राष्ट्र शक्ति क्या है | राष्ट्र शक्ति की परिभाषा किसे कहते है ? तत्व , मानवीय तत्व , National power in hindi
National power in hindi definition राष्ट्र शक्ति क्या है | राष्ट्र शक्ति की परिभाषा किसे कहते है ? तत्व , मानवीय तत्व राष्ट्रीय शक्ति के तत्व के रूप में विचारधारा का महत्व राष्ट्रीय शक्ति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में शक्ति प्रबंधन एलिमेंट्स ऑफ नेशनल पावर ?
शक्ति
शक्ति क्या है ?
शक्ति एक ऐसा तथ्य है जो तमाम किस्म के संबंधों से जुड़ा होता है। स्वाभाविक है कि राजनीतिक संबंध भी शक्ति के प्रभाव से अछूते नहीं रह सकते। हांस मोरजेंथाउ ने शक्ति की परिभाषा करते हुए कहा है कि यह ष्किसी एक व्यक्ति के द्वारा अन्य व्यक्तियों के दिमाग और उनके क्रियाकलापों को नियंत्रित करने की ताकत का नाम है।‘‘ लेकिन, शक्ति चूंकि अपने आप में दिखाई देने वाली चीज नहीं है इसलिए इसके प्रभाव को व्यक्तियों तथा राज्यों के बर्ताव या आचरण से आँका जाता है। इस प्रकार शक्ति को व्यापक अर्थों में इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है “यह, वह सामर्थ्य या क्षमता है जिसके द्वारा दूसरों के आचरण को नियंत्रित किया जा सकता है उनसे वह करवाया जा सकता है जो कोई करवाना चाहता है और देखा जा सकता है कि दूसरे ऐसा कुछ नहीं करें जो वह नहीं चाहता है।‘‘ अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में शक्ति (पावर) किसी राष्ट्र की वह क्षमता है या सामर्थ्य है जिसके माध्यम से वह अपने फैसलों को लागू करवाता है, दूसरे राज्यों के आचरण को प्रभावित करता है और उनसे आदर पाता है। प्रोफेसर महेन्द्र कुमार ने इन्हीं शब्दों में राज्य की शक्ति को परिभाषित किया है। साधारण शब्दों में कहें तो शक्ति ऐसा सामर्थ्य है जिसका प्रदर्शन । किया भी जा सकता है और नहीं भी। लेकिन, जब कभी भी इस सामर्थ्य का प्रदर्शन किया जाता है तब इसके द्वारा कोई राज्य अन्य राज्यों के आचरण को यकीनी तौर पर प्रभावित करने की स्थिति में आ जाता है।
प्राचीन भारत में ईसा की चैथी शताब्दी पूर्व कौटिल्य ने भी शक्ति की विस्तृत चर्चा की थी। कौटिल्य के अनुसार शक्ति ष्ताकत रखने की वह क्षमता है जो तीन गुणों से मिलकर बनती है। ये गुण हैं, ज्ञान, सैन्य बल और शौर्य । मारेजेंथाऊ को भी कोटिल्य के दर्शन का उत्तराधिकारी माना गया है। उसका दर्शन और रचनाएँ भी शक्ति की बुनियाद पर ही आधारित हैं। जैसा कि हम इससे पहले इकाई 1 में भी अध्ययन कर चुके हैं। मोरजेथाऊ की नजर में राजनीति और कुछ नहीं बस शक्ति के इर्द गिर्द घूमने वाले घटनाक्रमों का नाम है। इस व्याख्या के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय राजनीति राज्यों के बीच शक्ति पाने के लिए चलने वाला संघर्ष मात्र है। राबर्ट डाल ने शक्ति की व्याख्या करते हुए कहा है कि ‘‘क‘‘ की ताकत ‘‘ख‘‘ के ऊपर इस प्रकार हावी है कि वह इसकी मदद से ‘‘ख‘‘ से वह सब कुछ करवा सकता है जो सामान्य परिस्थितियों में ‘‘ख‘‘ के वश के बाहर की बात थी। इस प्रकार प्रत्येक राज्य चंद अन्य राज्यों के सापेक्ष में शक्तिमान हो सकता है। दुनिया में चंद ऐसे अत्यंत छोटे राज्य भी हैं जो इतने अल्पशक्ति सम्पन्न वाले हैं कि वैसी भी हालत में अन्य किसी भी राज्य के आचरण को प्रभावित करने की क्षमता नहीं रखते। लेकिन, अधिकांश राज्यों के पास इतनी शक्ति तो अवश्य होती ही है कि वे जरूरत पड़ने पर और परिस्थिति विशेष में अन्य राज्यों के आचरण को प्रभावित कर सकें। हालांकि विभिन्न राज्यों के मौजूदा शक्ति की मात्रा भी भिन्न होती है। अमरीका की तुलना में भारत के पास अन्य राज्यों के आचरण को प्रभावित करने की शक्ति कम है। इस प्रकार अमरीका के पास भारत से अधिक शक्ति है। दूसरी और, नेपाल या इंडोनिशया जैसे देशों की तुलना में भारत के पास, संभवतः अधिक शक्ति है। राज्य की शक्ति का प्रदर्शन अनेक तरीकों से किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, वर्ष 1996 में शस्त्र परिसीमन संधि पर जैनेवा में चल रही वार्ता सिर्फ इसलिए असफल हो गयी कि भारत ने इसके फैसले में शामिल होने से इंकार कर दिया था। इस इंकार के कारण यह कॉफ्रेंस संपूर्ण परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि (सी . टी बी टी) को लागू करवा पाने में सफल नहीं हो पाया। इस उदाहरण में हमने देखा कि परिस्थितिविशेष में भारत की शक्ति तमाम राष्ट्र, अमरीका सहित, को प्रभावित करने वाली साबित हुई।
