विश्व के प्रमुख मरुस्थल के नाम क्या क्या है लिस्ट ? दुनिया के महत्वपूर्ण मरुस्थलों कौन कौनसे है सूची

दुनिया के महत्वपूर्ण मरुस्थलों कौन कौनसे है सूची विश्व के प्रमुख मरुस्थल के नाम क्या क्या है लिस्ट ? कहाँ स्थित है ?

प्रमुख मरुस्थल निम्न हैं :-
(1) कोलोरेडो मरुस्थल (सं.रा. अमेरिका), (2) आटाकामा मरुस्थल (द. अमेरिका),
(3) पेटागोनिया का मरुस्थल (द. अमेरिका), (4) सहारा मरुस्थल (उ.अफ्रीका),
(5) कालाहारी मरुस्थल (द. अफ्रीका), (6) अरब मरुस्थल (एशिया),
(7) गोवी मरुस्थल (उ.म. एशिया) (8) आस्ट्रेलियन मरुस्थल (आस्ट्रेलिया),
(9) थार मरुस्थल (भारत)।
मरुस्थल वायु के कार्यों के लिये सर्वाधिक उपयुक्त स्थल होते हैं। इसके निम्नलिखित कारण हैं-
(1) मरुस्थल में दैनिक तापान्तर बहुत अधिक पाया जाता है जिससे वायुदाब में अंतर उत्पन्न होता है व वायु तेज गति से चलती है।
(2) शुष्कता के कारण भौतिक अपक्षय बहुत होता है। अपक्षयित पदार्थ वायु उड़ा ले जाती है, जो उसके अपरदन के औजार बनते हैं।
(3) वनस्पति के अभाव से सतह पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है।

