भू आकृति विज्ञान की परिभाषा क्या है Geomorphology in hindi meaning भू आकृति विज्ञान किसे कहते है अर्थ मतलब

Geomorphology in hindi meaning definition भू आकृति विज्ञान की परिभाषा क्या है भू आकृति विज्ञान किसे कहते है अर्थ मतलब  ?

भू-आकृति विज्ञान
(Geomorphology)
भू-आकृति विज्ञान, जो द्रष्टव्य भूदृश्यों की विभिन्न समस्याओं का विश्लेषण करता है, अपने ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में अन्तर्निहत परिभाषाओं के द्वारा विषय-क्षेत्र निश्चित कर, वर्तमान स्वरूप में विकसित हुआ। अल्प ज्ञान एवं सीमित सामग्रियों से युक्त मानव स्थलरूपों के उत्पत्तिमूलक निर्वचन-हेतु सदैव प्रगतिशील रहा, परिणामतः इसका श्रेणीगत विकास हुआ, जिसकी पुष्टि परिवर्तनशील परिभाषाओं से सम्भव है। भू-आकृति विज्ञान के आधारकाल में – ‘कौन‘? ‘कहाँ‘? का अध्ययन प्रत्यक्ष अवलोकनों के आधार पर किया गया। तदनन्तर, अनेक आकस्मिक भू-गर्भिक घटनायें घटित हुई, परिणामतः – ‘कव‘ ? ‘क्या‘? – इसमें समाहित होकर परिभाषा एवं विषय-क्षेत्र को विस्तीर्ण किया। तत्पश्चात, वैज्ञानिक प्रगति ने भू-आकृति विज्ञानवेत्ताओं की चिन्तन-प्रवृत्ति में परिवर्तन किया, फलतः वे स्थलरूपों की सृजनात्मक जटिलताओं में प्रवेश कर इनकी समस्याओं के निराकरण में संलग्न हो गये। इनकी यही प्रवृत्ति – ‘क्यों‘? ‘कैसे‘? की प्रविष्टि-हेतु सहायक हुई, जिससे वर्तमान वैज्ञानिक-विश्लेषण सम्भव हुआ। भू-आकृति विज्ञान इन विभिन्न अवस्थाओं से गुजर कर वर्तमान स्वरूप को प्राप्त किया। सम्भवतः इन्हीं कारणों से इसकी परिभाषा, विषय-क्षेत्र, विधि एवं प्रविधि अनवरत परिवर्तनशील रही है। स्थलरूपों के अध्येताओं की प्रथम जिज्ञासा-भू-आकृति विज्ञान क्या है? इसका विकास किन-किन श्रेणियों से गुजरा? भारत में इसकी अध्ययन-प्रवृति? इस विषय की अध्ययन-विधि एवं प्रविधि क्या है? क्या मात्रात्मक विश्लेषण स्थलरूपों के विकास की समस्या के समाधान-हेतु समर्थ है? स्थलरूपों के अध्ययन में क्षेत्र पर्यवेक्षण की भूमिका क्या है? – का विषय है। अस्तु, इन प्रश्नों के समाधान हेतु विस्तृत विश्लेषण इस अध्याय में प्रस्तुत किया गया है।
भू-आकृति विज्ञान की परिभाषा (Definition of Geomorphology)
भू-आकृति विज्ञान (Geomorphology) शब्द का विश्लेषण यदि ग्रीक भाषा के आधार पर किया जाय, तब स्पष्ट होता है कि-हम ़ marphi ़ logos = Earth ़ forms ़ discourse, अर्थात भू-आकृति विज्ञान स्थलरूपों का विज्ञान है, परन्तु यह विचार भी संकुचित है, इसको इस सीमा से ऊपर उठना होगा, क्योंकि यह विज्ञान स्थलरूपों के अध्ययन के साथ-साथ भूपटल के विभिन्न रूपों का अध्ययन करता है। फलतः भू-आकृति विज्ञान विभिन्न उच्चावच के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करता है। उच्चावच के अन्तर्गत-महाद्वीप, महासागर, पर्वत, पठार, मैदान, झील आदि आते हैं, जिनकी उत्पत्ति, विकास आदि की व्याख्या की जाती है। इसके अलावा इन उच्चावचनों पर विद्यमान लघु स्थलाकृतियों – घाटी, गार्ज, प्रपात, बालुकास्तूप, सर्क, रोधिका, पुलिन, कन्दरा आदि का भी अध्ययन बड़ी सूक्ष्मता से किया जाता है।
