सारंगपुर का युद्ध कब हुआ था ? सारंगपुर का युद्ध किसके मध्य हुआ
कुम्भा की राजनैतिक उपलकियाँ
कुंमा की प्रारंभिक विजयें – महाराणा कुम्भा ने अपने शासनकाल के प्रारंभिक काल में स्थानीय और पड़ोसी राज्यों पर विजय प्राप्त कर अपनी शक्ति को बढ़ाया और राजस्थान में अपना नेतृत्व स्थापित किया इन विजयों से वह अपने साम्राज्य का विस्तार करके भावी आक्रमणों का प्रभावी ढंग से मुकाबला करना चाहता था।
पश्चिमी प्रदेशों की विजय
- आबू एवं सिरोही पर अधिकार
महाराणा कुंभा के पिता मोकल की हत्या के समय आबू सिरोही के देवड़ा चौहान सहसमल ने अपने राज्य की सीमा से लगने वाले मेवाड़ राज्य के कुछ गांवों पर अधिकार कर लिया था अतः कुंभा के लिए उन गांवों पर पुनः अधिकार करना आवश्यक था।
आबू सिरोही राज्य की भौगोलिक स्थिति भी मेवाड़ की सुरक्षा के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण थी गुजरात की तरफ से आक्रमण का मार्ग भी इधर से ही था अतः कुंभा के लिए आक्रमणकारी के मार्ग पर कब्जा करना आवश्यक था। कुंभा, भविष्य में नागौर तथा मारवाड़ क्षेत्र को भी अपने अधिकार में लेना चाहता था, इस हेतु भी इस राज्य क्षेत्र पर आधिपत्य होना आवश्यक था।
इन बातों को ध्यान में रखकर महाराणा ने डोडिया सरदार नरसिंह के नेतृत्व में मेवाड़ी सेना भेज दी जिसने आबू और उसके निकटवर्ती सिरोही के भागों को अपने अधिकार में ले लिया।
- मेवाड़ मारवाड़ मैत्री- हंसाबाई के भाई मारवाड़ के रणमल की मेवाड़ में हत्या हो जाने के बाद महाराणा कुंभा का विचार था कि यदि मारवाड़ पर जोवा का अधिकार सुरक्षित रहा तो वह संगठित होकर मेवाड़ पर आक्रमण कर सकता है अतः उसे संगठित नहीं होने देना है इसी अभिप्राय से महाराणा कुंभा ने चूण्डा को जोधा के राज्य पर आक्रमण करने के लिए भेजा। चूण्डा ने जोधा की राजधानी मण्डोर पर अधिकार कर लया तथा जोधा वहाँ से भाग कर काहुनी गांव में जाकर छुप गया।
जोधा ने मारवाड़ से दूर रहकर कई बार मण्डोर लेने का प्रयास किया, परन्तु उसे हर बार पराजित होना पड़ा। महाराणा कुंभा गुजरात तथा मालवा के अभियान में लगा हुआ था। यह अब मेवाड़ के मध्य मैत्री पूर्ण सम्बन्ध स्थापित करना चाहता था। हंसाबाई जो महाराणा की दादी थी, वे भी के मण्डोर पर अधिक समय तक अधिकार न रखा जाय। इन कारणों से मेवाड़ मारवाड़ में संधि हो गयी। जोधा ने अपनी पुत्री श्रृंगार देवी का विवाह महाराणा कुंभा के पुत्र रायमल के साथ करके, मैत्री सम्बन्धों को दृढ़ आधार प्रदान किया।