शक्ति की तुलना बड़ी सुविधा के साथ पैसे से की जा सकती है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में शक्ति की वही भूमिका होती है जो अर्थव्यवस्था में पैसों की। लोगों को पैसों की जरूरत तो इसीलिए होती है कि वे अपनी इच्छाअनुसार जो चाहें पा सकें या करवा सकें। हालांकि, कुछ लोगों के लिए पैसे का महत्व इससे भी आगे निकलकर नशा सरीखा हो जाता है। वे पैसों की खोज में अपने तमाम होशोहवास खो देते हैं सिर्फ इसलिए कि इसका अधिकाधिक संग्रह कर सकें। ऐसे लोगों के लिए पैसा कुछ करने या पाने का माध्यम नहीं बल्कि अपने आप में लक्ष्य बन जाता है। परन्तु अधिकांश लोगों के लिए पैसा कुछ पाने या करने का माध्यम भर ही रहता है। इसी प्रकार शक्ति भी राज्यों के अस्तित्व के लिए, अत्यंत मूल्यवान अवयव है। लेकिन अनेक दफा यह उनके लिए महज लक्ष्य भर बन कर रह जाता है। प्रत्येक राज्य की सबसे बड़ी इच्छा यही होती है कि वह जितनी अधिक से अधिक शक्ति संग्रह कर सके। इसीलिए बर्नोन बैन डाइक ने लिखा था कि रू शक्ति एक साथ दोहरी भूमिका निभाती है “यह राज्यों के लक्ष्यों का सरताज भी है और उनके वर्चस्व को स्थापित करने का साधन भी।‘‘ डाइक यह कहना चाहता है कि राज्यों के लक्ष्यों तथा इरादों में सबसे पहला स्थान शक्ति की प्राप्ति का है और फिर यही शक्ति वह बुनियादी माध्यम भी है जिसके द्वारा वे राज्य अपने हितों का मार्ग टटोलते हैं।
इस प्रकार शक्ति अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की धूरी है। लेकिन इसे परिभाषित करना हमेशा आसान नहीं होता। हालांकि विभिन्न तरीकों से इसे परिभाषित करने के अनेकों प्रयास किये गये हैं। कुलोम्बिस और वूल्फ ने शक्ति को परिभाषित करते हुए इसे ‘‘ऐसे सार्वभौम अवधारणा के रूप में चित्रित किया है जो उन सब क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं को प्रतिबिम्बित करता है जिनके द्वारा कोई कर्ता “क‘‘ अन्य दूसरे कर्ता ‘‘ख‘‘ के आचरण को नियंत्रित करता है।
शक्ति तीन बुनियादी अवयवों से बना हैः बल, प्रभाव और प्राधिकार। कॉलोम्बिस और वुल्फ के अनुसार, जब कर्ता आदर या स्नेह के वशीभूत होकर स्वेच्छा से कर्ता ष्कष् की इच्छा का पालन करता है तो यह अधिकार की श्रेणी में आता है। प्रभाव की परिभाषा में इसे कर्ता क के ऐसे कृत्य आते हैं जब वह समझा बुझा कर, ताकत का इस्तेमाल किये बिना कर्ता ख को बाध्य कर देता है कि वह कर्ता व स्वेच्छा से उसके कर्ता क के निर्देशों का पालन करे। अंत में, बल तब प्रभावी माना जाता है जब कर्ता क कर्ता ख पर पूरा दबाव डाल कर उसे बाध्य कर देता है कि वह कर्ता ख उसके कर्ता क के राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति करें। इस प्रकार हम देखते हैं कि शक्ति तीन अवयवों प्राधिकार (अथोरिटी: स्वेच्छा से पालन करना), प्रभाव (इंफ्लुएंस: समझा बुझा कर स्वेच्छा से निर्देशों का पालन करवाना), एवं बल (दबाव डालकर जबरन निर्देशों का पालन करवाना) का मिश्रण मात्र हैं।
शक्ति
प्राधिकार प्रभाव नल
शक्ति के तत्व
कोई भी राष्ट्र शक्ति का संचय इसके विभिन्न तत्वों के माध्यम से करता है। ऐसी कोई परमस्थिति नहीं है जो खुद-ब-खुद शक्ति में बदल जाती हो। शक्ति का संचय विभिन्न तत्वों के संयोग से विभिन्न हालातों में होता है। अगर हालात बदल जाएं तो हो सकता है कि उन्हीं तत्वों का संयोग शक्ति का उद्घोष नहीं कर पाए। इसी प्रकार किसी हालात विशेष में चंद तत्वों का संयोग किसी देश विशेष के लिए विशेष शक्ति का उद्घोष करे जबकि इन्हीं हालातों और उन्हीं तत्वों का संयोग किसी अन्य देश के लिए उतनी शक्ति का समावेश नहीं कर पाए। शक्ति का आधार बनने वाले इन तत्वों को मोटे तौर पर दो दो भागों, मूर्त प्रकट) या अमूर्त (अदृश्य) में बाँटा जा सकता है। दूसरे दृष्टिकोण से देखें तो शक्ति को दो अन्य भागों, संख्यात्मक और गुणात्मक में बाँटा जा सकता है। विलियम इबेनस्टिन ने शक्ति के संदर्भ में इसके गुणात्मक पहलु पर जोर दिया है वह कहता है कि
‘‘अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के क्षेत्र में, किसी राष्ट्र विशेष के लिए उसकी शक्ति का आकलन वस्तुतः गुणात्मक फैसलों और मापदण्डों पर निर्भर करता है। उसका कारण यह है कि कभी राष्ट्र विशेष की राष्ट्रीय शक्ति उसकी आबादी, उसके पास मौजूद नये संसाधन तथा अन्य संख्यात्मक कारकों के कुल योग से कहीं अधिक होती है। किसी राष्ट्र की कुल शक्ति का आंकलन जिन गुणात्मक तत्वों के आधार पर किया जाता है उनमें उस राष्ट्र की अन्य राष्ट्रों के साथ साझेदारी करने की क्षमता, उसके नागरिकों में मौजूद राष्ट्र प्रेम का जज्वा, उसे संस्थानों का लचीलापन, उसके तकनीकी ज्ञान की क्षमता, संकटों को झेलने की उसकी क्षमता आदि शामिल होते हैं।‘‘
शक्ति के विभिन्न तत्वों की संक्षिप्त चर्चा प्रस्तुत हैः
मूर्त तत्व: आबादी एक ऐसा तत्व है जिसे आसानी से प्रकट रूप में गिना जा सकता है। इसलिए यह शक्ति का एक मूर्त तत्व है। ऐसा अमूमन माना जाता है कि बड़ी आबादी वाले राष्ट्र, अपेक्षाकृत शक्तिशाली होते हैं। बड़ी आबादी के फायदे यह है कि राष्ट्र विशेष को इससे एक मजबूत सेना । बनाने में मदद मिलती है। इसके अलावा उसे अपनी आर्थिक गतिविधियों के संचालन में अधिक से अधिक लोग उपलब्ध होते हैं। परन्तु, सिर्फ एक बड़ी आबादी की मौजूदगी किसी देश को शक्तिशाली बनाने के लिए काफी नहीं होती। उन्नीसवीं सदी का चीन आबादी के मामले में ब्रिटेन से काफी आगे था परन्तु शक्ति के मामले में ब्रिटेन से उसका कोई मुकाबला नहीं था। ताजा उदाहरण इजरायल का है जिसकी आबादी केवल 50 लाख की है, लेकिन शक्ति के मामले में उसकी गिनती दुनिया के शीर्ष देशों में होती है। इजरायल ने तो इतनी छोटी आबादी के बावजूद परमाणु हथियारों जैसे घातक अस्त्रों से खुद को लैस कर लिया है। इस प्रकार जैसा कि कॉलोम्बिस और वूलफ का कहना है, ‘‘एक आबादी जो स्वस्थ है, जिसे उपयुक्त पोषाहार उपलब्ध है, जो भावनात्मक एकता में बँधी हुई है, उपयुक्त भौगोलिक दायरा जिसे रहने के लिए उपलब्ध है, और जिसके पास ठोस सूचना तंत्र हो – ऐसी आबादी वाला राष्ट्र किसी भी दूसरे अन्य ऐसे राष्ट्र से कहीं अधिक शक्तिशाली होता है जिसकी आबादी कुपोषण और बीमारियों से ग्रस्त हो, जिसे रहने के लिए अति संकुचित भौगोलिक दायरा उपलब्ध हो, जो अशिक्षित हो, जिसमें एकता का अभाव हो और जो राष्ट्र के प्रति वफादार नहीं हो।‘‘