वारसेस्टर के अनुसार – भू-आकृति विज्ञान पृथ्वी के उच्चावचों का व्याख्यात्मक वर्णन है।
इसमें उच्चावच के रूप, उत्पत्ति तथा विकास का अध्ययन करने के लिए संरचना तथा स्थलरूपों के निर्माण में सहायक प्रक्रमों का विश्लेषण किया जाता है। इनकी इस परिभाषा से भू-आकृति विज्ञान अपने संकुचित दृष्टिकोण का त्याग कर विस्तृत दृष्टिकोण वाला बन गया है। स्थलरूप की निर्माण प्रक्रिया, प्रकार तथा प्रक्रम आदि के साथ-साथ इनकी जटिलता, जटिलता उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों का विश्लेषण भी सम्मिलित हो गया।
प्रो० थार्नबरी ने स्पष्ट किया कि – साधारण रूप से यह विचार किया जाता है कि – भू- आकति विज्ञान स्थलरूपों का विज्ञान है। परन्तु, इसमें अन्तः सागरीय रूपों को भी सम्मिलित किया जाता है, जिस कारण यह स्थलरूपों के अध्ययन से बढ़कर है, क्योंकि इसके अन्तर्गत महासागर-नितल, महाद्वीप, पर्वतादि का अध्ययन किया जाता है। साथ ही साथ छोटे-छोटे स्थलरूपों, जैसे पर्वत, पठार और मैदान को भी सम्मिलित किया जाता है।
1. वारसेस्टर, पी० जी० 1949ः ए टेस्ट वुकं ऑफ ज्योमार्कोलॉजी, पृ० 3-4

स्टालर ने भू-आकृति विज्ञान की परिभाषा प्रस्तुत करते हुए स्पष्ट किया कि – यह विज्ञान सभी प्रकार के स्थलरूपों की उत्पत्ति तथा उसके व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध विकास की व्यख्या करता है तथा भौतिक भूगोल का प्रमुख अंग है। अतीत से वर्तमान तक मानव तथा स्थलरूप का सम्बन्ध तादात्म्य रूप में विद्यमान है। अनेक संस्कृतियों इन्हीं स्थलरूपों के सौजन्य से सृजित हुई तथा विनष्ट हुई। इतना ही नहीं यातायात के साधन, नगर की स्थिति, कृषि-भूमि आदि प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से स्थलाकृतियों द्वारा प्रभावित होते हैं, जिस कारण स्थलरूपों का अध्ययन विस्तार से करना चाहिए।
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि भू-आकृति विज्ञान सभी स्थलरूपों की उत्पत्ति, विकाम, जटिलताओं का समावेश तथा संस्कृति से सम्बन्ध का वैज्ञानिक संश्लेषण एवं विश्लेषण प्रस्तुत करता है। सांस्कृतिक तत्वों का पल्लवन, विकास तथा प्रसार वर्तमान के पूर्व तक किसी न किसी रूप से स्थलरूपों से प्रभावित है। ऐसी वस्तुस्थिति में स्थलरूपों के अध्ययन के साथ-साथ संस्कृति के सम्बन्ध का अध्ययन भी अत्यन्त आवश्यक हो जाता है। भूगोलवेत्ता का मूल उद्देश्य मानवीय परिप्रेक्ष्य है। भूगोल की किसी भी शाखा, प्रशाखा के विश्लेषण में मानवीय तथ्य अवश्य अन्तर्निहित होते हैं जिनकों स्पष्ट करना भूगोलवेत्ताओं का अभीष्ठ कर्तव्य है।
