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यौन उत्पीड़न क्या है या महिला उत्पीड़न की परिभाषा किसे कहते है अर्थ के कारण Female harassment in hindi

girl or Female or woman harassment in hindi यौन उत्पीड़न क्या है या महिला उत्पीड़न की परिभाषा किसे कहते है अर्थ के कारण ?

बलात्कार, यौन उत्पीड़न और दुव्र्यवहार
पुरुषों द्वारा महिलाओं/युवतियों के साथ बलात्कार, उत्पीड़न, छेड़छाड़ और दुव्र्यवहार महिलाओं की स्वतंत्रता सीमित करने का कार्य करता है और इस धारणा को कायम रखता है कि महिलाओं को जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में पुरुषों के संरक्षण की आवश्यकता है। महाविद्यालयों, सार्वजनिक परिवहनों और अन्य सार्वजनिक स्थानों में छेड़खानी आम बात है। देश के कई भागों में महाविद्यालयों में सामूहिक बलात्कार के मामले और युवतियों को कुरूप बनाने के लिए तेजाब फेंकने की घटनाएँ भी होती हैं। काम के स्थानों पर महिलाओं के उत्पीड़न और उनके साथ दुव्र्यवहार के प्रति आवाज मुश्किल से उठाई जाती है या उसकी रिपोर्ट की जाती है क्योंकि उन्हें अपने रोजगार से वंचित होने का और निंदा का भय होता है।

यह कहना व्यर्थ होगा कि महिलाओं द्वारा भड़कीले वस्त्र पहनने से यौन उत्पीड़न और छेड़खानी को बढ़ावा मिलता है। बहुत से मामलों में साड़ी और सलवार कमीज पहनी हुई महिलाएं भी यौन उत्पीड़न की शिकार हुई हैं। यह महिलाओं के प्रति सम्मान का अभाव है जिसमें महिलाओं के प्रति कोई भावना न रखकर उन्हें उपभोग की वस्तु माना जाता है।

बलात्कार महिला की इच्छा और सहमति के बिना और जोर-जबर्दस्ती सम्भोग क्रिया है। यह पुरुष और महिला के बीच शक्ति संबंध का प्रमाण है। बलात्कार में एक व्यक्ति के रूप में महिला के व्यक्तित्व का ह्रास होता है और उसे केवल एक वस्तु मान लिया जाता है। भारत में महिलाओं पर अत्याचार और अपराध बढ़ रहे हैं और बलात्कार की घटनाएँ भी इसी प्रकार बढ़ रही हैं। आँकड़ों से यह अनुमान लगता है कि प्रति दो घंटे में देश में कहीं न कहीं बलात्कार होता है। सबसे अधिक भयानक और निराशाजनक स्थिति तो यह है कि इसकी संख्या निरंतर बढ़ रही है और 12 वर्ष से कम आयु की बालिकाएँ भी बलात्कार की शिकार हो रही हैं। यहाँ तक कि दो या तीन वर्ष की अबोध बच्चियों को भी नहीं बख्शा जा रहा है और बलात्कारियों द्वारा लैंगिक परितुष्टि की उपयुक्त वस्तु समझा जा रहा है।

हमारे समाज में विरोधाभास यह है कि बलात्कार की शिकार हुई महिला को हेय दृष्टि से देखा जाता है। जिस महिला के साथ बलात्कार होता है उस पर दोष लगाया जाता है इसके पीछे यह धारणा होती है कि ‘‘महिला ने ही उसे आमंत्रित किया होगा,‘‘ या ‘‘उसने कुछ भड़कीले वस्त्र पहने होंगे‘‘ आदि।

कुछ मामलों को छोड़कर, अधिकांश बलात्कार की घटनाएँ कामुकता प्रधान नहीं होती हैं। बलात्कार के कई रूप हैं:

क) परिवार के भीतर ही बलात्कार (जैसे- कौटुम्बिक व्यभिचार, बाल यौन दुरुपयोग और पति द्वारा बलात्कार, इसे कानूनी तौर पर बलात्कार नहीं माना गया है)
ख) जाति वर्ग की प्रधानता के रूप में बलात्कार (उदाहरण के लिए, उच्च जाति के पुरुष द्वारा निम्न जाति की महिला के साथ बलात्कार, जमींदारों द्वारा भूमिहीन/कृषि महिला मजदूरों, बंधुवा महिला मजदूरों के साथ बलात्कार)
ग) बच्चों, अव्यस्क, असुरक्षित युवतियों के साथ बलात्कार, युद्ध, साम्प्रदायिक दंगों और राजनीतिक विप्लवों के दौरान सामूहिक बलात्कार
घ) हिरासत के दौरान बलात्कार (जैसे- पुलिस हिरासत, रिमांड गृहों, अस्पतालों, काम के स्थानों में आदि)
च) आकस्मिक, अप्रत्याशित बलात्कार।

पुलिस हिरासत में महाराष्ट्र, मथुरा और हैदराबाद में रमज़ाबी की बलात्कार की बड़ी घटनाओं और इन मुकदमों में न्यायालय के जिस फैसले में सहमति के अनुच्छेद पर पुलिसकर्मियों को दोषमुक्त किया गया था, उसके फलस्वरूप बलात्कार कानून में सुधार के लिए राष्ट्रव्यापी आंदोलन हुआ। दंड विधान (संशोधन) अधिनियम, 1983 द्वारा इस कानून में परिवर्तन लाया गया। किसी व्यक्ति को बलात्कार करने का दोषी तब कहा जाएगा यदि उसने किसी स्त्री के साथ उसकी सहमति के बिना संभोग किया हो, अथवा उसकी सहमति से परंतु पागलपन अथवा नशे की अवस्था में अथवा उसे या अन्य कोई भी व्यक्ति जिसमें वह रुचि रखती है, उसकी मृत्यु अथवा हानि के भय से सहमति ली हो अथवा जब वह सोलह वर्ष से कम आयु की हो। अधिनियम में हिरासत संबंधी बलात्कार की श्रेणियाँ भी निर्धारित की गई हैं। हिरासत के दौरान बलात्कार के किसी भी मामले में, यदि पीड़ित महिला यह साक्ष्य देती है कि उसने संभोग के लिए सहमति नहीं दी, तो न्यायालय यह मानेगा कि उसने सहमति नहीं दी। यह सिद्ध करना कि बलात्कार नहीं किया गया था, इसका दायित्व पुरुष का होगा। फिर भी, बलात्कार का अभियोग स्वीकार करने अथवा अस्वीकार करने के लिए महिला के पिछले यौन संबंधी ब्यौरे मालूम करने संबंधी पहलू को अछूता रखा गया है। अर्थात् कानून ने महिलाओं की रक्षा के लिए नैतिकता के मानदंड निर्धारित किए हैं।

पारिवारिक मारपीट और दहेज मौतें
परिवार में महिलाओं से मारपीट-पत्नी की पिटाई, दुव्र्यवहार, भावप्रवण अत्याचार और इस प्रकार के अन्य व्यवहार को पारिवारिक समस्याएँ माना जाता है और इन्हें महिलाओं के विरुद्ध अपराध के रूप में नहीं माना गया है। यह भी देखा गया है कि समाज के सभी वर्गों में पारिवारिक अत्याचार होते रहते हैं। एक शोध अध्ययन में समाचार-पत्र की रिपोर्टों के विश्लेषण से यह देखा गया है कि विवाह के पश्चात् शुरू के कुछ वर्षों में महिलाओं की मृत्यु की घटनाएँ बढ़ रही हैं। नव-विवाहितों पर अत्याचार के चरम रूप को ‘‘दहेज मौत‘‘ या ‘‘बहू को जलाने की घटना‘‘ के रूप में माना जाता है।

