आर्थिक सुधार के कारण क्या है | आर्थिक सुधार की प्रमुख विशेषताएं उद्देश्य economic reforms 1985 in hindi

economic reforms 1985 in hindi आर्थिक सुधार के कारण क्या है | आर्थिक सुधार की प्रमुख विशेषताएं उद्देश्य ?

भारत में ‘‘क्षमता के उपयोग‘‘ में दीर्घकालीन प्रवृत्तियाँ
भारतीय आयोजकों और नीति निर्माताओं की चिंता सदैव ही भारतीय उद्योगों में अपेक्षाकृत काफी कम ‘‘क्षमता के उपयोग‘‘ के प्रति रही है। भारत जैसी अल्प पूँजी अर्थव्यवस्था में पूँजी का विकल्प लागत बहुत ज्यादा है तथा अल्प ‘‘क्षमता के उपयोग‘‘ का अर्थ संसाधनों की भारी बर्बादी है।

 औद्योगिक क्षमता का ‘‘अल्प उपयोग‘‘ क्यों अवांछनीय है?
औद्योगिक क्षेत्र में क्षमता के अल्प उपयोग का अर्थव्यवस्था पर व्यापक प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इसका विशेष प्रभाव इन रूपों में देखा जा सकता है- (क) औद्योगिक कार्यकलापों में कुल मिलाकर मंदी और अन्य क्षेत्रों जैसे कृषि एवं सेवाओं पर औद्योगिक क्षेत्र के साथ उनके पश्चानुबंध (बैकवर्ड लिंकेज) तथा अग्रानुबंध (फारवर्ड लिंकेज) के माध्यम से इसका प्रभाव, (ख) उत्पादन की उच्च लागत और क्षमता का इष्टतम उपयोग नहीं होने के कारण औद्योगिक क्षेत्र में राजस्व का कम सृजन और (ग) भावी आर्थिक संभावनाओं के बारे में अपेक्षाओं पर नकारात्मक प्रभाव।

 भारत के औद्योगिक क्षेत्र में क्षमता के अल्प उपयोग की समस्या
भारत में औद्योगिक रणनीति की मुख्य विशेषताओं में से एक औद्योगिक विकास और विनियमन अधिनियम 1951 (आई डी आर ए) के अंतर्गत औद्योगिक लाइसेंसिंग प्रणाली थी जिसका उद्देश्य ‘‘सामाजिक रूप से अभीष्ट दिशाओं‘‘ में औद्योगिक क्षेत्र में निवेश का प्रवाह प्रशस्त करना था। लाइसेंस प्रणाली ने न सिर्फ नए उद्योगों की स्थापना और उनकी स्थापित क्षमता के विस्तार को ही नियंत्रित किया अपितु प्रौद्योगिकी, उत्पादन-मिश्र, क्षमता, अवस्थिति और आयात घटक को भी नियंत्रित किया। हालाँकि, यथार्थ में औद्योगिक लाइसेंस प्रणाली के कार्यप्रणाली की विशेषता अत्यधिक संरक्षणशीलता और प्रशासनिक विलम्ब था। सामाजिक रूप से अभीष्ट दिशाओं में निवेश को प्रवाहित करने की बजाए, लाइसेंस प्रणाली के परिणामस्वरूप ‘‘समानान्तर‘‘ अर्थव्यवस्था का विकास हुआ और प्रच्छन्न निवेश को बल मिला। आम जनता इसे काले धन की अर्थव्यवस्था के रूप में जानती है। इससे भी अधिक, विकास की रणनीति का जोर विशेष रूप से सार्वजनिक क्षेत्र के अंतर्गत आधारभूत और पूँजीगत वस्तु क्षेत्र में क्षमता का सृजन करना था। विद्यमान पूँजीगत संपत्तियों के बेहतर प्रयोग की बजाए पूँजी संचय पर विशेष जोर के फलस्वरूप अनेक वर्षों में कई उद्योगों में बड़े पैमाने पर अप्रयुक्त क्षमताओं का सृजन हुआ।

