WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

राज्य किसे कहते हैं | राज्य की परिभाषा क्या है अर्थ या मतलब बताइए state in hindi meaning definition

what is state in hindi meaning definition ? राज्य किसे कहते हैं | राज्य की परिभाषा क्या है अर्थ या मतलब बताइए ?

राज्य की अवधारणा (The Concept of State)
मैक्स वेबर ने राज्य की परिभाषा ‘एक ऐसे मानव समुदाय के रूप में की है जो किसी क्षेत्र विशेष में शारीरिक शक्ति के वैध उपयोग के एकाधिकार का दावा करता है। इस तरह राज्य सामाजिक नियंत्रण का एक महत्वपूर्ण माध्यम है, जिसके कार्यों को हमेशा बल प्रयोग का समर्थन प्राप्त कानूनों के माध्यम से पूरा किया जाता है।

कामटे और स्पेंसर ने राज्य के उदय को समाजों के बढ़ते आकार और जटिलता का परिणाम माना है। मानवविज्ञानियों और समाजशास्त्रियों ने साधारणतया समाजों का जो अध्ययन किया उससे समाज की जटिलता और आकार तथा व्यवस्थित राजनीतिक प्राधिकरण या सत्ता के बीच कुछ सह संबंध की बात प्रकाश में आई है। प्रारंभिक समुदायों के बारे में लिखते हुए आर.एच.लोई. ने कहा है कि वे अवश्य ही छोटे-छोटे और समतावादी और ‘‘सगोत्र समूह‘‘ के समान रहें होंगे। इस तरह सगोत्रता ने एकता को बनाए रखने में अत्यंत प्रभावी भूमिका निभाई। समाज न्यूनाधिक कम भेदित (भेदभाव वाला) था, इसलिए धार्मिक संस्थाओं और राजनीतिक संस्थाओं के बीच कोई बहुत बड़ा भेद नहीं किया जाता था। समुदाय का मुखिया धार्मिक प्रमुख भी होता था और राजनीतिक प्रमुख भी। समाज की बढ़ती जटिलता के साथ, धार्मिक और अधार्मिक क्षेत्रों को अलग करने की आवश्यकता महसूस की गई जिससे सत्ता के क्षेत्र को लोकतांत्रिक किया जा सके। यूरोप और विशेषकर इंगलैंड में चर्च और राजा के अधिकार या सत्ता के क्षेत्रों को वैधानिक रूप से अलग-अलग करने की दिशा में राजनीति ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

धर्म निरपेक्षीकरण की प्रक्रिया से संबंधित अपने अगले अनुभाग में हम विचार करेंगे कि पृथक्करण की यह प्रक्रिया किस प्रकार हुई। लेकिन इस प्रक्रिया को समझने से पहले, आइए हम धर्म निरपेक्षीकरण के अर्थ को जानें।

राज्य और धर्मनिरपेक्षीकरण (State and Secularisation)
अब तक हम ने राजनीति के अर्थ की विवेचना अत्यधिक व्यापक और सामान्य अर्थों में की है। अगले अनुभाग में हम राज्य शब्द की व्याख्या करेंगे। राज्य, समाज में अधिकारों के वितरण से संबंध रखने वाली एक राजनीतिक संस्था है। हम धर्म निरपेक्षीकरण की अवधारणा और प्रक्रिया की चर्चा भी करेंगे (देखिए इकाई 16, खंड 7, ई.एस.ओ- 15), क्योंकि राज्य को आज हम जिस अर्थ में लेते हैं उस का उदय अधिकार के क्षेत्र को धर्मनिरपेक्ष और धार्मिक क्षेत्र से अलग करने की आवश्यकता से हुआ है।

राजनीति में धर्म (Religion in Politics)
धर्म और राजनीति का संबंध अनेक कारकों पर निर्भर है: (1) समाज की एकरूपता/ अनेकरूपता, (2) आर्थिक प्रस्थिति, प्रजातीयता आदि पर आधारित अन्य वर्गों के साथ धार्मिक समूह किस सीमा तक सह-अस्तिव में रहते हैं ? (3) धर्म/ धर्मों की प्रकृति और (4) इस प्रकार के संबंध का ऐतिहासिक संदर्भ। हम इन विषयों पर अगले अनुभाग में विचार करेंगे।
एकरूपता/अनेकरूपता (Homogeneity /k~ Heterogeneity)
कोई भी समाज इस अर्थ में बहुवादी होता है कि उसमें अनेक प्रकार और स्तरित के विभाजन होते हैं जैसे धार्मिक, आर्थिक, प्रजातीय, जनजातीय इत्यादि। लेकिन कुछ समाजों में ये विभाजन या वर्ग अन्य समाजों की अपेक्षा अधिक स्पष्ट होते हैं। इन विभाजनों के संदर्भ में समाजों को ‘एकरूप‘ और ‘अनेकरूप‘ कहा जाता है। ये विभाजन अनेकरूप समाजों में अधिक स्पष्ट होते हैं। व्यक्तिगत पहचान और समूह संरचना का एक प्रमुख आधार होने के कारण धर्म इन विभाजनों का एक महत्वपूर्ण अंग है। एकरूप समाजों में राजनीति पर धर्म का प्रभाव कम स्पष्ट होता है, लेकिन अनेकरूप समाजों में इस प्रकार का प्रभाव अधिक स्पष्ट होता है। जैसा कि आर. आर. अल्फोर्ड ने कहा है, धर्म और राजनीति का संबंध केवल उन्हीं राष्ट्रों में समस्या बनता है जो धार्मिक दृष्टि से एकरूप नहीं होते।

धार्मिक समूह और समाज के अन्य विभाजन (Religious Groups and other Divisions in Society)
धर्म और राजनीति के इस संबंध के संदर्भ में दूसरा महत्वपूर्ण कारक है कि वर्ग, प्रजातीयता, अप्रवासी आदि जैसे अन्य सामाजिक विभाजनों के साथ धार्मिक समूह किस सीमा तक सह-अस्तित्व में रहे हैं। अनुभव सिद्ध अध्ययनों से विभिन्न वर्गों या विभाजनों में इस प्रकार के संबंधों/साहचर्य का संकेत मिलता है। अमेरिका के विभिन्न भागों में किए गए अनेक अध्ययनों से निम्न वर्गों में कुछ धार्मिक समूहों (उदाहरणार्थ, कैथोलिकों) के जमाव का पता चला है। इसी तरह, भारत में कुछ धार्मिक अल्पसंख्यक समूह निम्न आर्थिक वर्ग की श्रेणी में आते हैं। प्रजातीयता और अप्रवास का संबंध जटिल रूप में धर्म और वर्ग से होता है। अमेरिकी संस्कृति का लेखा जोखा प्रस्तुत करने वाली चर्चित पुस्तक बियांड द मैल्टिंग पॉट (1973) के लेखकों का यह निष्कर्ष था कि कैथोलिक: यहूदी संबंधों की सूक्ष्म जांच से प्रजातीय संबंध की कुछ प्रवृत्तियाँ सामने आयेंगी, वैसे उनमें एक प्रकार के वर्गीय संबंध भी हैं। इन अमेरिकी उदाहरणों का उल्लेख द मैल्टिंग पॉट का प्रतीक बनने वाले समाज में भी विभिन्न विभाजनों या वर्गों का एक दूसरे के साथ सह-अस्तित्व में रहने की मिसाल प्रस्तुत करना है। जबकि, ऐसे समाज से यह अपेक्षा थी कि प्रजाति, धर्म, राष्ट्रीयता, वर्ग और ऐसे ही अन्य तमाम विभाजन मिलकर मनुष्य की एक नई प्रजाति तैयार कर देंगे। इस प्रभावी पुस्तक के लेखकों को यह ऐलान करने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई कि प्रवासी समूहों के उद्विकास के अगले चरण में कैथोलिक समूह सम्मिलित होगा जिसमें आयरिश, इतालवी, पोलिश और जर्मन कैथोलिकों के बीच भेद लगातार कम हो रहे हैं। यहूदी समूह में पूर्वी यूरोपीय, जर्मन, और निकट पूर्वीय यहूदी समूहों के बीच विभाजन रेखा मिटती जा रही है। श्वेत प्रोटेस्टैंट समूहों में एंग्लो-सैक्सन, डच, प्राचीन-जर्मन और स्कैंडिनेवियाई प्रोटेस्टैंट और श्वेत प्रोटेस्टैंट आप्रवासी भी एक दूसरे का स्वागत करते हैं। (ग्लेजर और मोहमिहन, 1973: 314) उपर्युक्त समूहों में धार्मिक, प्रजातीय, आर्थिक और आप्रवासी दृष्टि से विभाजित समूह शामिल हैं जो एक दूसरे के साथ सह-अस्तित्व में रहते हैं। कारकों के इस प्रकार के जमाव की स्थिति में राजनीति पर उनका प्रभाव और भी गहरा हो जाता है। इस प्रकार उपर्युक्त लेखक कहते हैं कि ‘‘धर्म और प्रजाति अमेरिकी कौम के उदविकास के अगले चरण की विशेषता हैं‘‘ (वही)।

धर्म/धर्मों की प्रकृति (Nature of Religion(s))
तीसरा महत्वपूर्ण कारक है धर्म/धर्मों की प्रकृति, और राजनीति के प्रति उसका रवैया। आर. आर. अल्फोर्ड ने अपनी पुस्तक पार्टी एंड सोसाइटी में राजनीतिक दलों के ‘‘धार्मिक आकर्षण‘‘ के संदर्भ में एंग्लो-अमेरिकी देशों और महाद्वीपीय यूरोपीय देशों के बीच भिन्नता की बात की है। आर.आर. अल्फोर्ड ने जिन कारकों को व्याख्या के लिए महत्वपूर्ण पाया उन में यह भिन्नता भी है कि महाद्वीपीय ‘‘यूरोपीय देश‘‘ प्रमुख रूप से ‘‘प्रोटस्टैंट‘‘ हैं, जबकि एंग्लोंअमेरिकी अंग्रेजी भाषी देश ‘‘प्रमुख रूप से कैथोलिक‘‘ हैं। (आल्फोर्ड, 1963)। प्रोटेस्टैंट संप्रदाय के उदय के इतिहास के कारण चर्च और राज्य पर कहीं अधिक बल है। मैक्स वेबर ने अपनी पुस्तक द प्रोटेस्टैंट जैथिक एंड द स्प्रिट ऑफ कैपिटलिज्म (1930) में धर्म की प्रकृति का संबंध औद्योगीकरण की धर्म-निरपेक्ष शक्तियों के साथ जोड़ा है। कुछ धर्म हैं जो तमाम सामाजिक प्रक्रियाओं के धर्म की ‘अधीनता‘ में होने में विश्वास करते हैं। उनके लिए ‘राजनीति‘ को ‘धर्म‘ से अलग करना कठिन होता है। अधिक सूक्ष्मता से लें तो, इनके अनुसार ‘राजनीति‘ धर्म के लिए है। कुछ अन्य धर्म अधिक समन्वयकारी हैं और तुलनात्मक रूप से उनके संगठन में खुलापन है। ये धर्म समाज की अन्य प्रक्रियाओं के प्रति अधिक सहिष्णु होते हैं और वहाँ राजनीति और धर्म के अलगाव के लिए अधिक अनुकूल स्थितियां होती हैं।

धर्म की प्रकृति में ये भिन्नताएँ आंशिक रूप से धर्म में ही अंतर्निहित होती हैं। लेकिन ये भिन्नताएँ धर्म को आकार देने वाली विभिन्न ऐतिहासिक शक्तियों से आती हैं। ..
ऐतिहासिक प्रक्रिया (Historical Process)
चैथा कारक है ऐतिहासिक प्रक्रिया। यह कारक महत्वपूर्ण भी है और जटिल भी। यह दो स्तरों पर कार्य करता है। (1) धर्म का उदय विभिन्न चरणों में विभिन्न मार्गों के जरिए हुआ है, जिससे उनका एक अलग स्पष्ट चरित्र बना है। (2) धर्म और अन्य सामाजिक समूहों और प्रक्रियाओं, विशेषकर राजनीतिक सत्ता के बीच संबंध की ऐतिहासिक प्रक्रिया ने समाज में धर्म के वास्तविक स्थान को प्रभावित किया है। ये दो ऐतिहासिक शक्तियाँ एक दूसरे से गहरे रूप से जुड़ी हैं और उनकी अन्योन्यक्रिया में जटिलता है । धर्म और राजनीति के संबंध के संदर्भ में एंग्लो अमेरिकी अक्सर महाद्वीपीय देशों के उपर्युक्त उदाहरण इस अंतर को दिलचस्प बनाते हैं । ऐतिहासिक कारणों की व्याख्या करते हुए आर.आर अल्फोर्ड कहते हैं कि फ्रांस, इटली और बेल्जियम जैसे महाद्वीपीय देशों में, जहाँ धार्मिक पार्टियां मजबूत हैं, धार्मिक स्वतंत्रता साथ-साथ अर्जित की गई और वह राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ जुड़ी हुई थी। उसका परिणाम यह हुआ कि आज भी धर्म, वर्गों और राजनीति में गहरा संबंध है। दूसरी ओर, ब्रिटेन में धर्म और राजनीति के मुद्दे अलग-अलग उभरे और उनका हल भी अलग-अलग हुआ। इसके परिणामस्वरूप, न केवल चर्च और राज्य कानूनी तौर पर अलग हो गए, बल्कि राजनीतिक दलों का गठन भी कभी धार्मिक आधार पर नहीं हुआ। ऐतिहासिक प्रक्रिया को और आगे स्पष्ट करते हुए, अल्फोर्ड कहते हैं, “इंग्लैंड में 1500 के दशक के सुध पर आंदोलन की विशेषताओं ने, महाद्वीप के देशों में हुए सुधार आंदोलन की विशेषताओं के विपरीत, ब्रिटिश संस्कृति की धार्मिक सामासिकता की वैधता और चर्चा और राज्य के अत्यधि कि अलगाव की स्थिति में योगदान किया होगा‘‘ ऐतिहासिक प्रक्रिया की विशेषताओं के कारण, कुछ धर्मों से संबंधित सामाजिक समूहों में स्पष्ट राजनीतिक व्यवहार देखने को मिलते हैं।

धर्म और राजनीतिध्राज्य रू एक सामान्य समीक्षा
(Religion and Politics/k~ State: An Overview)
आम बोलचाल में, धर्म का राजनीति से कुछ लेना देना नहीं है। इसलिए अक्सर यही मान कर चला जाता है कि धर्म और राजनीति के रास्ते अलग-अलग हैं। धर्म की साधारणीकृत व्याख्या के अनुसार तो धर्म दैवीय सत्ता से संबंधित रीतियों ओर विश्वासों से नाता रखता है। लेकिन हम देख चुके हैं कि धर्म का संबंध केवल दैवीय क्षेत्र से नहीं है। इसका और भी व्यापक सामाजिक महत्व है- केवल पहचान बनाने वाली शक्ति के रूप में नहीं, अपितु यह व्यक्तियों को नैतिक और नीतिपरक दृष्टि और दर्शन भी देता है। उनका तथा समुदायों का मागदर्शन करते हैं।

बॉक्स 11.02
राजनीति का संबंध सत्ता के उपयोग और संगठन से है। इस सत्ता को लागू करने वाले अभिकरण के नाते ‘राज्य‘ के पास शासन करने का अधिकार होता है। लेकिन सत्ता से हमारा वास्तव में क्या तात्पर्य है? यह सत्ता कहाँ से जन्म लेती है ? सत्ता अनेक कारकों और प्रभावों का मिश्रण है। आप को वेबर की व्याख्या याद हो तो, उस ने सत्ता को दूसरे व्यक्ति का दमन या नियंत्रण करने का सामर्थ्य बताया है। प्राधिकार ‘वैधीकृत सत्ता है। अर्थात लोग किसी प्राधिकरण विशेष को श्आदेश देने का अधिकार‘ प्रदान करते हैं, और इसलिए यह श्अपेक्षा की जाती है कि इस प्रकार के आदेश का पालन किया जाएगा (देखिए ई.एस.ओ. 13, खंड 4)। सत्ता और वैधता का यही तत्व राजनीति को धर्म से जोड़ता है जबकि ये दोनों ही स्वाधीन हैं।

सत्ता केवल बाहुबल, शस्त्र विद्या या पुलिस बल को आवश्यक नहीं बनाती। वैधता के चक्कर में, उसे जनता का समर्थन भी लेना होता है। जैसा कि हम जानते हैं, लोगों को अगर यह लगता है कि किसी राजनीतिक तंत्र या राज्य विशेष से उनके हितों या जीवन दृष्टि को खतरा है तो वे हर स्थिति में शक्ति का प्रतिरोध, विरोध और अवहेलना करेंगे। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जिनमें जनता का समर्थन नहीं प्राप्त होने से या अवैध राज्यों/शासनों को जनता ने अपने हाथ में ले लिया, और उनका तख्ता पलट दिया या फिर उनके खिलाफ एक प्रतिबल खड़ा कर देने के प्रयास हुए हैं। समाजविज्ञानी और विद्वान इस बात पर सहमत होंगे कि सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक मूल्य और वंश, जनजाति, जाति, धर्म और भाषा आदि के प्रति जुड़ाव जैसी आदिम निष्ठाएँ राजनीति को प्रभावित और परिसीमित करती हैं। बहुधा ही, इन विचारों में आस्था रखने वाले लोग इन्हें पवित्र और महत्वपूर्ण मानते हैं। जब कभी इन विचारों या मूल्यों के अस्तिव को खतरा होता है, राज्य की विश्वसनीयता पर सवाल उठते हैं, कभी-कभी तो इसका प्रतिरोध होता है और अक्सर पुनर्गठन की मांग उठती है। यह स्पष्ट है कि राजनीति केवल राजनीतिक मूल्यों से नहीं बनती, इस पर गैर-राजनीतिक विचारों और मूल्यों का भी अच्छा खासा प्रभाव पड़ता है अंतिम विश्लेषण में इन सभी मूल्यों का स्रोत ‘जनता‘ होती है। यही कारण है कि राज्य के अपने आप को धर्मनिरपेक्ष घोषित करने के बावजूद हम राजनीति की दैनिक गतिविधियों में नेतृत्व या प्राधिकरण से धार्मिक समस्याओं यां मामलों के व्यावहारिक समाधान के लिए सामंजस्य करते है ताकि उसे उद्योगपति, किसान, मजदूर और अध्यापक के साथ-साथ पुरोहित वर्ग का भी समर्थन मिले।

राजनीति की प्रकृति पर हमने अनुभाग 11.5 में लोकतांत्रिक राजनीति की प्रकृति का विवेचन किया है जिस में सभी के लिए समानता और सभी के साथ समान व्यवहार का सिद्धांत समाहित होता है। यह आदर्श ऐसा है जिसे आसानी से प्राप्त नहीं किया जा सकता क्योंकि समाज में परस्पर विरोधी हितों वाले प्रतिद्वंद्वी समूह हमेशा ही रहते हैं। राजनीतिक सरमाएदार अपनी ओर से इन हितों को समायोजित करने का प्रयास करते है। धर्म उन महत्वपूर्ण कारकों में है जिसे केंद्र मान कर समूह अपनी पहचान करते हैं और अपने हितों को लाभबंद करते हैं। धर्म और राजनीति/ राज्य के बीच अपरिहार्य संबंध का यही कारण है।