भू-भाग: शक्ति का दूसरा मूर्त तत्व भू-भाग है। कुछ लेखक इस तत्व को भौगोलिक क्षेत्र का नाम देते हैं और प्रभावकारी भू-भाग को इसके भौगोलिक क्षेत्र के अंदर डालते हैं। इस तत्व के महत्वपूर्ण घटकों में राष्ट्र का आकार इसका वातावरण व मौसम भौगोलिक बनावट तथा नक्शे में इसका स्थान आदि शामिल है। सामान्यतः ऐसा माना जाता है कि बड़े आकार वाला राष्ट्र छोटे आकार वाले राष्ट्रों की तुलना में अधिक शक्तिशाली होता है। भू-भाग का बड़ा आकार किसी राष्ट्र विशेष के लिए अधिकाधिक कृषि भूमि उपलब्ध कराता है और औद्योगिक गतिविधियों में भी वृद्धि के अवसर प्रदान करता है। इसके अलावा बडा भ-भाग इसकी सेना को रक्षात्मक रणनीति को भी बेहतर अवसर प्रदान करता है। युद्ध में अग्रिम मोर्चे पर पराजय के बाद ऐसे राष्ट्र की सेना को पीछे हटने के लिए पर्याप्त भू-भाग मिलता है – पीछे हट कर यह सेना फिर से एकजुट होकर आगे बढ़ती हुई दुश्मन सेना की घेरेबंदी कर उसे पराजित कर सकती है। लेकिन, सिर्फ आकार किसी देश की शक्ति का अंतिम निर्धारक घटक नहीं हो सकता। किन्हीं हालातों में कोई छोटे आकार वाला राष्ट्र भी अधिक शक्तिशाली बन सकता है। इजरायल इसका ज्वलंत उदाहरण है जिसने भू-भाग के छोटे आकार के बावजूद एक सशक्त और विशाल सेना खड़ी कर रखी है। दूसरी तरफ कनाडा और ब्राजील जैसे विशाल भू-भाग वाले राष्ट्र होने के बावजूद दुनिया के शक्तिशाली देशों में नहीं गिने जाते। कारण, कनाडा के बड़े भू-भाग का अधिकांश हिस्सा बर्फीली झीलों से और ब्राजील का जंगलो से अटा पड़ा है।
इसी प्रकार किसी देश का मौसम भी उसकी शक्ति को प्रभावित करता है। इस प्रकार अंटार्टिका का बर्फीला भू-भाग और सहारा का विशाल रेगिस्तान किसी राष्ट्र की शक्ति संरचना के लिए कहीं से भी उपयुक्त नहीं हो सकते। हालांकि इन्हीं भौगोलिक क्षेत्रों की सतह के अंदर यदि पेट्रोलियम के भंडार या यूरेनियम के स्त्रोत निकल आएँ तो जिन राष्ट्र विशेषों से ये भू-भाग जुड़े हैं उनकी शक्ति में नाटकीय ढंग से इजाफा हो सकता है। इसके अलावा राष्ट्र की भोगौलिक बनावट तथा नशे में स्थान उनकी रणनीति के लिए बड़ा महत्व रखता है। भौगोलिक बनावट राष्ट्रों के बीच की सीमा तय करने में तथा शक्ति के निर्धारण में अहम भूमिका निभाते हैं। इस प्रकार ऊँचे पहाड़ों तथा समुद्र से घिरे देशों के लिए ऐसी प्राकृतिक सीमा उनकी सुरक्षा को मजबूत करती है और इस प्रकार उनकी शक्ति बढ़ाती है। हालांकि, यह विशेषता भी अकेले शक्ति अभिवर्द्धन के लिए जिम्मेदार हो ऐसा नहीं है। लेकिन इसमें दो मत नहीं कि कृत्रिम रूप से देशों के बीच खींची गई सीमा रेखा अमूमन इन देशों की शक्ति का अपव्यय करने का प्रमुख कारण बन जाती है। भारत पाकिस्तान तथा जर्मनी फ्रांस इस बात के आदर्श उदाहरण हैं।
प्राकृतिक संसाधन: किसी देश के शक्ति निर्धारण में उस देश में मौजूद प्राकृतिक संसाधनों का भंडार प्रभावी भूमिका निभाता है। इस प्रकार पेट्रोलियम, यूरेनियम या अन्य दुर्लभ प्राकृतिक संसाधनों की मौजूदगी किसी राष्ट्र विशेष को अत्यंत शक्तिशाली बना सकती है। अरब देशों का उदाहरण सामने है। पेट्रोलियम भंडार का मालिक होने के कारण दुनिया का शक्तिशाली से शक्तिशाली देश इनकी उपेक्षा करने का साहस नहीं जुटा सकता। कोयला और लोहा जैसे प्राकृतिक संसाधन रखने वाले देश भी मौका पड़ने पर दुनिया के सामने अपनी शर्ते थोप सकते हैं। खनिज पदार्थ यदि किसी देश को शक्तिशाली बनाते हैं तो साथ ही वह देश अपना खनिज, कृषि पदार्थ और औद्योगिक उत्पाद का उपहार बाँट कर अपने अधिकार क्षेत्र में अभिवृद्धि कर सकते हैं।
कृषि क्षमता: शक्ति का चैथा महत्वपूर्ण मूर्त तत्व उसकी कृषि क्षमता है। जिस देश को खाद्यान्नों के मामले में आत्म निर्भरता प्राप्त है वह युद्ध जैसे संकट की घड़ियों में अपेक्षाकृत रूप से अधिक शक्तिशाली होता है।
सैन्य क्षमता: शक्ति का पाँचवा मूर्त तत्व सैन्य क्षमता है। परम्परा से चली आ रही कहावत भी इस बात को पुष्ट करती है कि शक्ति का आधार सेना का आकार होता है। किसी राष्ट्र राज्य की सैन्य क्षमता का आकलन इस बात से किया जा सकता है कि वहां सुरक्षा तथा सैन्य गतिविधियों के लिए खर्चे जाने वाले बजट का आकार कितना बड़ा है। इसके अलावा किसी राष्ट्र विशेष ने यदि अपने भौगोलिक सीमा के बाहर भी सैन्य ठिकाने जमाने में सफलता प्राप्त कर ली हो तो उसकी सुरक्षा एवं मारक शक्ति दोनों तरह की क्षमता प्राप्त कर ली हो तो उसकी सुरक्षा एवं मारक शक्ति दोनों तरह की क्षमता में जोरदार इजाफा हो जाता है। ऐसी सैन्य गतिशीलता हालांकि राष्ट्र राज्य की इस क्षमता पर निर्भर करती है कि वह जमीन, समुद्र एवं वायु के माध्यमों से शत्रु के खिलाफ किस सीमा तक युद्ध को चला सकता है। परन्तु यह सदैव ध्यान में रखना चाहिए कि राष्ट्र राज्य की सफलता का दारोमदार अंततः चंद अमूर्त तत्वों यथा तैयारी, प्रशिक्षण नेतृत्व, नैतिक बल आदि पर भी निर्भर करता है क्योंकि हालात विशेषों में सेना कैसे अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर पाती है। यही इन्हीं अमूर्त तत्वों की देन है।
