WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

संविधान सभा का निर्माण कैसे हुआ किसने किया ? संविधान सभा की कुल समितियां कार्य का विचार सर्वप्रथम किसने दिया

संविधान सभा की कुल समितियां कार्य का विचार सर्वप्रथम किसने दिया ? संविधान सभा का निर्माण कैसे हुआ किसने किया ?

संविधान का निर्माण
संविधान सभा
किसी प्रभुता संपन्न लोकतांत्रिक राष्ट्र की संविधान-रचना का कार्य सामान्यतया उसकी जनता के प्रतिनिधि-निकाय द्वारा किया जाता है। संविधान पर विचार करने तथा उसे अंगीकार करने के लिए जनता द्वारा चुने गए इस प्रकार के निकाय को सविधान सभा कहा जा सकता है।
संविधान सभा की सकल्पना भारत मे सदैव राष्ट्रीय आदोलन के विकास के साथ जुडी रही है। ऐसी संविधान सभा का विचार, जिसके द्वारा भारतीय स्वय अपने देश के लिए सविधान का निर्माण कर सके, 1919 के एक्ट के विरोध में अतर्निहित था। किंतु, भारत की सविधान सभा का निश्चित उल्लेख, भले ही वह इन शब्दों में या इस नाम विशेष से न हो, पहली बार भाग्न शामन एक्ट, 1919 के लागू होने के ठीक बाद 1922 मे महात्मा गांधी ने किया था।
1922 मे ही, श्रीमती एनी बेसेट की पहल पर केंद्रीय विधानमडल के दोनों सदनो के सदस्यो की एक मयुक्त बैठक शिमला में आयोजित की गई थी। उसने सविधान के निर्माण के लिए एक सम्मेलन बलाने का निर्णय किया। इसके अलावा, फरवरी, 1923 में दिल्ली में एक अन्य सम्मेलन का आयोजन किया गया। उसमें केंद्रीय तथा प्रांतीय विधानमंडलों के सदस्यों ने हिस्सा लिया। इस सम्मेलन ने भारत को ब्रिटिश साम्राज्य की स्वशासी डोमिनियनों के ममतुल्य रखते हुए संविधान के आवश्यक तत्वो की रूपरेखा प्रस्तुत की। 21 अप्रैल को सर तेज बहादुर सपू की अध्यक्षता मे एक ‘राष्ट्रीय सम्मेलन‘ बुलाया गया। इस सम्मेलन ने ‘कामनवेल्थ आफ इडिया बिल‘ का प्रारूप तैयार किया। प्रारूप बिल, थोडे से सशोधित रूप मे जनवरी, 1925 में दिल्ली में हुए सर्वदलीय सम्मेलन के समक्ष पेश किया गया। उसकी अध्यक्षता महात्मा गांधी ने की थी। अंततः बिल प्रारूप-समिति को सौप दिया गया। समिति ने बिल को प्रकाशित किया। इसके बाद, बिल ब्रिटेन में लेबर पार्टी के एक प्रभावशाली सदस्य के पास भेज दिया गया। उसके साथ विभिन्न राजनीतिक दलों के 43 नेताओं के हस्ताक्षरों से युक्त एक ज्ञापन लगाया गया था। लेबर पार्टी में इसे व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ और थोड़े से रूपभेद के साथ इसे पार्टी के द्वारा स्वीकार कर लिया गया। हाउस आफ कामंस में बिल पेश होने के बाद इसकी पहली रीडिंग हुई। हालांकि लेबर पार्टी की सरकार की पराजय के बाद इस विधेयक का भविष्य अधर में लटक गया, फिर भी यह भारतीयों द्वारा शांतिपूर्ण तथा संवैधानिक साधनों की मदद से भारत के लिए एक संवैधानिक प्रणाली की रूपरेखा प्रस्तुत करने का एक प्रमुख प्रयास था।
1924 तथा 1925 में राष्ट्रीय माग के संबंध में मोतीलाल नेहरू के प्रसिद्ध प्रस्ताव का स्वीकार किया जाना एक ऐतिहासिक घटना थी क्योंकि केंद्रीय विधानमंडल ने पहली बार इस बढ़ती हुई मांग का समर्थन किया कि भारत का भावी संविधान भारतीयों द्वारा स्वयं बनाया जाना चाहिए।