पूर्वी प्रदेशों की विजय – मेवाड़ के पश्चिमी क्षेत्र में अपना प्रभाव स्थापित करने के पश्चात् महाराणा कुंभा ने मेवाड़ के पूर्वी भाग में स्थित राज्यों से अपनी सीमाओं को सुरक्षित किया। पूर्वकाल में बूंदी के बैठे महाराणा कुंभा ने अपनी पोना भेजकर गागरोन बम्बावदा और माण्डलगढ़ पर अधिकार स्थाि मेवाड़ के सामन्त थे, लेकिन जब मेवाड़ में घरेलू संकट की स्थिति उत्पन्न हो गयी तब वे स्वतंत्र लिया बूंदी का शासक भी युद्ध में पराजित हुआ। महाराणा ने बंदी के शासक को अपने राज्य का रहने दिया तथा कर देने वाले राज्य का दर्जा प्रदान किया।
राज्य की सीमाओं पर पश्चिम में जोधा का राज्य तथा पूर्व में बूंदी का राज्य स्थित था जि मैत्री पूर्ण सम्बन्धों की स्थापना करके महाराणा ने कूटनीतिज्ञता का परिचय दिया।
महाराणा कुंभा एवं मालवा
दिल्ली में तुगलक वंश के समय से ही केन्द्रीय शक्ति कमजोर हो गयी थी, जिसके परिणामस्वरू कई प्रान्तीय शासको ने अपने अपने क्षेत्रों में स्वतंत्र राज्यों की स्थापना करती थी, जिनमें मेवाड़ के नि मालवा गुजरात एवं नागौर राज्यों की स्थापना हुई ये तीनों मुस्लिम राज्य मेवाड़ की बढ़ती हुई शक्ति बहुत चिंतित थे। उन्हें अपनी स्वतंत्रता को हर समय मेवाड़ से खतरे का अनुभव होता था।
संघर्ष के कारण –
- मालवा एवं मेवाड दोनों राज्य एक दूसरे के पीसी थे दोनों के शासक, महमूद खलजी एवं महाराणा अपने अपने राज्यों की सीमाओं का विस्तार करना चाहते थे इसलिए दोनों की महत्वाकांक्षाओं ने संघ स्थिति उत्पन्न कर दी।
- दूसरा, मुख्य कारण कुंभा द्वारा मालवा की अन्तरिक राजनीति में हस्तक्षेप करना था। 1435 ई0 में मा के सुल्तान होशंगशाह की मृत्यु हो गयी। उसके बाद वहाँ के महमूद खलजी नामक एक मंत्री ने 1436 में सुल्तान का पद हथिया लिया। मृतक सुल्तान का पुत्र उमरखी कुमा के पास मेवाड़ गया। कुंभा ने उ स्वागत सत्कार किया तथा मालवा का सिंहासन प्राप्त करने के लिए मेवाड़ की सैनिक सहायता प्रदान इस सैनिक सहायता से उमरखों ने सारंगपुर पर आक्रमण करके उस पर अधिकार कर लिया। तत्प मेवाड़ की सेना वापस लौट आयी सुल्तान महमूद खिलजी ने कुंभा की इस कार्यवाही को शत्रुतापूर्ण
- तीसरा कारण यह था कि कुंभा के कुछ विद्रोही सरदारों को मालवा सुल्तान ने अपने यहाँ पर जा प्रदान कर सम्मानित कर रखा था, जो सुल्तान को मेवाड़ के विरूद्ध उकसाते रहते थे। महाराणा कुंभा पिता की हत्या करने वालों को सुल्तान ने शरण दी जब उन्हें लौटाने को कहा गया तो उसने मना दिया। इन कारणों से दोनों राज्यों के शासकों में शत्रुता का उत्पन्न होना स्वाभाविक था।
