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संप्रदाय का अर्थ क्या है | संप्रदाय किस धर्म में होता है मतलब बताओ denomination meaning in hindi

denomination meaning in hindi संप्रदाय का अर्थ क्या है | संप्रदाय किस धर्म में होता है मतलब बताओ ?

संप्रदाय (Denomination)
संप्रदाय मत में से विकसित होता है, जिस प्रकार मत धर्म संस्था में से विकसित होता है। जॉनसन के विचारानुसार धर्म संस्था व संप्रदाय के बीच का भेद सदैव स्पष्ट नहीं होता जिस प्रकार मत व पंथ के बीच का। जब एक मत मध्यवर्गीय समाज में सम्मानीय स्थान प्राप्त कर लेता है तथा इसकी धार्मिक प्रचंडता में कुछ कमी आ जाती है तब इसके परिणामस्वरूप संप्रदाय का आविर्भाव होता है। (वही: पृ. 433-35) यह भी लक्षित होता है कि रूढ़िवादी इस प्रकार संप्रदाय मंत में से विकसित होता है तथा इसमें धर्म संस्था की अनेक समानताएं पाई जाती हैं। सामाजिक तौर पर यह एक मध्यवर्गीय घटना है, जो निश्चित रूप से मध्यवर्गीय- स्थिति पहचान और सम्मान से जुड़ा हुआ है। इसकी सदस्यता स्वैच्छिक व अधिक खुली है जो एक मोटे तौर पर वर्ग व सामाजिक स्थिति के प्रति दृष्टिकोण से निर्धारित होती है। अतः संप्रदाय मत से बनता है जब मत के सदस्यों की संख्या बढ़ने लगती है और असल में मत की तुलना में चर्च में इसके संबंध अधिक गहरे होते हैं। इसका एक अन्य अर्थ संप्रदाय की संहिता और उसके विविध धार्मिक विश्वासों में होने वाला परिवर्तन भी है।

प्रेम व धार्मिक सेवा के अनुकरण का बंधन जो कि पंथ का विशिष्ट गुण है इसमें कमजोर पड़ जाता है अथवा बिल्कुल लुप्त हो जाता है। संप्रदाय के सदस्य के लिए धर्म उसकी अनेक रुचियों में से एक है, उसके अन्य सुख पहुंचाने वाले क्रियाकलापों में से एक । चर्च अथवा धर्म संस्था में जाना केवल एक कर्तव्य है, एक सामाजिक स्थिति का प्रतीक जिसे वह अपने लिए और अपनी पत्नी व बच्चों के लिए लाद लेता है।

पुरोहित वर्ग की नियुक्ति भी एक सामाजिक स्थिति का प्रतीक भर बन जाती है। पुरोहित पादरी वर्ग के सदस्यों को कभी कभी मानव व्यवहार, विज्ञान अथवा आध्यात्मिक ज्ञान की शिक्षा दी जाती है। पादरियों और सलाहकारों की हैसियत से काम करने के कारण तो उन्हें दैवीय शक्तियों के धारक के रूप में और न ही मानव जाति के उद्वार के लिए पद के रूप में स्वीकारा जाता है। चर्च की दुविधा संप्रदाय में अधिक तीव्र हो उठती है।

यह दुविधा है, धार्मिकता बनाम धर्म निरपेक्षता, धनी बनाम निर्धन, आध्यात्मिकता बनाम सासारिक ज्ञान की। सप्रदाय इस दुविधा का निवारण केवल कुछ चुने हुए लोगो तथा चर्च को अपील कर तथा संसार से इसके धार्मिक संस्कारों की निष्पक्षता पर जोर देकर समझौता स्थापित करता है।

धार्मिक समूहों को समझना (Understanding Religious Groups)
धर्म केवल विश्वास का प्रत्यक्ष रूप ही नहीं है वरन इसका पालन भी किया जाता है। विश्व के लगभग सभी प्रमुख धर्म व्यवस्थित रूप में पाए जाते हैं। कुछ धर्म किसी एक चामत्कारिक व्यक्तित्व (उदाहरण के लिए-ईसा मसीह, मोहम्मद व गौतम बुद्ध) के धार्मिक अनुभव से उत्पन्न होते हैं। चमत्कारी व्यक्तित्व का यह धार्मिक अनुभव कालान्तर में संगठित एवं संस्थागत रूप धारण कर लेता है। इसके विकास के तीन चरण हैं। (1) पूजा उपासना की पद्धति का निर्धारणय (2) विचारों एवं परिभाषाओं की स्थापना – मिथक एवं आध्यात्मिक विद्या विकास य तथा (3) संघ व संगठन की स्थापना । मूल धार्मिक अनुभव की विवेचना भी इससे जोड़ी जा सकती है।

समाजशास्त्री चार प्रकार के धार्मिक समूहों की चर्चा करते हैं – धर्म संस्था (चर्च), मत, संप्रदाय व पंथ। धर्म संस्था या मत वर्गीकरण के रूप में धार्मिक समूहों के इस विभाजन का आधार मैक्स वेबर और ईरनेस्ट ट्रोल्श के कार्य व पश्चिम में ईसाई मत का विकास है।

