भारत में धर्मनिरपेक्षता की आवश्यकता क्यों है | भारत में धर्मनिरपेक्षता की चुनौतियों परिभाषा Secularism in India

Secularism in India in hindi meaning definition need challanges ? भारत में धर्मनिरपेक्षता की आवश्यकता क्यों है | भारत में धर्मनिरपेक्षता की चुनौतियों परिभाषा अवधारणा निबंध लिखिए ? 

भारत में धर्मनिरपेक्षता (Secularism in India)
इस अनुभाग में हम भारत में धर्मनिरपेक्षीकरण की स्थिति तथा इसके व्यावहारिक रूप के बारे में चर्चा करेंगे अब तक हम इस बात से परिचित हो चुके हैं कि भारत में धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया उस तरह नहीं चली, जिस तरह यूरोप में । पर भारतीय परिस्थिति ने अपनी ऐसी दशाएं पैदा कर ली जिन्होंने हमारे राष्ट्रीय नेताओं को धर्मनिरपेक्ष विचारधारा की आवश्यकता को महसूस करने पर मजबूर किया। आइये देखें कि कैसे? पर सर्वप्रथम, हम भारत में धर्मनिरपेक्षता के अर्थ को समझने का प्रयास करेंगे।

भारत और धर्मनिरपेक्षता (India and Secularism)
जैसा कि हम जानते हैं, भारत अनेकों धर्मों की भूमि स्थान है तथा बहुधर्मी-समाज है। धर्म भारतीयों के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। धार्मिक उन्माद तथा नफरत को धर्म के नाम पर उकसाया जाता है। धार्मिक द्वंद्व तथा सांप्रदायिक दंगे भारतीय समाज की बहुधर्मिता के कारण हमारे सामाजिक जीवन का हिस्सा बन गए हैं।

यह स्थिति ऐसे तथ्य को उजागर करती है कि जब समाज में बहुत से धर्मों का बोलबाला हो तो शासन का कार्य अधिक कठिन हो जाता है।

हमारे नेताओं ने इस स्थिति की प्रतिक्रिया स्वरूप धर्म निरपेक्षता के मूल्यों को मजबूत करने पर बल दिया है। धर्मनिरपेक्ष विचारों को हमारे संविधान में भी समाहित किया गया है।

 भारत में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ (The Meaning of Secularism in India)
अपनी पिछली चर्चा में हमने देखा कि किस प्रकार पश्चिम में धर्मनिरपेक्षीकरण एक धर्मनिरपेक्षीकरण प्रक्रिया का परिणाम था जहाँ कि दैनिक जीवन में हावी धार्मिक प्रभाव ने अपनी शक्ति खो दी।

तथापि, भारत में धर्म निरपेक्षीकरण तथा धर्मनिरपेक्ष का प्रयोग राज्य की प्रकृति के संदर्भ में किया गया है, इसे इस रूप में समाज की बहधर्मिता तथा धार्मिक द्वंद्वों को ध्यान में रखते हुए अपनाया गया है। भारत में धर्मनिरपेक्षता शब्द से अभिप्राय है कि राज्य किसी एक धर्म विशेष से अपना संबंध नहीं रखेगा वरन सभी धर्मों के व्यवहार को समान रूप से मानेगा। जैसा नेहरू ने 1950 में घोषणा की थी। “भारत जैसे देश की सरकार, जहाँ अनेक धर्म तथा उनके प्रति समर्पित कई पीढ़ियों से चले आ रहे उनके मानने वाले बसते हैं, वर्तमान युग में धर्मनिरपेक्ष आधार के अभाव में कभी संतोषजनक रूप से कार्य नहीं कर सकती‘‘।

धर्मनिरपेक्षता के आदर्श को स्वतंत्रता संग्राम के दौरान विभिन्न धर्मों को मानने वाले समूहों को उपनिवेशी शक्ति के विरूद्ध इकट्ठा करने के लिए अपनाया गया। धर्मनिरपेक्षता के विचार की परिपक्वता स्वतंत्रता संग्राम के लंबे संघर्ष के दौरान राष्ट्रीयता के विकास से करीबी तौर पर जुड़ी है। बाद में, धर्मनिरपेक्ष विचार को संविधान में निहित किया गया तथा नेहरू के लिए धर्मनिरपेक्षता की आवश्यकता केवल जन-जीवन के धर्म से विच्छेद के लिए ही नहीं वरन प्रगतिशील तथा आधुनिक दृष्टिकोण के लिए थी। इसका यह भी अभिप्राय था कि सभी नागरिकों के अधिकार तथा सामाजिक स्थिति बराबर है।

‘‘अतः धर्मनिरपेक्षता, राष्ट्रीयता तथा प्रजातंत्र परस्पर एक दूसरे को मजबूती प्रदान करने वाले आदर्श हैं जिन पर भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के राज्य में विशेष बल देने का प्रयास किया गया।‘‘ (भट्टाचार्य, 190: 178) के. एम. पणिक्कर भारत में धर्मनिरपेक्ष राज्य के विषय की व्याख्या करते हुए इस बात पर विशेष जोर देते हैं।

‘‘यह (धर्मनिरपेक्ष राज्य) राजनीति के ढांचे से इसी नीति के आधार पर लोगों में भेद करने के सभी विचारों को समाप्त कर देता है। जैसा अरस्तू ने इसे “न्याय के बंटवारे का नाम दिया है‘‘, अर्थात सभी वर्गों की भागीदारी इसमें उसी प्रकार समान है जिस प्रकार एक नागरिक के रूप में कर्तव्यों व जिम्मेदारियों में।‘‘

इस प्रकार की राज्य नीति के परिणामों में एक यह भी है कि सरकारी पद तथा सरकारी सेवा की प्राप्ति किसी प्रकार के धार्मिक रूझान पर आधारित नहीं होनी चाहिए।

फिर भी सभी नागरिक अपने धर्म को मानने तथा पूजा-उपासना की स्वतंत्रता को मूलभूत अधिकार के रूप में प्राप्त करते हैं। यद्यपि भारतीय संविधान किसी भी प्रकार के धर्म-आधारित अंतर का विरोध करता है, यह राज्य को अविकसित वर्ग की बेहतरी के लिए कानून बनाने से नहीं रोक सकता। इस अविकसित वर्ग में अल्पसंख्यक वर्ग भी सम्मिलित हैं। इस प्रकार, अल्पसंख्यकों को समान सांस्कृतिक व शैक्षणिक अधिकार प्राप्त हैं।

हमारे संविधान में निहित धर्मनिरपेक्ष आदर्श समान नागरिकता तथा जातिगत पहचान का विशिष्ट सम्मिश्रण है। यह प्रजातांत्रिक राष्ट्र- राज्य के अंदर विभिन्नताओं को मान्यता प्रदान करता है।

हमारी राज्य-नीति में निहित इस विरोधाभास के कारण वास्तविकता में धर्मनिरपेक्षता के आदर्श को व्यवहार में लाने में कठिनाई आती है। आइए हम इतिहास में पीछे चलें तथा देखें कि किस प्रकार धर्मनिरपेक्ष आदर्श को अपनाया गया तथा इस विचार से कौन सी समस्याएं जुड़ी हैं।

कार्यकलाप 2
आपकी राय में राजनीतिक अखाड़े में क्या धार्मिक दलों का प्रवेश वर्जित किया जाना चाहिए? अपने उत्तर के उचित कारण दीजिए। इस बारे में आप अपने अध्ययन केंद्र के अन्य विद्यार्थियों और परामर्शदाता से चर्चा कर सकते हैं।

 धर्मनिरपेक्ष की अवधारणा तथा आदर्शवाद (Secular Concept & and Ideology)
भारतीय राजनीति में ब्रिटिश दखलंदाजी से पूर्व धर्म तथा राजनीति के बीच कोई संघर्ष नहीं था। वास्तव में, जैसा ड्यूमोंट ने पाया: धर्म यहाँ पर समाज का मुख्य बंधन-सूत्र है राजनीति व अर्थव्यवस्था न तो स्वायत्त संस्थाएं हैं और न ही वे धर्म के विपरीत हैं। वे सामान्य रूप से धर्म की परिधि में ही आती हैं। ‘‘ड्यूमोंट का स्मरण करते हुए टी.एन. मदान महसूस करते हैं कि ‘‘धर्म व निरपेक्षता को अलग नहीं किया जा सकता। दूसरे शब्दों में धर्म का किसी भी अर्थपूर्ण भाव में निजीकरण नहीं किया जा सकता। (मदान, 1981: 12)

तथापि ब्रिटिश राज के आगमन के कारण कुछ परिवर्तन आया। ब्रिटिश राज्य ने तटस्थता का रूख अपनाया। आगे चल कर ब्रिटिश राज ने कानून के समक्ष बराबरी के विचार को प्रस्तुत किया जिसके अंतर्गत जाति व धर्म आदि का कोई महत्व नहीं था। परंपरा में इस परिवर्तन के साथ ही, आधुनिक शिक्षा भी परिवर्तन का महत्वपूर्ण वाहक बनी।

भारत में राजनीतिक जागृति का एक महत्वपूर्ण तत्व था- बढ़ता उदारवाद, जो आधुनिक शिक्षा के साथ आया । भारतीय मध्यम वर्ग को ब्रिटिश शिक्षा का सर्वाधिक लाभ मिला तथा इसी वर्ग ने ब्रिटिश राज के खिलाफ राष्ट्रीय संघर्ष की शुरुआत की।

स्थानीय संस्कृतियों के अति तीव्र विकास ने राष्ट्रीयता की भावना को जन-जन तक पहुंचाया। स्थानीय संस्कृतियों के इस विकास को संकीर्ण नहीं बनने दिया गया क्योंकि उद्देश्य के रूप में राष्ट्र सदैव सर्वोपरि रहा । भारतीय राष्ट्रीयता की अधिकांश शक्ति इसके द्वारा धर्म (विशेषकर हिंदू धर्म) की ताकतों, मुहावरों-लोकोक्तियों तथा प्रतीकों के प्रयोग से आई। (कविराज, 190: 195)

धर्म को दूर रखने की राष्ट्रीय नेताओं की धर्मनिरपेक्ष विचारधारा को बालगंगाधर तिलक, अरबिंद घोष, लाजपत राय जैसे लोगों द्वारा चुनौती दी गई। कांग्रेस को एक दुविधा का सामना करना पड़ा कि क्या वह जन-सामान्य को प्रेरित करने के लिए धार्मिक प्रतीकों आदि का प्रयोग होने दे अथवा नहीं क्योंकि इस कारण से मुस्लिम वर्ग अलग पड़ सकता था।

1920 तक कांग्रेस का नेतृत्व महात्मा गांधी के पास आ.गया। उन्होंने खुले तौर पर राजनीति में धर्म की आवश्यकता को घोषित किया । यद्यपि गांधी हिंदू आस्थाओं से गहरे जुड़े थे, फिर भी वे अनेकता में विश्वास रखते थे तथा सभी धर्मों के लिए उनके मन में समान आदर था। हिंदुओं व मुसलमानों की एकता के लिए गांधी के सभी प्रयासों के बावजूद हिंदू प्रतीकों के प्रयोग के अधिक्य ने मुस्लिम वर्ग को अलग कर दिया। वहीं से हिंदुओं व मुसलमानों में अतिवादी प्रवृत्तियों का विकास हुआ । मुस्लिम लीग व हिंदू महासभा तथा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसे कट्टरपंथी सामाजिक-धार्मिक संगठनों की स्थापना के कारण राष्ट्रीयता का ध्रुवीकरण हो गया। सीमाओं द्वारा निर्धारित राष्ट्रीयता के स्थान पर इन वर्गों ने अब धार्मिक पहचान के आधार पर राष्ट्र के लिए संघर्ष करना आरंभ किया। सुदीप्तों कविराज ने लिखा है: “निश्चित रूप से अन्य समुदायों से पहचान तथा राष्ट्र की पहचान के सापेक्ष नवीनता के कारण विभिन्न माध्यमों के द्वारा राष्ट्रीयता की भावना का निर्माण करने की आवश्यकता थीय (इस संदर्भ में मुख्यत: धर्म द्वारा) ताकि ब्रिटिश उपनिवेशवाद का सामना किया जा सके।

1947 में भारत व पाकिस्तान के रूप में भारत का विभाजन सांप्रदायिक दंगों के बीच हुआ। 1948 में में गांधी की त्रासदीपूर्ण हत्या की गई। इस घृणित त्रासदी ने भारतीय नेताओं पर राजनीति व धर्म को अलग रखने के लिए धर्मनिरपेक्ष विचारधारा की आवश्यकता का प्रभाव डाला।
बोध प्रश्न 3
प) भारत में धर्मनिरपेक्षता के अर्थ पर कुछ पंक्तियाँ लिखिए।
पप) …………………………………………………….ने राजनीति में धर्म की आवश्यकता को खुले तौर पर घोषित किया।

बोध प्रश्न 3 उत्तर
प) भारत को धर्मनिरपेक्षता की उस प्रक्रिया से नहीं गुजरना पड़ा जिससे यूरोप गुजरा। इसलिये भारत में धर्मनिरपेक्षता का विकास प्राकतिक रूप से नहीं हआ बल्कि यहाँ इसे राजनीतिक लक्ष्य के रूप में अपनाया गया। चूंकि भारत एक ऐसा बहुलवादी देश है जहाँ विभिन्न प्रकार के धर्मों, सम्प्रदायों और भाषाएं बोलने वाले लोग हैं। अतः यहाँ धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य किसी एक धर्म का पक्ष नहीं लेगा बल्कि सभी धार्मिक विचारों के प्रति सहिष्णुता अपनायेगा।

