WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

वितान क्या होता है | पौधे की वितान को प्रभावित करने वाले कारक , प्रकार canopy tree meaning in hindi

(canopy tree meaning in hindi) वितान क्या होता है | पौधे की वितान को प्रभावित करने वाले कारक , प्रकार किसे कहते है ?

पौधों की शिखर संरचना (canopy architecture of trees): हमारी धरती पर विविध आकृति और ऊंचाई के अनेक वृक्ष पाए जाते है। इनके अतिरिक्त अनेक पौधे शाक , झाड़ियाँ , उपक्षुप छोटे वृक्ष अथवा झाड़ियों जैसे वृक्षों के रूप में पाए जाते है। इस प्रकार के क्षुप , वृक्ष अथवा क्षुपिल वृक्षों की विशिष्टता और सुन्दरता इनकी शिखर संरचना के कारण होती है।

किसी भी वृक्ष के शिखर अथवा वितान का निर्माण इसके तने , शाखाओं और पत्तियों द्वारा संयुक्त रूप से मिलकर होता है। प्रत्येक वृक्ष की वितान संरचना मूल रूप से पादप वृद्धि को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारकों द्वारा नियंत्रित होती है। इस प्रकार के कारक आंतरिक और बाहरी दोनों प्रकार के हो सकते है। वृक्ष का जीन प्रारूप संकर ओज आदि कुछ आनुवांशिक कारक है जो कि वृक्ष की वितान अथवा शिखर संरचना को प्रभावित करते है। इसी प्रकार पौधे की आयु , मृदा में जल और पोषक खनिज तत्वों की उपस्थिति , प्रकाश की अवधि और तीव्रता , वातावरण में कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्रा आदि कुछ ऐसे महत्वपूर्ण बाहरी कारक है जो पादप की शिखर संरचना अथवा वितान के गठन को प्रभावित करते है। यह एक सामान्य तथ्य है कि कुछ प्रतिकूल परिस्थितियों जैसे जल की कमी , पोषक तत्वों की अल्पता और निम्न तापमान में विभिन्न पौधों की पत्तियों की आकृति छोटी हो जाती है और अत्यन्त विषम परिस्थितियों में पौधों की पत्तियां गिर जाती है।

पादप जगत में कुछ वृक्षों का आकार काफी बड़ा होता है , जिनका मुख्य तना काफी मोटा , मजबूत और काष्ठीय होता है। ये झाड़ियों की तुलना में काफी बड़े होते है। झाड़ियों के शाखन पौधे के निचले सिरे से ही प्रारंभ हो जाता है और इसके परिणामस्वरूप अनेक समान मोटाई की बहुसंख्य शाखाएँ विकसित होती है। कभी कभी कुछ पौधे झाड़ियों और वृक्षों के मध्य भी पाए जाते है , जिनमें वृक्ष और झाडी दोनों की समानतायें दृष्टिगोचर होती है। वातावरण और आवासीय परिस्थितियों में परिवर्तन भी अनेक वृक्षों की आकृति और शिखर संरचना को प्रभावित करता है। कुछ वृक्ष जो सघन रूप से पास पास उगते है , उनमें कक्षस्थ कलिकाएँ प्राय: संदमित रहती है और वृक्ष का मुख्य तना पतला और ऊँचा होता है , वही दूसरी तरफ अपेक्षाकृत निश्चित अथवा पर्याप्त दूरी पर उगने वाले वृक्षों में , खुले वातावरण के कारण और प्रकाश की पर्याप्त उपलब्धता के कारण कक्षस्थ कलिकाएँ पूर्णतया सक्रीय हो जाती है तो झाडी जैसी सघन संरचना बन जाती है अथवा एक ही मुख्य तने से अनेकों शाखाएँ विकसित हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप वृक्ष की शिखर संरचना भी सघन और भरी भरी दिखाई देती है। बहुधा यह भी देखने में आया है कि यदि वृक्ष ऐसी मृदा में उगते है , जहाँ पोषण की कमी हो तो इनकी वृद्धि धीमी हो जाती है और इनकी आकृति झाड़ियो के समान हो जाती है।

वितान को प्रभावित करने वाले कारक (factors affecting canopy)