नवंबर, 1927 में, जब साइमन आयोग नियुक्त किया गया, जिसमें कोई भी भारतीय प्रतिनिधि नहीं था, इलाहाबाद मे हुई एक सर्वदलीय बैठक में कहा गया था कि ऐसा करके न केवल ‘राष्ट्रीय मांग‘ को वस्तुतया ठुकरा दिया गया है बल्कि यह भारतीयों का जानबूझकर अपमान करने के बराबर है, क्योंकि इसने न केवल “उनकी स्थिति को निकृष्ट बना दिया हैष् बल्कि उन्हें “अपने ही देश के संविधान के निर्माण में भाग लेने के अधिकार से भी वंचित कर दिया है।‘‘
इससे पहले 17 मई, 1927 को, कांग्रेस के बंबई अधिवेशन में मोतीलाल नेहरू ने एक प्रस्ताव पेश किया था। उसमें कांग्रेस कार्यकारिणी समिति से केंद्रीय तथा प्रांतीय विधानमडलों के निर्वाचित सदस्यों तथा राजनीतिक दलों के नेताओं के परामर्श से भारत के लिए एक संविधान का निर्माण करने का आह्वान किया गया था। यह प्रस्ताव कुछ संशोधनों के साथ भारी बहुमत से स्वीकार किया गया था। बाद में, स्वराज संविधान के संबंध में इसी प्रस्ताव को जवाहरलाल नेहरू ने 28 दिसबर, 1927 को कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन में परिवर्तित रूप में पेश किया और प्रस्ताव पुनः पारित हुआ। 19 मई, 1928 को बंबई में आयोजित सर्वदलीय सम्मेलन ने “भारत के संविधान के सिद्धांत निर्धारित करने के लिएष् मोतीलाल नेहरू के सभापतित्व में एक समिति नियुक्त की। 10 अगस्त, 1928 को पेश की गई समिति की रिपोर्ट नेहरू रिपोर्ट के नाम से प्रसिद्ध हुई। यह भारतीयों द्वारा अपने देश के लिए सर्वांगपूर्ण संविधान बनाए जाने का प्रथम प्रयास था। कूपलैंड ने इसके बारे में कहा है कि वह “न केवल इस चुनौती का जवाब है कि भारतीय राष्ट्रवाद रचनात्मक नहीं है बल्कि भारतीयों द्वारा सांप्रदायिकता की चुनौतियों का ईमानदारी से मुकाबला करने के लिए किया गया एक सच्चा प्रयासष् है। रिपोर्ट में न केवल समकालीन राष्ट्रवादी विचारधारा का दृष्टिकोण परिलक्षित होता था बल्कि भारत के संविधान के प्रारूप की एक रूपरेखा भी समाविष्ट थी। भारत के संविधान का प्रारूप डोमिनियन के सिद्धात पर आधारित था। उसमें ससदीय प्रतिरूप के अनुसार पूर्णरूपेण उत्तरदायी सरकार का उपबंध था। इसमें इस सिद्धांत का दृढ़तापूर्वक उल्लेख किया गया था कि प्रभुसत्ता भारतीय जनता में वास करती है। इसमें कुछ मूल अधिकारो की व्यवस्था रखी गई थी तथा एक ऐसी संघीय प्रणाली का उपबंध किया गया था जिसमें इकाइयो को अधिक से अधिक स्वायत्तता दी गई थी किंतु अवशिष्ट शक्तिया केद्रीय सरकार में निहित की गई थीं। इसके अलावा, इसमें सघीय निम्न सदन तथा प्रातीय विधानमंडलो के चुनावो के लिए सयुक्त निर्वाचन क्षेत्रों का उपबध किया गया था तथा कतिपय मामलों में अल्पसंख्यको के लिए एक सीमित अवधि के लिए स्थान आरक्षित किए गए थे।
ध्यान देने की बात है कि ससद के प्रति उत्तरदायी सरकार, अदालतों द्वारा लागू कराए जा सकने वाले मूल अधिकार, अल्पसख्यको के अधिकार सहित मौटे तोर पर जिस ससदीय व्यवस्था की संकल्पना 1928 की नेहरू रिपोर्ट में की गई थी। उसे लगभग ज्यों-का-त्यो 21 वर्ष बाद, 26 नवबर, 1949 को सविधान सभा द्वारा अगीकार किए गए स्वाधीन भारत के संविधान में समाविष्ट किया गया।