सारंगपुर का युद्ध – महाराणा कुंभा ने महमूद खलजी के राज्य पर 1437 ई० में भीषण आक्रमण किये दोनों सेनाओं के मध्य सारंगपुर के पास जोरदार संघर्ष हुआ, जिसमें महमूद की सेना को परास्त होकर पड़ा। इस भागती हुई सेना का माण्डू तक कुंभा ने पीछा किया। महाराणा कुंभा ने मालवा के सुल्तान पकड़कर बंदी बनाने में सफलता प्राप्त की कुंभलगढ़ प्रशस्ति के अनुसार बन्दी बनाकर सुल्तान को चित्तौड़ से आया। इस विजय के उपलक्ष में महाराणा कुंभा ने ‘कीर्तिस्तंभ’ का निर्माण कराया। छः महिने सुलतान को बंदी बनाये रखने के बाद उसे स्वतंत्र कर मालवा भेज दिया गया। कर्नल टॉड, ओझा आदि इतिहासकारों ने सुल्तान को कुंभा द्वारा मुक्त करने की नीति की आलोचना की है। पहले भारतीय नरेशों ने इस प्रकार की भूलें की है, जिनका परिणाम ठीक नहीं निकला था। लेकिन गोपीनाथ शर्मा का मत है कि महाराणा कुंभा का यह कदम ठीक था क्योंकि मालवा जैसे दूरस्थ को अधिक समय तक अपने अधिकार में बनाये रखना एक कठिन कार्य था। यदि मालवा पर गु का आक्रमण हो जाता तो शुम्भा उससे मालवा पर अपना अधिकार कैसे सुरक्षित रख पाता और उ पैतृक राज्य भी असुरक्षित हो जाता। इसलिए महमूद को 6 माह बंदी बनाकर महाराणा ने सभी सोच-विचार किया था तथा तब उसे मुक्त करने का फैसला लिया था।
राजपूतों द्वारा कड़ा प्रतिरोध – सुल्तान महमूदशाह खलजी ने अपनी पराजय का बदला लेने के लिए 6 वर्ष के पश्चात् 1442 ई० में एक बड़ी सेना द्वारा कुमा के राज्य पर आक्रमण किया। उसने दीपसिंह 3. के मोर्चे को ध्वस्त करते हुए कुंभलगढ पर अधिकार कर लिया। तत्पश्चात् वह चित्तौड़ की ओर बढ़ा, जहाँ मेवाड़ के सैनिकों ने उसे खूब छकाया और सुल्तान बिना कुछ प्राप्त किये वापस लौटने को विवश हुआ।
तत्पश्चात् तीन वर्ष के बाद 1446 ई0 में सुल्तान पुनः कुंभा से माण्डलगढ़ छीनने हेतु सेना लेकर मेवाड़ की ओर बढ़ा बनास नदी पार करने पर राना एवं सुल्तान की सेना में युद्ध हुआ। सुल्तान को भारी हानि उठानी पड़ी और वह अजमेर की ओर आगे बढ़ गया। लौटते समय उसने पुनः चितौड़ पर अधिकार करने का प्रयास किया, जिसमें भी यह असफल रहा।
1456 ई0 में पुनः सुल्तान ने माण्डलगढ़ पर अधिकार करने का प्रयास किया, जिसमें उसे कोई सफलता नहीं मिली। इस प्रकार महमूद की मेवाड़ आक्रमण में भारी पराजय थी। राजपूत सेना के कड़े मुकाबले के कारण वह कुंभलगढ़ चित्तौड़गढ़ और माण्डलगढ़ को लेने में प्रत्येक बार असफल रहा। इन आक्रमणों में मेवाड़ की एक इंच भूमि भी नहीं गई यह महाराणा कुंभा के श्रेष्ठ सैन्य संगठन का परिणाम है।
इस प्रकार 1437 ई० में महाराणा कुंभा द्वारा पराजित एवं अपमानित मालवा के सुल्तान ने 1442 1. ई0 से 1456 ई० तक अपनी पराजय का बदला लेने के उद्देश्य से अनेक बार विभिन्न प्रकार के प्रयास किये लेकिन वह सभी में असफल हुआ।
महाराणा कुंभा एवं गुजरात
दिल्ली में केन्द्रीय शक्ति की दुर्बलता का लाभ उठाकर स्वतंत्र हुए गुजरात के सुल्तान अहमदशाह 1433 ई० में मेवाड़ पर आक्रमण किया था, जिसका मुकाबला करने के लिए महाराणा मोकल सेना सहित गुजरात की ओर जा रहे थे मार्ग में जीलवाड़ा स्थान पर उनकी हत्या हो गयी थी उस समय • से ही गुजरात, मेवाड़ पर आक्रमण की नीति का पालन करता आ रहा था।