सभी पंचवर्षीय योजनाओं में इस समस्या को स्पष्ट रूप से समझा गया। ‘‘क्षमता के उपयोग‘‘ के मुद्दे पर शुरू में किए गए अध्ययनों में एक अध्ययन प्रो. सी.एन.वकील द्वारा वर्ष 1946 से 1953 की अवधि के लिए किया गया था, जिसमें 80 उद्योगों को सम्मिलित किया गया था। इस अध्ययन में यह पाया गया कि इन उद्योगों में से लगभग आधे में पचास प्रतिशत अप्रयुक्त क्षमता थी। इस स्थिति के लिए उत्तरदायी निम्नलिखित प्रत्यक्ष कारणों की पहचान की गई थी: (क) आकस्मिक माँग को पूरा करने के लिए कुछ उद्योगों द्वारा कतिपय आरक्षित क्षमता रखने का प्रचलन (ख) क्षमताओं के सृजन में अविभाज्यता (अर्थात्, उत्पादन संभव करने के लिए कतिपय न्यूनतम पैमाने पर सृजन की अनिवार्यता), और (ग) अपेक्षाओं और परिणामों में अंतर। प्रथम योजना (1951-56) दस्तावेज में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि अनिवार्य वस्तुओं का उत्पादन करने वाले उद्योगों में (उस समय) क्षमताएँ कुल मिलाकर माँग के अनुरूप थीं और विद्यमान संयंत्रों के पुनरुद्धार, आधुनिकीकरण तथा संयंत्र में बेहतर संतुलन कायम करके कार्यकुशलता में सुधार करने की आवश्यकता थी। दूसरी योजना (1956-61) में भी ‘‘उन उद्योगों में जहाँ अधिष्ठापित क्षमता और उत्पादन के बीच काफी अंतराल है, विद्यमान अधिष्ठापित क्षमता के पूर्ण उपयोग‘‘ के प्रश्न पर बल दिया गया था। इस विषय पर दूसरा महत्त्वपूर्ण अध्ययन मॉरिस बॉडिन और सैमुएल पॉल द्वारा किया गया। इस अध्ययन में 75 उद्योग सम्मिलित किए गए थे। इस अध्ययन में यह पाया गया कि 1951 से 1959 के बीच की अवधि के दौरान, इन उद्योगों में क्षमताओं के उपयोग में काफी प्रगति हुई थी। सिर्फ वर्ष 1958 इसका अपवाद था जब देश को विदेशी मुद्रा और मंदी के गंभीर संकट का सामना करना पड़ा था। औद्योगिक नीति की प्राथमिकताओं के संबंध में, तीसरी योजना (1961-66) दस्तावेज में कहा गया था कि, ‘‘सर्वप्रथम, जहाँ क्षमता और उत्पादन के बीच भारी अंतर है, अथवा जहाँ एक से अधिक पालियों (शिफ्ट) में प्रचालन करके अथवा संतुलनकारी संयंत्र में वृद्धि कर, यदि ह्रासमान लागत पर अधिक उत्पादन प्राप्त करना संभव है, क्षमता विस्तार अथवा नई इकाई की स्थापना से पहले विद्यमान अधिष्ठापित क्षमता का पूरा-पूरा उपयोग जरूर करना चाहिए।‘‘ क्षमता के कम उपयोग के कारणों को समझने के लिए राष्ट्रीय अनुप्रयुक्त आर्थिक अनुसंधान परिषद् (एन सी ए ई आर) द्वारा किए गए अध्ययन में तीसरी पंचवर्षीय योजना के आरम्भिक वर्षों को लिया गया है। इस अध्ययन में तब क्षमता के कम उपयोग के कारण के रूप में कच्चे मालों की कमी, विदेशी मुद्रा की कमी और कुशल श्रमिक की पूर्ति में कमी जैसे कारकों को चिह्नित किया गया था। तीसरी पंचवर्षीय योजना के अंत तक क्षमता के कम उपयोग की समस्या अत्यधिक गंभीर हो गई और अनेक उद्योगों को कृषिगत उत्पादन में गिरावट के कारण गंभीर संकट का सामना करना पड़ा।

