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सामाजिक धार्मिक जीवन पर भक्ति और सूफी आंदोलन का प्रभाव bhakti movement and sufi movement in india
bhakti movement and sufi movement in india in hindi सामाजिक धार्मिक जीवन पर भक्ति और सूफी आंदोलन का प्रभाव क्या हुआ विस्तार में समझे ?
सामाजिक-धार्मिक जीवन पर भक्ति और सूफी आंदोलन का प्रभाव
संतों तथा सूफियों के प्रयासों से जो भक्ति एवं सूफी आंदोलन आरंभ हुए उनसे मध्य भारत के सामाजिक एवं धार्मिक जीवन में एक नवीन शक्ति एवं गतिशीलता का संचार हुआ। भक्ति आंदोलनों के परिणामों में प्रमुख थे भक्ति के प्रति आस्था का विकास, लोक भाषाओं में साहित्य रचना का आरंभ, इस्लाम के साथ सहयोग के परिणामस्वरूप सहिष्णुता की भावना का विकास जिसके कारण जाति-व्यवस्था
के बंधनों में शिथिलता आई और विचार तथा कर्म दोनों स्तरों पर समाज का उन्नयन। जहां तक सूफीवाद का संबंध है, इसमें उन तत्वों (सृजनात्मक, सामाजिक और बौद्धिक शक्तियों) को अपनी ओर आकृष्ट किया जो सामाजिक और सांस्कृतिक क्रांति के वाहक के रूप में उभरकर सामने आए। तुर्की आधिपत्य के काल में जब देश का जगजीवन घुटन का अनुभव कर रहा था तब सूफी खानकाह ने सामाजिक संदेश फैलाने एवं सुधारवादी राजनीति का उन्माद पैदा करने का काम किया।
प्रश्न उठता है कि क्या ये संत सचमुच एक सामाजिक व धार्मिक क्रांति ला सके? संतों को समाज की आर्थिक व धार्मिक विषमताएं असहनीय थीं क्योंकि उन्होंने मानवीय एकता को पहचान लिया था। उनका मुख्य उद्देश्य भक्ति था और इसके रास्ते में आने वाले बंधनों का चाहे वह धर्म, समाज, वग्र अथवा सांप्रदायिकता के ही क्यों न हों, उन्होंने डटकर मुकाबला किया। उन्होंने जन-समाज को न केवल ईश्वर के प्रेम से परिचित कराया अपितु धार्मिक व सामाजिक और राजनीतिक कलह से पिसती जनता को प्रेरित कर नवीन स्फूर्ति प्रदान की। मध्यकालीन भक्तों ने सफलतापूर्वक समाज और धर्म से बनी खाइयों को अपनी मधुर वाणियों से पाटा तथा व्यक्तिगत चरित्र व चिंतन को सामाजिक व धार्मिक परम्पराओं से अधिक महत्व दिया।
सामाजिक स्तर पर भी संतों का प्रभाव सराहनीय था। भले ही वे जाति-प्रथा को जड़ से न उखाड़ सके तथापि इसके विरोध ने यह सिद्ध कर दिया कि रामानंद निम्न वर्गें के व्यक्तियों को गुरुमंत्र देकर भी अमर हो गए, कबीर ठोकर खाकर भी उनके शिष्य बने, रविदास ने चमार होकर भी ब्राह्मण के साथ भोजन ग्रहण किया, भगवान ने जाट धन्ना का अन्न ग्रहण किया, नामदेव के लिए मंदिर का द्वार ही घूम गया और नाईसेन के स्थान पर स्वयं भगवान राजा की सेवा कर गए। इन क्रांतिकारी संतों ने ऊंचे स्वर में घोषणा करते हुए अपने व्यक्तिगत जीवन एवं आचरण से सिद्ध कर दिया कि मानव अपने सत्कर्मों एवं प्रयत्नों से महान होता है चाहे वह किसी भी कुल या व्यवसाय का हो।
पारिवारिक और आर्थिक कष्ट दूर करने के लिए संतों ने दूसरों पर आश्रित या परजीवी रहने वालों का विरोध किया। इसी प्रकार राजनीतिक क्षेत्र में शासकों से टक्कर लेने की क्षमता उन संतों में भले ही पर्याप्त न रही हो परंतु नैतिक तौर पर एक अजीब शक्ति को इन संतों ने प्रोत्साहित किया जिसके लक्षण आगे चलकर मराठों व सिक्खों के आंदोलन में दिखाई देते हैं। एक बेहद महत्वपूर्ण बात है कि बहुत-से मध्यकालीन निर्गुण संत निम्न वग्र के थे और इसी में इनको लोकप्रियता मिली। आज के युग में सब तरह के वग्र उनके उपदेशों की भले ही सराहना करते रहैं, परंतु अपने युग में उनकी सफलता समाज के गिने चुने वर्गें में ही थी। हिंदुओं एवं मुसलमानों के उच्च वर्गें ने अपने आप को उनके प्रभाव के दायरे से बाहर रखा।