पप) महात्मा गाँधी।

 भारत में धर्मनिरपेक्षता (Secularism in India)
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात नेहरू ने विज्ञान के प्रयोग व विस्तार के सहारे देश के आधुनिकीकरण तथा अज्ञानता, बीमारी व गरीबी के उन्मूलन का कार्य संभाला। नेहरू धर्म के विरूद्ध नहीं थे पर वे जानते थे कि धर्म भारत के लिए कितना घातक सिद्ध हो सकता है। अतः उन्होंने संविधान में धर्मनिपेक्ष के आदर्श को निहित करने में कोई समय नहीं गंवाया। धर्म को जन-जीवन से अलग नहीं किया गया पर उसे राज्य से दूर रखा गया। निःसंदेह, सांविधानिक व कानूनी तौर पर हम एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र हैं। पर जो प्रश्न हमें स्वयं से अवश्य पूछना चाहिए वह है – क्या यह धर्मनिरपेक्षता हमें बांधने वाले सूत्र तथा राष्ट्र के अभिन्न अंग के रूप में है? हम पाते है कि धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीयता एक ऐसा विचार है जिसे हमने ब्रिटिश उपनिवेशवाद के चलते पश्चिम से ले लिया है। उस समय की घोर आवश्यकता ब्रिटिश राज्य से एक जुट हो संघर्ष करने की थी। धर्मनिरपेक्ष आदर्श को राष्ट्र में बसी अनेकताओं को एकजुट करने के लिए अपनाया गया । आधुनिक शिक्षा व अंग्रेजी भाषा ने इस आदर्श को प्रतिस्थापित करने में मदद की तथा स्थानीय भाषाओं द्वारा इसे जन-जन तक पहुंचाया गया। इस प्रकार राष्ट्रवाद की एकरूपता को प्राप्त किया गया तथा ब्रिटिश राज्य को हटाया गया।

इस किस्म के राष्ट्रवाद की ओर इशारा करते हुए सुदीप्तों कविराज महसूस करते हैं कि ‘‘जितनी देर तक राष्ट्रीय आंदोलन ने ब्रिटिश राज्य का सामना किया राजनीतिक व्याख्यानों में राष्ट्र-निर्माण को लगातार इस्तेमाल करने, इसका नामकरण व परिभाषित करने तथा दोहराने की आवश्यकता स्पष्ट थी। स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात इस आवश्यकता को फिसलने दिया गया ।‘‘ (कविराज 1990: 198) आगे कहते हैं कि हमारे नेता, जिन्हें यह राष्ट्र विरासत में मिला, उस स्थिति को देखने में असफल रहे जहां आने वाली पीढ़ियां इस राष्ट्र को यथास्थिति रूप में स्वीकार नहीं कर पाएंगी।

राज्य तथा इसके सुलझे नेता विभिन्न संस्कृतियों से संवाद स्थापित करने में असफल रहे (जैसा स्वतंत्रता-संघर्ष के समय संभव हो सका था), जो धर्मनिरपेक्षता के इस आदर्श को प्राप्त करने के लिए आवश्यक था। यह विचार जन-सामान्य की मानसिकता से दूर रहा। तथापि यह बताना आवश्यक है कि आम लोग धर्म और इसमें जुड़ी पौराणिक और लोक कथाओं में पूरी तरह ढले हुए हैं। इसलिए भारत जैसे देश में आज अनेक धर्म मौजूद हैं या जहाँ धर्मों की बहुलता है ऐसी स्थिति में यहाँ सामाजिक प्रक्रिया को पूरी तरह से प्रभावित करने में धर्मनिरपेक्षवाद को काफी समय लगेगा।

इसके अतिरिक्त, हमें उन विरोधाभासों का भी सामना करना पड़ता है जो हमारे जैसी उदारवादी प्रजातात्रिक प्रणाली में मौजूद रहते हैं, यहां आर्थिक विकास काफी हद तक समान न रहा हो। इसके साथ अन्याय व अभाव का अहसास जुड़ा है जो विभिन्न रास्तों के जरिए अपने को प्रकट करता है। अपने वर्ग के लोगों का आह्वान करना व उन्हें धार्मिक तथा जातिगत आधार पर जुटाना एक आम प्रक्रिया है। दूसरी तरफ राज्य/राजनीतिक पार्टियां, वर्गों का आह्वान उनका समर्थन प्राप्त करने के लिए करती हैं। यह सब केवल पूर्व की धर्म व वर्ग के आधार पर पहचान को पुनः प्रतिष्ठित करता है तथा वे यह जानते हैं कि शासन पर दबाव डालने का एकमात्र रास्ता लोगों को भाषा, जातीयता तथा धर्म के आधार पर इकट्ठा करना है। अतः जैसा हम देखते हैं, बहु-धर्मिय जातिगत राष्ट्र में धर्मनिरपेक्षता को पूरी अच्छी नियत के साथ भी हासिल कर पाना कठिन है।