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प्रिंस ऑफ वेल्स संग्रहालय कहाँ स्थित है where is prince of wales museum is located at in hindi

where is prince of wales museum is located at in hindi प्रिंस ऑफ वेल्स संग्रहालय कहाँ स्थित है भारत में प्रिन्स ऑफ़ वेल्स संग्रहालय किस स्थान पर बना हुआ है ?

उत्तर : प्रिंस आफ वेल्ज संग्रहालय मुंबई (तब की बम्बई) में स्थित है | यह विक्टोरियाई शैली का एक उदाहरण माना जाता है | 20 वीं शताब्दी में प्रिंस ऑफ वेल्स एडवर्ड VIII भारत आये थे और उनकी भारत में यात्रा या सफ़र को यादगार बनाने के लिए इस संग्रहालय का निर्माण किया गया था |

प्रश्न: विक्टोरियाई शैली
उत्तर: ब्रिटिश साम्राज्य के उदय और कई अंग्रेजी बातों की शुरूआत से भारत में विक्टोरियाई युग के स्थापत्य का विकास शुरु हुआ। लेकिन विक्टोरियाई शैली कोई मौलिक शैली नहीं थी बल्कि एक नकल थी, इसलिए उसमें भारतीय और ब्रिा स्थापत्य की किसी मिश्रित शैली (भारतीय इस्लामी शैली जैसी) की शुरूआत करने की कोई क्षमता नहीं थी। गुंबदनुमा वाली और लोहे की छड़ों के सहारे ईटों की बड़ी-बड़ी इमारतें विक्टोरियाई स्थापत्य शैली का सबसे घटिया नमूना इसलिए 19वीं शताब्दी की आंग्ल शैली में ऐसी कोई विशेषता नहीं थी जो इससे पहले की स्थापत्य शैली क गारवमय पहले की स्थापत्य शैली के गौरवमय युग का मुकाबला कर सकती। 19वीं शताब्दी अंग्रेजी स्थापत्य कला हर तरह से निम्न कोटि की थी।
विक्टोरियाई युग का इमारतो में उल्लेखनीय हैं……कलकत्ता और मदास के गिरजाघर कराची का फ्रेचर हाल, शिमला और लाहौर के कैथील (गिरजे), उच्च न्यायालय और कलकत्ता उच्च न्यायालय। लेकिन इनमें से किसी इमारत। लेकिन इनमें से किसी इमारत को वास्तुकला की महान कृति नहीं कहा जा सकता।
विक्टोरियाई युग के अंत में भारत में राष्ट्रीय जागरण और आंदोलन का दौर शरू हआ। अंग्रेज महारानी विक्टोरिया को स्मृति को भारत में उनके नाम पर एक मेमोरियल हाल (स्मारक भवन) बना कर सदा जीवित रखना चाहते थे। शिल्पकारा के इरादे तो बहुत अच्छे थे लेकिन ‘विक्टोरिया मेमोरियल हाल‘ भारतीय ब्रिटिश शैली का एक अनोखा नमूना न बन सका। इस भवन पर जो भारतीय आलेख और इसके ऊपर जो गंबद बना हुआ था उससे वह ताजमहल जैसा तो क्या, उसकी मामूली सी. नकल भी प्रतीत नहीं हुआ। इसी तरह ‘बंबई में प्रिंस आफ वेल्ज संग्रहालय‘ का निर्माण करते समय प्राच्य विशेषताओं की नकल करने के प्रयत्न भी बहुत सफल सिद्ध नहीं हुए।
प्रश्न: दिल्ली का आधुनिक स्थापत्य
उत्तर: 1911 ई. में राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली लाने का निर्णय किया गया। भारत की परंपरागत राजधानी दिल्ली को भारत में अंग्रेजों की शाही राजधानी बनाया जाना था। प्रधान वास्तुशिल्पी सर एडविन लुटयेन्स और साथी सर एडवर्ड बेकर ने पहले तो नव रोमन शैली में डिजाइन तैयार किए, लेकिन बहुत से अंग्रेजों को भारतीय पृष्ठभूमि में यह डिजाइन उचित प्रतीत नहीं हुए। ये