तीसरे गोलमेज सम्मेलन के बाद जारी किए गए श्वेतपत्र मे भारत मे संवैधानिक सुधारो के लिए ब्रिटिश सरकार के प्रस्तावो की रूपरेखा दी गई थी। इन प्रस्तावो पर विचार करने वानी सयुक्त संसदीय समिति का मत था कि “फिलहाल भारत मे प्राधिकारियो को विशिष्ट सविधायी शक्ति प्रदान करने का प्रस्ताव व्यवहार्य नहीं है।‘‘
जून, 1934 मे, काग्रेस कार्यकारिणी ने घोषणा की कि श्वेतपत्र का एकमात्र विकल्प यह है कि वयस्क मताधिकार के आधार पर निर्वाचित मविधान सभा द्वारा एक सविधान तैयार किया जाए। यह पहला अवसर था जव मविधान सभा के लिए औपचारिक म्प से एक निश्चिन माग पेश की गई थी। अखिल भारतीय काग्रेम कमेटी की कार्यकारिणी ने 5-7 दिसबर, 1931 को पटना में हुई अपनी बैठक में एक प्रस्ताव स्वीकार किया जिसके द्वारा सयुक्त ससदीय समिति (1933-31) की रिपोर्ट मे अनुशंसित भारतीय संवैधानिक सुधार की योजना को ठुकरा दिया गया तथा इस मन को टोहगया गया कि इस योजना का एकमात्र विकल्प यही है कि सविधान सभा एक सविधान तैयार करे।
साइमन आयोग तथा गोलमेज सम्मेलन की जिस विफलता के कारण, भारतीय आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए, भारत शासन एक्ट, 1935 बनाया गया, उसने भाग्न की जनता के लिए सविधान सभा की माग को वल प्रदान किया। काग्रेस ने अप्रैल, 1936 में अपने लखनऊ अधिवेशन में एक प्रस्ताव स्वीकार किया। उसमे उसने घोषणा की कि किसी बाहरी सत्ता द्वारा थोपा गया कोई भी सविधान भारत स्वीकार नहीं करेगा। सविधान भारत की जनता द्वारा वयस्क मताधिकार के आधार पर निर्वाचित भारतीय सविधान सभा द्वारा बनाया जाना चाहिए।
चूकि काग्रेस ने 1935 के एक्ट को पूरी तरह से ठुकरा देने तथा नयी सविधान सभा की माग के मुद्दों पर प्रातीय विधानमडलो के चुनाव लड़े थे, अत. चुनावों में भारी विजय के बाद इसने 18 मार्च, 1937 को दिल्ली में एक प्रस्ताव पारित कर दावा किया कि निर्वाचकों ने संविधान सभा की माग का अनुमोदन कर दिया है। प्रस्ताव मे ष्वयस्क मताधिकार के आधार पर निर्वाचित संविधान सभा के माध्यम से राष्ट्रीय स्वतंत्रता पर आधारित सविधानष् बनाने की माग की गई थी। इस माग को मार्च, 1937 में दिल्ली में हुए काग्रेमी विधायको के अखिल भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन में दृढता के साथ दोहराया गया। अगस्त-अक्तूबर, 1937 के दौरान, केंद्रीय विधान सभा तथा कांग्रेस शासित प्रत्येक प्रात की प्रानीय विधान सभाओ ने ऐसे ही प्रस्ताव पास किए। इनमें स्वतंत्र भारत के लिए एक नया संविधान बनाने के वास्ते संविधान सभा का गठन करने की कांग्रेस की मांग को दोहराया गया था।
1939 में विश्वयुद्ध छिड़ने के बाद, संविधान सभा की मांग को 14 सितंबर, 1939 को काग्रेस कार्यकारिणी द्वारा जारी किए गए एक लबे वक्तव्य मे दोहराया गया।
गांधी जी ने 19 नवबर, 1939 को ‘हरिजन‘ मे ‘द ओनली वे‘ शीर्षक के अंतर्गत एक लेख लिखा जिसमे उन्होने विचार व्यक्न किया कि “संविधान सभा ही देश की देशज प्रकृति का और लोकेच्छा का सही अर्थो मे तथा पूरी तरह से निरूपण करने वाला संविधान बना सकती है।‘‘ उन्होंने घोषणा की कि सांप्रदायिक तथा अन्य समस्याओ के न्यायसंगत हल का एकमात्र तरीका भी संविधान सभा ही है।