गोखले इंस्टीट्यूट ऑफ पॉलिटिक्स एण्ड इकनॉमिक्स के शोधकर्ताओं द्वारा 1966-67 के लिए किए गए अन्य अध्ययन से भी भारतीय उद्योगों में क्षमता के कम उपयोग के खतरनाक स्थिति तक पहुँच जाने का पता चलता है। इस अध्ययन में विस्तृत उत्पाद-वार उपागम में मूल रूप से मध्यवर्ती (अर्धनिर्मित) और पूँजीगत वस्तु उद्योगों जिसमें लगभग 250 उत्पाद सम्मिलित थे पर विचार किया गया। प्रायः सभी मध्यवर्ती और पूँजीगत वस्तु उद्योगों में लगभग 40 प्रतिशत के करीब क्षमता का कम उपयोग हुआ था। कतिपय उत्पादों जैसे धातु उत्पाद, गैर विद्युत मशीनों और संयंत्र, उर्वरक और खाद्य उद्योगों में 60 प्रतिशत से भी अधिक क्षमता अप्रयुक्त रही। इस अध्ययन में अप्रयुक्त क्षमता की सीमा तथा उसके कारण, उत्तरदाता विनिर्माता इकाईयों द्वारा दी गई जानकारी पर आधारित थी। दो मुख्य कारणों अर्थात् अपर्याप्त माँग और कच्चे माल की कमी से सामान्यता यह निष्कर्ष निकाला गया था कि क्षमता के अल्प उपयोग के संबंध में पहले कारण ने लगभग दोगुनी इकाइयों को प्रभावित किया था।

चैथी योजना (1969-74) अवधि के दौरान, कतिपय उद्योगों में क्षमता सृजन में धीमी गति, औद्योगिक उत्पादन को प्रभावित करने वाला प्रमुख कारक माना गया था। इसके परिणामस्वरूप, उर्वरक, तैयार इस्पात, अल्युमिनियम, विद्युत उत्पादन, कृषि के यंत्रीकरण और कुछ चुने गए उद्योगों में भारी परिमाण में अतिरिक्त क्षमता निर्माण पर जोर दिया गया था। तथापि, यह प्रयास अत्यन्त ही आंशिक था और कतिपय अन्य उद्योगों में, विशेषकर निधियों की कमी के कारण, अतिरिक्त क्षमता के सृजन में अनेक अंतराल थे। इस योजना अवधि के दौरान, अर्थव्यवस्था में औद्योगिक उत्पादन की गति धीमी हुई जिसके परिणामस्वरूप पहले से ही अपर्याप्त महत्त्वपूर्ण उपभोक्ता वस्तुओं की उपलब्धता कम हो गई। यहाँ तक कि बुनियादी आदानों जैसे इस्पात, रसायनों, धातुओं, विद्युत, कोयला इत्यादि की आपूर्ति भी कम पड़ गई और कुल मिलाकर इसका परिणाम यह हुआ कि मुद्रा स्फीति बहुत बढ़ गयी जिससे औद्योगिक लागत संरचना पर दबाव बढ़ गया। आगे की अवधि के लिए औद्योगिक रणनीति प्रचालन संबंधी बाधाओं को कम करने पर जोर देकर विद्यमान क्षमता के पूरे उपयोग के लिए योजना बनाना था। पाँचवीं योजना (1974-79) अवधि की मुख्य विशेषता सार्वजनिक क्षेत्र में वास्तविक निवेश में शिथिलता और औद्योगिक वृद्धि दर में गिरावट थी। इस संबंध में, टी एन श्रीनिवासन ने यह तर्क दिया था कि मंद औद्योगिक विकास का मुख्य कारण वास्तविक निवेश विशेषकर सार्वजनिक निवेश में गतिहीनता थी। आई.जे. आहलूवालिया के अनुसार पाँचवीं योजना अवधि के दौरान विद्यमान औद्योगिक और व्यापार नीतियों के विभिन्न पहलुओं की समीक्षा करने के लिए अनेक समितियाँ बनाई गई थीं। इसने 1970 के दशक के अंत में नीति के पुनर्विन्यास की प्रक्रिया को आरम्भ किया जो 1980 के दशक में और तीव्र हो गया। 1970 के दशक के अंत में शुरू किए गए नए नीतिगत उपायों का मुख्य बल भारतीय उद्योगों के लिए नियमों में ढील देना था और इसे नौकरशाही प्रक्रियाओं से मुक्त करना था। कुछ उद्योगों को लाइसेंस से मुक्त करना, कुछ अन्य के लिए नियमों में ढील देना, निजी क्षेत्र के बड़े औद्योगिक घरानों की सहभागिता के अधिक अवसर और प्रत्यक्ष वास्तविक नियंत्रण से हट कर परोक्ष वित्तीय नियंत्रण आदि नीतिगत परिवर्तनों के कुछ मुख्य तत्त्व थे। हालाँकि विकास के लिए प्रेरक के रूप में सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका पर इन परिवर्तनों का व्यापक प्रभाव नहीं पड़ा।