शक्ति के मूर्त तत्वों की चर्चा से स्पष्ट हो जाता है कि किसी संप्रभुता प्राप्त राष्ट्र राज्य व्यवस्था में राष्ट्र राज्यों की क्षमता में अभिवर्द्धन के लिए इन मूर्त तत्वों की मौजूदगी आवश्यक है। वहीं पर इन अमूर्त तत्वों के बिना भी संप्रभुता प्राप्त राष्ट्र राज्य की शक्ति निष्फल हो जाती है।
शक्ति के अमूर्त तत्व
शक्ति के अमूर्त तत्वों में नेतृत्व, अधिकारी तंत्र की कार्यकुशलता, सरकार का स्वरूप, समाज में प्रगाढ़ता जैसे तत्व शामिल हैं। हालांकि इन तत्वों को प्रकट रूप में माप पाना संभव नहीं है। लेकिन इससे इनकी इस महत्ता में कोई कमी नहीं आती कि किसी संप्रभुता प्राप्त राष्ट्र की शक्ति में इजाफे के लिए ये कितने आवश्यक हैं।
शक्ति के अत्यंत महत्वपूर्ण अमूर्त तत्वों में बेतृत्व का स्थान आता है। इसका महत्व इस बात पर निर्भर करता है कि राष्ट्र विशेष का नेता अपने देश की विदेश नीतियों की सफलता की राह में अपने नागरिकों को किस हद तक प्रेरित कर पाता है। इस तत्व की अचूक माप तो संभव नहीं है लेकिन किसी संप्रभुता प्राप्त राष्ट्र के अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में पड़ने वाले प्रभाव पर नेतृत्व की कुशलता की छाया स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।
अधिकारी तंत्र की कार्य कुशलता शक्ति के अमूर्त तत्वों में महत्व के दृष्टिकोण से दूसरे स्थान पर आता है। इसका मुख्य कारण यह है कि जिन राष्ट्रों के पास कार्यकुशल एवं चुस्त अधिकारी तंत्र होता है वे अपनी घरेलू तथा विदेशिक नीतियों को बेहतर ढंग से कार्यन्वित कर सकते हैं।
शक्ति का तीसरा अमूर्त तत्व किसी राष्ट्र विशेष की शक्ति इस बात पर भी बहुत हद तक निर्भर करती है कि वहाँ की सत्ता का स्वरूप क्या है। हालांकि आम या विशेष हालातों में विभिन्न प्रकार की सरकारों का राष्ट्र विशेषों की शक्ति पर क्या असर पड़ता है इसे मापा जाना बड़ा कठिन कार्य है। हाँ इतना जरूर कहा जा सकता है कि जिस राष्ट्र विशेष में अपनी घरेलू आवश्यकताओं और बदलते विदेशी हालातों के अनुरूप चुस्ती से निर्णय लेने की क्षमता हो तथा जो खुद को परिस्थितियों के अनुरूप ढालने की क्षमता रखता हो उसकी शक्ति अधिक प्रबल मानी जाती है। इसके अलावा राष्ट्र विशेष में मौजूद सत्ता लोकतांत्रिक कायदे कानूनों के प्रति कितनी जवाब देह है इसका असर भी उस राष्ट्र की शक्ति पर काफी पड़ता है। एक जवाबदेह संप्रभुता प्राप्त राष्ट्र की विदेश नीति तो बदलते अंतर्राष्ट्रीय माहौल के अनुरूप चुस्त होती ही है साथ ही उसे विश्व स्तर पर अधिकाधिक मान्यता भी मिलती है।
सामाजिक प्रगाढता शक्ति का चैथा अमूर्त तत्व है। यह आम मान्यता है कि जिस किसी राष्ट्र विशेष की आबादी में आंतरिक एकजुटता रहती है वही राष्ट्र शक्तिशाली होता है। आतंकवाद की चपेट में फंसा राष्ट्र, नियमित तौर पर हड़तालों तथा गृहयुद्ध से जूझने वाले देश आंतरिक तौर पर अस्थायित्व और अनिश्चितता के शिकार होते हैं। जाहिर है कि ऐसे देशों की ऊर्जा अपनी समस्याओं से जूझने में व्यय होती रहती है और आने वाले समय में कमजोर होकर ये अपनी संप्रभुता का विशेषधिकार खो बैठने को मजबूर हो जाते हैं।
और अंत में शक्ति के अत्यंत महत्वपूर्ण अमूर्त तत्वों में राष्ट्रीय नैतिक बल का प्रमुख स्थान है। अगर किसी राष्ट्र विशेष की सेना का नैतिक बल ऊंचा है तो उसे परास्त कर पाना शक्तिशाली से शक्तिशाली दुश्मन को लोहे के चने चबाने सरीखा होता है। शांति के समय में भी किसी राष्ट्र विशेष के नागरिकों का उच्च नैतिक बल जब उस देश को चुस्त तथा मजबूत बनाता है। अगर नैतिक बल में हास होता है तो उस राष्ट्र विशेष की आबादी उत्साह के साथ अपने दायित्व को सम्पन्न नहीं कर पायेगी और वहां की सेना भी युद्ध में पराजित होती रहेगी। इसलिए यदि किसी राष्ट्र विशेष का नैतिक बल ऊंचा हो तो वह इसके बल पर अपनी अनेक खामियां भी छुपा सकता है।
शक्ति के अनुरूप अमूर्त तत्वों की व्याख्या से स्पष्ट हो जाता है कि इन तत्वों को भले मापा नहीं जा सके लेकिन शक्ति की दृष्टि से इनका महत्व किसी भी दशा में मूर्त तत्वों से कम नहीं है।
शक्ति का आँकलन
यह आवश्यक नहीं है कि शक्ति को बनाने वाले तत्वों की मौजूदगी मात्र से कोई राष्ट्र विशेष शक्तिशाली दिखाई देने लगे। इस प्रकार केवल खनिज पदार्थों के विशाल भंडार की मौजूदगी, कच्चे पदार्थों की उपलब्धता या बड़ी आबादी की मौजूदगी मात्र से किसी राष्ट्र की शक्ति बढ़ नहीं जाती। शक्ति अभिवर्द्धन के लिए जरूरी है कि संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल का अंतर भी समझना जरूरी है। अगर किसी राष्ट्र विशेष को केवल उसमें मौजूद शक्ति के विभिन्न तत्वों के नजरिये से देखते हैं तो यह उस राष्ट्र विशेष की सामर्थ्य है। परन्तु, जब हम इन संसाधनों को शक्ति के इस्तेमाल के लिए लगाने की बात करते हैं तो यह उस राष्ट्र विशेष की शक्ति की चर्चा है। इस प्रकार शक्ति की सम्भावनाओं की मौजूदगी सामर्थ्य है और इस सामर्थ्य का इस्तेमाल वास्तविक शक्ति का प्रदर्शन है।