किसी भी वृक्ष की शिखर संरचना के गठन को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित प्रकार से है –
(1) मुख्य अक्ष की वृद्धि
(2) मुख्य अक्ष का शाखन प्रकार
(3) शाखाओं की दिशा और विन्यास
(4) शाखाओं पर पर्ण विन्यास
(5) पत्तियों की आकृति , आमाप और दिशा
उपर्युक्त सभी कारकों में शाखन एक सर्वप्रमुख कारक है परन्तु यह भी देखा गया है कि अनेक पौधों जैसे कुल पामी के सदस्यों (खजूर आदि) और पोऐसी के डेन्ड्रोकेलेमस आदि में शाखन होता ही नहीं है। कुल मापी अथवा ताड़ कुल के पौधों में तना अशाखित होता है तथा इसके शीर्ष पर बड़ी बड़ी पत्तियों से बना एक किरीट पाया जाता है। इस प्रकार के तने को पुच्छी अथवा काडेक्स कहते है।
शाखन के आधार पर वृक्षों को भी एकलाक्षी अथवा संधिताक्षी वृक्षों में विभेदित किया जा सकता है। एकलाक्षी वृक्षों में पौधे का एकमात्र मुख्य अक्ष निरंतर वृद्धि करता रहता है और इससे अनेक शाखाएं उत्पन्न होती है। इसलिए ऐसे वृक्ष सामान्यतया शंक्वाकार होते है , इनकी शाखाएँ बहुधा सर्पिलाकार अथवा शंक्वाकार अथवा सम्मुख क्रम में व्यवस्थित होती है , जैसे अशोक और यूकेलिप्टस आदि। इसके विपरीत बहुलाक्षी या संधि ताक्षी वृक्षों में मुख्य अक्ष की वृद्धि कुछ समय बाद रुक जाती है और अब शाखाओं से अनेक कक्षस्थ अथवा पाशर्वीय कलिकाएँ विकसित होती है। कुछ समय वृद्धि करने के पश्चात् इनकी वृद्धि भी रुक जाती है और इनका स्थान नयी शाखाएं ले लेती है। यह प्रक्रिया निरंतर जारी रहती है। इस प्रकार वृक्ष का मुख्य अक्ष तो गौण हो जाता है तथा इसके स्थान पर अनेक समान मोटाई की शाखाएँ बनती है। इसके पश्चात् इन शाखाओं से भी अनेक शाखाएं उत्पन्न होती है। इसके परिणामस्वरूप वृक्ष की वितान संरचना गोलाकार अथवा गुम्बदाकार हो जाती है , जैसे बरगद और आम आदि।
शाखन के अतिरिक्त वृक्ष की पत्तियों की आकृति और परिमाप है। यदि वृक्ष की पत्तियां आड़ी (क्षैतिज) रूप से व्यवस्थित हो तो ये अधिकाधिक मात्रा में प्रकाश को प्रयुक्त कर सकती है। यदि वृक्ष की पत्तियों में छाया सहन करने की क्षमता होती है तो इनकी कार्यप्रणाली अधिक प्रभावीत नही होती और शिखर संरचना सघन होती है , ऊपर वाली पत्ती की छाया निचे की पत्तियों को प्राप्त होती रहती है। वही दूसरी ओर यदि वृक्ष की पत्तियां छाया सहने में अपेक्षाकृत अक्षम है तो वृक्ष का शाखन शिखर संरचना से बाहर की ओर होगा तथा वितान संरचना छितराई हुई होगी। इससे वृक्ष की पत्तियों की पर्याप्त मात्रा में प्रकाश उपलब्ध हो जाता है।

वितान संरचना के प्रकार (types of canopy architecture in plants)

विभिन्न वृक्षों में पर्ण आकृति , विन्यास और शाखन के अनुरूप वृक्ष की आकृति अथवा शिखर संरचना भी अलग अलग प्रकार की होती है और इनको निम्नलिखित प्रकारों में विभेदित किया जा सकता है –
(1) ताड़ अथवा खजूर वृक्ष
(2) शंकुधारी वृक्ष
(3) दीर्घवृत्तीय अथवा बेलनाकार वृक्ष
(4) झाड़ीनुमा गोलाकार वृक्ष
(5) छत्रिकाकार वृक्ष
(6) कल्प वृक्ष
(7) निलम्बी वृक्ष

(1) ताड़ अथवा खजूर वृक्ष (palm tree)

इन वृक्षों में मुकुट आकार का अथवा पुच्छी तना पाया जाता है। मुख्य स्तम्भ अशाखित होता है , इसके शीर्ष पर पत्तियों का समूह अथवा गुच्छा पाया जाता है। इन वृक्षों की पत्तियां मुख्यतः पिच्छाकार अथवा हस्ताकार रूप से संयुक्त होती है। स्तम्भ पर प्राय: स्थायी पर्णक्षत चिन्ह पाए जाते है , ये इस श्रेणी के वृक्षों की पहचान का विशिष्ट लक्षण है। इनका तना सामान्यतया बेलनाकार होता है , जैसे खजूर , नारियल आदि।

(2) शंक्वाकार वृक्ष (conical tree)

इस श्रेणी के वृक्षों में प्राय: मुख्य अक्ष पाया जाता है और एकलाक्षी शाखन उपस्थित होता है। वृक्ष की शाखाओं का व्यवस्थाक्रम चक्रिक अथवा एकांतर अथवा सम्मुख प्रकार का होता है और और ये समकोण अथवा न्यून कोण पर विन्यासित होती है। इनकी शाखाएँ अग्राभिसारी क्रम (अर्थात बड़ी शाखाएं नीचे और छोटी ऊपर) में विकसित होती है। यहाँ शाखाएं क्योंकि ऊपर की ओर छोटी होती है , इसलिए वृक्ष की आकृति शंक्वाकार हो जाती है , उदाहरण क्रिसमस ट्री वृक्ष की शाखाएं क्षैतिज और थुजा शाखाएँ न्यून कोण पर होती है।