अधिकांश बहुएँ जलाने की घटनाएँ या दहेज मौतें या दहेज हत्या के मामले लड़की के ससुराल वालों की उन अतृप्त माँगों के कारण होती है जिन्हें लड़की के माता-पिता पूरी नहीं कर पाते हैं। बहू को अपर्याप्त दहेज लाने के लिए तंग किया जाता है और ससुराल वाले बहू को खत्म करने की साजिश करते हैं ताकि वे अपने लड़के की शादी एक बार फिर कर सकें और नई वधू के माता-पिता से अधिक दहेज ले सकें।

अधिकांश मामलों में दहेज मौत या दहेज हत्या या विवाह के बाद की आत्महत्या (ससुराल वालों द्वारा वधू को दी गई यातनाओं से तंग आकर) रोकी जा सकती हैं, यदि बहू के माता-पिता या रिश्तेदार उसके बार-बार अपने ससुराल न जाने की इच्छा को मानकर उसे अपने पास रखने के लिए तैयार हों। अरवीन (गोगी) कौर अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी। उसने अपने माता-पिता को आत्महत्या करने से काफी पहले लिखा था -‘‘पापा, मुझे इस तरह दूर मत फेंकिए। पापा, मैं आपकी कसम खाकर कहती हूँ कि मैं यहाँ नहीं रह सकती। मैं वापस आना चाहती हूँ। मुझे इससे अधिक कुछ नहीं चाहिए। पापा, आप मुझे अपने पास रखने में समर्थ हैं, क्या ऐसा नहीं है? पापा, कुछ कहिए, आप नहीं जानते कि आपकी बेटी यहाँ किस तरह रह रही है। कृपया मुझे वापस बुला लो। पापा, मैं मर जाऊँगी परंतु यहाँ नहीं रहूँगी‘‘…. और वास्तव में वह मर गई।

वधू द्वारा की गई आत्महत्याओं की घटनाओं के पीछे अधिकतर तो ससुराल वालों अथवा पति द्वारा किए गए अत्याचार होते हैं। कभी-कभी कुछ अन्य कारण भी होते हैं जैसे-बेटी को अकेले अथवा बच्चों सहित रखने में माता-पिता को अतिरिक्त खर्च उठाना पड़ता है। इसके अलावा माता-पिता की इज्जत का सवाल भी उठता है, जिसमें शादी के बाद यदि लड़की अपने माता-पिता के घर में रहती है तो समाज में उनके परिवार की प्रतिष्ठा और प्रस्थिति कलंकित हो जाती है। इस कारणवश वे विवाह के पश्चात् बेटी को अपने साथ नहीं रखना चाहते हैं।

इस बात को ध्यान में रखते हुए सामाजिक कार्यकत्ताओं और नारीवादियों ने माता-पिता की पैतृक और स्व-अर्जित दोनों प्रकार की सम्पत्ति में लड़की के अधिकार की माँग की है। यह महसूस किया गया है कि इससे दहेज मौतों या दहेज हत्या की दुर्घटनाएँ रुकेंगी। वधू की आर्थिक सुरक्षा उसके माता-पिता, रिश्तेदारों की भावात्मक और नैतिक सहायता की तरह सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है।

दहेज प्रथा का अस्तित्व, प्रचलन तथा विस्तार बहुत भयानक है। शहरों, छोटे कस्बों और महानगरों में बढ़ रही दहेज मौतों की घटनाओं ने महिला समूहों का ध्यान आकृष्ट किया और 1980 के दशक के शुरू के वर्षों में दहेज अधिनियम में संशोधन की माँग की गई। विवाह के समय दहेज के भावी भुगतान से मुक्ति पाने के लिए अमीनोसैंटेसिस (लिंग पहचान परीक्षण) की सहायता से उत्तरी भारत और पश्चिमी भारत में जानबूझकर मादा भ्रूण की हत्याएँ की गईं।