शक्ति से संबंधित एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि किसी राष्ट्र विशेष की शक्ति का आकलन कैसे हो। वैसे, शक्ति का वास्तविक आकलन लगभग दुस्साध्य है। इसका सदैव सापेक्ष रूप में आकलन किया जा सकता है लेकिन तीसरे अन्य देश ख से कमजोर हो सकता है। ऐसा इसलिए कि राष्ट्र क अपनी इच्छा के अनुरूप ग पर वह सफलतापूर्वक अपनी इच्छा लाद सकता है। रे एस क्लाइन ने शक्ति को मापने या आकलन के लिए एक उपयोगी तरीके का सुझाव दिया है। क्लाइन के अनुसार शक्ति का अहसास खास कर उन दोनों देशों का तो होता ही है-पहला देश जो शक्ति का प्रदर्शन करता है और दूसरा वह देश जिसके ऊपर इस शक्ति का इस्तेमाल होता है क्लाइन ने इस सिलसिले में एक फार्मूला सुझाया है जिससे मोटे तौर पर शक्ति का आकलन या मापा जा सकता है। हालांकि यह फार्मूला शक्ति की वास्तविक माप बता दे ऐसा जरूरी नहीं है। फार्मूले के अनुसार,
प प = (ग $ क $ ख ) ग ( क $ ख )
(च्च् = (ब़्म़् ड) ग (ै़ू)
यहाँ प प = ऑकी जाने वाली शक्ति, ग = आबादी एवं भू क्षेत्र का गुणक, क = आर्थिक क्षमता, ख = सैन्य क्षमता, ग = लक्ष्य एवं उनकी पूर्ति की रणनीति तथा ख = राष्ट्रीय लक्ष्य की रणनीति को पूरा करने की इच्छा शक्ति।
इस फार्मूले में ग, क तथा ख मूर्त तत्व हैं जबकि क एवं ख अमूर्त तत्व हैं। इस प्रकार, शक्ति के संदर्भ में रे एस क्लाइन लक्ष्य, उन्हें हासिल करने की रणनीति तथा इसे पूरा करने की इच्छाशक्ति को बहुत महत्व देते हैं।
शक्ति को आँकने या मापने का एक दूसरा तरीका राबर्ट डेल बताते हैं। इसके अनुसार “क को ख पर इतना प्रभाव प्राप्त है कि वह (क) उससे (ख ग) वह काम करवा सकता है जो सामान्य परिस्थितियों में वह (ख) नहीं कर पाता। लेकिन, डेल का यह फार्मूला भी शक्ति को संतोषजनक ढंग से माप पाने में असमर्थ है। इसलिए, शक्ति को सही सही माप पाना अंततः एक दुष्कर कार्य बना हुआ है।
शक्ति के तरीके
यदि शक्ति वह सामर्थ्य है जिससे इच्छानुसार कार्य करवाये जा सकते हैं यह जानना आवश्यक हो जाता है कि शक्ति सम्पन्न राष्ट्र अपनी इच्छानुसार कार्य सम्पन्न करवाने के लिए अन्य राष्ट्रों के खिलाफ कौन-कौन से तरीके किस प्रकार इस्तेमाल करते हैं। शक्ति के इस्तेमाल के लिए आम तौर पर चार तरीके इस्तेमाल किये जाते हैं। ये तरीके इस प्रकार समझे जा सकते हैं।
समझा बुझा कर, ईनाम बाँट कर, दंड देकर या बल का इस्तेमाल कर। इन चार तरीकों को शक्ति के इस्तेमाल का तरीका कह सकते हैं। इन चारों तरीकों में समझाने बुझाने का रास्ता सबसे । आसान माना जाता है। इस तरीके में राष्ट्र ‘‘क‘‘ समझा बुझा कर ‘‘ख‘‘ के बर्ताव को प्रभावित करने की कोशिश करता है ताकि वह राष्ट्र (ख) अपना रास्ता बदल लें। वस्तुतः अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में इस तरीके का इस्तेमाल सबसे अधिक होता है। इस तरीके में दबाव डालना या ताकत के इस्तेमाल की धमकी जैसी बातों का सर्वथा अभाव होता है। शक्ति के इस्तेमाल का दूसरा तरीका ईनाम बॉट कर लक्ष्यों की प्राप्ति करना होता है। इसमें अन्य राष्ट्रों को प्रलोभन दिया जाता है। यह ईनामों के तहत लक्ष्य देशों को कोई भू-भाग सौंपने का वादा हो सकता है या हथियारों, सैन्य अड्डे या युद्ध की तकनीक के प्रशिक्षण का प्रलोभन हो सकता है। इनके अलावा आर्थिक मदद या कर्ज के रूप में भी ऐसे ईनाम बांटे जा सकते हैं। ऐसे इनाम राजनीतिक राष्ट्र संघ या किसी अन्य संस्थान अथवा एजेंसी के समर्थन में वोट देने का वादा किया जाए। दंड, शक्ति प्रदर्शन, का तीसरा तरीका है। यह अनेक रूपों में अभिव्यक्त किया जा सकता है। जैसे आर्थिक, या सैन्य सहायता रोक कर या रोकने की धमकी देकर। इसी प्रकार विरोध में प्रचार या विरोधियों अथवा दुश्मनों को राजनीतिक समर्थन प्रदान कर । अथवा, व्यापार या पारगमन में कठिन शर्ते लाद कर भी अन्य राष्ट्रों के खिलाफ शक्ति दिखाई जा सकती है। इस प्रकार जब अमरीका भारत की मर्जी के खिलाफ पाकिस्तान को सहायता देने का वचन माँगता है तो इन हालातों में अमरीका भारत के खिलाफ दंड की कारवाई कर रहा होता है। अंत में, जब दंड कर धमकी को वास्तविक रूप में अमली जामा पहनाया जाता है तब इसे बल का इस्तेमाल कहते हैं। दूसरे शब्दों में, दंड वस्तुतः धमकी है जबकि कुछ दंड का क्रियान्वयन बल के रूप में परिलक्षित होता है।