1442 ई० में अहमदशाह की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्रं मुहम्मदशाह द्वितीय सुल्तान बना 1451 ई० में इसकी भी मृत्यु हो गयी। तत्पश्चात् 1451 ई0 से 1459 ई0 तक कुतुबुद्दीन गुजरात का सुल्तान बना तत्पश्चात् महमूद बेगड़ा शासक बना। इस प्रकार महाराणा कुंभा को गुजरात के कई सुल्तानों से संघर्ष करना पड़ा
संघर्ष के कारण
- नागौर की राजनैतिक स्थिति – राजस्थान के पश्चिमी भाग में स्थित नागौर राज्य पर फिरोजख का अधिकार था 1451-62 ई0 में इसकी मृत्यु हो गयी तथा उत्तराधिकार हेतु संघर्ष छिड़ गया। फिरोजखों के भाई मुजाहिद खाँ ने फिरोज के पुत्र शम्सखों को पराजित कर नागौर से भगा दिया।
शम्सखी, महाराणा कुंभा की शरण में पहुँचा और सैनिक सहायता के लिए प्रार्थना की। कुंभा को नागौर राज्य पर मेवाड़ का प्रभाव स्थापित करने का अच्छा अवसर हाथ लगा। फिर भी शम्सखों को उसने मेवाड़ की सहायता इस शर्त पर देना स्वीकार कर लिया कि वह नागौर के दुर्ग की किलेबन्दी नहीं करेगा।
कुंभा मेवाड़ की सेना के साथ शम्सखी को लेकर नागौर की ओर बढ़ा और जब यह सूचना मुजाहिद खाँ को मिली तो वह अपने प्राणों की रक्षा के लिए मालवा के सुल्तान की शरण में चला गया। शम्सखों को कुंभा ने नागौर का शासक बनाया तथा अपनी सेना सहित मेवाड़ लौट आया कुंभा के लौटने के पश्चात् शम्सखों ने कुम्भा से प्रारंभ में जो संधि स्वीकार की थी कि वह नागौर के किले की किलेबन्दी नहीं करेगा, उसका वह उल्लंघन करने लगा। परिणामस्वरूप कुंभा ने उसे सबक सिखाने का निश्चय किया।
- नागौर एवं गुजरात में कुंभा के विरूद्ध संगठन – संधि की शर्तों का पालन नहीं करने कुद्ध महाराणा कुंभा ने नागौर की ओर प्रस्थान किया। राणा के सैनिक प्रयाण की सूचना शम्सखाँ, गुजरात के सुल्तान कुतुबुद्दीन से सहायता प्राप्त करने के लिए अहमदाबाद पहुँचा अपनी पुत्री का विवाह सुल्तान कुतुबुद्दीन से कर दिया, ताकि वह उसके अनुकूल बन सके। ॥ शम्सखों की सहायता के लिए गुजरात की सेना को नागौर की ओर प्रस्थान करने का आदेश नागौर एवं गुजरात की पराजय इस प्रकार शम्सखों गुजरात की सेना के साथ नागौर में कुंभा से टक्कर लेने आ पहुँचा। कुंभा के शक्तिशाली आक्रमण को शाराखी तथा गुजरात सेना सकी और अपने प्राणों की रक्षा के लिए युद्ध भूमि से भाग छूटी कुंभा के हाथों गुजरात की पराजय अत्यन्त महत्वपूर्ण थी। इससे कुंभा की प्रतिष्ठा में भारी वृद्धि हुई तथा सुल्तान की इ में मिल गयी।
