क्षेत्रीय दल किसे कहते हैं | क्षेत्रीय दलों के नाम बताइए , महत्व क्या है , परिभाषा अर्थ regional parties in india in hindi

regional parties in india in hindi क्षेत्रीय दल किसे कहते हैं | क्षेत्रीय दलों के नाम बताइए , महत्व क्या है , परिभाषा अर्थ ? दो या चार नाम लिखिए |

क्षेत्रीय दल
वे कारक जो क्षेत्रीय दलों को सामने लाते हैं सांस्कृतिक, आर्थिक तथा राजनीतिक हो सकते हैं। इन कारकों में कौन-से महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं राजनीतिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है। ये विषय-विषय और समय-समय पर भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। भारत एक बहुभाषी, बहुधार्मिक और बहु-न जातीय देश है। सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों के मन में बहुसंख्यक संस्कृति में रच-बस जाने और अपनी विशिष्ट पहचान खो देने का भय हो सकता है। इस सांस्कृतिक विशिष्टता को कायम रखने की इच्छा ही द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (द्र.मु.क. – डी.एम.के.), ऑल इण्डिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़ म (अन्नाय द्र.मु.क, – ए.आई.ए.डी.एम.के.), अकाली दल, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा (जे.एम.एम.) और असम गण परिषद् (ए.जी.पी.) के नेतृत्व वाले क्षेत्रीय आन्दोलनों के मूल में है। यह बोध कि किसी क्षेत्र की विकासात्मक आवश्यकताएँ काफी लम्बे समय से उपेक्षित नहीं रही हैं क्षेत्रवाद अथवा क्षेत्रीय दलों को भी जन्म दे सकता है। राजनीतिक रूप से, क्षेत्रीय दल केन्द्रीकरण के विरुद्ध और एक सच्चे संघ की लय के साथ सुर मिलाते एक आन्दोलन के रूप में देखे जा सकते हैं।

द्रविड़ मुनेत्र कड़गम और ऑल इण्डिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम
द्र.मु.क. का उद्भव पिछली सदी के पूर्वार्ध में मद्रास प्रेसीडेन्सी में ब्राह्मण-विरोधी आन्दोलन में पाया जाता है। कांग्रेस को ब्राह्मणों के हाथों में एक खिलौने के रूप में देखा जाता था ताकि वह प्रशासन व अन्य व्यवसायों में अपना प्रभुत्व बनाये रख सके । गैर-ब्राहमणों को यह अहसास था कि खुद की सामाजिक उन्नति के लिए ब्राह्मणवादी प्रभुत्व को रोकना होगा। 1916 का गैर-ब्राह्मण घोषणा-पत्र, 1917 का साउथ इण्डिया पीपल्स एसोसिएशन तथा कांग्रेस पार्टी के खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए 1923-24 में जस्टिस पार्टी का जन्म ऐसी ही चेतना के परिणाम थे। 1925 में ई.वी. रामास्वामी नाईकर ने सैल्फ रिस्पेक्ट मूवमैण्ट की स्थापना की। इस आन्दोलन ने जनसाधारण को अत्यधिक प्रभावित किया। जस्टिस पार्टी और सैल्फ रिस्पैक्ट मूवमैण्ट का नाईकर के नेतृत्व में द्रविड़ कड़गम. बनाने के लिए आपस में विलय हो गया। कांग्रेस से विरोध, उत्तर भारत-विरुद्ध विचार और स्वाध निता को शोक-दिवस के रूप में मनाने की इच्छा रखने की वजह से युवाओं का एक वर्ग इससे विमुख था। ये विमुख लोक द्रविड़ कड़गम से अलग हो गए और 1949 में सी.एन. अन्नादुरई के नेतृत्व में द्र.मु.क. बना ली। अपने आरम्भ से ही द्र.मु.क. का ध्यान निम्नतर जातियों व वर्गों के हितों की ओर रहा है। फिर इसने तमिल पहचान के अगुवा का चोला भी पहन लिया। द्र.मु.क. ने तमिलों के पिछड़ेपन के लिए उत्तर भारत के आर्यों को दोष दिया । यह हिन्दी थोपे जाने की विरुद्ध रही है। द्र.मु.क. 1956 में पहली बार लोकसभा में प्रविष्ट हुई। उसने हिन्दी थोपे जाने को चुनावी मुद्दा बनाकर विधानसभा चुनाव जीता। 1972 में एक तमिल फिल्म नायक तथा पार्टी कोषाध्यक्ष, एम.जी. रामचन्द्रन की पार्टी से निष्कासन के मुद्दे पर डी.एम.के. विभाजित हो गई। इसने अन्नादुरई की स्म ति में अन्ना-द्र.मु.क. के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया। उसने राष्ट्रीय दल के साथ चुनावी गठबंधन के सिद्धांत का अनुसरण किया और 1977 का विधानसभा चुनाव जीता। 1984 के लोकसभा चुनावों में उसने बारह सीटें जीतीं। इसका अर्थ डी.एम.के. की राजनीतिक उपेक्षा नहीं था। सत्ता इन दो तमिल दलों के बीच ही आती-जाती रही। द.मु.क. का नेतृत्व अब एम. करुणानिधि के हाथ आ गया है।

रामचन्द्रन के नेतृत्व में अन्ना-द्र.मु.क. ने तमिल गौरव के शमन की नीतियों और गरीबों को खैरात बाँटने के जनवादी उपायों को अपनाया। 1988 में रामचन्द्रन की म त्यु के बाद अन्ना-द्र.मु.क. ने भी विभाजनों का सामना किया। 1989 के विधानसभा चुनावों में करुणानिधि के नेतृत्व वाली द्र. मु.क. विजयी हुई। जयललिता के नेतृत्व में अन्ना-द्र.मु.क. के विच्छिन्न गुटों का एकीकरण और कांग्रेस पार्टी के साथ गठजोड़ ने 1991 के विधानसभा चुनावों में, इसे सत्ता में फिर लौटा दिया। 1996 के चुनाव में द्र.मु.क. ने चुनाव जीता । जयललिता ने भ्रष्टाचार के अनेक आरोपों का सामना किया परन्तु इन आरोपों के बावजूद भी उनकी पार्टी 2001 के राज्य विधानसभा चुनाव में विजयी रही।

 शिरोमणि अकाली दल
शिरोमणि अकाली दल (शि.अ.द. – एस.ए.डी.) बीसवें दशक में गुरुद्वारों में महन्तों के भ्रष्ट आचरण के खिलाफ सिखों के एक आन्दोलन के रूप में उदित हुआ। 1925 में सरकार ने सिख गुरुद्वारा अधिनियम पारित किया। इस अधिनियम ने गुरुद्वारों के प्रबन्धन और नियंत्रण का अधिकार शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति (शि.गु.प्र.स. – एस.जी.पी.सी.) को दे दिया। यह तर्क देते हुए कि सिख परम्परा में चर्च को राज्य से अलग नहीं किया गया है, अकाली दल ने शि.गु.प्र.स. पर एक मजबूत पकड़ बनाने का प्रयास किया। शि.अ.द. ने स्वयं को उनके उत्थान तथा पहले ब्रिटिशों और फिर भारतीयों द्वारा उन पर किए जा रहे अन्यायों के विरुद्ध लड़ने हेतु समर्पित सिख हित के एकमात्र प्रवक्ता के रूप में प्रक्षेपित किया। 1947 में देश में विभाजन और स्वतंत्रता ने सिखों को क्षेत्रीय आधार पर संगठित होने का एक अवसर प्रदान कियाय सिख बहुमत वाले एक आजाद पंजाब का सपना भी देखा गया। शि.अ.द. नेतृत्व ऐसा राज्य चाहता था जहाँ सिख धर्म सुरक्षित हो। 1966 में मास्टर तारासिंह ने बतौर शि.अ.द. प्रवक्ता पंजाब सूबे की माँग की। केन्द्रीय सरकार ने पंजाब से हरियाणा को अलग कर नवम्बर 1966 में एक सिख बहुल राज्य बना दिया। शि.अ.द द्वारा समय-समय पर उठाए गए अन्य मुद्दे रहे हैं. – पंजाब के लिए पूर्ण क्षेत्रीय स्वायत्तता हेतु माँग, धनी किसानों के हितों का संरक्षण व अनुबोधन, नदी जल के वितरण में बेहतर बँटाई और अमृतसर की एक पवित्र शहर के रूप में घोषणा। 1973 के आनन्दपुर साहब घोषणा-पत्र का मुख्य फोकस था – पंजाब को और अधिक स्वायत्तता। इस घोषणा में मांग की गई थी कि केन्द्र सरकार केवल रक्षा, विदेश मामले, संचार व मुद्रा पर अधिकार रखेय शेष अधिकार राज्यों को दे दिए जाने चाहिए।

अकाली दल का एक वर्ग तो भारतीय संघ से संबंध-विच्छेद के विचार को समर्थन देता था। ऑपरेशन ब्लू-स्टार और इन्दिरा गाँधी की हत्या के उपरांत हुए सिख-विरोधी दंगों ने सिख मानस को घायल कर दिया। राजीव-लोंगोवाल समझौता सिखों की आहत भावनाओं को कम नहीं कर सका। चण्डीगढ़ पंजाब को सौंपे जाने और जोधेपुर कैदी नजरबंदों की रिहाई जैसी समरूप माँगों को सामने रखते हुए बादल और तोहड़ा, दो गुटों के बीच यह शि.अ.द. विभाजित हो गया। जब भिण्डरावाले के पिता जोगिन्दर सिंह के नेतृत्व वाले यूनाइटिड अकाली दल का जन्म हुआ, अकाली दल का अनेकीकरण जारी था। इसी प्रकार, 1989 के लोकसभा चुनाज सिमरनजीत सिंह मान के नेतृत्व वाले अकाली दल (मान) द्वारा लड़ा गया। इस संगठन ने युद्धप्रियता के सिद्धांत का गाला समर्थन किया और पंजाब में तेरह में से दस सीटें जीतीं। 1997 में भाला के साथ गठबन्धन में अकाली दल ने विधानसभा चुनाव जीते। बादल के नेतृत्व वाला अकाली दल 2002 के विधानसभा चुनाव हार गया है और कांग्रेस पार्टी चुनाव जीती है। कांग्रेस पार्टी के कैप्टन अमरिन्दर सिंह नए मुख्यमंत्री बने हैं।

नैशनल कांफ्रेंस
नैशनल कॉन्फ्रेन्स का मूल बीसवें व तीसवें दशक में तब के जम्मू व कश्मीर राज्य में राजनीतिक उत्तेजना में तलाशा जा सकता है जब वहाँ एक हिन्दू महाराजा का शासन था। मुसलमानों के शैक्षणिक व सामाजिक कल्याण को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से 1921 में अन्जुमन-ए-इस्लामिया के नाम से एक संगठन उभरकर आया। 1931 में राज्य के बहुमत समुदाय – मुसलमानों के हित को सुव्यक्त करने के लिए मुस्लिम कांफ्रेन्स का जन्म हुआ। राष्ट्रवादी नेताओं के प्रभाव में आकर शेख अब्दुल्ला ने 1939 में मुस्लिम कांफेन्स के द्वारा गैर-मुसलमानों के लिए भी खोल दिए और दल का नाम भी बदलकर ऑल इण्डिया जम्मू एण्ड कश्मीर नैशनल कांफ्रेन्स हो गया। बाद में फिर इसका नाम पुनः नैशनल कांफ्रेन्स हो गया। शेख मोहम्मद अब्दुल्ला इस दल के सर्वाधिक शक्तिशाली नेता के रूप में उभरे जिन्होंने पाकिस्तानी जनजातियों के धावे को रोका और 1948 में भारतीय संघ हेतु जम्मू-कश्मीर के स्वीकरण में एक अहम भूमिका निभायी। उसी वर्ष नैशनल कांफेन्स (सी) सरकार सत्ता में आयी। नैशनल कांफ्रेन्स की प्रमुख सफलताओं में से – बड़ी भूमिमगन्न जागीरों का उन्मूलन और भारतीय राज्य में जम्मू व कश्मीर को एक स्वायत्तप्राय स्थिति प्रदान करती भारतीय संविधान की धारा 3700 में उसका समावेशन। 1965 में नैशनल कांफ्रेन्स और कांग्रेस पार्टी का आगस में बिलय हो गया। इन्दिरा-शेख समझौते की एक शर्त के तहत 1975 में जेल से रिहा होने के बाद अब्दुल्ला ने नेशनल कांफ्रेन्स का पुनरुत्थान किया। एन.सी. ने औपचारिक का से द्वि-राष्ट्र सिद्धांत की निन्दा कीय धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और लोकतंत्र में आस्था जतायी । 1982 में अपनी मृत्यु से पूर्व वंश उत्तराधिकार की तर्ज पर, उन्होंने नैशनल कांफ्रेस के अध्यक्ष पद पर अपने बेटे फारुक अब्दुल्ला को निर्वाचित कराया। अपने पिता की मृत्यु के उपरांत फारुक मुख्यमंत्री बन गए। फारुक सरकार गिराने के लिए शेख के दामाद, जी.एम शाह ने कांग्रेस पार्टी से साठगाँठ कर ली। 1984 के संसदीय चुनाव और 1987 के विधानसभा चुनाव में फारक के नेतृत्व में नैशनल कांफ्रेन्स ने कश्मीरी जनता पर अपनी सतत पकड़ का प्रदर्शन किया। 1990 में, कश्मीर में राष्ट्रपति-शासन लागू कर दिया गया और फारुक अब्दुल्ला सरकार बर्खास्त कर दी गई। नैशनल कांफ्रेन्स ने विधानसभा चुनाव जीतने के बाद 1996 में राज्य में राजनीतिक सत्ता फिर हासिल कर ली।

तेलुगु देशम् पार्टी
तेलुगु देशम पार्टी (टी.डी.पी.) की स्थापना आन्ध्र प्रदेश के मोहक अभिनेता एन.टी. रामारावारा 1982 में की गई। 1993 के विधानसभा चुनाव में राज्य विधानसभा चुनावों में यह सत्ता में आ गई। टी.डी.पी. का नाटकीय उदय कांग्रेस के साथ आम जनता के उस मोहभंग के कारण संभव हुआ जो केन्द्रीय नेतृत्व द्वारा राज्य में अलोकप्रिय मुख्यमंत्रियों को थोपने, बृहद स्तर पर भ्रष्टाचार और एन.टी. रामाराव के चमत्कारी नेतृत्व की वजह से था। टी.डी.पी. को उदय को आन्ध्र की राजनीति में रेड्डियों व ब्राहमणों के नुकसान पर कम्मा जाति के राजनीतिक उत्कर्ष के रूप में भी देखा जाता है। तमिलनाडु में ई.वी. रामास्वामी नाईकर की ही भाँति रामाराव भी उस तेलुगु गौरव के पुनर्माप्ति की बात करते थे जो कांग्रेस शासन में मिट चुका था। एन.टी. रामाराव ने महसूस किया कि राज्य के सामने आने वाली समस्याओं की जटिलताओं को समझने के लिए एक क्षेत्रीय दल की आवश्यकता है। उन्होंने भूमि-सुधारों का समर्थन कियाय शहरी आय पर सीमा-निर्धारण, कम कीमत के चावल तथा अन्य जनवादी उपायों का पक्ष लिया। तेलुगु देशम् ने भारतीय संघ से आंध्र के अलग होने की बात कभी नहीं की। 1989 में यह दल केन्द्र में राष्ट्रीय मोर्चा सरकार का हिस्सा बन गया। उसी वर्ष पार्टी विधानसभा चुनाव हार गई और उसने लोकसभा की बाइस सीटों में से मात्र एक जीती। 1994 व 1999 के विधानसभा चुनावों में टी.डी.पी. ने कांग्रेस पार्टी को हराया। 1995 में रामाराव के दामाद, चंद्रबाबू नायडू मुख्यमंत्री बने। भा.ज.पा. के साथ चुनावी गठबन्धन ने टी.डी.पी. को 1999 के विधानसभा चुनाव जीतने और लोकसभा सीटों के लिहाज से अपना प्रदर्शन सुधारने में लाभ पहुँचाया। गठबन्धन राजनीति के युग में टी.डी.पी. राष्ट्रीय राजनीति में भी एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप में उभरी है।

 असम गण परिषद्
असम गण परिषद् (अ.ग.प.-ए.जी.पी.) अखिल असम छात्र संघ (ए.ए.एस.यू.-आसू) और उसके राजनीतिक स्कंध, अखिल असम गण संग्राम परिषद् (ए.एस.जी.पी.सी.) के नेतृत्व वाले एक सशक्त छात्र आन्दोलन की उपज था। इन छात्रों ने पूर्वी पाकिस्तान, जो 1971 में बंगलादेश बन गया, के मुस्लिम बंगालियों द्वारा और नेपालियों और बिहारियों द्वारा भी, बृहद स्तर पर असम प्रवसन के मुद्दे को उठाया। प्रवासियों द्वारा अपनी ही जमीन में फँसा दिए जाने का भय उन्हें सताने लगा । प्रवासियों को ‘वोट बैंक‘ के रूप में प्रयोग किए जाने के कारण केन्द्रीय सरकार व कांग्रेस पार्टी से उनका मोहभंग हो गया। आसू एवं ए.ए.जी.एस.पी. आसानी मध्यमवर्ग की आकांक्षाओं के प्रतीक बन गए। उनको लगा कि बंगालियों के नौकरशाही तथा मारवाड़ियों के व्यापार में आधिपत्य के कारण उनका विकास रुक जाएगा। 1985 में केन्द्रीय सरकार ने ए.ए.जी.एस.पी. के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसके अनुसार असम की जनता के सांस्कृतिक, सामाजिक, भाषायी पहचान व विरासत की रक्षा, संरक्षण तथा प्रोत्साहन के लिए जो भी उचित होंगे संवैधानिक, विधायी तथा प्रशासनीय पूर्वोपाय किए जाएंगे। असम गण परिषद् 1985 में बनायी गई। इसने प्रफुल्ल कुमार मोहन्ता के नेतृत्व में 1986 का विधानसभा चुनाव लड़ा और जीता। अ.ग.प. और भा.ज.पा. गठबन्धन ने 1996 का विधानसभा चुनाव जीता। 2001 के विधानसभा चुनावों में अ.ग.प. ने मात्र 20 सीटें जीतीं जबकि कांग्रेस 71 सीटें जीतकर सत्ता में लौटी।

झारखण्ड पार्टी
झारखण्ड पार्टी की जड़ें आदिवासियों की न जातीय पहचान के प्रतिरक्षण और आर्थिक हित के संरक्षण तथा प्रोत्साहन हेतु 1938 में स्थापित आदिवासी महासभा में तलाशी जा सकती हैं। उनकी मान्यता के अनुसार उनके सामाजिक व आर्थिक पिछड़ेपन का कारण प्रथमतः ब्रिटिश शासन था। वे अपने शोषण के लिए दोष साहूकारों और ठेकेदारों पर भी लगाते थे। उनकी वास्तविक समस्याओं के प्रति सरकार के औदासीन्य के लिए भी दोष लगाया जाता था। जनजातियों के लिए एक पृथक् राज्य बनाने के उद्देश्य से 1950 में आदिवासी महासभा झारखण्ड पार्टी में बदल दी गई। 1952, 1957 व 1962 के चुनावों में बिहार विधानसभा में यह पार्टी मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरी। 1963 में झारखण्ड पार्टी के कांग्रेस पार्टी के साथ विलय झारखण्ड आन्दोलन पर एक तगड़ा झटका सिद्ध हुआ। पृथक राज्य की लम्बे समय से इच्छा दिल में लिए लक्ष्य प्राप्ति हेतु पूरी शक्ति से लड़ने के लिए अनेक विच्छिन्न गुटों और व्यक्तियों ने दल को पुनर्संगठित करने का प्रयास किया परन्तु वे उनको एकजुट नहीं कर पाए। 1963-पश्चात् चरण में अनेक दल उभरे – भारतीय झारखण्ड पार्टी, अखिल भारतीय झारखण्ड पार्टी, हल झारखण्ड पार्टी, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा और झारखण्ड समन्वय समिति । झारखण्ड मुक्ति मोर्चा मुख्य दल के रूप में उभरा है। 1980 के आम चुनाव में इसने अपने द्वारा लड़ी गईं अधिकांश सीटें जीतीं। पृथक राज्य हेतु संघर्ष के पुनर्नव्यार्थ झा म.म. झारखण्ड पार्टी के साथ पुनर्समूहीकृत हो गया। वर्ष 2000 में बिहार के जनजातीय क्षेत्रों को शामिल कर झारखण्ड राज्य बना दिया गया।