यहाँ यह बात गौर करने वाली है कि दंड और बल के माध्यम से शक्ति का प्रदर्शन अमूमन तात्कालिक और अस्थायी तरीका है। प्रोफेसर केनेथ इ बोल्डिंग का कहना है कि उन्नीसवीं सदी के मध्य से स्वतंत्र देशों के बीच स्थायीत्व और शांति की दिशा में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है। इसका मतलब यह निकलता है कि सीमा में परिवर्तन के लिए अब सैन्य धमकियों का सहारा कम से कम लिया जाता है। बीसवीं सदी में भारत और चीन से इस बात के आदर्श उदाहरण मिले हैं कि ‘‘शक्ति प्रदर्शन का एकमात्र आधारं धमकी‘‘ वाले तर्क आज की दुनिया में कितना अव्यावहारिक होते जा रहे हैं यह किसी से छिपा नहीं है। गांधी जी ने राजनीतिक स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए अहिंसक सत्याग्रह के सफल प्रयोग के जरिए दुनिया के उस हर किसी जगह का ध्यान इस अनूठे हथियार की तरफ खीचा जहां ऐसे आंदोलन चल रहे थे। वर्ष 1989 में पूर्वी यूरोप की घटनाएँ इस बात का ताजा उदाहरण हैं। इसी प्रकार चीन ने यह दिखाया कि वह किस प्रकार अपने तरीकों के इस्तेमाल से अपने ऊपर हावी होने वाली विश्व शक्तियों की सोच और उनके रास्ते को चीन के पक्ष में मोड सकता है। इसके अलावा, विनाश के नये तरीकों की इजाद ने भी अनेक मौकों पर धमकी की जरूरत को कम कर दिया है। जैसा कि प्रोफेसर बोल्डिंग बताते हैं कि ‘‘तोप और बंदूकों के आविष्कार ने सुरक्षा के लिए बनाये जाने वाले सामंतकालीन किलों तथा नगर के चारों और बनाये जाने वाली ऊंची दीवालों का महत्व घटा दिया। इससे ऐसे राष्ट्र राज्यों की स्थापना संभव हो पायी जो अपेक्षाकृत बड़े इलाके में आंतरिक शांति और स्थायित्व का माहौल लम्बे समय तक बना कर रहने में सफल हो पाये हैं। इसी प्रकार परमाणु हथियार और लम्बी दूरी तक प्रहार करने वाले प्रक्षेपास्त्रों ने वर्तमान काल के राष्ट्र राज्यों के बीच शांति बहाली में कमोवेश वही भूमिका निभायी है जो सामंतकालीन इतिहास में बंदूक और तोपों के अविष्कार ने निभाई थी। इस प्रकार इन विनाशकारी हथियारों की मौजूदगी भी संसार में स्थायित्व के लिए तथा शांति के इच्छुक लोगों के लिए कई बार बहुत ही महत्वपूर्ण और हितकारी प्रमाणित हुई है।
शक्ति का प्रबंध
असंतुलित ताकतों से बनी इस दुनिया में प्रत्येक राष्ट्र राज्य अपने अधिकाधिक फायदे के लिए अपनी शक्ति का प्रबंधन और उसका उपयुक्त प्रयोग करता है। इस प्रयास में अमूमन दो तरह की रणनीतियां अपनायी जाती हैं।
शक्ति संतुलन: शक्ति संतुलन से मौटे तौर पर ऐसी स्थिति का भान होता है जहाँ विभिन्न राष्ट्र कमोवेश बराबर ताकत के साथ एक दूसरे के सह-असतित्व को स्वीकार करते हैं ऐसे तरीके अपनाए जाते हैं जिनसे शक्ति का संतुलन बना रहे। यह हालत बताती है कि शक्ति का विभिन्न राष्ट्रों के बीच मौटे तौर पर बराबरी में बँटवारा होना चाहिए। लेकिन, जब हम यह कहते है कि शक्ति संतुलन का पलड़ा अमुक, अमुक राष्ट्रो के पक्ष में शक्ति की प्रबलता है। शक्ति संतुलन की अवस्था के लिए जरूरी है कि कम से कम पाँच छह बड़ी ताकत वाले देश एक दूसरे के साथ सह अस्तित्व को स्वीकार करें, आपस में शक्ति की बराबरी को बनाये रखें और इस चेष्टा में लगे रहें कि किसी एक देश के पक्ष में अत्याधिक शक्ति का पलड़ा भारी न हो जाए या फिर वह झुक ना जाए। ऐसी दशा में इन बड़ी ताकतों के अलावा अनेक और भी ऐसे देशों का अस्तित्व बना रहता है जो देश मध्यम श्रेणी वाले या छोटी श्रेणी वाली ताकत रखते हैं। विसी राइट के अनुसार शक्ति संतुलन के पीछे आम तौर पर पाँच तरह की अवधारणाएँ होती हैं। पहली अवधारणा यह सोच है कि प्रत्येक राष्ट्र को अपने आवश्यक हितों की रक्षा के लिए हर संभव कदम उठाने का अधिकार है। इन अत्यावश्यक हितों में प्रायः सुरक्षा, अपने भू क्षेत्र की अखंडता की रक्षा, राजनीतिक स्वतंत्रता और आर्थिक संसाधनों की रक्षा शामिल है। दूसरी अवधारणा यह है कि राष्ट्रों के आवश्यक हितों को सदैव प्रतिस्पर्धियों से खतरा बना रहता है या भविष्य में ऐसी आशंका बनी रहती है। जाहिर है कि जब तक आवश्यक हितों को खतरा नहीं पहुंचेगा या इसकी आशंका नहीं बनी रहेगी तब तक कोई देश इनकी रक्षा के विषय में क्यों सोचेगा। तीसरी अवधारणा यह है कि शक्ति संतुलन की मदद से कोई देश अपने हितों की रक्षा दूसरे राष्ट्रों को हमले की धमकी देकर करता है। हमला करके करता है या फिर यदि किसी देश पर हमला हुआ है तो वह शक्ति संतुलन के जरिए सक्रिय जवाब देकर हमलावर को परास्त कर सकता है। दूसरे शब्दों में कोई शक्तिशाली देश अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भविष्य में हमले की योजना तभी बनायेगा अगर उसे शक्ति संतुलन अपने पक्ष में दिखाई देगा। चैथी अवधारणा के अनुसारर शक्ति संतुलन में शामिल तमाम देशों की आपेक्षिक ताकत को मापा जा सकता है और इस आकलन को कोई राष्ट्र विशेष खास रणनीति के द्वारा अपना पक्ष शक्तिशाली बनाने में इस्तेमाल कर सकता है। अंतिम अवधारणा यह है कि शक्ति संतुलन के विभिन्न पहलुओं का विस्तृत एवं यथार्थ अध्ययन करने के बाद ही राष्ट्र विशेष के नेता अपनी अंतर्राष्ट्रीय नीति तय करते हैं। इन अवधारणाओं के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि किसी राष्ट्र विशेष के महत्वपूर्ण हितों की रक्षा करने के लिए जब उसे अन्य राष्ट्रों से खतरा हो शक्ति का प्रबंध ही शक्ति संतुलन कहलाता है।