1940 के ‘अगस्त प्रस्ताव‘ में ब्रिटिश सरकार ने संविधान सभा की मांग को पहली बार आधिकारिक रूप से स्वीकार किया, भले ही स्वीकृति अप्रत्यक्ष तथा महत्वपूर्ण शर्तो के साथ थी।
क्रिप्स प्रस्तावो के द्वारा ‘अगस्त प्रस्ताव‘ में उल्लेखनीय सुधार किए गए। इन प्रस्तावो के अनुसार नये संविधान के निर्माण का काम अब पूर्णतया न कि ‘प्राथमिक रूप से‘ भारतीय हाथो से होना था और ब्रिटिश सरकार ने स्पष्ट वचन दिया कि वह प्रस्तावित संविधाननिर्माण-निकाय द्वारा बनाए गए संविधान को स्वीकार करेगी। क्रिप्स मिशन की विफलता के बाद, मई, 1945 में यूरोप मे युद्ध की समाप्ति तक भारत की संवैधानिक समस्या के समाधान के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया।
जुलाई, 1945 मे, इग्लैंड मे नयी लेबर सरकार सत्ता मे आई। तब 19 सितबर, 1945 को वाइसराय लार्ड वेवल ने भारत के सबध मे सरकार की नीति की घोषणा की तथा ‘यथाशीघ्र‘ संविधान निर्माण-निकाय का गठन करने के लिए महामहिम की सरकार के इरादे की पुष्टि की।
कैबिनेट मिशन ने अनुभव किया कि संविधान निर्माण-निकाय का गठन करने की सर्वाधिक संतोषजनक विधि यह होती कि उसका गठन वयस्क मताधिकार के आधार पर चुनाव के द्वारा किया जाता, किंतु ऐसा करने पर नये संविधान के निर्माण में ‘अवांछनीय विलंब‘ हो जाता। इसलिए, उनके अनुसार ‘एकमात्र व्यवहार्य तरीका‘ यही था कि हाल में निर्वाचित प्रांतीय विधान सभाओं का उपयोग निर्वाचक निकायों के रूप में किया जाए। तत्कालीन परिस्थितियों में मिशन ने इसे, ‘सर्वाधिक न्यायोचित तथा व्यवहार्य योजना‘ बताया और सिफारिश की कि संविधान निर्माण-निकाय में प्रातों का प्रतिनिधित्व जनसंख्या के आधार पर हो। मोटे तौर पर दस लाख लोगों के पीछे एक सदस्य चुना जाए और विभिन्न प्रांतों को आवंटित स्थान इस प्रयोजन के लिए वर्गीकृत मुख्य समुदायों यथा सिखों, मुसलमानों और सामान्य लोगों में (सिखों तथा मुसलमानों को छोड़कर) उनकी जनसंख्या के आधार पर विभाजित कर दिए जाएं। प्रत्येक समुदाय के प्रतिनिधि प्रातीय विधानसभा मे उस समुदाय के सदस्यो द्वारा चुने जाने थे और मतदान एकल संक्रमणीय मत सहित अनुपाती प्रतिनिधित्व की विधि द्वारा कराया जाना था। भारतीय रियासतों के लिए आवंटित सदस्यो की संख्या भी जनसख्या के उसी आधार पर निर्धारित की जानी थी जो ब्रिटिश भारत के लिए अपनाया गया था, किंतु उनके चयन की विधि बाद में परामर्श द्वारा तय की जानी थी। संविधान- निर्माण-निकाय की सदस्य संख्या 385 निर्धारित की गई (जिनमें से 292 प्रतिनिधि ब्रिटिश भारत के गवर्नरों के अधीन ग्यारह प्रांतों से तथा 93 प्रतिनिधि भारतीय रियासतों से लिए जाने थे)। इनमें चीफ कमिश्नरों के चार प्रांतों अर्थात दिल्ली, अजमेर-मारवाड़, कुर्ग, और ब्रिटिश बलूचिस्तान से एक एक प्रतिनिधि शामिल किया जाना था।
कैबिनेट मिशन ने संविधान के लिए एक बुनियादी ढांचे का प्रारूप पेश किया तथा संविधान निर्माण-निकाय द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया का कुछ विस्तार के साथ निर्धारण किया।