इन संतों के अनुयायियों के सामाजिक ढांचे के हमें प्रत्यक्ष प्रमाण मिलते हैं। आरंभ में इस आंदोलन का व्यापक प्रभाव निम्न वग्र के ऊपर पड़ता रहा है। संभवतः बौद्ध धर्म के पतन के पश्चात् भक्ति आंदोलन जैसा सशक्त देशव्यापी आंदोलन हमारे देश में कभी नहीं हुआ। जैसाकि देखा जा चुका है, इसने हमारे इतिहास को अनेक रूपों से प्रभावित किया। भक्ति आंदोलन के सभी प्रतिपादकों और समर्थकों ने अपने उपदेश जनभाषाओं में प्रतिपादित किए। ऐसा करने के कारण उनका जनता से संपर्क अधिक बढ़ा है। साथ ही इस ढंग से वे जनभाषाओं और उनके साहित्य की समृद्धि का माध्यम भी बने हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से इस आंदोलन ने सभी ललित कलाओं को प्रेरित करने के साथ-साथ उनके ऊपर अपनी अमिट छाप छोड़ी है।
महाराष्ट्र तथा पंजाब में इस आंदोलन का सामाजिक-धार्मिक और यहां तक कि राजनीतिक प्रभाव देखा जा सकता है। इस आंदोलन में विशिष्ट सामाजिक विचारधाराएं तथा जीवन मूल्य निहित थे और यह देश के विभिन्न वर्गें के बीच सामंजस्य और सहयोग की भावना से प्रेरित था। भक्त संतों को इस बात का भी श्रेय प्राप्त है कि एक ईश्वर और सामाजिक समता की भावना पर जोर देकर उन्होंने सामंतवादी राजनीतिक विचारधारा को चुनौती दी। यह ध्यान देने की बात है कि निर्गुण संतों की सामंतवादी धारणा ने, मुस्लिम धर्म स्वीकार कर लेने वाले हिंदुओं को संतुलित स्तर पर हिंदू भक्त के रूप में पुनः धर्म परिवर्तन करने के लिए आधार प्रस्तुत किया।
कहा जा सकता है कि कुछ सीमाओं के बावजूद इस आंदोलन की उपलब्धियां विलक्षण थीं। अपने संदेश के माध्यम से वे समाज के शांतिपूर्वक रूपांतरण के लिए आधार प्रस्तुत करते रहे थे। पूजा-अर्चना पद्धति का सरलीकरण करके तथा जाति व्यवस्था की जटिलता को समाप्त करके वे धर्म को वैयक्तिक अनुभव का विषय बनाने का प्रयास कर रहे थे। इसमें ईश्वर के प्रति आस्थावान प्रत्येक व्यक्ति शामिल हो सकता था। यह सच बात है कि महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, तथा बंगाल में धर्मोपदेशकों के अलग-अलग प्रयासों द्वारा हिंदू-मुस्लिम संस्कृतियों के प्रतिकूल स्वरूप का परिशोधन किया गया। 14वीं शताब्दी से ही हिंदू-मुस्लिम धर्मों के उन तत्वों का तर्कसंगत विरोध आरंभ हो गया जो सांप्रदायिक सामंजस्य तथा स्वाभाविक सहानुभूति के माग्र में बाधास्वरूप खड़े थे।
संतों के इस संदेश का जनता में काफी स्वागत हुआ। बाबर ने विशिष्ट हिंदुस्तानी ढंग को देखा, सराहा और अकबर ने इस भावना को आगे बढ़ाया।
निश्चय ही मुगलों ने ऐसे देश पर शासन किया था जिस पर संतवाणी के प्रभाव की स्पष्ट छाप थी। अकबर का दीने-इलाही किसी निरंकुश शासक की ऐकांतिक सनक नहीं थी अपितु यह उन अवश्यंभावी शक्तियों का स्वाभाविक परिणाम था जो भारत के जनमानस में सागर की तरह उमड़ रही थीं और जो कबीर तथा नानक जैसे संतों की वाणी में मुखरित हो रही थीं।