- गुजरात द्वारा आक्रमण – अपनी खोयी हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करने के लिए कुतुबुद्दीन ई० में एक विशाल सेना के साथ चित्तौड़ की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में स्थित सिरोही के देवता को भी, जो मेवाड़ के कुंभा से सुल्तान की सहायता से आबू प्राप्त करना चाहता था. अपनी तरफ लिया और दोनों ने संयुक्त रूप से कुंभा पर आक्रमण कर दिया कुंभा की सेना की प्रहारक इतनी अधिक थी कि ये परास्त होकर युद्ध भूमि से भाग छूटे सुल्तान पर पराजय का कलंक लग किसी तरह कम करने के लिये यह मेवाड़ की राजधानी क्षेत्र को छोड़कर कुंभलगढ़ के ऊपर करने के उद्देश्य से आगे बढ़ा।
इस समय महाराणा कुंभा, माण्डलगढ़ क्षेत्र सेवा के सुल्तान को खदेड़ने में लगा हु फिर भी कुतुबुद्दीन के कुंभलगढ़ पहुँचने से पहले ही वह वहाँ पहुँच गया। आश्चर्यचकित कुतुबुद्दी से मोर्चा संभाल भी न पाया था कि राजपूत सरदारों ने उन्हें अपने प्राणों की रक्षा करने के इधर-उधर भागने के लिए विवश कर दिया बुतुबुद्दीन गुजरात लौटने को बाध्य हुआ।
- मालवा- गुजरात गठबंधन – पराजित एवं अपमानित गुजरात का सुल्तान जब वापस लौट था तो उससे मार्ग में मालवा के सुल्तान का दूत ताजखी मिला, जिसने कहा कि यदि मालवा और गु साथ मिलकर मेवाड़ पर आक्रमण करें तो मेवाड़ की शक्ति को नष्ट किया जा सकता है दोनों सुल्तान एक होकर संयुक्त रूप से कुंभा के विरूद्ध प्रभावी कार्यवाही करने की योजना बना उन्होंने युद्ध में विजय प्राप्त करने के पश्चात् मेवाड़ के दक्षिणी भाग पर गुजरात का अधिकार भाग पर मालवा का अधिकार स्वीकार करके मेवाड़ के क्षेत्रों का आपस में बंटवारा करने की ध यह संधि चम्पानेर की संधि कहलाती है। यह संधि 1451 ई. के आस-पास की गई।
मालवा- गुजरात की सेनाओं का संयुक्त आक्रमण – मेवाड़ के दक्षिणी भाग पर तथा मालया के सुल्तान ने मालवा की तरफ के मेवाड़ क्षेत्र पर संधि के अनुसार गुजरात के में आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण के परिणाम के विषय में मुस्लिम इतिहासकार सुल्तानो बताते हैं, लेकिन फिर उनको क्या मिला ? क्या ये चापानेर की संधि के अनुसार कुंभा के भागों पर अपना अधिकार स्थापित कर सके, और यदि अधिकार करते तो ये मुस्लिम लेखक उल्लेख करते। अतः राजस्थानी स्रोत ही युद्ध के परिणाम का सही-सही उल्लेख करते हैं। प्रशस्ति रसिकप्रिया में दोनों सुल्तानों की करारी हार का उल्लेख है। संभवतः ये सुल्तान ए प्रति अविश्वासी बने रहे।
इस प्रकार गुजरात के सुल्तान कुतुबुद्दीन ने मेवाड़ पर बार-बार आक्रमण किया परन्तु राजपूत सैनिकों से भारी शिकस्त ही मिली 1459 ई० में उसकी मृत्यु हो गयी। कुंभा को एक में इन सुल्तानों की पृथक-पृथक सेनाओं से युद्ध करना पड़ा और इस प्रकार के संघर्ष में स्वतंत्रता की रक्षा करने में सफल रहा। यह उसकी बहुत बड़ी उपलब्धि थी।