ब्रिटिश भारत के प्रांतों को आवंटित 296 स्थानों के लिए चुनाव जुलाई-अगस्त, 1946 तक पूरे कर लिए गए थे। कांग्रेस को 208 स्थानों पर, जिनमें नौ को छोड़कर शेष सभी सामान्य स्थान शामिल थे, विजय प्राप्त हुई और मुस्लिम लीग को मुसलमानों को आवंटित स्थानों में से पांच स्थानों को छोड़कर शेष 73 स्थानों पर विजय प्राप्त हुई।
ब्रिटिश भारत की विधान सभाओं से चुने गए सदस्यों का पार्टीवार ब्यौरा इस प्रकार था:
काग्रेस 208
मुस्लिम लीग 73
यूनियनिस्ट 1
यूनियनिस्ट मुस्लिम 1
यूनियनिस्ट अनुसूचित जातिया 1
कृपक प्रजा 1
अनुसूचित जाति परिसघ 1
सिख (गैर-काग्रेसी) 1
कम्युनिस्ट 1
स्वतत्र 8
ख्296,
कहा जा सकता है कि 11-15 अगस्त, 1947 को देश के विभाजन तथा उसकी स्वतत्रता के साथ ही, भारत की संविधान सभा कैबिनेट मिशन योजना के बधनो से मुक्त हो गई और एक पूर्णतया प्रभुसत्ता सपन्न निकाय तथा देश मे ब्रिटिश ससद के पूर्ण प्राधिकार तथा उसकी सत्ता की पूर्ण उत्तराधिकारी बन गई। इसके अलावा, 3 जून की योजना की स्वीकृति के बाद, भारतीय डोमिनियन के मुस्लिम लीग पार्टी के सदस्यो ने भी विधान सभा मे अपने स्थान ग्रहण कर लिए। कुछ भारतीय रियासतों के प्रतिनिधि पहले ही 28 अप्रैल, 1947 को विधान सभा मे आ चुके थे। 15 अगस्त, 1947 तक अधिकाश रियासतो के प्रतिनिधि विधान सभा मे आ गए और शेष रियासतो ने भी यथासमय अपने प्रतिनिधि भेज दिए।
इस प्रकार, सविधान सभा भारत मे सभी रियासतों तथा प्रांतो की प्रतिनिधि तथा किसी भी बाहरी शक्ति के आधिपत्य से मुक्त पूर्ण प्रभुत्व संपन्न निकाय बन गई। सविधान सभा भारत में लागू ब्रिटिश ससद द्वारा बनाए गए किसी भी कानून को, यहा तक कि भारतीय स्वतत्रता एक्ट को भी रद्द कर सकती थी या परिवर्तित कर सकती थी।
संविधान सभा का विधिवत उद्घाटन नियत दिन सोमवार, 9 दिसबर, 1946 को प्रात. ग्यारह बजे हुआ।
सविधान सभा का सत्र कुछ दिन चलने के बाद, नेहरू जी ने 13 दिसबर, 1946 को ऐतिहासिक उद्देश्य प्रस्ताव पेश किया। सुदर शब्दों में तैयार किए गए उद्देश्य-प्रस्ताव के प्रारूप में भारत के भावी प्रभुता सपन्न लोकतांत्रिक गणराज्य की रूपरेखा दी गई थी। इस प्रस्ताव मे एक संघीय राज्य व्यवस्था की परिकल्पना की गई थी, जिसमें अवशिष्ट शक्तिया स्वायत्त इकाइयो के पास होती और प्रभुता जनता के हाथो मे। सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक, न्याय, परिस्थिति की, अवसर की और कानून के समक्ष समानता, विचारधारा, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था, पूजा, व्यवसाय, संगम और कार्य की स्वतंत्रताश् की गारटी दी गई और इसके साथ ही अल्पसख्यको, पिछड़े तथा जनजातीय क्षेत्रो तथा दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए पर्याप्त ‘रक्षोपाय‘ रखे गए।
इस प्रकार, इस प्रस्ताव ने संविधान सभा को इसके मार्गदर्शी सिद्धांत तथा दर्शन दिए जिनके आधार पर इसे सविधान निर्माण का कार्य करना था। अंतत , 22 जनवरी, 1947 को संविधान सभा ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।