भारत में सूफीमत का प्रभावः इस्लाम में सूफीमत का विकास किसी धर्म में होने वाले रहस्यवादी आंदोलन की सफलता तथा लोकप्रियता का महत्वपूर्ण और दिलचस्प इतिहास है। ‘रहस्यवाद’ और ‘वैराग्य’ शायद रूढ़िवादी परमार्थ विद्या के दो विकल्प थे जबकि सूफीवाद मूलतः दार्शनिक व्यवस्था पर टिका था। इस दार्शनिक व्यवस्था के कारण ही सूफीवाद ने इस्लाम की कट्टरता को तिलांजलि देकर रहस्यवाद की आंतरिक गहराई से समझौता कर लिया। जिस प्रकार धार्मिक विचारकों ने कुरान तथा इजमा के आधार पर अपने सिद्धांतों की व्यवस्था दी है उसी प्रकार सूफियों ने भी अपना रास्ता कुरान तथा सुन्नत के भीतर से ही निकाला है परंतु उनके माग्र व दिशा (तरीकत) हमेशा शरीअत से मेल नहीं खाते।
सूफियों द्वारा प्रतिपादित रहस्यवाद एवं प्रेम तत्व में हम पाते हैं कि सूफीमत का इस्लाम से अनेक मुद्दों पर गहरा मतभेद है। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि प्रायः सभी सूफी मुसलमान थे और साथ ही वे अपने सिद्धांतों का विवेचन करते समय इस्लाम को अपनी आंखों से ओझल नहीं होने देते थे। यद्यपि अपने विचारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति करते समय उन्हें कष्ट तथा यातनाएं उठानी पड़ती हैं तथापि वे अपने कार्य से पीछे नहीं हटते हैं। कुछ भी हो, सभी विरोधों एवं विरोधाभासों के होते हुए भी सूफीमत इस्लाम धर्म की ओर उन्मुख रहा है। इस्लाम ने भी सूफीमत को उदारता से स्वीकार किया है और वह उसकी महत्वपूर्ण प्रेम दृष्टि को पर्याप्त आदर देता है।
भारत में विभिन्न सूफी सिलसिलों की एक महत्वपूर्ण बात यह रही है कि उसमें आपस में कोई ईष्र्या तथा मुकाबले की भावना नहीं थी। पारस्परिक आदर तथा समझौता उनका मुख्य आधार था। हिंदुओं की तरह जाति-भेद में न पड़कर कोई भी मुसलमान किसी भी ‘सिलसिले’ में दीक्षित हो सकता था। इस कारण भी आध्यात्मिक एवं सामाजिक तौर पर पीरों का प्रभाव समान रूप में रहा। भारत वर्ष में दिल्ली, अजमेर, मुल्तान, सिंध, फतेहपुर सीकरी, तथा दक्षिण भारत इत्यादि स्थानों पर सूफी संतों के समाधि स्थान विभिन्न लोगों से प्रतिष्ठा प्राप्त करते रहे हैं।
कुरान में तौहीद तथा एकेश्वरवाद पर जोर है, परंतु सूफी परमात्मा को सृष्टि के कण-कण में व्याप्त पाते हैं तथा ईश्वर को एक व्यापक सत्ता के रूप में स्वीकार करते हैं। सूफी साधना का मूलाधार ईश्वर को प्रेम द्वारा पाना है। इस प्रेम माग्र में साधक के समक्ष अनेक कठिनाइयां आती हैं। इस्लाम में संगीत की प्रतिष्ठा न होते हुए भी सूफियों ने इसे ईश्वर को पाने में महत्वपूर्ण साधन माना है। गिजामुद्दीन के विचार में संगीत ईश्वरीय प्रेम एवं सौंदर्य से साक्षात्कार करने का अनूठा माध्यम है। कीर्तन और नृत्य की भावुक अवस्था में हृदय प्रभु को पाने के लिए अजीब शक्ति पा लेता है। भारतीय भक्ति भावना से भी सूफी परम्परा में संगीत को प्रोत्साहन मिला है।
कुल मिलाकर, इतना कहा जा सकता है कि भक्ति-आंदोलन तथा सूफी-साधना दोनों ने ही ईश्वरीय प्रेम के द्वारा मानवता का पथ प्रशस्त किया है। संतों का मन निर्मल होता है और जो सिद्धांत उन्हें अपने लक्ष्य की ओर ले जागे में उपयुक्त प्रतीत होते हैं उन्हें वे निःसंकोच भाव से ग्रहण कर लेते हैं। भारतीय संस्कृति एवं साधना के संपर्क में आने पर सूफियों ने इस संस्कृति से बहुत-कुछ ग्रहण किया। नाथपंथी साधकों, योगियों आदि का प्रभाव तो इन पर जगह-जगह देखा जा सकता है।