शक्ति का संतुलन स्थापित करने के लिए निम्न कदमों का सहारा लिया जा सकता है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण कदम हथियारों का संचय है। चूंकि किसी भी विवाद को सुलझाने का अंतिम रास्ता युद्ध का ही बचता है। इसलिए विभिन्न राष्ट्र अपनी सैन्य क्षमता को अभिवर्द्धन कर इसका फायदा उठाने की फिराक में रहते हैं। लेकिन जब एक राष्ट्र अपने लिये नये हथियार जुटाने लगता है तो उसके प्रतिद्वंद्वी भी सतर्क हो जाते हैं और वे भी हथियारों के संचय में जुट जाते हैं। अपने पक्ष में शक्ति संतुलन स्थापित करने के लिए राष्ट्र प्रायः दूसरों के साथ मिलकर गठबंधन करते है। इन गठबंधनों के जवाब में प्रतिस्पर्धी राष्ट्र भी जवाबी गठबंधन बनाने लगते हैं ताकि प्रतिद्वंद्वी गुट की शक्ति प्रबलता का करारा जवाब तैयार किया जा सके। इस प्रकार विभिन्न राष्ट्रों के बीच नये गठबंधन बनाने की और पुराने गठबंधनों को तोड़ने की कोशिशे चलती रही हैं लेकिन शक्ति संतुलन तब प्रभावी माना जाता है जब अनेक शक्तिशाली राष्ट्र अस्तित्व में हो और वे नये अथवा जवाबी गठबंधन बनाने की अपनी क्षमता का इच्छानुसार प्रयोग करने को स्वतंत्र हों। इसके अलावा शक्ति संतुलन को अपने पक्ष में करने के लिए अथवा महाशक्तिशाली बनने के लिए राष्ट्र प्रायः दूसरे राष्ट्रों का भू क्षेत्र छीनने की कोशिश करते हैं। इससे छीनने वाले राष्ट्र की शक्ति अक्सर ही बढ़ जाया करती है। साम्राज्यवाद के दिनों में ऐसी कोशिशें आम बात हुआ करती थी। ताजा उदाहरण वर्ष 1990 का है जब इराक ने कुवैत पर हमला करके इसे अपने अधीन कर लिया था। हालांकि, बाद में इराक को कुवैत से हटना भी पड़ा। इसके पहले इजरायल ने अनेक अरब देशों से भूखंड छीन लिये थे। अंत में, कोई राष्ट्र अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए शक्तिशाली परन्तु परस्पर विरोधी दो राष्ट्रों के बीच बफर राष्ट्र की स्थापना कर देता है। उदाहरण के लिए, किसी वक्त रूस और जर्मनी के बीची पोलैड बफर राष्ट्र के रूप में स्थापित था। इसी प्रकार भारत पर ब्रिटिश हुकूमत के दिनों में तिब्बत भारत और चीन के बीच जफर राष्ट्र की तरह मौजूद था।
हस्तक्षेप
शक्ति संतुलन को अपने पक्ष में करने के लिए प्रायः हस्तक्षेप का भी सहारा लिया जाता है। ऐसी घटना प्रायः तब घटती हैं जब कोई बड़ी ताकत अपने से अलग हुए किसी मित्र देश को फिर से । अपने साथ करने के लिए अथवा कोई नये देश से गठबंधन बनाने के लिए किसी छोटे देश के मामलों में हस्तक्षेप करता है और वहाँ मित्र सरकार की स्थापना कर देता है। उदाहरण के लिए अमरीका ने विएतनीम और डोमिनिकन रिपब्लिक जैसे छोटे देशों के मामलों में दखल दिया था। इसी प्रकार वर्ष 1979 में सोवियत यूनियन ने अफगानिस्तान के मामलों में दखल दिया था। अंत में, शक्ति संतुलन में निर्णायक फेरबदल लाने के लिए विरोधी खेमे से जुड़े राष्ट्रों को उक्त गठबंधन से अलग करने का कार्य भी किया जाता है। इस क्रिया में विरोधी खेमें से जुड़े देशों को दबाव डालकर या फिर तटस्थ रहने या फिर अपने पक्ष में मिला लेने की कोशिशे होती हैं। शक्ति संतुलन को प्रभावित करने के ये तमाम तरीके पहले भी में अपनाये गये हैं और भविष्य में भी अपनाये जाते रहेंगे।
शक्ति संतुलन के खेल में कभी कभी तीसरे पक्ष की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण हो जाती है। यह तीसरा पक्ष वैसा राष्ट्र या राष्ट्रों का गठबंधन होता है जो आम तौर पर शक्ति संतुलन के लिए उलझे हुए दो प्रतिस्पर्धी राष्ट्रों या राष्ट्रों के समूहों की आपसी प्रतिद्वंद्विता के तटस्थ होता है। इसके साथ ही यह भी हो सकता है कि यह तीसरा पक्ष मौका आने पर अपनी तटस्थता का त्याग कर दें और शक्ति संतुलन की होड में कमजोर पड़ रहे पक्ष का पल्ला पकड़ कर उसे मजबूत बना दे। ब्रिटेन परम्परागत रूप से ऐसे संतुलनकारी राष्ट्र की भूमिका निभाता आ रहा है।
सामुहिक सुरक्षा
शक्ति के प्रबंधन का एक और तरीका सामूहिक सुरक्षा का भी है। शांति प्रबंधन के लिए अपनाये जाने वाले तमाम तौर तरीकों में यह रास्ता बेहद लोकप्रिय माना जाता है। इस व्यवस्था में राष्ट्रों के समूह आपस में मिल बैठ कर शक्ति का ऐसा प्रबंध करते हैं कि किसी हमलावर राष्ट्र या राष्ट्रों समूह को अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से करारा जवाब मिलता जाता है क्योंकि इसमें गठबंधन या जवाबी गठबंधन बनाने, हथियारों की होड़ अथवा राजनीतिक कलाबाजियां जैसी घटनाएँ शामिल नहीं होती हैं। सामूहिक सुरक्षा की अवधारणा के रूप में सुरक्षा जहाँ लक्ष्य का काम करता है वहीं सामूहिकता वह रास्ता या तरीका है जो इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए अपनाया जाता है। स्वार्जवर्गर ने इसकी परिभाषा देते हुए इसे संयुक्त रूप में काम करने वाली ऐसी व्यवस्था बताया है जो किसी स्थापित व्यवस्था के खिलाफ होने वाले हमले का मुकाबला करती है या उस पर प्रत्याक्रमण करती है।‘‘ सामूहिक सुरक्षा की अवधारण के पीछे दो बुनियादी बातें हैं। पहला, यह युद्ध अनिवार्य है और इसके छिड़ने की आशंका है। दूसरा, इस हमले को परास्त किया जा.