सुझाव दिए गए कि भारत को यहां की परंपरागत स्थापत्य शैलियों वाली इमारतों से सुसज्जित राजधानी मिलनी चाहिए। ब्रिटिश वास्तुशिल्पियों ने दिल्ली के लिए नए सिरे से नक्शे तैयार करते समय बौद्ध, हिंदू और इस्लामी स्थापत्य विशेषताओं का अध्ययन करना शुरू किया। इसके परिणामस्वरूप एक विचित्र सम्मिश्रण की शैली का उदय होना निश्चित था। अंत में जब बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं के साथ यह राजधानी बनी, तो वायसराय का प्रासाद (वाइस रीगल पैलेस) किसी बौद्ध स्तूप जैसे गुम्बद वाला प्रतीत हुआ और अधिकांश इमारतों में या तों सजावट की हिंदू शैली या समरूपता की इस्लामी शैली की बातें नजर आई। इस प्रयोग से न तो भारत की स्थापत्य कला का पुराना गौरव फिर से प्राप्त किया जा सका और न ही इससे नवयुग के उद्देश्यों की पूर्ति करने वाली नई इमारतें ही बन सकीं।
फिर भी दिल्ली की इमारतें ब्रिटिश शासन काल के स्थापत्य का उत्कृष्ट नमूना हैं। वायसराय का प्रासाद (वायसरीजल पैलेस) और सचिवालय, (सेकेटेरियट) तथा अन्य इमारतें बहुत शानदार और भव्य हैं।
भारत की स्वाधीनता के साथ ही स्थापत्य कला का इतिहास एक नए दौर में प्रविष्ट हुआ। जो राजधानियां उस समय मौजूद थीं उनके विस्तार के साथ-साथ भुवनेश्वर और चंडीगढ़ जैसी नए राज्यों की राजधानियों का भी निर्माण होना था।
निंबधात्मक प्रश्न
प्रश्न: आधुनिक भारतीय स्थापत्य कला की मुख्य विशेषताएं बताइए।
उत्तर: प्रत्येक युग में भवन-निर्माण, उस काल की आवश्यकताओं के अनुसार होता है। आधुनिक स्थापत्य परंपरागत वास्तशिल्प से भिन्न है। संस्कृति के किसी अन्य क्षेत्र में परंपराओं से इतना परे नहीं हटा गया है जितना संभवतः स्थापत्य कला में। आधुनिक स्थापत्य कला की कुछ अपनी ही विशेषताएं हैं, जो निम्नलिखित हैं-
ऽ भक्ति भाव या प्रशंसा भाव जगाने वाली इमारतों के निर्माण के उद्देश्य का स्थान, सामाजिक जीवनोपयोगी इमारतों ने ले लिया।
ऽ स्थापत्य कला अब आवश्यकता-पूरक बन गई।
ऽ इसके सजावटी पहलू को अब पुराना समझा जाने लगा।
ऽ इसकी सादगी में सुंदरता के विचार ने ले ली।
ऽ प्राचीन परंपरागत डिजाइनों को छोड़ कर नए सादा किस्म के डिजाइनों को पसंद किया गया।
ऽ स्थापत्य कला का नया सिद्धांत जिसे कार्यात्मकता कहा जाता है केवल इसे अधिक उपयोगी बनाने का सिद्धांत है।
ऽ विज्ञान और टेक्नालाजी ने आधनिक इंजीनियरी कौशल के साथ मिल कर आज की स्थापत्य-इंजीनियर पंराने जमाने की इमारतें से कहीं ऊंची-ऊंची इमारतों को बना सकता है।
ऽ आधुनिक वास्तशिल्पा में पुरानी भव्यता तो नहीं है, परंतु इसका आकार और ऊंचाई देख कर मनुष्य विस्मयाविभत हो जाता है। विशालकाय ढांचा, समरूपता, सुविधा-व्यवस्था, बहुत सारी जगह और दृढ़ता के कारण आधनिक सात आंखों को सुंदर प्रतीत होती हैं।
प्रश्न: आधुनिक कालीन भारतीय मूर्तिशिल्प के विकास क्रम का वर्णन कीजिए।