भारतीय इतिहास में मध्यकालीन युग प्रारंभ से ही संघर्षों का युग कहा जा सकता है। इस्लाम के आगमन के बाद इस देश की जनता एवं शासकों के लिए अनिवार्य था कि परस्पर सहयोग और समन्वय की भावना को महत्व दिया जाए। इसी विचारधारा के परिणामस्वरूप कबीर, नानक आदि संतों का प्रादुर्भाव हुआ था। इन संतों ने कुप्रथाओं, आडंबरों एवं पृथकतावादी तत्वों का विरोध करते हुए पारस्परिक सहयोग का उपदेश दिया। यह अक्सर मान लिया जाता है कि हिंदू समाज के पिछड़े वर्गें को इस्लाम ने धर्म परिवर्तन का नवीन अवसर दिया परंतु सच्चाई यह है कि उनके मुसलमान होने पर भी उनकी सामाजिक तथा धार्मिक अवस्था में कोई खास परिवर्तन नहीं आया। सच तो यह है कि सूफीमत और सूफियों ने ही इस्लाम को बदलते हुए सामाजिक तथा धार्मिक वातावरण में रहने की शक्ति प्रदान की थी। यह सूफियों का ही प्रयत्न था कि इस्लाम धर्म में उदार तथा गतिशील तत्वों को प्रेरणा मिली। आगे चलकर यही प्रेरणा भारत में हिंदू-मुसलमानों के पारस्परिक सहयोग के लिए लाभदायक सिद्ध हुई। मध्यकालीन भारतीय सूफियों ने एक महत्वपूर्ण कार्य यह भी किया कि वे अधिक से अधिक जनसाधारण के संपर्क में आए। मुइनुद्दीन चिश्ती ने गरीबों और दुखियों की सेवा को उच्च कोटि की भक्ति माना था। उनका कहना था कि समाज में रहकर समाज के कष्टों का निवारण ही ईश्वर-प्रेम का एक सच्चा तरीका है। बाबा फरीद और गिजामुद्दीन औलिया जैसे महान संतों ने अपना उद्देश्य केवल अपनी आध्यात्मिक उन्नति तक ही सीमित नहीं रखा, अपितु उनका यह निरंतर प्रयास था कि अपने ज्ञान तथा तजुर्बे द्वारा समाज तथा मानव को कल्याण का माग्र दिखाया जाए। बलबन जैसे शासकों ने भले ही निम्न वग्र के व्यक्ति से बात करना उचित न समझा हो परंतु उसके अपने ही राज्य में सूफियों ने जनसाधारण के कल्याण के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
भारत में खानकाहों का उदार वातावरण हिंदू और मुसलमान दोनों को ही प्यार देने में सफल रहा। यही नहीं, सूफियों ने अहिंसा और शांति से समस्याएं सुलझाने के लिए जनता को प्रेरित भी किया। गिजामुद्दीन औलिया ने सामाजिक तनाव को कम करने के लिए जनता का ध्यान बार-बार भाई.चारे की ओर आकृष्ट किया और अपने शिष्यों को निरंतर सामाजिक उत्तरदायित्व की याद दिलाई।
मध्यकालीन युग में बढ़ते हुएशहरीकरण से बहुत-सी बुराइयां उत्पन्न हो गई थीं। अमीर खुसरो ने ‘किरान-उस-सादौन’ में और बरनी ने अपनी पुस्तक ‘तारीख-ए-फिरोजशाही’ में जमाखोरी, दास प्रथा, कालाबाजारी, शराब, वेश्यावृत्ति आदि अनेक सामाजिक बुराइयों का वर्णन किया है जो शायद अमीर वर्गें के धन से बढ़ रही थीं। ऐसी स्थिति में सूफी संतों ने प्रचार तथा खानकाहों के माध्यम से मनुष्य की कमजोरियों और सांसारिक आकर्षणों की निंदा करते हुए समाज सुधार का प्रयत्न किया।
यह सूफीमत का ही प्रभाव था कि उर्दू-काव्य में प्रायः मंदिर-मस्जिद, हिंदू-मुसलमान आदि का भेदभाव दृष्टिगत नहीं होता है क्योंकि सूफी साहित्य इस्लामी शरीअत का नहीं, अपितु मनुष्य मात्र की एकता का प्रतिपादक रहा है।
सूफी संतों ने जनता को यही संदेश दिया है कि मनुष्य-मनुष्य के बीच भेदभाव की दीवार व्यर्थ है। सभी मानव समान हैं तथा उन्हें प्रेम से गले लगाना चाहिए। सभी धर्मों का लक्ष्य विभिन्न साधनों द्वारा एक ही स्थान पर पहुंचना है। सूफी संतों ने सामूहिक जीवन को एक नए धरातल पर ढालने की कोशिश करते हुएएक ऐसे समाज की कामना की, जिसमें प्रत्येक वग्र के लोग अपनी मानसिक तथा आध्यात्मिक उन्नति का पूर्ण अवसर पा सकें।
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