क्या यह ईसाई धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों व धार्मिक, सामाजिक समूहों की व्याख्या करने में मदद करता है? इस संबंध में प्रचलित सामाजिक निर्णय कमोबेश जाति केन्द्रित, भ्रमवाचक व परस्पर विरोध लिए हुए हैं। कुछ की धारणा के अनुसार कुछ निश्चित परिवर्तनों के बाद यह वर्गीकरण सर्वमान्य हो सकता है। (मोबर्ग: 1961 ) जबकि कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार ऐसा नहीं हो सकता (भट्ट: 1969 )। जॉनसन के अनुसार इस वर्गीकरण का समालोचना के उद्देश्य से सरलता से उपयोग किया जा सकता है। यद्यपि पूर्वी धर्मों की व्याख्या के लिए वे भी इसे कुछ हद तक अटपटा मानते हैं। भारत में हम धार्मिक समूहों को मत, मार्ग, संप्रदाय, पंथ, समाज, आश्रम तथा अखाड़ा के रूप में पहचानते हैं । यहाँ हमारे सामने एक समस्या आती है कि क्या हम भारत के धार्मिक समूहों की व्याख्या चर्च-मत वर्गीकरण के आधार पर कर सकते हैं।

इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए हमें धार्मिक समूहों को सामाजिक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। साथ ही हमें धार्मिक समूहों की उत्पत्ति का भी विश्लेषण करना होगा। भारत की विशिष्टता पर बहुत बल न देते हुए भी हमें दो धार्मिक अनुभवों की परम्पराओं के अंतर को ध्यान में रखना है – मध्यपूर्व केंद्रित, जिससे ईसाई धर्म तथा इस्लाम का विकास हुआ तथा नैतिवाद – अनेकतावाद (धार्मिक अनेकवाद की परम्परा) का विकास हुआ, जिसमें से भारत में धार्मिक समूहों का विकास हुआ। आइए हम इसकी थोड़ी और व्याख्य करें। जैसा कि हमने ऊपर चर्चा की है, अब आप ईसाई परम्परा से जुड़ी धार्मिक धारणाओं को पहले से ही पहचान सकते हैं। जहाँ तक संगठनों का संबंध है, ऐसी धारणाएं असल में हर संगठन में एक दूसरे से बिल्कुल अलग होती हैं।

मध्यपूर्वी परम्परा के अनुसार धार्मिक अनुभव भगवान के आदेश तथा रहस्य की खोज के रूप में जाने जाते हैं। दैवीय शक्ति द्वारा चुने मध्यस्थ -मानव (पैगम्बर) के द्वारा आम मनुष्यों को धर्म का प्रकाश भेजने की धारणा के कारण मध्यपूर्व परंपरा में एकवाद परिलक्षित होता है। यह इस प्रकार के धर्म के संगठन व फैलाव में मदद करता है। पर कभी कभी इसका राजनीतिक शक्ति व अन्य धर्मो से टकराव भी हो जाता है।

दूसरी परम्परा के अनुसार कोई भी धार्मिक अनुभव अंतिम नहीं है। ईश्वर तक पहुंचने के कई रास्ते हो सकते हैं तथा हैं भी । भारत में ये दोनों परम्पराएं समानान्तर रूप से तथा एक दूसरे से टकराते हुए विकसित हुई हैं। हाँ एक ओर एकवादी तथा अनेकवादी धर्मों के बीच सामाजिक-ऐतिहासिक अंतर है वहीं समाजशास्त्रियों के अनुसार धार्मिक संगठनों की अपनी कुछ चारित्रिक विशेषताएं हैं जिन्हें तुलना के लिए आधार बनाया जा सकता है।

जॉनसन (1868: 419-20 ) धार्मिक समूहों की तुलना के लिए सात-सूत्रीय मानदंड का सुझाव देते हैं। आपकी जानकारी के लिए संक्षेप में हम इन्हें नीचे दे रहे हैं, क्योंकि आपके लिए धार्मिक समूहों की व्याख्या करने में इनका उपयोग किया गया है।
प) समूह की सदस्यता: अनिवार्य अथवा स्वैच्छिक,
पप) यदि स्वैच्छिक नए सदस्यों के लिए पूर्णतया या आंशिक रूप से उपलब्ध,
पपप) समूह का अन्य धार्मिक समूहों के प्रति रवैया,
पअ) समूह धर्म परिवर्तन की अनुमति देता है अथवा नहीं,
अ) आंतरिक संगठनः प्रजातांत्रिक तथा एकाधिकारवादीय
अप) पादरी/पुरोहितः क्या पुरोहित सामान्य सदस्यों के उद्धार के लिए आवश्यक माना जाता है,
अपप) समूह का रवैया पूरे समाज के धर्मनिरपेक्ष कृत्यों के प्रति क्या है ? धार्मिक समूहों के तुलनात्मक अध्ययन में ऐसे मानदंडों का प्रयोग किया जा सकता है।