वर्तमान समय में भूगोलवेत्ता ज्योमार्कोलॉजी तथा फिजियोग्रैफी दोनों शब्दों का प्रयोग समान अर्थ में करते हैं, जो नितान्त भ्रान्तिपूर्ण है। हिन्दी भाषा में इनका लिप्यंतरण ‘भू-आकृति विज्ञान‘ किया जाता है। कतिपय विद्वान फिजियोग्रेफी के अन्तर्गत स्थलमंडल, जलमंडल तथा वायुमंडल को सम्मिलित करते हैं। परन्तु जलमंडल से समुद्र विज्ञान तथा वायुमंडल से जलवायु विज्ञान का विकास हो जाने के पश्चात् फिजिओग्रैफी शब्द का प्रयोग उपयुक्त नहीं रह गया। फलतः अनेक भूगोलवेत्ता इसका के लिए करने लगे हैं। इस प्रकार यदि फिजिओग्रैफी शब्द का अर्थ व्यापक रूप से लिया जाय, तब ज्योमार्कोलॉजी इसी के अन्तर्गत समाहित हो जायेगा। जब इसके विपरीत इसका संकुचित अर्थ लिया जाय, तब फिजोओग्रैफी का तात्पर्य ज्योमार्कोलॉजी हो सकता है। वास्तव में, यूरोपीय विद्वानों ने इसका प्रयोग स्थलमंडल, जलमंडल तथा वायुमंडल के लिए किये थे, परन्तु बाद में जब समुद्र विज्ञान तथा जलवायु विज्ञान का विकास विशिष्ट रूप में हो गया, तब फिजिओग्रैफी का प्रयोग स्थलमंडल अथवा भू-आकृति विज्ञान के लिए किया जाने लगा।
फिजिओग्रैफी एक भ्रामक शब्द है, क्योंकि इसका प्रयोग अन्य सन्दर्भों में किया जाता है, जैसे किसी क्षेत्र अथवा देश की भौतिक आकृतियों का वर्णन किया जा रहा है, तब इसके लिए भी फिजिओग्रैफी शीर्षक का प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार जब किसी क्षेत्र का प्राकृतिक तत्वों के आधार पर विभाजन करते हैं, तब उसे फिजिओग्रेफिक रीजन कहते हैं। ऐसी वस्तुस्थिति में भू-आकृति विज्ञान के लिए फिजिओग्रेफी शब्द अर्थपूर्ण नहीं है और न ही इसके द्वारा भू-आकृति विज्ञान के अन्तर्गत निहित मौलिकता का बोध होता है।
भू-आकृति विज्ञान का विषय-क्षेत्र (Scope of Geomorphology)
स्थलरूपों का वैज्ञानिक विश्लेषण ही भू-आकृति विज्ञान है। ‘स्थलरूप‘ शब्द का अर्थ अत्यन्त व्यापक है, जिस कारण भू-आकृति विज्ञान का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। वास्तव में, पृथ्वी के उधावच्चों का क्रमबद्व एवं वैज्ञानिक अध्ययन भू-आकृति विज्ञान का लक्ष्य है, जिससे यह स्वतः अपने को भू-विज्ञान से पृथक कर लेता है। इसमें धरातल के विमिन्न उद्यावधों की उत्पति, विकास एवं उनके वर्तमान स्वरूप का वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाता है। यद्यपि वर्तमान तक यह भ्रांति है कि भू-आकृति विज्ञान का मूल स्रोत भूगर्भ विज्ञान है। इसका स्त्रोत भूगोल है अथवा भूगर्भ विज्ञान, इस आधार पर इसकी विशिष्टता का बोध नहीं
2. थार्नवरी, डब्ल्यू0 डी0 1954ः प्रिमिपुल्न ऑफ ज्योमॉफॉलॉजी, जॉन विली एण्ड सन्स, पृ० 2.
1. स्ट्रालर, ए० एन० 1960ः फिजिकल ज्योग्राफी, जॉन विली एण्ड सन्स, पृ० 2.

होता है, बल्कि इसका वर्तमान स्वरूप क्या है, के आधार पर भूगोल की महत्वपूर्ण शाखा एवं भूगर्भशास्त्र से पृथक स्वरूप सृजित करने में समर्थ है। प्रो० थार्नबरी तथा लोबेक जैसे प्रसिद्ध भू-आकृति वैज्ञानिक भू-आकृति विज्ञान को भूगर्भशास्त्र की एक शाखा के रूप में माना है। थार्नवरी के अनुसार- भू-आकृति विज्ञान मुख्यतः भूगर्भशास्त्र है, जबकि लोवेक ने स्पष्ट किया कि भू-आकृति विज्ञान अथवा स्थलरूपों के अध्ययन का विज्ञान भूगर्भशास्त्र की शाखा है। परन्तु, भू-आकृति विज्ञान तथा भूगर्भशास्त्र के अध्ययन क्षेत्र पृथक-पृथक हैं, केवल कुछ में ही समानता विद्यमान है। इसी समानता के आधार पर विद्वानों को भ्रांति होने लगती है। वास्तव में, चट्टानों की संरचना का अध्ययन भू-आकृति विज्ञान में इसलिए किया जाता है कि इसके द्वारा स्थलरूपों के उद्भव एवं विकास को सरल ढंग से समझा जा सकता है।
पृथ्वी के विभिन्न उच्चावच का अध्ययन एवं विश्लेषण भू-आकृति विज्ञान का मुख्य विषय है। धरातली सतह पर विद्यमान विषमताओं को उच्चावच कहा जाता है, जिनमें वृहत् आकारीय एवं लघु आकारीय अथवा सूक्ष्म आकारीय सभी प्रकार की स्थलाकतियाँ उच्चावच के अन्तर्गत सम्मिलित है। अनेक लघु आकृतियों अथवा सूक्ष्म स्थलाकृतियों के संयुक्त स्वरूप से वृहत् स्थलाकृतियों का बोध होता है। ऐसा नही होता है कि वृहत स्थलाकृतियाँ केवल वृहत् स्थलाकृतियाँ होती हैं, बल्कि इनमें अनेक सूक्ष्म स्थलाकृतियाँ भी विद्यमान रहती हैं। जैसे पर्वत एक वृहत् स्थलाकृति है, परन्तु इसमें नदी घाटी, प्रपात, गार्ज, टार्स आदि सूक्ष्म स्थलाकृतियाँ विद्यमान रहती हैं। इनके सम्मिलित स्वरूप से जो धरातलीय विषमता उत्पन्न होती है, उसे उच्चावच की संज्ञा प्रदान की जाती है। धरातल पर स्थलाकृतिक विषमता इतनी जटिल है कि इनकों वर्गीकृत करना संभव नहीं है। अध्ययन की सुविधा तथा साधारण बोधगम्यता के लिए उच्चावच्चों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है, जिनका अध्ययन इस विज्ञान के अन्तर्गत किया जाता है: –
1. प्रथम श्रेणी के उच्चावच (relief features of the first order)
2. द्वितीय श्रेणी के उच्चावच्च (relief features of the second order)
3. तृतीय श्रेणी के उच्चावच्च (relief features of the third order)
प्रथम श्रेणी के उच्चावच्च के अन्तर्गत महाद्वीप तथा महासागर आते हैं, जिनका अध्ययन भू-आकृति विज्ञान के अन्तर्गत किया जाता है। इनकी उत्पत्ति, विकास, विस्तार तथा वर्तमान स्वरूप की वैज्ञानिक एवं प्रमाणिक व्याख्या भू-आकृति विज्ञान करता है। इनकी व्याख्या के समय-पृथ्वी की उत्पत्ति का इतिहास, ब्रहमाण्ड में इसकी स्थिति, सूक्ष्म जालवायविक दशाओं, सागरों एवं हिमावरण के इतिहास को सम्मिलित कर लिया जाता है। इस अध्ययन से भू-आकृति विज्ञान की मौलिकता, वैज्ञानिकता तथा उपादेयता की बोधगम्यता नहीं होती है, परन्तु इनके अध्ययन से इस विज्ञान का प्रारम्भिक स्वरूप स्पष्ट अवश्य हो जाता है। साथ-ही-साथ प्रथम श्रेणी के उच्चावच्च के अध्ययन से प्राप्त ज्ञान का पूर्ण उपयोग अन्य श्रेणी के उच्चावच्च के अध्ययन मे होता है। प्रारम्भिक भू-आकृति वैज्ञानिकों ने इस प्रकार के अध्ययनों से भू-आकृति विज्ञान को भूगोल के अन्तर्गत विशिष्ट श्रेणी दिलाने के लिए अपने आनुभविक ज्ञान का उपयोग किया था।
द्वितीय श्रेणी के उच्चावच्च के अन्तर्गत – पर्वत, पठार, मैदान, झीलादि को सम्मिलित किया जाता है. जिनका निर्माण पृथ्वी की आन्तरिक क्रियाओं अथवा अपरदनात्मक प्रक्रमों द्वारा होता है, जिस कारण इनकों संरचनात्मक स्थलरूप की भी संज्ञा दी जाती है। सृजनात्मक तथा विनाशात्मक बल की प्रक्रियाओं द्वारा इस प्रकार के स्थलरुपों का निर्माण होता है, परन्तु सृजनात्मक बलों को अत्यधिक महत्व प्रदान किया जाता है. जैसे झील का निर्माण पृथ्वी के आन्तरिक बल तथा अपरदनात्मक प्रक्रमों द्वारा होता है, परन्तुु इनमें प्रथम प्रकार के वल द्वारा निर्मित स्थलाकृतियों को ही सम्मिलित किया जाता है। इन स्थलरूपों की निर्माण प्रक्रिया विकास तथा आकार परिवर्तन का अध्ययन भू-आकृति विज्ञान में किया जाता है।
द्वितीय श्रेणी के स्थलरूपों पर अपक्षय तथा अपरदन के द्वारा निर्मित छोटी स्थलाकृतियों को तृतीय श्रेणी के उच्चावच्च के अन्तर्गत रखा जाता है। वास्तव में, बाह्य बल विनाशकारी होते हैं. फलतः इन स्थलरूपों को विनाशात्मक स्थलरूप भी कहा जाता है। नदी जल, पवन, हिमानी, परिहिमानी, भूमिगत जल. सागरीय तरंग आदि प्रक्रमों द्वारा निर्मित निक्षेपात्मक एवं अपरदनात्मक स्थलरूप तृतीय श्रेणी के स्थलरूपों के अन्तर्गत अत्यन्त महत्वपूर्ण माने जाते हैं। नदियों द्वारा निर्मित स्थलरूप – घाटियाँ, कैनियन, गार्ज, प्रपात सापान, चोटियाँ, मोनाडनॉक, जलोढ़ पंख, प्राकृतिक तटबन्ध, बाढ़ का मैदान, डेल्टा, हिमानी द्वारा निर्मित स्थल रूप- सर्क, न् आकार की घाटी, लटकती घाटी, एरेत, मैटरहार्न, रॉशमुटोने, हिमोढ़, एस्कर, ड्रमलिन केम, पवन द्वारा निर्मित स्थलाकृतियाँ वातगर्त, बालुकास्तूप, लोयस, इन्सेलबर्ग, यारदण्ड आदि, तथा भूमिगत जल एवं सागरीय लहरों द्वारा स्थलरूपों की निर्माण प्रक्रिया, विकास, विनाश तथा इनमें उत्पन्न जटिलताओं का अध्ययन एवं विश्लेषण इस श्रेणी के स्थलरूपों के अन्तर्गत किया जाता है। भू-आकृति विज्ञान में तीनों प्रकार के स्थलरूपों के अध्ययन को महत्व दिया जाता है, परन्तु विगत शताब्दी के अन्तिम दशक में तृतीय श्रेणी के स्थलरूपों के अध्ययन में भू-आकृति वैज्ञानिक अधिक व्यस्त थे।