उत्तर: कला में आधुनिक युग की शुरुआत हम 19वीं शताब्दी के आरम्भ से ही मान सकते हैं। इस समय के ऐसे मूर्तिकार में देवी प्रसाद राय चैधरी, फणीन्द्र नाथ बोस के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। बंगाल के ही ‘हिरण्यमय चैधरी‘, मद्रास के ‘नागप्पा‘ व लखनऊ के ‘भगवंत सिंह‘ आदि भी इस समय के मूर्तिकारों में विशेष उल्लेखनीय नाम हैं।
इसी समय के अन्य महत्वपूर्ण मूर्तिकारों में एस.जी. म्हात्रे और एस. फड़के भी माने जा सकते हैं जिन्होंने अपने मूर्तिशिल्पों में मध्यवर्ती हिन्दू परिवारों की जीवन शैली को भावनात्मक शैली में प्रस्तुत किया।
1925 से 1950 ई. के दशकों के बीच जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण मूर्तिकार इस समय सृजनरत थे, उनमें देवीप्रसाद राय चैधरी उस. पन्सारे, वी.पी. करमाकर और रामकिंकर बैज माने जा सकते हैं।
इस समय मूर्तिकला के क्षेत्र में जिन अन्य मूर्तिकारों में आधुनिक तत्व दृष्टिगोचर हो रहे थे, उनमें से प्रमुख थे – धनराज भगत, अमरनाथ सहगल, प्रदोषदास गुप्ता, सोमनाथ होर, के.जी. सुब्रह्मण्यन, बी.सी. सान्याल, चिंतामणि कार, शंखों चैधरी एस.एल. पाराशर, एस. धनपाल आदि।
अमरनाथ सहगल व धनराज भगत ने मुख्यतया अमूर्तवादी शैली में काम किया है। इन्हीं के समकालीन प्रदोषदास गुप्ता उन मूर्तिकारों में थे, जिन्होंने अपनी वैचारिक व भावनात्मक स्वतंत्रता के साथ अमूर्त व सरल आकारों का निर्माण किया। वे ‘कलकत्ता ग्रुप‘ को स्थापित करने वालों में से एक थे। वे कलकत्ता के गवर्नमेन्ट स्कूल ऑफ आर्ट्स एण्ड क्राफ्ट्स के प्रिसिपल भी रहे। लंदन के रॉयल एकेडेमी से शिक्षित होने के कारण प्रदोष दास गुप्ता ने आधुनिक यूरोपियन मूर्तिकला को एक गहरी समझ विकसित की जिससे वे आधुनिक कला के सौन्दर्य तत्व को अपने कला रूपों में विकसित करने में समर्थ हो सके। धनराज भगत की मूर्तियों में बाह्याकार का सपाट और चिकनापन, आकृति की लम्बाई, कोमल आभास, लयात्मकता और गति विशेष रूप से दर्शनीय होती हैं। धनराज भगत अपने काष्ठ के मूर्तिशिल्पों के कारण विशेष रूप से प्रसिद्ध रहे। अमरनाथ सहगल के मूर्तिशिल्पों में सरल और आदिम कला के तत्व दृष्टिगोचर होते हैं। वे वर्तमान युग के मनुष्य के भय, चिंताओं व चीखों को अपने मूर्तिशिल्पों में मूर्तिमान करते हैं।
बी.सी. सान्याल ने चित्रकला के अतिरिक्त मूर्तिकला में सिरेमिक्स आदि माध्यम में बहुत सर्जनात्मक कार्य किया है।
के.जी. सुब्रमण्यन ने चित्रकला के साथ-साथ इन्होंने काष्ठ, फाइबर ग्लास, सीमेन्ट व टेराकोटा आदि अनेक माध्यमों में काम किया।
सन् 1950 के दशक में देश में ‘राष्ट्रीय आधुनिक कला दीर्घा‘ (छळड।) और श्ललित कला अकादमीश् की स्थापना की गई। ये दो ऐसी बड़ी. संस्थाएं थी, जिनके माध्यम से देश में आधुनिक व ‘समसामयिक कला धारा‘ को पर्याप्त प्रोत्साहन मिलना प्रारम्भ हुआ। ललित कला अकादमी की स्थापना 5 अगस्त, 1954 को नई दिल्ली में हुई और रवीन्द्र भवन में इन्होंने अपना कार्य 1961 ई. से प्रारम्भ किया, जिसके प्रथम अध्यक्ष प्रसिद्ध मूर्तिकार देवीप्रसाद राय चैधरी को बनाया गया।