समकालीन अन्य सभ्यताओं में इतनी उन्नत नगर नियोजन व्यवस्था नहीं मिलती। नगर के सभी क्षेत्र एक-दूसरे के समांतर और सडक समकोण के आधार पर बनाई गई हैं। आधुनिक वास्तुकला में इसे ‘ग्रिड प्लानिंग‘ की संज्ञा दी गई है। इन्हीं क्षेत्रों में आवासीय सुविधा का विकास किया गया। भवनों में पक्की और निश्चित आकार की ईंटों के प्रयोग के अलावा लकड़ी और पत्थर का भी प्रयोग है। कुछ मकान दोमंजिला हैं और उनमें बरामदं एवं कई कमरे बने हैं। बरामदा घर के बीचोंबीच बनाया गया और कमरों के द्वार इसी बरामदे की ओर खुलते हैं। नगर के गंदे पानी की निकासी के लिए ढंकी हुई नालियां बनाई गयीं और इन्हें परस्पर जोड़ा गया। इससे प्रत्येक घर के पानी की निकासी मुख्य नाले से जुड़ गई। हड़प्पा सभ्यता के नगरीय क्षेत्र के दो हिस्से हैं-एक दुर्ग का तथा दूसरा निचला हिस्सा। धौलावीरा में ऐसे तीन स्तर मिले हैं-निचला. मध्य और दर्ग स्तर। दर्ग नगर के पश्चिम में है। इसकी दीवारें मोटी थीं और जिनके बीच-बीच में बुर्ज बनाये गये। मोहनजोदड़ो में मिला विशाल जलाशय/स्नानागार बहुत प्रसिद्ध है। यह 39 फुट लंबा. 23 फुट चैड़ा और 3 फुट गहरा है। इसके किनारे कुछ कमरे बने हैं जिनमें संभवतया स्नान के बाद वस्त्र बदले जाते होंगे। जलाशय का फर्श पक्का और चूने के प्लास्टर से युक्त है। इसमें उतरने के लिए उत्तर एवं दक्षिण दिशा में सीढ़ियां बनी हैं।
इस सभ्यता की कला का सर्वश्रेष्ठ नमूना कमर पर हाथ रखे लड़की की लघु कांस्य मूर्ति है, जिसने अपने हाथों में एक कटोरा पकड़ा हुआ है। इसके अलावा एक व्यक्ति संभवतया ‘एक पुजारी की मूर्ति‘ का ऊपरी हिस्सा मिला है जिसमें ऊंचा सिर और कंधा. जिसके चेहरे पर छोटी सी दाढ़ी और बारीक कटी हुई मूंछे हैं तथा उसका शरीर एक शॉल में लिपटा है जो बाएं कंधे के ऊपर और दाई बाँह के नीचे से होकर गया है। टेराकोटा की कई वस्तुएं मिली हैं जिनमें छोटे-छोटे खिलौने जैसी कई तरह की आकृतियाँ और। अलग-अलग आकारों के बर्तन मिले हैं। इन बर्तनों पर प्राकृतिक आकृतियाँ बनाई गयी हैं। हड़प्पा सभ्यता में मिलीं मुहरों का आकार प्रायः चैकोर है जिनमें कई प्रकार की आकृतियाँ मिलती हैं। कुछ मुहरों में बैल तथा अन्य मुहरों में दूसरे जानवरों की आकृतियाँ बनाई गयी थीं।

मौर्य कालीन स्थापत्य (Mauryan Architecture)
प्रथम मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल से भारतीय स्थापत्य में उन्नति होनी प्रारंभ हो गई। उसके दरबार में रहे यूनानी राजदूत ‘मेगास्थनीज‘ ने लिखा है कि पाटलीपुत्र में चंद्रगुप्त मौर्य का महल समकालीन ‘सूसा‘ साम्राज्य के प्रासाद को भी मात करता है। तीसरे मौर्य सम्राट अशोक महान के शासनकाल में भारतीय स्थापत्यं का नया इतिहास रचा गया। अशोकक़ालीन स्थापत्य में राज्याश्रित कला में स्तंभ लेख, शिलालेख, स्तूप एवं गुफाएँ तथा लोककला में कुछ अन्य प्रकार की मूर्तियाँ आदि शामिल हैं। इनके विशेष अध्ययन की सुविधा के लिए इन्हें यहां अलग-अलग बिंदुओं में बांटा गया है-
A. महान अशोक की सात स्तंभ राजाज्ञों (Seven Pillar Edicts) वाले स्तंभों की संख्या तीस तक बताई गयी है लेकिन अभी तक कुछ ही ऐसे स्तंभ मिले हैं। इन स्तंभों की भाषा प्राकृत और लिपि ब्राह्मी है। इन स्तंभों पर एक खास तरह की पॉलिश ‘ओप‘ की गई है जिससे इनकी चमक धात जैसी हो गई। पॉलिश की यह कला समय के साथ विलप्त हो गई। कुछ विद्वानों का मानना है कि पत्थरों की विशेष घिसाई के कारण उनमें चमक आ गई है। इन स्तंभों की अन्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
1. हरियाणा के अंबाला जिले के तोपरा गाँव में मिला स्तंभ एकमात्र ऐसा स्तंभ है जिसपर अशोक की सातों राजाज्ञायें एक साथ मिलती हैं। जबकि कछ स्तंभों पर इससे कम राजाज्ञायें यानी किसी पर छह तो किसी पर पाँच या चार राजाज्ञायें ही देखने को मिलती हैं। इस स्तंभ को दिल्ली सल्तनत के तुगलक वंश का सुल्तान फिरोज शाह तुगलक दिल्ली ले आया था। मेरठ में मिले स्तंभ में केवल एक से छह तक ही राजाज्ञों का उल्लेख है। इस स्तंभ को भी फिरोज शाह तुगलक ने दिल्ली मंगवा लिया था। इलाहाबाद में मिले स्तंभ लेख को इलाहाबाद-कोसम, प्रयाग स्तंभ, रानी राजाज्ञायें, कौशांबी स्तंभ भी कहा जाता है। यह स्तंभ पहले कौशांबी (कोसम) में स्थित था। इसमें एक से छह तक ही राजाज्ञायें मिलती हैं। इसी स्तंभ पर गुप्त वंश के प्रतापी शासक समुद्रगुप्त ने अपनी विजयों का वर्णन किया है। इस पर मुगल बादशाह जहांगीर के बारे में भी जानकारी उत्कीर्ण है। बिहार के चंपारण में तीन जगहों से लौरिया नंदनगढ़, लौरिया अराराज और रामपुरवा से जो स्तंभ लेख मिले हैं उन सभी पर एक से छह राजाज्ञायें उत्कीर्ण हैं। कंधार (अफगानिस्तान) में मिले स्तंभ में केवल सातवीं राजाज्ञा का उल्लेख मिला है जबकि वैशाली (बिहार) में मिले स्तंभ में राजाज्ञा उत्कीर्ण नहीं है। इसके अलावा सांची (रायसेन, मध्यप्रदेश) सारनाथ (वाराणसी), संकिस्सा फरुखाबाद) आदि जगहों से भी स्तंभ लेख मिले हैं। दो लघु स्तंभं लेख नेपाल के रूपानदेई जिले के लुम्बिनी (रूमनदेई) और निगालीसागर (निगलीवा) में मिले हैं।
2. इन स्तंभों पर जो राजाज्ञायें लिखीं हैं वे सभी ‘देवानामप्रिय राजा पियदस्सी‘ (Beloved of the Gods , King Piyadasi) से शुरु होती हैं। यानी उनमें अशोक महान का नाम नहीं है। ऐसा केवल दो जगहों पर रायचूर कर्नाटक के मास्की और दतिया (मध्य प्रदेश) में मिले गुर्जरा लघु शिलालेख में है। इसी से यह स्पष्ट हुआ कि देवानामप्रिय राजा पियदस्सी कोई और नहीं बल्कि स्वयं अशोक ही है।
3. पहली राजाज्ञा में धम्म का संरक्षण, धम्म के जरिए प्रसन्नता का संदेश दिया गया है। दूसरी राजाज्ञा में धम्म क्या है. यह बताया गया है। तीसरे में अशोक लोगों का आह्वान करता है कि वे खुद के पापों और हिंसा की ओर देखें। चैथे में अशोक राज्जुकों की नियुक्ति के बारे में लोगों को बताते हुए कहता है कि उन्हें कल्याण और देश के लोगों की खुशी के लिए नियुक्त किया गया है। पाँचवे में वह कुछ पशुओं और पक्षियों को मारने पर प्रतिबंध और उपोस्थ आदि पर्वाे के अवसर पर ऐसे ही कुछ और निषेध एवं बंदियों को माफी देने की घोषणा करता है। छठे में अशोक इन धम्म राजाज्ञाओं का उद्देश्य स्पष्ट करता है। सातवीं और अंतिम राजाज्ञा में वह धम्म और उसके विधान के बारे में विस्तार से बताता है।
4. ये स्तंभ मिर्जापुर (उ. प्र) के चुनार के लाल पत्थरों से बनाये गये और वहीं से देश के बाकी हिस्सों में पहुँचाये गये। इनकी ऊँचाई 35 से 50 फुट तक और वजन 50 टन तक का है। ये स्तंभ एक ही शिला को काट कर बनाये गये हैं यानी इनमें कहीं जोड़ नहीं है। मोमबत्ती के शक्ल वाले ये स्तंभ आधार की तरफ मोटे और ऊपर की तरफ क्रमशः पतले होते गये हैं। लाट की टीक के ऊपर इकहरी या दोहरी मेखला होती है। मेखला के ऊपर की आकृति उल्टे एवं खिले हुऐ कमल के फल की तरह बनाई गई और उसकी पंखुड़ियों में अलंकरण किया गया। इसे बैठकी या घंटाकृति कहा गया है। फूल के सिरे पर बनी आकृति को कंठा या कंठी और उसके ऊपर तथा थोड़ी बड़ी आकृति को चैकी कहते हैं। इसी चैकी पर बने शीर्ष पर पशुओं की आकृति बैठाई गयी। इन पशुओं में संकिस्सा का हाथी, रामपुरवा के दो स्तंभों में एकल सिंह और बैल तथा अन्य प्रकार की पशु आकृति मिलती है। इन पशु आकृति में सबसे महत्वपूर्ण आकृति सारनाथ से मिले चार सिंहों के शीर्ष की है जिसे बाद में भारत सरकार ने राष्टीय चिह के कैंप में भी ने भगवान बद्ध के प्रथम धर्माेपदेश के स्मारक के रूप में लगाया था। इसकी सिंह आकृति भी बना था लेकिन वह अब टूट चुका है। इसकी गोल चैकी पर चार धर्मचक्र अंकित है और उनके बीच में चार पशु घोड़ा, हाथी, सिंह और बैल अंकित हैं जो कि चार दिशाओं में दौड़ रहे हैं। इन मूर्तियों की सबसे बड़ी विशेषता उनका प्राणवान अंकन है।
ठण् बौद्ध ग्रंथ ‘महावंश‘ के अनुसार अशोक ने 84 हजार स्तूप बनवाये। स्तूप का आशंय एक समाधिनुमा निर्माण से है जिसमें मृत व्यक्ति के अवशेष रखे जाते हैं जैसे मिस्र के पिरामिडों में मृतक का लेप किया हुआ पूरा शरीर रखने की परंपरा थी। भारत में भी ऐसा किया गया पर अंतर यह था कि यहाँ पर मृतक के शरीर के बजाए उसके अवशेष ही लिये गये। स्तूप का मूल ढांचा ‘उल्टी कटोरी‘ की तरह होता है, जिसे गर्भगृह कहते हैं। इस गर्भगृह के शिखर पर चैकोर आकृति ‘हर्मिका‘ बनाई जाती है। इसी हर्मिका में प्रायः अवशेष रखे गये। गर्भगृह का चक्कर लगाने के लिए एक परिक्रमा पथ ‘मेधि‘ बनाया जाता है। इस मेधि तक पहुँचने के लिए सीढियां होती हैं। स्तूप के चारों ओर एक घेरा होता है जिसे ‘वेदिका‘ कहते हैं। इसी वेदिका के चारों दिशाओं में अलंकत ‘तोरण द्वार‘ बनाये जाते हैं। हाल ही में एक विश्व शांति स्तूप (टपेीूं ैींदजप ैजनचंस ॅवतसक च्मंबम च्ंहवकं) दिल्ली में सराय काले खां के पास मिलेनियम इंद्रप्रस्थ पार्क (2008) में बनाया गया है। स्तुप कई प्रकार के भी होते हैं। तिब्बती बौद्ध धर्म में बुद्ध के जीवन से जुड़ी घटनाओं के आधार पर आठ प्रकार के स्तूपों का वर्णन है। स्तूप का एक और प्रकार ‘कालचक्र स्तूप‘ ऐसा स्तूप होता है कि जिसका महात्मा बुद्ध के जीवन से कोई संबंध नहीं होकर वह तंत्रवाद से संबंधित होता है। गौरतलब है कि महात्मा बुद्ध की मृत्यु के बाद उनके अवशेषों को आठ भागों में बांट कर उन्हें विभिन्न जगह भेजा गया और उन अवशेषों पर स्तूप बनवा दिये गये थे। अशोक महान ने इन्हें दोबारा बाहर निकलवाया और फिर इनके कई अन्य स्तूप बनवाये। अशोक के समय के प्रसिद्ध स्तूप ‘सांची का स्तूप‘ और ‘भरहत‘ के स्तूप हैं। इनके तोरणों पर बुद्ध के जीवन से संबंधित घटनाओं का अंकन किया गया है।
ब्ण् मौर्य शासकों ने बिहार के जहानाबाद में कुछ गुफाओं का निर्माण करवाया। ये गुफाएँ बराबर पहाड़ी और नागार्जुनी पहाड़ियों के एक हिस्से को खोदकर बनाई गयी हैं। अशोक महान ने बराबर पहाड़ी गुफा में चार गुफाएँ लोमश ऋषि गुफा. कर्णचैपड़ और विश्व झोपड़ी गुफा जबकि अशोक के पौत्र दशरथ ने नागार्जुनी पहाड़ी में तीन गुफाएँ गोपी, वदीक का कुभा वहिजक या वापिया का कुभा बनवाईं। ये गुफ़ाएँ आजीवक संप्रदाय के लोगों को दान दी गई। इससेे मौर्य शासकों की धार्मिक सहिष्णुता की नीति का पता चलता है। इनमें लोमश ऋषिः की गुफा का स्थापत्य की दृष्टि से ज्यादा महत्व है। इसमें प्राचीनतर दारूकार्य (काष्ठ) का पत्थर के माध्यम में विस्तार है। नागार्जुनी गुफाओं में मौखरी शासक अनंतवर्मन का भी लेख उत्कीर्ण है।
क्ण् मौर्य काल में शासकीय कला के अलावा लोककला के उन्नत होने के भी प्रमाण मिलते है। इस काल में मंदिर निर्माण का कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है और न ही हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों के निर्माण का साक्ष्य मिला है। इस लोककला में यक्ष और यक्षिणी की मूर्तियाँ प्रमुख हैं। ये मूर्तियाँ मथुरा, बेसनगर, शिशुपालगढ़ (ओडिशा.) आदि जगहों से मिली हैं। इनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध दीदारगंज से मिली. और पटना संग्रहालय में रखी ‘चवर धारिणी‘ यक्षिणी की मूर्ति है। इस मूर्ति में नारी अंगों में लालित्य बहुत दक्षता के साथ उकेरा गया है। उसके बाएं हाथ में चंवर है और बाल ढंग से काढे गये हैं। कमर में पाँच लटों वाली, मेखला बांधी गयी है और उसकी गर्दन, शीर्ष, पैरों. कातों हाथों में आभूषणों का अंकन किया गया है। यह प्रतिमा कटि से ऊपर वस्त्र विहीन है जबकि पैरों में पहने वस्त्रों में चुनट स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। इनके अलावा टेराकोटा को भी कुछ मूर्तियाँ एवं जैन तीर्थकरों की भी मूर्तियाँ मिली हैं।

टेराकोटा (ज्मततं.बवजजं) इतालवी भाषा का शब्द है। इसका आशय है पकी हुई मिट्टी। इसको शाब्दिक अर्थ अग्नि में पकाई गई किसी भी प्रकार की मिट्टी है। साधारण प्रयोग में टेराकोटा का अर्थ ऐसी वस्तु से है, जिसे अपरिष्कृत और रंधित मिट्टी से बनाया जाता है। जैसे बर्तन, प्रतिमा या कोई रूसंरच इस प्रकार बनी वस्तुओं को आग में पकाने के बाद उनका रंग हल्का गेरुआ लाल हो जाता है। इनमें चमक नहीं होती। टेराकोटा की बनी वस्तुएं सस्ती, बहुउपयोगी तथा टिकाऊ होने के कारण लोकप्रिय हैं।