सकता है, बशर्ते इसके खिलाफ विशाल जनमत की ताकत का इस्तेमाल किया जाए। इनिस क्लाउड इस अवधारणा को और स्पष्ट करते हुए कहता है कि यह (सामूहिक सुरक्षा) शक्ति को नष्ट करने का नहीं बल्कि इसके प्रबंधन की कला है। वस्तुतः यह अवधारणा शक्ति संतुलन एवं विश्व सरकार इन दोनों अवधारणाओं के बीच की कड़ी है। सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था (लीग ऑफ नेशन्स) तथा युनाइटेड नेशन्स जैसी अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के रूप में प्रभावी होती है। यह व्यवस्था गुटीय सुरक्षा व्यवस्था से इस मायने में अलग है कि इसमें अपनाये जाने वाले सिद्धांत सभी के साथ एक समान रूप में लागू किए जाते हैं। इस उद्घोषणा पर टिकी हुई है कि एक देश पर हमला सभी पर हमला माना जाएगा। संयुक्त राष्ट्र संघ के किसी एक सदस्य राष्ट्र पर हमला, पूरे संयुक्त राष्ट्र संघ पर हमला माना जाता है। यदि सुरक्षा परिषद इस हमलावर की पहचान करती है और अपने तमाम सदस्य देशों को हमलावर के खिलाफ आर्थिक या सैन्य नाकेबंदी को कहती है तब उस दशा में तमाम संदस्य राष्ट्रों से यह आशा की जाती है कि वे इस निर्देश का अवश्य पालन करेंगे और एक साथ मिल कर हमलावर का मुकाबला करेंगे। इस प्रकार, हमलावर की पहचान शुरू में ही नहीं कर ली जाती है। यह कोई भी राष्ट्र हो सकता है जिसके खिलाफ सामुहिक कार्यवाही होनी है दूसरी और गुटीय सुरक्षा गठबंधनों पर आधारित होती है। यहां प्रतिस्पर्धी विरोधी या दुश्मन की पहचान पहले ही कर ली जाती है और इस अवस्था में शामिल तमाम दूसरे देश इसी पहचाने गये दुश्मन के खिलाफ कार्रवाई की भावना से एक जुट हो जाते हैं। सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था की तरह इसमें यह भावना नहीं होती कि ष्एक सबके लिए और सब एक के लिए।‘‘
सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था के रूप में पल्लवित हुआ था। वर्तमान संयुक्त राष्ट्र संघ में भी दर्शन के आधार पर अंतर्राष्ट्रीय शांति स्थापना तथा शक्ति के प्रबंध की कोशिश चल रही है।
बोध प्रश्न 2
टिप्पणी क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए गए स्थान का प्रयोग कीजिए।
ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तर से अपने उत्तर की तुलना कीजिए।
(1) शक्ति की अवधारणा की व्याख्या कीजिए।
(2) शक्ति के मूर्त तत्व कौन से हैं ?
(3) शक्ति के अमूर्त तत्वों की व्याख्या कीजिए।
(4) शक्ति के चार तत्वों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
(5) शक्ति संतुलन क्या है, इसकी स्थापना के तरीके कौन-कौन से हैं ?
(6) सामूहिक सुरक्षा की अवधारणा की व्याख्या कीजिए।
बोध प्रश्न 2 उत्तर
1) शक्ति पल शक्ति वह सामर्थ्य है जिससे दूसरों के व्यवहार को नियंत्रित किया जाता है। यह मानव का दूसरे मानवों सोच और आचरण पर स्थापित किया जाने वाला नियंत्रण है। अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के क्रम में यह राष्ट्रों की वह क्षमता है जिसके द्वारा वे अन्य राष्ट्रों से मनवांछित कार्य सम्पन्न करवा पाते हैं।
2) ऐसे तत्व जिनका माप या आकलन संभव हो, आबादी, भूखंड (इसका आकार, मौसम, भौगोलिक बनावट, नक्शे में स्थान, आदि), प्राकृतिक संसाधन, कच्चा माल, औद्योगिक इकाइयां, सेना का आकार।
3) ऐसे तत्व जिनकी माप या आकलन सहज नहीं हो पाती. नेतृत्व की क्षमता, अधिकारी तंत्र की कार्यकुशलता, सत्ता का प्रकार, सामाजिक प्रगाढता और राष्ट्रीय नैतिक बल।
4) समझा बुझा कर, इनाम बांट कर, दंड के द्वारा या बल लगाकर।
5) ऐसी व्यवस्था जिसमें करीब आधे दर्जन राष्ट्र लगभग बराबर ताकत वाले हों, एक दूसरे की ताकत को इस प्रकार संतुलित करते हों कि किसी के पास ताकत की खतरनाक बहुलता या अधिकता न हो जाए, इस व्यवस्था को अक्सर एक या अनेक ऐसे राष्ट्र संतुलित करते हैं जो बैलेंस या लाफिंग थर्ड कहलाते हैं, जिन तरीकों से व्यवस्था संचालित होती है उनमें गठबंधन बनाना, हथियार संग्रह करना, सफर टंट का निर्माण तथा हस्तक्षेप आदि शामिल हैं।
6) अंतर्राष्ट्रीय स्थायीत्व लक्ष्य है जबकि सामूहिक प्रयास इसे पाने का तरीका है। इसमें हमलावर को विश्व समुदाय की सामूहिक शक्ति का सामना करना पड़ता है। इसका सिद्धांत है, एक, सबके लिए – सबके लिए एक। यह संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के माध्यम से कार्य करता है।
हिंदी माध्यम नोट्स
Class 6
Hindi social science science maths English
Class 7
Hindi social science science maths English
Class 8
Hindi social science science maths English
Class 9
Hindi social science science Maths English
Class 10
Hindi Social science science Maths English
Class 11
Hindi sociology physics physical education maths english economics geography History
chemistry business studies biology accountancy political science
Class 12
Hindi physics physical education maths english economics
chemistry business studies biology accountancy Political science History sociology
English medium Notes
Class 6
Hindi social science science maths English
Class 7
Hindi social science science maths English
Class 8
Hindi social science science maths English
Class 9
Hindi social science science Maths English
Class 10
Hindi Social science science Maths English
Class 11
Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics
chemistry business studies biology accountancy
Class 12
Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics