जापान का इतिहास japan history in hindi जापान के आधुनिकीकरण का वर्णन करें सैन्यवाद के उदय के कारण
(japan history in hindi) जापान का इतिहास जापान के आधुनिकीकरण का वर्णन करें सैन्यवाद के उदय के कारण ? जापान और चीन उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद पर एक लेख लिखो प्रथम विश्व युद्ध के बाद जापान में आर्थिक विकास ?
ऐतिहासिक संदर्भ-राष्ट्रवाद और पूँजीवाद
इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
प्रस्तावना
भूगोल और लोग
सामंतवाद
राजनैतिक व्यवस्था
तोकूगावा वर्ग-संरचना
अलगाव की नीति
तोकूगावा शासन को कमजोर बनाने वाले कारण
अलगाव का अंत
शोगुनेट का पतन
नया शासन
‘दाइस्यो डोमेन’ व्यवस्था का अंत
नये शासन द्वरा सुधार
राज्य और धर्म
जमीन की लगान
आर्थिक परिवर्तन
राष्ट्रवाद
चिंतन-धाराएं
राज्य का उदय
अनिवार्य सैनिक सेवा
सभ्यता और ज्ञानोदय
विस्तारवादी राष्ट्रवाद
शिक्षा और राष्ट्रवाद
पूँजीवाद का उदय
औद्योगीकरण
निजी उद्यम
पूंजीवाद का दूसरा पहलू
पूँजी संरचना
व्यवसाय के नये अवसर
सारांश
कुछ उपयोगी पुस्तके
बोध प्रश्नों के उत्तर
उद्देश्य
इस इकाई में जापान में राष्ट्रवाद और पूँजीवाद के विकास के बारे में बताया गया है। दूसरे विश्व युद्ध तक लगभग 100 सालों के दौरान जापान में राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में आए परिवर्तनों के ऐतिहासिक विकास पर अचाक मारए सामता जापान के आधुनिक, आधोगीकृत जापान में संक्रमण की प्रक्रिया पर प्रकाश डाला गया है।
इस इकाई के अध्ययन के बाद आप:
ऽ यह समझ सकेंगे कि किस तरह जापान ने सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन के अनुकूल संस्थाओं और सुविधाओं का निर्माण किया,
ऽ जापानी राष्ट्रवाद की विशिष्टता जान सकेंगे,
ऽ यह बता सकेंगे कि किस तरह जापान में शिक्षा के जरिए पूँजीवाद और राष्ट्रवाद के विकास के लिए अनुकूल सामाजिक वातावरण तैयार किया गया, और
ऽ परिस्थितियों की विषमता के बावजूद जापानी पूँजीवाद के विकास का मूल्यांकन कर सकेंगे।
प्रस्तावना
शताब्दियों तक जापान अलग-थलग पड़ा रहा और राज्य के सभी अधिकारों पर वैरागत सैन्य-अभियात, खगुन का नियंत्रण था और राजा एकाकी जीवन व्यतीत करने को बाध्य था । व्यवस्था सामंती थी। 1850 के दशक में जापानी समुद्र-तटों पर अमेरिकी जहाजी-बेड़ों के आगमन के पश्चात जापान का अलगाव खत्म होना शुरू हुआ। जापान पश्चिमी देशों की औद्योगिक प्रगति से हक्का-बक्का रह गया। इस अनुभव ने जापानी राष्ट्रवाद को हवा दी। शताब्दियों पुरानी ‘‘शोगुनेट’’ व्यवस्था समाप्त कर दी गयी। सम्राट मेजी का सत्ता पर वास्तविक नियंत्रण स्थापित हो गया और बहुत कम समय में ही जापान के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया प्रारंभ हो गयी। जापान में पाश्चात्य तकनीक, विज्ञान, शासन-व्यवस्था एवं शिक्षाप्रणाली को देशज परंपराओं एवं रीति-रिवाजों के अनुकूल डाला और थोड़े समय में पश्चिमी देशों से प्रतिदिता करने लगा।
भूगोल और लोग
जापानी में जापान को निहान या निप्पोन कहा जाता है, जिसका मतलब है सूर्य की उत्पत्ति । भौगोलिक रूप से यह, पूर्वी एशिया तट के 4 बड़े दीपों – होशू, होक्काइदों, शिकोकू एवं क्यूशू तथा अन्य कई भेटे दीपों का समूह है। जापान एक पहाड़ी देश है और क्षेत्रफल की लगभग 16 प्रतिशत जमीन ही खेती योग्य है। यहां प्राप्त होने वाला कोयला एकमात्र खनिज है। भूकम्पों का प्रकोप जापान के लिए आम बात है। नदियाँ छोटी एवं तेज बहाव वाली है जो यातायात के लिए उतनी उपयोगी नहीं है जितनी कि बल-विद्युत के उत्पादन के लिए।
जापान के ज्यादातर क्षेत्रों में प्रति वर्ष 60 से 100 इंच वर्षा होती है। इसके समुद्र मछली के प्रमुख स्रोत है। जापान का क्षेत्रफल 142,300 वर्गमील है। धान यहां की प्रमुख फसल है तथा गेहूँ, जौ, आलू, चाय, बाजरा आदि अन्य फसलें भी उगाई जाती है।
मार्च 1992 की जनगणना के अनुसार, जापान की कुल आबादी लगभग 12.5 करोड़ है और ज्यादातर मंगोल जातीयता के हैं। यहां की एकमात्र भाषा ‘‘जापानी’’ है जिसका ज्ञान हर जापानी नागरिक के लिए अनिवार्य है।
जापानी राष्ट्रीय चरित्र की बात करना तो मुश्किल है लेकिन जापानियों के व्यवहार की कुछ समानताएं ध्यान देने योग्य है। उदाहरण के रूप में, कोई पीजापानी एक समूह के सदस्य के रूप में व्यवहार करना पसंद करता है और समूह के प्रति गहरी प्रतिबद्धता रखता है। सामाजिक इकाई के रूप में परिवार का प्रमुख स्थान है जिसे कई अन्य सामाजिक संरचनाओं के लिए आदर्श माना जाता है। आत्म हत्या विरोध प्रकट करने का एक मान्य तरीका है।
सामंतवाद
16वीं शताब्दी तक जापान राजनैतिक और सामाजिक तौर पर कई छोटे-छोटे स्वतंत्र कुनयों में बंटा हुआ था। लकुनयों के अपने अपने अनुवांशिक शासक होते थे जो पूरे जापान पर आधिपत्य स्थापित करने की महत्वाकांक्षा से अनवरत रूप से एक दूसरे के साथ युद्ध में संलग्न रहते थे। 1600 ई. में तोकूगावा इयारा ने सेकिराहरा के युद्ध में सभी प्रमुख प्रतिद्वंद्वियों को परास्त कर दिया और बाकियों ने डर से आत्मसमर्पण करके उसके प्रति वफादारी के शपथपत्र पर हस्ताक्षर कर दिये।
तोकूगावा की शक्ति का भौतिक आधार यह था कि देश भर के कुल चावल उत्पादन का 37ः उसके आधीन क्षेत्र में पैदा होता था तथा सोने और कादी की खानों एवं प्रमुख नगरों पर भी नियंत्रण था।
सम्राट सभी वैध शक्तियों और अधिकारों का स्रोत था। नामांकित क्षेत्रीय शासक- दाइम्यों की पहुंच सम्राट तक नहीं होती थी और उसके कामों पर तोकगावा सवेदारों की कड़ी निगरानी रहती थी कोई भी दाइयों सम्राट कीरा महीने तोकगावा राजधानी में रहने को बाध्य होता था अपने क्षेत्र में वापस जाते समय अपना परिवार बंधक के रूप मेंछेदना पड़ता था, बिना अनुमति के कोई भी दाम्यो न तो सिक्के ढाल सकता था, न वैवाहिक अनुबंधकर सकतापरपोत नहीं बना सकता था और अपनी सीमा के बाहर सेना नहीं भेज सकता था।
कई इतिहासकारों का मानना है कि तोकूगावा की संकीर्णतावादी नीतियों के चलते जापान में सामंतवाद की वापसी हुई। ईशाइयत का दमन और अलगाव की नीति, जापान के तोकूगावा शासकों द्वारा उसे विश्व इतिहास की मुख्यधारा से अलग रखने के प्रयास के रूप में रेखांकित किया गया है। अलगाव की नीति के बावजूद, तोकूगावा काल में जापान में सांस्कृतिक और संस्थागत क्षेत्रों में उल्लेखनीय विकास हुआ। इसी दौर में जापानी राष्ट्रीयता और संस्कृति के आधार मजबूत हुए।
शासन, यद्यपि अभिजात सैनिक तंत्र के ही आधीन था लेकिन अंततोगत्वाद, नौकरशाही के एक अभिजात समूह के रूप में समुराई वर्ग का उदय हुआ जिसके दिशा-निर्देश में, प्रशासन तार्किक ढंग से सुव्यवस्थित हुआ। तोकूगावा काल में शहरीकरण की प्रक्रिया चलती रही और इतिहास में पहली बार जापान की अर्थव्यवस्था को जापानी ‘राष्टीयता’ के साथ जोड़ा गया । आध्यात्मिक रूप से लगभग सारे ही जापानियों पर कन्फ्यूशियसवाद का प्रभाव दिखता है। शैक्षणिक सुविधाओं के विस्तार से आबादी का ज्यादातर हिस्सा साक्षर तोहआ ही, निम्न वर्गों को भी शिक्षा प्राप्त करने का अवसर प्राप्त हुआ।
राजनैतिक व्यवस्था
तोकूगावा काल की राजनैतिक व्यवस्था को इतिहासकारों ने बाकू-हान नाम दिया है । इसका तात्पर्य यह है कि इस दौर में जापान में शोगुनेट (वाकूफू) और लगभग 250 दाइम्यो इलाकों (हान), समानांतर सह-अस्तित्व में थे। राष्ट्रीय सत्ता सोगुनेट में निहित थी।
जैसा कि दाइम्यो और शोगनेट के पारस्परिक संबंधों से स्पष्ट है, व्यवस्था को जोड़े रखने वाला शीर्षस्थ शासन सामंती था। शासन सामंती और नौकरशाही तकनीकों के बीच और केन्द्रीकृत एवं विकेंद्रीकृत सत्ता के बीच जीवंत तनाव बनाए रखता था।
सभी राजनैतिक अधिकारों का अंतिम स्रोत सम्राट था। तोकूगावा नीति एक तरफ सम्राट की प्रतिष्ठा का महिमा मंडन करने की थी तो दूसरी तरफ उसे दाइम्यों के साथ सीधे संपर्क से वंचित करके उस पर नियंत्रण रखने की थी। सभी दाइम्यों शोगुन के प्रति व्यक्तिगत रूप से वफादारी और उसके विरुद्ध किसी साजिश में शामिल न होने की शपथ लेते थे। इसके बदले शोगुन अपने इलाके पर हर दाइम्यों के स्वामित्व को मान्यता देता था।
बाकू-हान व्यवस्था, सशक्त एवं व्यापक प्रशासनिक व्यवस्था की एक अद्भुत मिसाल थी। शासन का समीकरण यह था कि अपेक्षाकृत स्वायत्त ग्रामीण एवं कस्बाई समुदायों से ऊपरी स्तर के सभी महत्वपूर्ण अधिकारों पर सैनिक तंत्र का कब्जा था और प्रशासन पर समुराई वर्ग का पूर्ण नियंत्रण था। सरकार के समस्त अधिकार, सैनिक वर्ग के मुख्य सेनाध्यक्ष के नाते, शोगुन के पास आ गए । तोकूगावा शासन पेशेवर सैनिक वर्ग द्वारा नियंत्रित नागरिक शासन, तोकूगावा शासन की उल्लेखनीय विशिष्टता थी।
तोकूगावा वर्ग-संरचना
शासन को कमजोर करने वाले परिवर्तनों को रोकने और उसे एक सामाजिक आधार प्रदान करने के उद्देश्य से एक ठोस, अनुवांशिक वर्ग-संरचना तैयार किया, जिसके आधार पर जापानी समाज समुराई, किसान, शिल्पी और दस्तकार एवं व्यापारी वर्गों में विभाजित हो गया।
इस वर्ग-संरचना में वरीयता में समुराई सबसे ऊपर थे, यद्यपि उनकी संख्या कुल आबादी की केवल छः प्रतिशत थी। सेना में साधारण सिपाही से लेकर सेनाध्यक्ष तक इसी वर्ग के होते थे। उन्हें खेती, व्यापार या दस्तकारी करने की मनाही थी। चावल भत्ता ही उनकी आय का प्रमुख स्रोत था । कई इलाकों में बहुत से पद अनुवांशिक होने लगे। शांति स्थापना के साथ, समुराई वर्ग के लोगों ने प्रशासन तक ही सीमित न रहकर ज्ञानार्जन के क्षेत्र में भी प्रवेश किया। इसका परिणाम यह हुआ कि जापान में सैनिक वर्ग ही बौद्धिक वर्ग और नौकरशाही का भी प्रतिनिधि बन गया।
आबादी के हिसाब से किसानों की संख्या सबसे अधिक थीं। जमींदार और किसान दोनों ही गांवों में रहते थे। खेती की लगान उपज के 25ः से लेकर 50ः से भी अधिक हो सकती थी। प्रशासनिक दृष्टिकोण से गांव एक स्वायन्त इकाई होता था। जमींदारों की मिल्कियतें एक समान नहीं थीं।
गांव के प्रशासन, सामूहिक जमीन या जल के बंटवारे में प्रबंध में भागीदारी का अधिकार जमींदारों को ही प्राप्त था। धनी व्यक्ति ज्यादा पढ़े-लिखे होते थे इसलिए गांव के प्रबंधन संबंधी लेखा-जोखा रखने के लिए उपयुक्त माने जाते थे। तकनीकी रूप से सारी जमीनों पर सम्राट का स्वामित्व था, जमींदारों के पास महज उसे जोतने का अधिकार अनुवांशिक होता था जिसे बेचा और खरीदा जा सकता था । व्यवहार में जमीन का वास्तविक मालिक जमींदार ही था।
अन्य वर्गशिल्पियों/दस्तकारों और व्यापारियों के थे। सुविधा के लिए इन्हें ‘‘कस्बे के लोग’’ कहा जाता था। दो प्रशासनिक इलाकों को सीधे आपसी व्यापार की छूट नहीं थी। ओसाका एक महत्वपूर्ण विशाल बाजार के रूप में विकसित हुआ। शहरों में आधुनिक जीवन शैली और संपत्ति संचय की प्रवृत्ति तेजी से प्रतिष्ठा का मानदंड बन रहे थे।
अलगाव की नीति
1639 में तोकूगावा ने डच और चीनी व्यापारियों के अलावा जापान में सभी विदेशियों का प्रवेश निषिद्ध घोषित कर दिया। डच और चीनी व्यापारियों को भी कड़ी निगरानी के तहत नागासाकी में व्यापार की अनुमति प्राप्त थी। बाद में तो जापानी व्यापारियों के विदेश जाने पर भी रोक लगा दी गई। अलगावर की इस नीति के परिणामस्वरूप एक तरफ पश्चिमी सभ्यता के संपर्क से जापान वंचित हो गया और दूसरी तरफ व्यापारियों के विदेश जाने पर रोक से पूर्व एवं दक्षिणपूर्व एशिया में जापानी व्यापार के विस्तार की संभावनाएं कम हुई।
तोगाचा शासन को कमजोर बनाने वाले कारण
तोकूगावा शासन के दौरान आर्थिक और शैक्षणिक विकास ही अन्ततोगत्वा उसके पतन का कारण बना और शोगुनेट, इस परिवर्तन को नहीं रोक सका । तोकूगावा शासन की नीतियों के चलते जापान में व्यापारियों का एक विशाल समूह अस्तित्व में आया जिसने दाइम्यों से सीधे व्यापार की अनुमति हासिल की। आर्थिक विस्तार और समृद्धि के इस दौर में शहरी आबादी का एक तबका देश के प्राकृतिक स्रोतों के उपयुक्त दोहन की हिमायत कर रहा था। किसानों की स्थिति बहुत बुरी हो गई और उसका असर शोगुनेट और दाइयों के कोषों पर भी पड़ा। इस परिस्थिति से निपटने के लिए शोगुनेट व्यापारियों से जबरन कर्ज लेने लगा। महंगाई के मारे दाइम्यों बुरी तरह कर्ज में डूब गए। अतिरिक्त आय के लिए कई दाइम्यों ने अपने इलाके में स्थानीय मालों के व्यापार पर एकाधिकार स्थापित कर लिया।दाइम्यों और शोगनेट दोनों ने ही अपने समुराइयों (सैनिकों) के खर्च में कटौती करना शुरू कर दिया। इससे समुराइयों को मजबूरन महाजन की ही शरण में जाना पड़ता था। इन सबसे फायदा उठाते हुए व्यापारियों ने, समुराई परिवार में शामिल होने का अधिकार खरीद कर या अपनी बेटियों को समुराई परिवारों में ब्याह कर, सामाजिक प्रतिष्ठाखरीदना शुरू कर दिया। उन्होंने जमीने खरीद कर किसानों से गैर-कानूनी लगान वसूलना शुरू कर दिया।
अलगाव का अंत
19वीं शताब्दी की शुरुआत तक जापान की अलगाव की नीति पश्चिमी नवल शक्तियों, खासकर अमरीका के लिए विशिष्ट महत्व का विषय बन गई। शोगुनेट (सैन्य-तंत्र) जो अलगाव बनाए रखने के लिए दृढ़संकल्प था किन्तु 1853 में कमांडर मैथ्यू गैलब्रेथ के नेतृत्व में अमरीकी युद्धपोत के आगमन ने जापान को 31 मार्च 1854 को कनगवा की संधि के लिए बाध्य कर दिया। इस संधि की शर्तों के तहत शिमोद और हकोट में अमेरिकी व्यापार को अनुमति प्राप्त हो गई। इसके बाद तो शोगुनेट ने इंगलैंड और 1855 में रूस के साथ भी उसी तरह की संधि पर हस्ताक्षर किये।
सोगुनेट (सैन्य शासन) का पतन
उपरोक्त संधियों से जनता में शोगुनेट-विरोधी और विदेशी विरोधी भावनाओं ने जड़ पकड़ना शुरू किया। विरोधी गुट विरोध की भावनाओं को व्यवहाररूप देने के लिए गिरफ्तारी और हत्या के तरीकों का भी इस्तेमाल करते थे। ‘सम्राट के प्रति सम्मान’ और ‘बर्बरों के निष्कासन’ के नारों के साथ विदेशी-विरोधी सामुराइयों ने विदेशियों को निशाना बनाना शुरू किया।
‘बंधक प्रथा’ की समाप्ति के कारण दाइम्यों पर शोगुनेट के नियंत्रण में ढील आ गई। 1863 में सम्राट की आज्ञा पर शोगुन को विदेशियों को बाहर निकालने को बाध्य होना पड़ा। लेकिन दाइयों ने इस आदेश का पालन नहीं किया। शोगुन को बाध्य होकर सहमत होना पड़ा कि भविष्य में दाइम्यों सीधे सम्राट के प्रति जवाबदेह होंगे। सत्सुमा, चोशु एचिजेन आदि इलाकों में दाइम्यों शाही सलाहकार का काम करने लगे। 1866 में संतानहीन शोगुन की मृत्यु हो गई और उसकी जगह ली तोकुगावा कुल के दरबार समर्थक गुट के एक सदस्य ने । अंततोगत्वा, 1867 में सिंहासन पर बैठे युवा सम्राट मेजी ने सत्ता की बागडोर संभाली और उसके बाद का घटनाक्रम मेजी पुनर्स्थापना के नाम से जाना जाता है।
नया शासन
प्रत्यक्ष शाही शासन की पुनस्र्थापना के बाद शोगुन को अपने अधिकारों का त्याग करना पड़ा। तोकूगावा समर्थक तत्वों ने विद्रोह किया, लेकिन नए शासकों ने सफलतापूर्वक उसे दबा दिया। मेजी पुनर्स्थापना के शुरुआती सालों में प्रशासन के ढांचे में काफी फेरबदल हुआ । वरिष्ठ अधिकारियों को दरबारी ईश और दाइम्यों की कोटियों में बांट दिया गया और छोटे अधिकारियों के पदों पर ऐसे महत्वाकांक्षी और योग्य समुराइयों को नियुक्त किया गया जो शाही फरमानों को कार्यरूप देने में दक्ष थे।
‘दाइम्यो डोमेन‘ व्यवस्था का अंत 1868 में केन्द्रीय शासन का प्रशासनिक और वित्तीय नियंत्रण भूतपूर्व तोकूगावा शासन के अधिकारों और संपत्ति पर ही था। दाइम्यों इलाकों में अपनी सत्ता का विस्तार करने के प्रयास में 1869 में केन्द्रीय शासन ने सत्सुमा, चोशू और हिजेनका दाइम्यों को अपने भूमि-दस्तावेजों को सौंपने के लिए राजी कर लिया। तनाव की स्थिति को टालने के लिए दाइम्यों को पहले की आय के आधे वेतन पर उनके इलाकों का राज्यपाल नियुक्त कर दिया गया । समुराइयों को निवृत्ति वेतन (पेंशन) देने की व्यवस्था की गई। 1871 में दाइम्यों-इलाकों को खत्म करके केन्द्रीय सरकार के नुमाइंदों द्वारा शासित इकाइयां गठित की गई।
नये शासन द्वारा सुधार
मार्ग अवरोध हटा लिए गए और सभी को आवाजाही की आजादी दे दी गई। हर नागरिक को व्यवसाय के चुनाव की भी आजादी प्रदान की गई। तोकूगावा वर्ग विभाजन को समाप्त करके कानून के समक्ष सभी को बराबरी का अधिकार दिया गया। जर्मनी की तरह अनिवार्य सैनिक सेवा की प्रथा की शुरुआत हुई। शुरू में फ्रांसीसी सैनिक सलाहकार रखे गए थे बाद में उनकी जगह जर्मन सैन्य सलाहकारों को रखा गया । अंग्रेजों के निर्देशन में जापान ने एक छोटी-सी नवसेना . का भी गठन किया।
1871 में शैक्षणिक व्यवस्था कायम करने के उद्देश्य से शिक्षा विभाग का गठन हुआ और 1900 ई. तक जापान में साक्षरता की दर लगभग 100 प्रतिशत हो गई थी। केइओ, दोशीशा और वसेदा विश्वविद्यालयों जैसे कई निजी विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई। शिक्षा का ढांचा व्यक्ति के विकास की बजाय राज्य हितों को ध्यान में रखकर तैयार किया गया था।
राज्य और धर्म
सम्राट और उसकी सरकार के प्रति जापानी जनता की वफादारी रेखांकित करने के लिए मेजी राजनीतिज्ञों ने शिन्टों के तरीके की हिमायत की। यह प्रकृति और पूर्वजों की पूजा के संयोग का आदिकालीन तरीका था। बाद में इसने ब्रह्मांड की अवधारणा को विकसित किया। प्रमुख शिन्टों मंदिरों को शासकीय संरक्षण प्राप्त था।
मेजी सरकार ने शिन्टों के महत्व को बढ़ाने के प्रयास में बौद्ध विरोधी रवैया आख्तियार करना शुरू कर दिया। शाही घराने के सदस्यों ने बौद्ध मठों और अन्य संस्थाओं से संबंध विच्छेद कर लिया और महल में बौद्धोत्सवों की मनाही कर दी गई। काफी मात्रा में बौद्ध संपत्ति जब्त कर ली गई और कई बौद्ध मंदिर तोड़ डाले गए। राज्य शिन्टों को राजकीय धर्म के रूप में स्थापित करने का प्रयास करता रहा। 1930 का दशक आते-आते लगभग 100,000 पूजास्थलों का रख-रखाव और 15,000 से अधिक पुजारियों का भरण पोषण सरकारी अनुदान पर चलने लगा था । इन पूजास्थलों पर उपस्थिति सम्राट के प्रति जापानियों की वफादारी की सूचक मानी जाने लगी।
शिक्षा व्यवस्था के माध्यम से शिन्टों पंथ के निम्नलिखित सिद्धांतों को आत्मसात करने की जापानियों की मनःस्थिति तैयार की जाती थी:
1. ‘सम्राट दैवीय गुणों से संपन्न होता है क्योंकि वह अतीत के महान पूर्वजों की आत्मा और शरीर का विस्तार है, खासकर सूर्य देवी के भौतिक और आध्यात्मिक गुणों का‘,
2. ‘चूंकि जापान पर देवताओं की विशेष कृपा रहती है। इसलिए इसकी जमीन, इसके लोग और इसकी संस्थाएं अद्वितीय है और अन्य जगहों की तुलना में श्रेष्ठ’, और
3. ‘जापान का यह दैवीय कर्तव्य है कि वह पूरी दुनिया को एकीकृत करके शेष मानवता को भी सम्राट के शासन का सौभाग्य दिलाए’।
जमीन की लगान
मेजी शासन ने पारंपरिक ‘चावल-कर’ की प्रथा को जारी रखा। अतः भू-राजस्व चावल के दाम के अनुसार घटता बढ़ता रहता था। इससे वित्तीय योजनाएं बनाना मुश्किल हो गया। लगान की दर को मुद्रा में परिवर्तित करने के उद्देश्य से 1872 में सरकार ने जुताई का अधिकार का प्रमाण पेश करने वालों के नाम भू-स्वामित्व प्रमाण-पत्र जारी किया। इसके साथ ही जापान में जमीन के निजी स्वामित्व की प्रथा शुरू हुई । जमीन में चावल की पैदावार के आधार पर प्रति इकाई जमीन की मालियत के रूप में एक निश्चित रकम तय कर दी गई। इस मूल्य का 3 प्रतिशत लगान के रूप में वसूला जाने लगा। 1890 के दशक तक भू-राजस्व (लगान) ही मेजी शासन के राजस्व का प्रमुख आधार था।
इस परिवर्तन से किसानों में असंतोष फैलने लगा। जंगल, चारागाह और सामूहिक इस्तेमाल की अन्य जमीन, जिस पर सभी प्रामीणों का साझा अधिकार था, अब राज्य की संपत्ति घोषित कर दी गई। नई लगान अदा करने में उपज का 35-40 प्रतिशत चला जाता था। चूंकि लगान एक निश्चित समय पर नकदी के रूप में जमा करना पड़ता था, इसलिए उन्हें उसी समय अपनी फसल को बेचना पड़ता था, बाजार भाव जो भी हो इस तरह दोनों के उतार-चढ़ाव का असर साल भर किसानों के ऊपर पड़ने लगा। वे अनिवार्य सैनिक सेवा से दुखी थे और प्रारंभिक शिक्षा के लिए लगाया गया
कर उन्हें अनावश्यक बोझ लगता था। इन्हीं कारणों से 1870 के दशक में, कई किसान विद्रोह हुए । अभूतपूर्व मुद्रास्फीति के कारण सरकार को लगान में ढाई प्रतिशत छुट देने के लिए राजी होना पड़ा और यह कि इसका एक हिस्सा किसान, अनाज के रूप में अदा कर सकता है।
आर्थिक परिवर्तन
मेजी नेताओं ने एक आधुनिक सेना और अर्थतंत्र का निर्माण किया। 1860 तक एक परावर्तक वित्तीय व्यवस्था, पोत-निर्माण स्थल और एक आधुनिक शास्त्रागार अस्तित्व में आ चुके थे। सूत की अंग्रजी बुनाई की तकनीक और मशीनरी वाली सूती मिलों की स्थापना की गई। योकोसुका का नौसैनिक अडा एक नौ सेना शक्ति के रूप में जापान के उदय का द्योतक था। इसमें यूरोपीयों द्वारा विकसित संयंत्रों में सामरिक जरूरतों को ध्यान में रख कर सुधार किये गये। इसके अलावा सूती एवं रेशमी कपड़े, टाइल, सीमेंट, ऊन, ब्लीचिंग पाउडर आदि उत्पादन के क्षेत्रों में कल कारखाने लगाए गए। 1871 से टेलीग्राफ बेतार व्यवस्था शुरू हुई और 1893 में 2000 मील लंबी पहली रेल लाईन बिछाई गई।
1880 के बाद राज्य ने औद्योगिक और खनन कार्यों से राज्य का नियंत्रण समाप्त कर व्यक्तिगत उद्यमियों को सस्ते दामों पर बेचने का फैसला किया। इसी दौर में बहुत से जैबान्सूपरिवारों ने भविष्य में अपार धन कमाने का आधार तैयार किया।
इन आर्थिक गतिविधियों की दो प्रमुख समस्याएं थीं: (1) पूंजी निवेश को देश के अंदर एकत्रित करना, और (2) आयातित कलपुजों और तकनीकी सहायता के लिए आवश्यक विदेशी मुद्रा का प्रबंध । औद्योगिक पूंजी का कुछ हिस्सा लगान एवं रेशम, चाय और चावल आदि के निर्यात से प्राप्त हुआ। विकसित कृषि तकनीकों एवं सुविधाओं के चलते कृषि-उत्पाद में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हुई। 1878-82 और 1888-92 के बीच खेती योग्य भूमि में 7 प्रतिशत की और उपज में 21 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
1894 तक जापान में अच्छा औद्योगिक विकास हो चुका था लेकिन अभी भी खेती का काफी महत्व था । 70 प्रतिशत परिवारों का प्रमुख व्यवसाय कृषि था और 84 प्रतिशत लोग 10,000 से कम आबादी वाली जगहों पर रहते थे।
बोध प्रश्न 1
टिप्पणी: नीचे दी गई जगह में ही उत्तर लिखें और इकाई के अंत में दिए गए उत्तर से अपने उत्तर की जांच कर लें।
1. जापान को जापानी में क्या कहते है ?
2. जापान की प्रमुख फसलें क्या है ?
3. दाइम्यों कौन होते थे?
4. तोकूगावा राजनैतिक व्यवस्था को क्या कहा जाता है?
5. 1854 में कनगवा की संधि किन के बीच संपन्न हुई थी?
6. तोकूगावा की अलगाववादी नीति के प्रभावों का वर्णन करिए।
बोध प्रश्न 1 उत्तर
1. निप्पोन या निहोन
2. चावल, गेहूँ, ज्वार, जौ, चाय और बाजरा
3. तोकूगावा शासन काल में उन्हें क्षेत्रीय शासक नामांकित किया गया था
4. बाकू-हान
5. अमेरिका के कमाडोर पेटी
6. जापान, पश्चिम के विकसित देशों से संपर्क न बना पाने के कारण पिछड़ गया था।
राष्ट्रवाद
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी के बीच जापान में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक विकास में राष्ट्रवाद, एक सशक्त कारक था। मेजी युग के समाप्त होने तक जापान सामंती समाज से आधुनिक राष्ट्र-राज्य में तब्दील हो चुका था। ज्यादातर जापानियों में कोकूगाकू और मितोगाकू के प्रभाव में देशभक्ति की भावना बहुत मजबूत थी।
चिन्तन-धाराएँ
कोकूगाकू एक बौद्धिक एवं सांस्कृतिक आंदोलन था। इसका उद्देश्य कन्फ्यूशियसवादी बौद्धिक प्रभावों के प्रभुत्व को नकारते हुए उसकी जगह जापानी भाषा और साहित्य के आधार पर विकसित जापानी परंपरा की स्थापना करना था। समय बीतने के साथ कोकूगाकू एक सक्रिय राजनैतिक आंदोलन में तब्दील हो गया, इसका बौद्ध विरोधी तेवर आक्रामक हो गया और इसने ‘जापानी संस्कृति’ की बजाय ‘जापानी राष्ट्र’ पर जोर देना शुरू कर दिया । केइचू अजारी, कादा अजुमामारो, कामा अबूची, मोतूरी नारी नागा आदि विद्वानों एवं उनकी रचनाओं ने इस आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
इस आंदोलन ने जापानी सम्राट के महत्व को अतिरंजित करके (बढ़ा-चढ़ाकर) प्रचारित किया। कहावत थी “कोई तब तक वफादार जापानी नहीं हो सकता जब तक उसके मन में जापानी परंपरा और सम्राट के प्रति सम्मान और वफादारी की भावना न हो।’’ मेजी नेताओं ने सम्राट की दैवीय महिमा के मिथ को दो कदम आगे बढ़ाते हए उसे सभी राजनैतिक गतिविधियों का केन्द्र बना दिया । राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना को व्यापक बनाने के उद्देश्य से, स्कूलों में जापानी इतिहास को पाठ्यक्रम का अनिवार्य विषय बना दिया गया। जापानियों के चिन्तन और व्यवहार पर शिन्टो मत का प्रभाव हावी हो गया और मेजी शासन ने उसे राज्य-धर्म का दर्जा दे दिया।
मितोगाकू आन्दोलन के अनुसार, राजनैतिक सत्ता पर चूँकि मूल रूप से सम्राट का अधिकार है जिसे कि मिनामोतो योरोतीयो और उसके उत्तराधिकारियों ने छीन लिया था। इस आंदोलन का उद्देश्य राजसत्ता पर सम्राट के अधिकार की पुनःस्थापना सुनिश्चित करना था। इसके नेताओं का यह भी मानना था कि कई कोटियों में विभाजित राजसत्ता, राष्ट्रीय वफादारी की भावना के विकास में बाधक थी। इस तरह इस आंदोलन ने सम्राट की सर्वोच्चता और उसके प्रति पूरी वफादारी की अवधारणा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया।
इस तरह हम देखते हैं कि कोकूगाकू आंदोलन कन्फ्यूशियसवादी का विरोधी था और मितोगाकू आंदोलन का वैचारिक आधार चीनी सिद्धांतों और जापानी परंपरा का संश्लेषित रूप था। कोकूगाकू आंदोलन ’जापान-केन्द्रित’ था तो मितोगाकू ‘सम्राट केन्द्रित’ । इन और अन्य चिन्तनधाराओं ने जापानियों के अंदर सघन राष्ट्र और प्रेम की भावना के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया।
मेजी युग (1868-1972) के दौरान जापान सामंती समाज से आधुनिक राष्ट्र और द्वीप देश से साम्राज्यवादी शक्ति के रूप में उभरा । जापान एक सशक्त केंदीकृत राज्य के रूप में यूरोपीय शक्तियों का प्रतिद्वंदी बन गया। इस दौरान औद्योगीकरण की प्रक्रिया तेजी से चलती रही।
एक आधुनिक राज्य के रूप में उदय की प्रक्रिया में जापान के निम्न कारणों से तेजी आ गईः
(क) विदेशी आक्रमण का खतरा ।
(ख) आंतरिक एकता और राष्ट्रीय स्वतंत्रता की समस्या।
(ग) एशिया में यूरोपीय उपनिवेशवाद का विस्तार ।
जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि जापान को बाध्य होकर कई असमान संधियों पर हस्ताक्षर करना पड़ा था, जिनके तहत वह विदेशी शक्तियों को राज्य क्षेत्रातीत अधिकार देने के लिए विवश था। इसके चलते आम जापानी के दिलो-दिमाग में विदेशी खतरे की बात तेजी से घर करने लगी। इसीलिए आंतरिक एकता और राष्ट्रीय स्वतंत्रता के मुद्दे जापानी सरोकारों के केन्द्र में बने रहे। राष्ट्रीय एकता के लिए मेजी नेताओं ने लोगों की वफादारी को राष्ट्रीय प्रतीकों की तरफ आकर्षित करने की नीति को अपनाया। इसके अलावा उन्होंने लोगों में आर्थिक, समाजिक एवं राजनैतिक क्षेत्रों में परिवर्तन के राष्ट्रीय लक्ष्यों के प्रति प्रतिबद्धता की भावना पैदा करने की कोशिश की। ‘‘फुकोकू क्योहेई‘‘ – समृद्ध और सशक्त सेना के नारे ने मेजी शासकों के इस प्रयास को सफल बनाने की दिशा में जादुई असर दिखाया। मेजी पुनर्स्थापना के पहले दस सालों के दौरान संस्थागत परिवर्तनों का औचित्य साबित करने में भी इस नारे की भूमिका उल्लेखनीय थी, जिसको उस समय के विद्वानों ने अपने लेखन में रेखांकित किया है।
राज्य का उदय
मेजी काल के दौरान जापान में एक अत्यधिक सशक्त राज्य का उदय, ज्यादातर जापानियों द्वारा समृद्धि, शक्ति और राष्ट्रीय महानता के सिद्धांतों की स्वीकृति का परिणाम था। जापान को शक्तिशाली और समृद्ध बनाने के दौरान शास्त्रागार, व्यापार, उद्योग और अभियांत्रिकी जैसे क्षेत्रों में कई आमूल परिवर्तन आए। आधुनिक राज्य के रूप में जापान की स्थापना के लिए उसे धन, ताकत और एकता की जरूरत थी जिनके लिए मेजी आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक परिवर्तनों की नीतियां अपनाने को प्रतिबद्ध थे। एकसमान प्रशासन और न्यायिक व्यवस्था की स्थापना के साथ ही राष्ट्रीय मुद्रा, राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था और राष्ट्रीय सेना की अवधारणाओं को व्यवहार रूप प्रदान किया। इन परिवर्तनों ने तोकूगावा शासन काल की सामंती देशभक्ति को आधुनिक राष्ट्रवाद का रास्ता दिखाया।
अनिवार्य सैनिक सेवा
नए शासन के प्रति समुराइयों (सैनिक वर्ग) की संदिग्ध वफादारी के चलते सार्वभौमिक सैनिक सेवा की प्रथा शुरू की गई । अनिवार्य सैनिक सेवा के तहत समुराई वर्ग के लोगों एवं अन्य लोगों को एकसमान प्रशिक्षण एवं शिक्षा दी जाती थी। इससे वर्गीय अंतरों को कम करके राष्ट्रीय एकता की भावना पैदा करने में मदद मिली थी। अनिवार्य स्कूली शिक्षा और अनिवार्य सैनिक सेवा, दोनों का उद्देश्य राष्ट्रीय चेतना को तेज करना।
सभ्यता और ज्ञानोदय
मेजी शासन के दौरान आर्थिक परिवर्तनों का दूरगामी लक्ष्य विकसित देशों की बराबरी में पहुंचने का था। इसके लिए यूरोपीय देशों की आर्थिक अधीनस्थता से बचे रहते हुए जापान ने राष्ट्रीय आर्थिक एकता हासिल करने की नीति को अपनाया और करों की स्वायन्तता को समाप्त कर दिया । व्यवसाय की स्वतंत्रता, माल और व्यक्तियों को देश के अंदर आवाजाही की स्वतंत्रता, और आवास एवं संपत्ति के अधिकारों से प्रतिबंध हटा लिए गए।
विस्तारवादी राष्ट्रवाद जापान ने इस दौर में कई महत्वपूर्ण निर्धारित लक्ष्य पूरे किए किन्तु पश्चिमी देशों के साथ असमान संधि बरकरार रही। इस वजह से मेजी शासन के दूसरे दौर में जापानी राष्ट्रवाद ने विस्तारवादी रवैया अपनाना शुरू कर दिया।
पाश्चात्य मूल्यों को पूरी तरह नकारे बिना, जापान की विशिष्टता स्थापित करने का अभियान शुरू किया गया। एशिया में जापान की विस्तारवादी नीति के लिए मेजी शासन ने यह तर्क दिया कि उसके कमजोर पड़ोसी देशों की स्वतंत्रता की पश्चिमी आक्रमणकारियों से रक्षा के लिए उसके संरक्षण की आवश्यकता थी। कई असंतुष्ट भूतपूर्व समुराइयों ने यूरोपीय प्रभावों से बचने का उपाय समझ कर, विस्तारवादी विचार का समर्थन किया।
शिक्षा और राष्ट्रवाद
पाठ्यक्रम या पाठ्य-पुस्तकों के निर्धारण का पूरा अधिकार शिक्षा मंत्रालय के पास था। माध्यमिक शिक्षा के बाद सार्वजनिक सेवाओं में प्रवेश करने और उच्च शिक्षा के, दोनों ही रास्ते खुले थे। शिक्षा के विस्तार के लिए अध्यापकों की आवश्यकता होती है, जिसके लिए अध्यापन में प्रशिक्षण के लिए अलग से स्कूलों की स्थापना की गई। ये स्कूल अध्यापकों एवं छात्रों को अन्य विषयों के अलावा देशभक्ति की भावना में भी प्रशिक्षित करते थे।
अनुशासन के महत्व को ध्यान में रखकर, प्रायः इन स्कूलों के संचालन के लिए सेना या सरकार के अवकाशप्राप्त अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी। अध्यापन-प्रक्रिया की योजना का प्रमुख उद्देश्य शिक्षा के निचले स्तरों तक राष्ट्रभक्ति की भावना पहुंचाना था। इस शिक्षा पद्धति ने राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत व्यावसायिक वर्गों को जन्म दिया।
1886 में स्थापित टोक्यो का शाही विश्वविद्यालय देश की शैक्षणिक ढांचे के शीर्ष पर था। सैद्धांतिक रूप से यह विश्वविद्यालय स्वायत्त था किन्तु व्यवहार में इसका मुख्य उद्देश्य राज्य की विचारधारा का प्रचार-प्रसार करना था।
मेजी युग के मध्य तक राज्य केन्द्रित राष्ट्रवाद मजबूती से जड़ें जमा चुका था। राज्य को राष्ट्रवाद के प्रचार-प्रसार का माध्यम बना दिया। लोगों ने इसकी छुट-पुट आलोचना जरूर की लेकिन शिक्षा में राज्य के हस्तक्षेप के विरुद्ध कभी कोई प्रभावी आंदोलन नहीं खड़ा हुआ।
बोध प्रश्न 2
टिप्पणी: अपने उत्तर नीचे दी गई जगह में लिखें और इकाई के अंत में दिए गए उत्तरों से उनका मिलान कर लें।
1. राष्ट्रवाद से आप क्या समझते हैं ?
2. कोकूगाकू के नेता कौन थे?
3. मितोगाकू क्या है ?
4. जापान के आधुनिक राष्ट्र के रूप में उदय की प्रक्रिया में तेजी क्यों आई थी?
बोध प्रश्न 2 उत्तर
1. अपने समुदाय, क्षेत्र या राष्ट्र के प्रति लगाव की भावना।
2. काइचू अजारी, कामा अबूची, मोतोरी, नोरीनाग एवं अन्य।
3. एक ऐसी चिन्तन धारा जो सम्राट के राजनैतिक अधिकारी की वापसी की हिमायती थी।
4. विदेशी आक्रमण के खतरे, राष्ट्र की एकता और अखंडता एवं एशिया में यूरोपीय उपनिवेशवाद के विस्तार की समस्याएँ।
5. एक ऐसी अवधारणा जो पैतृक अधिकार एवं नियंत्रण पद की वरीयता और सम्राट के दैवीय मर्यादा की हिमायत करती है।
पूँजीवाद का उदय
मेजी युग के उत्तरार्ध से जापान ने आर्थिक विकास के लिए पूँजीवादी रास्ता अपनाया। राष्ट्रीय पूंजीवादी व्यवस्था के विकास के लिए प्रशिक्षित मानव संसाधन एवं अनुकूल वातावरण तैयार करने की जिम्मेदारी शिक्षा व्यवस्था को सौंप दी गई।
पूंजीवाद के विकास के साथ, शांतिवाद, समाजवाद और ट्रेड यूनियन के रूपों में विरोध के स्वर उभरने लगे। विरोध के स्वर को मेजी शासकों ने आर्थिक प्रगति और राजनैतिक स्थिरता के लिए खतरनाक बताया। इससे निपटने के लिए कामगारों और प्रबंधकों को आध्यात्मिक प्रशिक्षण देने का कार्यक्रम चलाया। कहा गया कि इससे राष्ट्रीय उत्पादन क्षमता में वृद्धि होगी।
मेजी शासकों ने, सादगी, ब्रह्मचर्य, अनुशासन, उद्यमशीलता, परिश्रम का सुख, ग्रामीण समुदायों में पारस्परिक सहयोग एवं व्यक्तिगत उत्तरदायित्व और देश भक्ति जैसे मूल्यों को जापानी आचरण में ढालने के लिए, कन्फ्यूशियसवादी मान्यताओं का सहारा लिया । इसका उद्देश्य औद्योगिक विकास में तेजी लाने के साथ लोगों को विलासिता और आलस्य से दूर रखना था। इस तरह जापान में पारंपरिक मूल्यों को छोड़े बिना औद्योगिक क्रांति की प्रक्रिया शुरू हुई।
औद्योगीकरण
जापान में औद्योगीकरण की शुरुआत राज्य ने की। बाजार की दिक्कतों के कारण व्यापारी वर्ग नए उधम में पूंजी निवेश नहीं करना चाहता था। इसलिए औद्योगिक विकास और व्यापार से संबंधित सारे फैसले भी राज्य ही लेता था। और जब बाजार की दिक्कतें कुछ कम हुई तो कुछ प्रतिष्ठानों को रियायती दरों पर निजी स्वामित्व को हस्तांतरित कर दिया। यद्यपि आर्थिक मामलों में राज्य की महत्वपूर्ण भूमिका बरकरार रही। शिक्षित अधिकारियों, प्रबंधकों और उद्यमियों की नई पीढ़ी ने बैंकिंग, खान, जहाजरानी, चीनी, वस्त्र आदि उद्योगों की जिम्मेदारी से राज्य को मुक्त कर दिया। राज्य पर केवल भारी उद्योगों और सुरक्षा-संबंधी उद्योगों की जिम्मेदारी रह गई थी।
व्यापार को हेय दृष्टि से देखने का सामंती पूर्वाग्रह समाप्त करके व्यापारी की राष्ट्र के प्रति सेवाओं को नेताओं और राजनेताओं के समतुल्य चित्रित किया जाने लगा। सरकार ने आधुनिक पूंजीवादी विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियों और संस्थाओं का निर्माण किया। बड़े घरेलू बाजार, बैंक, प्रतियोगिता, लाभ का आकर्षण और संस्थागत निजी पूंजी के सिद्धांतों को राज्य का प्रोत्साहन प्राप्त था। औद्योगिक उत्पादन बढ़ाने के लिए नवोदित पूंजीपति वर्ग को रियायतें. और संरक्षण प्रदान किया गया। प्रशासनिक दिशा-निर्देश देने के नाम पर, राज्य पूंजीवादी वर्गपर कुछ हद तक नियंत्रण रखता था। इस नीति का फायदा उठाकर मित्सुविशी जहाज रानी उद्योग ने विदेशी जहाज कंपनियों को मात दे दी। मुश्किल ठिकानों पर आदमी और माल पहंचाकर इस कंपनी ने अपार धन कमाया था।
निजी उद्यम
आर्थिक क्षेत्र में विकसित देशों की बराबरी की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए, निजी उद्यम को आवश्यक माना गया। पूंजीपति वर्ग के हितों की सुरक्षा के लिए राज्य ने वित्तीय सहायता के अलावा अनुकूल जनमत भी तैयार किया। सरकार ने आमजनों को यह समझाया कि पूंजीपति का मुनाफा, शोषण न होकर राष्ट्र की सेवा में किए गए उसके श्रम का पुरस्कार था। लाभ कमाने को कानूनी और नैतिक मानदंडों पर वैध घोषित कर दिया गया। उत्पादन की पूंजीवादी प्रतिक्रिया से अंतर्राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्विता में जापान की स्थिति मजबूत हुई। पूंजीवाद और राष्ट्रवाद में समन्वय स्थापित करने के साथ ही औद्योगिक घरानों पर इसलिए थोड़ा अंकुश रखा जाता था कि वे राज्य-सत्ता के विरुद्ध विद्रोह न कर दें।
मेजी शासकों को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर की प्रतिद्वंद्विता का आभास था। राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्विता तब तक अच्छी होती है जब तक यह राष्ट्रीय उत्पादन बढ़ाने में मददगार हो। आपसी सहयोग और सहायता को राष्ट्रहित में महत्वपूर्ण माना जाता था। राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्विता नियंत्रित रखी जाती थी लेकिन अंतर्राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्विता में जापान ने आक्रामक रुख अख्तियार किया। आक्रामक भावना का उद्देश्य दुनिया को जापान के लक्ष्यों के बारे में अवगत कराना था।
जापान के नियंत्रित पूंजीवाद में सरकारी हस्तक्षेप की पूरी गुंजाइश थी, जिसे ज्यादातर व्यापारियों ने, राष्ट्रहित में स्वीकार कर लिया। व्यापारिक समुदाय में राष्ट्रीय हित की सर्वोच्चता और राष्ट्र के हित के लिए त्याग को उचित और वांछनीय मानता था । व्यापार को देश सेवा माना जाने लगा और धीरे-धीरे व्यापारिक वर्गों के नेता राजनैतिक सत्ता में शामिल होने लगे।
पूंजीवाद का दूसरा पहलू
पूंजीवाद के विकास में बाहरी प्रतिद्वंद्विता और घरेलू दिक्कतों से, देशभक्ति के बहाने पूंजीपतियों को राज्य का संरक्षण प्राप्त था। पूंजीवादी शोषण के शिकार लोगों की सहायता के सामाजिक कार्यक्रमों को अवरुद्ध कर दिया जाता था। औद्योगिक घराने मजदूरों के शोषण को यह कह कर उचित ठहराते थे कि इससे पूरे राष्ट्र का फायदा होगा। राष्ट्रवाद के नाम पर आर्थिक विकास का बोझ कामगारों को ही ढोना पड़ता था। लंबे घंटों तक कठिन परिश्रम ही मजदूरों की राष्ट्रभक्ति का मानदंड था।
व्यापारिक घराने औद्योगीकरण को तेज करने के लिए, पूंजी-संचय की राष्ट्रीय जरूरत के नाम पर मजदूरों की दयनीय मजदूरी को उचित ठहराते थे। मजदूरों से कहा जाता था जिस तरह नाविक और सैनिक देश के लिए त्यांग करते थे उसी तरह वे भी उद्योग के विकास और उत्पादन के लिए त्याग करें। जापान में भी पूंजीवाद के परिणाम अन्य जगहों की ही तरह थे। काम के लंबे घंटे, कम मजदूरी, काम की दयनीय स्थिति आदि । सरकार ने किसी प्रकार की जन कल्याण या राहत की नीति को नहीं अपनाया।
पूँजी संरचना
पूंजी और मानव-संसाधन तैयार करना, मेजी शासन की एक उल्लेखनीय उपलब्धि थी। इसके लिए उसने वित्तीय, मुद्रा संबंधी और सामाजिक नीतियों का समन्वय कुछ इस प्रकार किया जो जापानी आबादी के स्वभाव के अनुकूल था। लोगों की कम खपत और ज्यादा बचत करने की मानसिकता थी। जापानी स्वभाव से ही अनुशासनप्रिय और परिश्रमी होते हैं। शिक्षा और प्रचार से उनके इस स्वभाव को और भी निखारने का प्रयास किया गया। 1894 से 1914 के बीच जापान ने उत्पादन इतना बढ़ा लिया कि वह राष्ट्रीय आय का 12 प्रतिशत से 17 प्रतिशत बचत करके उसे फिर से निवेश करने के योग्य हो गया। मेजी काल में खेती की लगान से प्राप्त राजस्व को आर्थिक विकास तेज करने के लिए सार्वजनिक परियोजनाओं, जैसे कारखाने लगाने, सिंचाई की सुविधाओं, रेल और स्कूल बनाने में लगाया जाता था।
स्वैच्छिक बचत को प्रोत्साहित करने के लिए हर डाकघर में बचत बैंक खोले गए और इस क्षेत्र में व्यापारिक बैंक भी तेजी से सक्रिय हए । राष्ट्रीय बैंकों में निजी जमा की राशि 1891 में 5.1 करोड़ येन से बढ़कर 1907 में 130.7 करोड़ येन तक पहुंच गयी। डाकघर बचत खातों की जमा राशि 1890 में 1.9 करोड़ येन से बढ़कर 1905 में 5.2 करोड़ येन हो गया। बचत, खपत में कटौती का परिणाम था।
आधुनिक बैंकिंग व्यवस्था के माध्यम से जमा पूंजी का उपयोग औद्योगिक विकास के लिए होने लगा । यह पूंजी प्रमुख रूप से धनी व्यापारियों, जमींदारों और रेशम एवं चाय के निर्यातकों के पास से आती थी। संदेह के चलते जो पूंजी लोगों ने छिपा कर रखी था, नई आर्थिक एवं राजनैतिक व्यवस्था के प्रति विश्वास के कारण, वह फिर से बाजार-चक्र में आ गई।
विदेश व्यापार के फायदे ग्रामीणों पहुंचाने लगा। धन की ताकत के वर्चस्व के चलते किसानों और खेतिहर तक उद्योगों के विकास में ग्रामीणों के योगदान का सवाल है, उनकी बेटियाँ रोजगार की गई संभावनाओं में भी शिरकत का उन्हें मौका मिला।
व्यवसाय के नये अवसर
व्यवसाय एवं व्यापार की स्वतत्रता में व्यापार के नये अवसर प्रदान किये। कुछ लोगों ने जल्दी फायदा कमाने के लिए आयातित चीजें खरीद शुरू किया और कुछ ने सट्टा बाजारों एवं शस्त्रों के व्यापार से अपार धन कमाया। इसका नकारात्मक असर यह हुआ कि कई धनी व्यापारी, जिनमें से ज्यादातर ने सूती कपड़ों की बुनाई, रेल या बैंकिंग में धन लगाया था, दिवालिया हो गये । कइयों ने चीनी मिल, मशीनरी उत्पादन और विदेश व्यापार में पूंजी निवेश से अकूत फायदा कमाया । मुनाफे की संभावनाओं से उनकी पूंजी में वृद्धि होती रही।
शुरुआती उद्यमियों में भविष्य को लेकर बेचैनी थी लेकिन नए बंदरगाहों के खुलने से उन्हें योकोहामा और नागासाकी में फायदा कमाने के नए अवसर प्राप्त हए। वे दोनों ही पक्षों को शास्त्रास्म बेचते थे। नागासाकी में, खासकर, जहाजरानी के निर्माण में वे पश्चिमी कंपनियों के प्रतिद्वंद्वी बन गए । इन शुरुआती उद्यमियों में जाइबात्स के संस्थापक यासुदा, ओकरा और असानों एवं निर्यातक ओटोनी और मोशिमुरा आदि थे। इन शुरुआती उद्यमियों ने ज्यादातर बैंकिंग, रेलवे भारी उद्योग और बिजली उत्पादन के क्षेत्रों में पंूजी निवेश किया। छोटे स्तर से शुरुआत करने वाले इन उद्यमियों ने आधुनिक अर्थतंत्र की सामान्य जरूरतों को पूरा करते हुए लाभ की कई मंजिलें पार की।
बोध प्रश्न 3
टिप्पणी: प्रश्नों के उत्तर नीचे दी गई जगह में लिखें और इकाई के अंत में दिए गये उत्तरों से उनका मिलान कर लें।
1. जापान में पूंजीवाद का विकास कैसे हुआ ?
2. मेजी युग के कुछ सफल व्यापारिक नेताओं के नाम बताइए।
बोध प्रश्नों के उत्तर
बोध प्रश्न 3
1. निजी निवेश आकर्षित करने के लिए बड़ी घरेलू बाजार, बैंक, प्रतिद्वंद्विता, लाभ की वैधता को मान्यता और निजी पूंजी को संस्थागत करने के माध्यम से।
2. व्यवसायी यतारो, गोदई, तो आमात्सू, शिबूसावा एईची।
सारांश
जापान एशिया का पहला देश है जिसने आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक उद्देश्यों के लिए, सफलतापूर्वक शिक्षा के माध्यम से लोगों में देशभक्ति के संचार का रास्ता अपनाया। इसने यूरोपीय अनुभव से वही बातें अपनायी जो कि इसे आधुनिक बनाने में मददगार थीं । इसके अलावा निजी समृद्धि काल में प्रोत्साहन मिलता रहा । विश्व शक्ति बनने और पूँजीवादी विकास में पश्चिमी ताकत बनने के बावजूद भी यह अपनी जापानी विशिष्टता बनाए रखा । 1868 के बाद के परिवर्तनों से यातायात, मिडिया, साक्षरता, शहरीकरण और आधुनिक उद्योगों के क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति हुई। इससे ग्रामीण और पारिवारिक बंधन ढीले पड़े और राष्ट्रीय वफादारी या राष्ट्रभक्ति को राज्य और सम्राट के प्रति वफादारी के रूप में चित्रित किया गया। सामाजिक संगठन, राजनैतिकता संरचना और सांस्कृतिक ढरें, जापानी राष्ट्रवाद के प्रमुख निर्धारक थे। जापानी राष्ट्रवाद को ‘अति राष्ट्रवाद‘ भी कहा गया है। आधुनिक जापानी राष्ट्रवाद के उदय में, तोकूगावा काल के अंतिम वर्षों में यूरोपीय संपर्क के प्रभाव का योगदान है। जापानी राष्ट्रवाद ने जनतांत्रिक ताकतों को अपना सहयोगी नहीं बनाया, बल्कि राज्य या सम्राट को परिवार या गांव का विस्तृत रूप बताया जिसमें व्यक्ति की निजी अस्मिता विलीन हो जाती है। इससे ही ‘परिवार-राज्य’ की अवधारणा बनी । विदेशी आक्रमणों और जापान के साम्राज्यवादी विस्तार ने राष्ट्रवादी चेतना को और सदढ किया।
पूंजीवाद का विकास किसानों की कीमत पर हुआ और राज्य के संरक्षित व्यक्तियों को ही, शासन द्वारा शुरू किए गए उद्यमों से लाभ हुआ। धीरे-धीरे पूंजीवाद ने औपनिवेशिक रूप अख्तियार कर लिया।
कुछ उपयोगी पुस्तकें
नरसिम्हा मूर्ति, पी.ए. राईज ऑफ मॉडर्न नेशनलिज्म इन जापान, नई दिल्ली नोबुताका इके, जापानीज पॉलिटिक्स, न्यूयार्क, 1972 पीटर डस, राइज ऑफ माडर्न जापान, बोस्टन, 1976 राबर्ट ई. वाई. जापान्स पॉलिटिक्स सिस्टम, न्यू जर्सी, 1978
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