पृथ्वी की उत्पत्ति कैसे हुई कब हुयी ? पृथ्वी की उत्पत्ति के सिद्धांत पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति के विभिन्न सिद्धांत और परीक्षण

Origin of the Earth in hindi पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति के विभिन्न सिद्धांत और परीक्षण पृथ्वी की उत्पत्ति कैसे हुई कब हुयी ? पृथ्वी की उत्पत्ति के सिद्धांत ?

पृथ्वी की उत्पत्ति
(Origin of the Earth)
पृथ्वी सूर्य से 14,88,00,000 किलोमीटर की दूरी पर स्थित सौर मण्डल का एक सदस्य ग्रह है। पृथ्वी सहित सौर मण्डल में 9 ग्रह हैं। पृथ्वी की उत्पत्ति तथा आयु की समस्या अपने में एक जटिल समस्या है। विभिन्न विद्वानों ने समय-समय पर पृथ्वी की उत्पत्ति सम्बन्धी विचार, परिकल्पना तथा सिद्धान्त प्रस्तुत किये, परन्तु ये सभी पृथ्वी की उत्पत्ति सम्बन्धी रहस्य को सुलझाने में समर्थ नहीं हो सके। प्रारम्भ में, इनको समर्थन अवश्य प्राप्त हुआ, लेकिन बाद में तर्कपूर्ण आलोचनाओं के सामने टिक नहीं सके। पृथ्वी की उत्पत्ति सम्बन्धी दो विचारधारायें प्रचलित हैं –
1. धार्मिक विचारधारा – यह विचारधारा पूर्णरूपेण कल्पना पर आधारित है तथा तर्कपूर्ण कसौटी पर खरी नहीं उतरती, जिस कारण इसे आज मान्यता नहीं मिल पायी है। अतः इसका उल्लेख करना समीचीन प्रतीत नहीं होता है।
2. वैज्ञानिक संकल्पना – पृथ्वी की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक तर्कपूर्ण परिकल्पनायें प्रस्तुत की गयी हैं। सर्वप्रथम प्रयास फ्रान्सीसी वैज्ञानिक ‘कास्ते द बफन‘ ने सन् 1749 ई० में किया था। समय-समय पर अनेक विद्वानों ने अपना योगदान प्रस्तुत किया, परन्तु अब तक जितने भी मत दिये गये, किसी को भी पूर्णरूपेण मान्यता नहीं मिल पायी। इन परिकल्पनाओं के आधार पर वैज्ञानिक विचारधाराओं को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है –
(i) अद्वैतवादी विचारधारा (Monistic Concept), तथा
(ii) द्वैतवादी विचारधारा (Dualistic Concept)
अद्वैतवादी विचारधारा (Monistic Concept)
इस विचारधारा के अनुसार ग्रहों तथा पृथ्वी की उत्पत्ति केवल एक तारा से मानी जाती है। इस समस्या को स्पष्ट करने के लिए सर्वप्रथम प्रयास ‘कास्ते द बफन‘ महोदय ने किया था। इन्होंने पृथ्वी की उत्पत्ति एक तारा से मानी। बाद में इस विचारधारा के समर्थन में इमैनुअल कान्ट, लाप्लास, रॉस और लाकियर महोदय ने अपने मत प्रस्तुत किये।
1. कान्ट की वायव्य राशि परिकल्पना (Gaseous Hypothesis of Kant)
कान्ट महोदय ने पृथ्वी की उत्पत्ति सम्बन्धी विचारधारा सन् 1755 ई० में ‘वायव्य राशि परिकल्पना‘ प्रस्तुत की। इन्होंने बताया कि सौर मण्डल के विकास के लिये ब्रह्माण्ड में पहले से ही आद्य पदार्थ विखरे पड़े थे, जो कि शीतल, कठोर तथा गतिहीन थे। कुछ क्रियाओं के परिणामस्वरूप मध्य में एक निहारिका का निर्माण हो गया। निहारिका के प्रारम्भिक संघर्ष के कारण ताप उत्पन्न हुआ था। ताप उत्पन्न होने से, बाद में गति पैदा हो गयी। गति पैदा होने से उसमें घूमने की क्रिया या अक्ष पर नाचने की क्रिया पैदा हो गयी। निहारिका में ताप और गति इन दो गुणों के आ जाने से उसमें आकर्षण अधिक होने लगा। निहारिका का धीरे-धीरे विकास होने लगा, जिस कारण उसके सभी अंगों का विकास हो गया। विकास होने से उसके आकर्षण की मात्रा में कमी आ गयी तथा आकर्षण कम होने से एक परिधि पिन्ड से अलग हो गयी। धीरे-धीरे उस पर परतें जमती गयी। जब आकर्षण की मात्रा और कम हुयी, तो निहारिका से एक भाग अलग हो गया। ताप की कमी होने के कारण धीरे-धीरे ठोस रुप में परिणित हो गया। उपर्युक्त प्रक्रिया की पुनरावृत्ति के कारण धीरे-धीरे 9 ग्रहों तथा कई उपग्रहों की उत्पत्ति हुयी।
कान्ट की परिकल्पना इस सिद्धान्त पर आधारित है कि जहाँ पर घूमने की क्रिया होती है, वहाँ पर एक अक्ष का निर्माण होता है। उदाहरण के लिए यदि हम पत्थर के एक टुकड़े को तागे में बांध कर घुमायें, तो एक परिधि का निर्माण हो जाता है। इस पर दो शक्तियाँ कार्य करती हैं। एक शक्ति पत्थर के टुकड़े को बांधे रहने का कार्य करती है जिसे आकर्षण बल कहते हैं। दूसरी शक्ति बाहर फेंकने का कार्य करती है, जिसे फेकाव या केन्द्रापसारित बल कहते हैं। दोनों शक्तियों में विरोधाभास होता है। यदि केन्द्रापसारित शक्ति अधिक होगी, तो आकर्षण शक्ति कम। निहारिका में घूमने की गति तेज हो गयी। जिससे केन्द्रापसारी बल अधिक हो गया तथा आकर्षण बल कम हो गया। परिणामस्वरूप निहारिका के मध्य का भाग अलग हो गया।
आलोचना काण्ट की परिकल्पना का आधार वैज्ञानिक था, परन्तु यदि इसकी वैज्ञानिक व्याख्या करें, तो सम्पूर्ण तथ्य आधारहीन दिखाई पड़ता है।
पण् कणों के आपसी टकराव में प्रमणगति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, जिससे इनकी गति की कल्पना त्रुटिपूर्ण है।
पपण् काण्ट की यह विचारधारा कि निहारिका के आकार में वृद्धि के साथ गति में वृद्धि होती गयी।
उपर्युक्त सिद्धान्त के खिलाफ है, क्योंकि ‘कोणीय आवेग की स्थिरता का सिद्धान्त’ के अनुसार यदि गति बढ़ती है, तो आकार घटता है तथा यदि आकार घटता है तो गति बढ़ती है।
इसके अलावा यदि प्रश्न किया जाय कि निहारिका कहाँ से और कैसे आयी, तो इसका कोई उचित उत्तर नहीं मिल सकेगा। किसी भी सिद्धान्त के लिये स्वयं सिद्धों की आवश्यकता होती है। यदि हम अधिक सर्वविदित तथ्यों को मानकर चलें तो किसी भी परिकल्पना का निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है, परन्तु स्वयं सिद्धों का आधार केवल उतना ही होना चाहिए जितना कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मान्य है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने काण्ट की परिकल्पना को मात्र कल्पना माना है, क्योंकि इनके अनुसार काण्ट की परिकल्पना अवैज्ञानिक तथा असंतुलित आधारों पर आधारित है। कणों के संयोग से ताप का उत्पन्न होना, वैज्ञानिक आधार से भिन्न है। अतः काण्ट की यह विचारधारा कि निहारिका के कणों के आपसी संयोग से ताप पैदा होता है, सम्भव नहीं है।
निहारिका के साथ-साथ अक्ष पर घूमने की शक्ति बढ़ती जायेगी। जबकि भौतिकशास्त्र का नियम है कि कोई वस्तु अपने अक्ष पर घूमती है, तो शक्ति बढ़ती जायेगी। यदि वस्तु अपने अक्ष पर घूमती है, तो उसके घूमने की शक्ति निश्चित रहती है। यदि पिण्ड का विस्तार होगा, तो गति धीमी और यदि संकुचन होगा तो गति तेज हो जायेगी। काण्ट के अनुसार विस्तार के साथ-साथ गति बढ़ती जाती है। इस तरह यह भौतिकशास्त्र द्वारा अमान्य है। ऐसी दशा में केवल इतना कहा जा सकता है कि काण्ट महोदय का नया प्रयास था, परिणामस्वरूप उन्हें एक नया महत्त्व मिला है। उन्होंने यदि इस तरह की परिकल्पना हम लोगों के सम्मुख न रखी होती, तो इसके विषय में सम्भवतः कल्पना ही न की गयी होती।