छठी योजना (1980-85) दस्तावेज के अनुसार, ‘‘उस समय के औद्योगिक विकास के स्वरूप से प्रभावी माँग की संरचना का पता चलता है जो बारी-बारी से आय के वितरण से निर्धारित होती थी। उन वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन में अत्यधिक संसाधनों को लगाया गया जो उच्च आय समूहों के उपयोग की वस्तुएँ थीं- उच्च स्तरीय आवास और नगरीय सुविधाएँ, विमानन और अत्यन्त विशिष्ट यात्रा सुविधाएँ, टेलीफोन सेवाएँ इत्यादि। इस प्रकार कुछ ही क्षेत्रों में औद्योगिक क्षमता के विस्तार और विविधिकरण से व्यवस्था में विकृति का पता चलता है।

वर्ष 1985 से सुधार
सातवीं योजना (1985-90) के आरम्भ में बड़े पैमाने पर रुग्णता और गतिहीनता के मद्देनजर ‘‘क्षमता के उपयोग‘‘ की सीमा बढ़ाने पर वाद-विवाद की जरूरत अत्यावश्यक हो गई थी। इस वाद-विवाद का केन्द्र अपर्याप्त घरेलू माँग का प्रश्न था। इस अवधि के दौरान निवेश में वृद्धि की दर कम करने की जबर्दस्त जरूरत महसूस की गई थी (पहले की तुलना में सर्वाधिक) ताकि विद्यमान क्षमताओं के उपयोग को इष्टतम किया जा सके और उपर्युक्त लाभ की गुंजाइश को सुनिश्चित किया जा सके।

वर्ष 1985 से क्रमिक दूरगामी नीतिगत निर्णयों से उदारीकरण की प्रक्रिया को और गति मिली। मुख्य सुधार औद्योगिक लाइसेंस प्रणाली और विनियामक नीतियों में किए गए थे। कुल मिलाकर 25 उद्योगों को लाइसेंस से मुक्त कर दिया गया और ‘‘श्रेणी विस्तारण‘‘ उत्पादों के माध्यम से उत्पाद के विविधिकरण संबंधी प्रतिबंधों में ढील दी गई जिससे लाइसेंसधारी उत्पादक उनका उत्पादन कर सकते थे। निर्यातकों को आयात संबंधी अधिक स्वतंत्रता मिली, कुछ मात्रात्मक प्रतिबन्ध हटा दिए गए तथा उनके स्थान पर प्रशुल्क लगाए गए और वित्तीय बाजार में भी कुछ उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू की गई। ये नीतियाँ विकास के लिए अनुकूल दशाओं का सृजन करनेवाली थीं। बढ़ी हुई घरेलू माँग, तीव्र निर्यात वृद्धि और उदार आपूर्ति-पक्ष नीतियाँ, इन सबके सक्रिय संयोजन से 1980 के दशक के दौरान प्रतिवर्ष 5.5 प्रतिशत से ज्यादा उत्पादन वृद्धि हुई और इसका कारण आंशिक रूप से 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध के दौरान क्षमताओं का बेहतर उपयोग कहा जा सकता था।

तथापि, सरकार के घाटे में वृद्धि के कारण तीव्र ऋण प्रसार तथा रुपये के मूल्य में निरंतर अवमूल्यन हुआ, मुद्रास्फीति की दर 1980 के दशक के मध्य में 5 प्रतिशत से बढ़ कर 1990-91 के अंत तक 12 प्रतिशत से ज्यादा हो गई थी। इससे भी अधिक, निर्यात में काफी अधिक वृद्धि होने के बावजूद भी चालू खाता का घाटा, सकल घरेलू उत्पाद के 2 प्रतिशत से बढ़कर 1990-91 में 3.5 प्रतिशत हो गया। इस घाटे का वित्तपोषण वाणिज्यिक शर्तों पर उधार लेकर तथा अनिवासी भारतीयों से आनेवाली अल्पकालीन जमा राशियों से किया गया, इसके साथ ही सरकारी आरक्षित निधियों में भी कमी आई। इन परिस्थितियों के कारण बाह्य ऋण भुगतान बोझ में काफी वृद्धि हुई। वर्ष 1990 में मध्य पूर्व में हुए उथल पुथल के दुष्प्रभावों- जिसके परिणामस्वरूप आयातित तेल की लागत में अत्यधिक वृद्धि हुई तथा वहाँ नियोजित कर्मकारों से विप्रेषित धन में कमी आ गई-से बचाव के लिए कुछ खास प्रबन्ध नहीं था। विदेश व्यापार में प्रतिकूल परिस्थितियों और घरेलू राजनीतिक तनावों के कारण भारत की अन्तरराष्ट्रीय साख रेटिंग को कम कर दिया गया और 1990 के मध्य तक बाह्य वाणिज्यिक ऋण मिलने की संभावनाएँ लगभग समाप्त हो गई थीं। इसके साथ ही अनिवासी भारतीयों की जमा राशियों के बड़े पैमाने पर निकासी के फलस्वरूप भारत के सामने विदेशी मुद्रा का अत्यन्त गंभीर संकट खड़ा हो गया जिससे भारत 1991 के आरम्भ में ही भुगतान में चूक के कगार पर पहुँच गया।

1991 के मध्य में अपनाए गए समायोजन रणनीति में चार प्रमुख तत्त्व अन्तर्निहित थे: (प) तात्कालिक स्थिरिकरण उपाय, इनमें रुपये के मूल्य में 19 प्रतिशत अवमूल्यन और ब्याज दरों में वृद्धि उल्लेखनीय है ताकि पुनः विश्वास स्थापित किया जा सके और अल्पकालीन पूँजी निकासी को रोका जा सके; (पप) राजकोषीय समेकन जिसका उद्देश्य केन्द्र सरकार का घाटा जो 1990-91 में सकल घरेलू उत्पाद का 8.5 प्रतिशत था, को कम करके 1992-93 में 5 प्रतिशत तक करना (पपप) अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व बैंक और द्विपक्षीय खाता समूह के ऋण दाता देशों से पर्याप्त असाधारण ऋण लिया जाए ताकि आयात का न्यूनतम स्तर बनाए रखा जा सके; और (पअ) प्रमुख संरचनात्मक सुधारों का आरम्भ, जिसमें शुरू में औद्योगिक विनियमों में ढील देने तथा व्यापारिक उदारीकरण पर बल दिया गया।

बोध प्रश्न 2
1) नियोजित विकास के दशकों में ‘‘क्षमता के उपयोग‘‘ के मामले में भारतीय औद्योगिक क्षेत्र का क्या अनुभव रहा है?
2) भारतीय अनुभवों के आधार पर आप भारतीय औद्योगिक क्षेत्र में किन कारकों को ‘‘क्षमता के उपयोग‘‘ का निर्धारक मानते हैं?
3) अर्थव्यवस्था में किस तरह के असंतुलनों ने 1991 से शुरू की गई उदारीकरण की प्रक्रिया को प्रेरित किया?