(3) दीर्घवृतीय अथवा बेलनाकार वृक्ष (cylindrical and oblong tree)

इस श्रेणी के वृक्षों की ऊंचाई इनकी चौड़ाई की तुलना में बहुत अधिक होती है और इनका शाखन एकलाक्षी या बहुलाक्षी प्रकार का हो सकता है। प्राय: इनकी पाशर्व शाखाएँ , उधर्व शाखाओं और मुख्य अक्ष की तुलना में छोटी होती है। इसके अतिरिक्त यदा कदा ये शाखाएँ तिरछी होकर ऊपर की ओर वृद्धि करती है। चौड़ाई की तुलना में लम्बाई अधिक होने से वृक्षों का फैलाव अधिक नहीं होता और ये बेलनाकार आकृति ग्रहण कर लेते है , जैसे बिग्नोनिया मेगामोटेमिका और कटहल।

(4) झाड़ीनुमा गोलाकार वृक्ष (round or dome shape trees)

इस प्रकार के वृक्षों में बहुलाक्षी शाखन होता है और इनकी शाखाएँ एकांतर अथवा सर्पिलाकार अथवा चक्रिकाकार क्रम में व्यवस्थित होती है। इनमें अत्यधिक या बारम्बार शाखित होने की प्रवृत्ति होती ही। निचली शाखाएँ ऊपरी शाखाओं की तुलना में अधिक फैली हुई होती है , जो वितान को गोलाकार आकृति प्रदान करती है। जैसे आम और बरगद में।

(5) छत्रिकाकार वृक्ष (umbrella shaped trees)

इस श्रेणी के वृक्षों में शिखर संरचना का लगभग चपटा और अधिक चौड़ा होना इनकी प्रमुख विशेषता है। यहाँ बहुलाक्षी प्रकार का शाखन पाया जाता है। जब मुख्य अक्ष अथवा वृक्ष की किसी शाखा की वृद्धि रुक जाती है तो इसकी ऊपरी अथवा शीर्षस्थ पर्व संधि के पास से दूसरी शाखाएं उत्पन्न हो जाती है। जो तिरछी और ऊपर की ओर वृद्धि करती है। प्राय: इनका शाखन अपेक्षाकृत बाहरी दिशा में होता है , जिससे नीचे की पत्तियों पर शाखाओं और दूसरी पत्तियों की छाया कम मात्रा में पडती है , प्रकाश अधिक मात्रा में पत्तियों को उपलब्ध रहता है , जैसे पारस पीपल और गुलमोहर में।

(6) कल्पवृक्ष (pagoda tree)

इस प्रकार के वृक्षों में शाखाएँ मुख्य अक्ष से चक्रिकाकार क्रम में उत्पन्न होती है और इसके साथ ही छज्जो की भाँती एक दुसरे के ऊपर व्यवस्थित होती है। यहाँ शाखाएं चक्रिक समान सर्पिल क्रम में भी विकसित हो सकती है। इस प्रकार इनकी शाखाएँ एक के ऊपर एक के क्रम में व्यवस्थित हो जाती है। जब इन शाखाओं की वृद्धि धीमी हो जाती है तो इनके सिरे ऊपर की ओर मुड़ जाते है। इन शाखाओं के मुड़ने वाले स्थान से ही नयी शाखा उत्पन्न होती है और यह प्रक्रिया निरंतर जारी रहती है। वृक्ष के उपरी सिरे की ओर इन शाखाओं की लम्बाई कम हो जाती है , क्योंकि इनके पर्व छोटे हो जाते है। इस प्रकार वृक्ष की आकृति पैगोडा अर्थात बौद्ध मन्दिरों के समान हो जाती है परन्तु बड़े वृक्षों की आकृति छात्राकार होती है , जैसे छटिन और सेमली।

(7) निलम्बी वृक्ष (dropping trees)

इस श्रेणी के वृक्षों को रूदन वृक्ष भी कहा जाता है क्योंकि इन वृक्षों की शाखाएँ निलम्बी अथवा लटकी हुई होती है। स्तम्भ का शाखन एकलाक्षी अथवा बहुलाक्षी प्रकार का हो सकता है। इस प्रकार के वृक्षों की शाखाएं पतली और कोमल होती है जो या निचे की ओर लटकती हुई होती है या फिर आड़ी अथवा बाहर की ओर वृद्धि करती है। इनकी शाखाएँ क्रमिक रूप से पतली होती जाती है तथा बहुत पतली हो जाने पर नीचे की तरफ झुकी हुई अथवा लटकती हुई दिखाई देती है , जैसे बाटल ब्रश और सेलिक्स में।