भारत के प्रमुख त्यौहार एवं मेले कौन कौनसे है ? indian festivals and fairs in hindi राजस्थान के प्रमुख मेले और त्यौहार PDF download

राजस्थान के प्रमुख मेले और त्यौहार PDF download indian festivals and fairs in hindi भारत के प्रमुख त्यौहार एवं मेले कौन कौनसे है ?

त्यौहार एवं मेले
नानाविध धर्मों एवं भाषाओं की इंद्रधनुषी आभा से देदीप्यमान भारत देश के रंग-बिरंगे पर्व त्यौहार और मेले इसके सामाजिक जीवन के अभिन्न अंग हैं, जिनके बिना इस देश की संस्कृति अधूरी है। ऋषि-मुनियों की इस पावन धरती पर सामूहिक उत्सव एवं आनंद के प्रतीक इन पवित्र पर्वों, त्यौहारों व मेलों ने देश को एक सांस्कृतिक सूत्र में पिरोगे का अद्भुत कार्य सम्पन्न किया है।
हिंदुओं के त्यौहार
हिंदुओं के त्यौहार पूरे वर्ष मनाए जाते हैं। इनमें से कुछ तो हिंदुओं के सभी सम्प्रदायों व वर्गें द्वारा मनाए जाते हैं और कुछ क्षेत्रीय स्तर पर मनाए जाते हैं। जनवरी माह के मध्य में ‘संक्राति’ मनाई जाती है। यह समय बदलते मौसम और सूर्य के उत्तरायण होने का होता है। इसके उपरांत दिन बड़े और रातें छोटी होने लगती हैं। गंगा, यमुना जैसी पवित्र नदियों में सूर्योदय के पूर्व स्नान किया जाता है। संक्रांति से एक दिन पहले पंजाबियों द्वारा ‘लोहड़ी’ मनाई जाती है। यह पूस माह का आखिरी दिन होता है। इसमें रात के समय आग जलाकर लोग नाचते गाते हैं। ऐसा माना जाता है कि उस अग्नि के माध्यम से सूर्य देवता को यह संदेश भेजा जाता है कि हे सूर्यदेव, अपनी ऊष्मा बढ़ाओ और सर्दी को दूर करो। इस अवसर पर लोग रेवड़ी और मूंगफली वगैरह खाते-खिलाते हैं। दक्षिण भारत में इसी से मिलता-जुलता पोंगल त्यौहार है। यह तमिल माह थाई के पहले दिन मनाया जाता है। यह फसल का त्यौहार होता है। इसमें एक बड़े बर्तन में पोंगल पकाया जाता है, जिसमें चावल, दाल, दूध इत्यादि होते हैं और इसे सुख-समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। पोंगल से एक दिन पहले बोगी मनाते हैं, जिसमें इंद्रदेव की पूजा होती है। एक दिन बाद मत्तू पोंगल मनाते हैं, जिसमें गाय की पूजा की जाती है।
माघ के पांचवें दिन यानी पंचमी को वसंत पंचमी मनाई जाती है। इसे बंगाल, बिहार, में विशेष रूप से मनाया जाता है। विद्या की देवी सरस्वती की पूजा की जाती है। इस अवसर पर पीले वस्त्रों का विशेष महत्व होता है। चूंकि यह समय सरसों के पीले फूलों का है, इसीलिए यह रंग अपना महत्व रखता है। फागुन की अमावस्या से पहले ‘महाशिवरात्रि’ का पर्व मनाया जाता है। इस दिन उपवास रखा जाता है। यह भगवान शिव को समर्पित पर्व होता है।
फागुन (मार्च) में रंगों का त्यौहार ‘होली’ आता है। रंग-बिरंगी होली में लोग एक दूसरे पर रंग-गुलाल डालते हैं, शुभकामनाएं देते हैं और अच्छे-अच्छे पकवान व मिठाइयां खाते-खिलाते हैं। उत्तर भारत में ‘बरसाने की होली’ बहुत प्रसिद्ध है। होली से पहले की रात को होलिका दहन होता है। ऐसा माना जाता है कि हिरण्यकश्यप की बहन होलिका प्रह्लाद को लेकर अग्नि में बैठी थी। उसे न जलने का वरदान प्राप्त था। किंतु, प्रभु की लीला से प्रह्लाद जीवित बच गया और होलिका जलकर राख हो गई। यहां होलिका को बुराई का प्रतीक माना जाता है।
चैत्र के महीने में शुक्लपक्ष के नौवें दिन रामनवमी मनाई जाती है। मर्यादा पुरुरूषोत्तम राम के जन्म के उपलक्ष्य में इसका आयोजन होता है। चैत्र मास वैसे भी हमारे परम्परागत वर्ष का प्रथम मास माना जाता है। तेलुगू का नया वर्ष उगादि मार्च से ही प्रारंभ होता है। पंजाब में वर्ष का प्रारंभ वैशाख से होता है, जो रबी फसल की कटाई का समय (अप्रैल 13 बैसाखी) होता है। इसी समय बंगालियों का नव वर्ष प्रारंभ होता है। तमिल नया वर्ष भी इसी के आस-पास शुरू होता है। असमिया अपना नया वर्ष ‘गोरू’ और पशु उत्सव ‘रंगोली बीहू’ मनाते हैं। केरल के लोग ‘विशु’ मनाते हंै और ‘कानी’ की व्यवस्था करते हंै यह पूर्ववर्ती रात को बनाया जागे वाला मांगलिक शकुन है ताकि नए साल की पहली सुबह उठने पर सबसे पहले उसका ही दर्शन हो।
वैशाख शुक्ल पक्ष में तीसरे दिन अक्षय तृतीया मनाई जाती है। ऐसा माना जाता है कि इसी दिन से सतयुग प्रारंभ हुआ था। किसी भी नए कार्य की शुरुआत इस दिन की जा सकती है। ज्येष्ठ माह में वट सावित्री व्रत पड़ता है। उस दिन वट वृक्ष के नीचे शिव पूजा की जाती है। ऐसा मानते हैं कि पार्वती जी ने शिव को प्राप्त करने हेतु यह व्रत किया था। इसी माह के शुक्लपक्ष में दसवें दिन गंगा दशहरा मनाया जाता है क्योंकि मान्यता के अनुसार पृथ्वी पर गंगा का अवतरण इसी दिन हुआ था। गयारहवें दिन गिर्जला एकादशी, जिसे भीमसेनी एकादशी भी कहते हैं, मनाई जाती है। इसी से 12 एकादशी का फल मिल जाता है।
त्रिचूर, केरल में मई के महीने में ‘पूरम उत्सव’ मनाया जाता है। इसमें हाथियों को सजाकर घुमाया जाता है।
जून-जुलाई में यानी आषाढ़ शुक्ल पक्ष के दूसरे दिन पुरी में भगवान जगन्नाथ जी की ‘रथ यात्रा’ निकाली जाती है। इस दिन राधा-कृष्ण अपनी मौसी के घर मथुरा जाते हैं। साथ में उनके भाई बलराम और बहन सुभद्रा की मूर्तियां भी यात्रा में रखी जाती हैं। आषाढ़ की पूर्णिमा को ‘गुरु पूर्णिमा’ मनाते हैं और इस दिन व्यास जी की पूजा होती है।
जुलाई.अगस्त में ‘नाग पंचमी’ आती है। सावन शुक्लपक्ष के पांचवें दिन शेष नाग की पूजा की जाती है, जिन पर भगवान विष्णु विराजमान हैं। सावन की पूर्णिमा पर ‘रक्षा बंधन’ का त्यौहार आता है। यह त्यौहार भाई.बहन के प्रेम एवं विश्वास का प्रतीक है। बहनें भाई की कलाई पर राखी बांधती हैं और मिष्ठान खिलाती हैं। भाई उसे कुछ उपहार देता है और रक्षा का वचन देता है। भादों कृष्ण पक्ष के आठवें दिन ‘कृष्ण जन्माष्टमी’ मनाई जाती है। इस दिन कृष्ण का जन्म हुआ था। मध्य रात्रि तक खूब नाच-गाना व उत्सव चलता है। लोग मध्य रात्रि तक उपवास भी रखते हैं। हर वर्ष 17 सितंबर को ‘विश्वकर्मा पूजा’ का आयोजन किया जाता है। देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा जी का यह जन्म दिन होता है।
भादों (अगस्त-सितंबर) शुक्ल पक्ष के चैथे दिन ‘गणेश चतुर्थी’ मनाई जाती है। महाराष्ट्र में इस उत्सव का विशेष महत्व है। हर मंदिर में गणेश जी की मिट्टी की प्रतिमाएं रखी जाती है, जिन्हें खूब सजाया जाता है। हर परिवार एक छोटी या बड़ी मूर्ति खरीदता है। बड़े धूमधाम से निश्चित अवधि तक पूजा के पश्चात् उस मूर्ति का विसर्जन किया जाता है। यहां इसका उल्लेख अप्रासंगिक नहीं होगा कि बालगंगाधर तिलक ने राष्ट्रीयता के व्यापक प्रसार व संचार हेतु इस उत्सव को लोकप्रिय बनाया था। इसी समय केरल में ‘ओणम’ मनाया जाता है, जो फसल की कटाई से जुड़ा है। सम्राट महाबली के भव्य स्वागत से प्रारंभ होकर दस दिन चलने वाले इस उत्सव में फर्श पर रंग-बिरंगी रंगोली बनाई जाती है और कन्याएं ‘कईकोत्तिक्कली’ जैसे नृत्य करती हैं। ओणम अपनी नौकादौड़ प्रतियोगिता हेतु काफी प्रसिद्ध है। अभिलेखों के अनुसार यह पर्व 861 ई. से ही मनाया जाता है।
भादों कृष्णपक्ष के 14वें दिन अनंत भगवान (शेषनाग) को समर्पित अनंत चतुर्दशी मनाई जाती है। भादों की पूर्णिमा के अगले दिन से 15 दिनों तक (अमावस्या तक) पितृपक्ष होता है। इसमें पितरों का श्राद्धकर्म, पिण्ड दान वगैरह किया जाता है। आश्विन शुक्लपक्ष के आठवें दिन ‘जिउतपुत्रिका’ मनाते हैं। कहते हैं कि चोलराजा जिउतवाहन ने इसी दिन नरभक्षी राक्षस को मारकर प्रजा को मुक्ति दिलाई थी।
आश्विन शुक्लपक्ष प्रतिपदा से ही दशहरा प्रारंभ होता है। उत्तर भारत में यह रावण पर राम की विजय का प्रतीक है। इन दस दिनों में रामलीला का आयोजन किया जाता है और दसवें दिन यानी विजयादशमी को रावण, मेघनाद और कुम्भकर्ण के पुतले जला, जाते हैं, जो बुराई के अंत का प्रतीक है। बंगाली इसे ‘दुग्रपूजा’ के रूप में मनाते हैं। गुजराती इसे ‘नवरात्र’ कहते हैं। दक्षिण में यह ‘नवरात्रि’ है और वहां की परम्परा के अनुसार सीढ़ियों पर देवी.देवताओं की प्रतिमाएं रखी जाती हैं और महिलाएं एक-दूसरे को अपने घर बुलाती हैं। कुल्लू में इसे थोड़ा बाद में मनाते हैं। किंतु यह विशेष अवसर होता है, जब पूरी घाटी से देवताओं की प्रतिमाएं एक जगह एकत्र की जाती है और मेले का आयोजन किया जाता है। इसी से स्पष्ट होता है कि इसी कारण से कुल्लू को ‘देवताओं की घाटी’ कहा जाता है।
आश्विन की पूर्णिमा को ‘शरद पूर्णिमा’ मनाई जाती है। ऐसा मानते हैं कि इस दिन चंद्रमा से अमृत टपकता है। लोग खीर वगैरह बनाकर बाहर रखते हैं और सुबह उसे खाते हैं। कार्तिक कृष्णपक्ष के तेरहवें दिन ‘धन त्रयोदशी (धनतेरस) पड़ती है। इस दिन लोग नये बर्तन खरीदते हैं। कार्तिक (अक्टूबर-नवम्बर) अमावस्या को दीपों का पर्व ‘दीपावली’ मनाई जाती है। इसे मनाने के संबंध में कई कथाएं जुड़ी हैं। एक के अनुसार, अपने चैदह वर्ष के वनवास के बाद राम अयोध्या वापस आए थे और उन्हीं के स्वागत स्वरूप दीप जलाकर प्रसन्नता प्रकट की जाती है। बंगाली इसे काली को समर्पित करते हैं। दक्षिण में इसे कृष्ण के नरकासुर पर विजय के रूप में मनाया जाता है। पश्चिमी भारत में ऐसी मान्यता है कि इस दिन समृद्धि की देवी लक्ष्मी मंदाकिनी से निकली थीं। जैनियों के लिए दीपावली नया साल है और परम्पराबद्ध कम्पनियों, महाजनों, सेठों इत्यादि के लिए यह नए वित्त वर्ष का प्रारंभ है। यह राजा बलि के आगमन का भी दिन माना जाता है, जिनका मानमर्दन विष्णु ने किया था। इस अवसर पर लोग एक दूसरे को मिठाइयां इत्यादि देते हैं और पटाखे छोड़ते हैं। दीपावली के बाद अन्नकूट, भैयादूज, गोवर्धन पूजा जैसे त्यौहार पड़ते हैं। कार्तिक शुक्लपक्ष के छठवें दिन ‘सूर्यषष्टी व्रत’ (छठ पूजा) होती है। बिहार में इसका विशेष महत्व है। बिहार का यह महापर्व है। ऐसा मानते हैं कि सबकुछ जुए में हारने के पश्चात् द्रौपदी ने छठ पूजा की थी और सूर्य देव से सब वापस पाने का वरदान मांगा था। अर्थात्, यह काफी पहले से ही मनाया जाता रहा है।
झारखंड के आदिवासी बहुत धूमधाम के साथ एक पर्व मनाते हैं जिसे ‘सरहुल’ कहा जाता है। इस पर्व के बारे में यह कहा जाता है कि इस पर्व में प्रकृति की उपासना की जाती है। इसे फूलों का पर्व भी कहते हैं। सरहुल के दिन से ही नए वर्ष का प्रारंभ माना जाता है। झारखंड के सभी आदिवासी समुदाय के लोग सरहुल पर्व को मनाते हैं। मुंडा, उरांव, हो, खड़िया तथा संथाल समुदाय के आदिवासी इसकी प्रतीक्षा बड़ी व्यग्रता से करते हैं। सरहुल सामान्यतः चैत्र मास में मनाया जाता है।
झारखंड में प्रचलित विभिन्न सांस्कृतिक धार्मिक उत्सवों में ईन्द पर्व का महत्वपूर्ण स्थान है। यह पर्व इस क्षेत्र में विभिन्न स्थानों में प्रत्येक वर्ष एक निश्चित तिथि को मनाया जाता है जिसमें विभिन्न जाति और वग्र के सदस्य समान रूप से भाग लेते हैं। यह पर्व विभिन्न समुदायों की सहभागिता एवं सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है। ईन्द पर्व मुख्य रूप से भादों (अगस्त-सितंबर) में मनाया जाता है लेकिन इसकी तिथि विभिन्न स्थानों में एक समान नहीं होती है।
आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु और केरल के कुछ हिस्सों में कार्तिक पूर्णिमा को ‘कार्तिकाई’ (जो प्रकाश का ही उत्सव है) मनाया जाता है। ब्रह्माण्ड के जन्म के समय शिव के प्रकट होने के सम्मान में इसे मनाते हैं।
असम के लोग तीन प्रकार के ‘बीहू या त्यौहार’ मनाते हंै बोहाग बीहू, माघ बीहू और काति बीहू, जो क्रमशः वसंत, शीत और शरद ऋतु में पड़ते हैं। बोहाग बीहू कृषि कार्यों के प्रारंभ होने का समय है। माघ बीहू फसल कटाई के समय पड़ता है। काति बीहू (अक्टूबर-नवंबर) में घर के आंगन में तुलसी के पौधे की पूजा की जाती है।