नदी का सामान्य अपरदन चक्र
नदी अपने उद्गम से मुहाने तक निरन्तर अपरदन, परिवहन व निक्षेपण का कार्य करती है। इससे अनेक भूआकृतियों का निर्माण भी होता है व अन्त भी होता है। नदी स्वयं अपनी घाटी का निर्माण करती है। नदी घाटी का स्वरूपा सम्पूर्ण नदी मार्ग में एक जैसा नहीं होता है। यह पर्वतीय क्षेत्रों में सँकरी व गहरी, मैदानी क्षेत्रों में चौड़ी व समुद्रतट पर लगभग समतल हो जाती है। उद्गम के समय नदी घाटी पतली व उथलो होती है। समय के साथ इसकी गहराई, चौड़ाई व लम्बाई बढ़ती है। इस प्रक्रिया के साथ नदी अपने अपवाह बेसिन में भी काट-छाँट कर समतल बनाती जाती है तथा अन्त में उसे पेनीप्लेन में बदल देती है। नदी के अपरदन को डेविस ने तीन अवस्थाओं में बाँटा है–
(1) युवावस्था – ढाल के अनुरूपा बहता जल नदी का रूपा लेता है व अपना एक निश्चित मार्ग बनाता युवावस्था में नदी की घाटी का विकास प्रारंभ होता है। नदी में यद्यपि जल की मात्रा कम होती है, परन्तु ताब होती है। तेज ढाल व तीव्र जल प्रवाह से घाटी तेजी से गहरी होने लगती है। अपवाह क्षेत्र से अनेक लिया बनाती हुईं आकर मिलती हैं व मुख्य नदी की अपरदन शक्ति बढ़ जाती है। इस अवस्था में बाटा, कन्दरा, सीढ़ीदार प्रपात, प्रपात, क्षिप्रिका, पॉट होल्स आदि भूरूपां का निर्माण करती है। इस अवस्था में अपरदन बहुत अधिक व तीव्र गति से होता है। लम्बवत कटाव अधिक होता है। नदी की परिवहन शक्ति भी बहुत अधिक होती है। बडी मात्रा में चट्टान चूर्ण उसके साथ प्रवाहित होते है।
(2) प्रौढ़ा अवस्था – लम्बे समय के बाद जब धरातल का ढाल अपरदन से मंद हो जाता है तथा नदी की गति धीमी पड़ने लगती है तब प्रौढावस्था का प्रारंभ होता है। प्रौढ़ावस्था में लम्बवत अपरदन का व क्षैतिज (पार्श्व) अपरदन अधिक होता है। नदी की गति मंद पड़ने से अवसादों का निक्षेप प्रारंभ हो जाता है। नदी के मार्ग में मोड़ पड़ने लगते हैं, घाटी चौड़ी होने लगती है। नदी के द्वारा बाढ़ के मैदान, ऑक्सबो लेक, विसर्प, प्राकृतिक तटबाँधों का निर्माण होता है। अचानक गति के मंद पड़ने से पर्वतों की तलहटी में जलोढ़ पंख अवसादों से बनते हैं। अवसादों व पानी की अधिकता से बाढ़ आती है। सहायक नदियाँ भी अपनी घाटी चौड़ी कर लेती हैं। जगह-जगह अवसादों का निक्षेप होने लगता है।
(3) वृद्धा अवस्था – सभी नदियाँ अपरदन चक्र की अन्तिम अवस्था में नहीं पहुँचती हैं। समय के साथ नदी में अवसादों की मात्रा इतनी अधिक एवं नदी की गति इतनी मंद हो जाती है कि उसकी अपरा शक्ति समाप्त होने लगती है। लम्बवत कटाव बिल्कुल बंद हो जाता है। पार्श्व अपरदन थोड़ा बहुत होता है। घाटियाँ चौड़ी होकर लगभग समतल रह जाती हैं। सभी विषमतायें नदी के मार्ग की समाप्त हो जाती हैं। इस समतल भूआकृति को पेनीप्लेन कहा जाता है। यह अवस्था स्थायी नहीं होती वरन् पुनः इनमें उत्थान से पुनर्योवन प्राप्त हो जाता है।
पवन के कार्य एवं स्थलरूपा
(Landforms made by Wind)
शुष्क मरुस्थलीय क्षेत्रों में पवन अपरदन का महत्वपूर्ण कारक होता है। वायु जब तेजी से चलती है तब इसमें अपार शक्ति होती है तथा यह अपने प्रवाह क्षेत्र में बड़ी मात्रा में काट-छाँट करती है। वायु चट्टान चूर्ण का दूर तक परिवहन करती है एवं निक्षेप क्रिया से अनेक भूरूपा बनाती है। वायु का काम शुष्क प्रदेशों में विशेष रूपा से मरुस्थलीय क्षेत्रों में दिखाई पड़ता है।
मरुस्थल वे क्षेत्र हैं जहाँ वाष्पीकरण की मात्रा वर्षण से अधिक होती है। ऐसे शुष्क मरुस्थल विश्व के लगभग 1/3 भाग में पाये जाते हैं। यहाँ वर्षा का वार्षिक औसत 10-20 सेमी. से ज्यादा नहीं होता है। भौगोलिक स्थिति के अनुसार उष्ण कटिबंधीय गर्म मरुस्थल, ध्रूवीय ठंडे मरुस्थल एवं मध्य अक्षांशीय मरुस्थल पाए जाते हैं।

वायु द्वारा अपरदन कार्य- (Erosional work fo wind)-
वायु द्वारा यान्त्रिक अपरदन की क्रिया ही होती है। इसमें रासायनिक अपरदन बिल्कुल भी नहीं होता है। यह अपरदन निम्न प्रकार से करती है-
(1) अपवाहन (Deflation) – वायु द्वारा यह कार्य सर्वाधिक किया जाता है। वाय अपने तीन वेग से मार्ग में आने वाले चट्टान चूर्ण को उड़ा ले जाती है, जिससे नीचे की शैलें नग्न होती जाती हैं। इस किया से क्रमशः भूपृष्ठ की परतें हटती जाती हैं। इसे अपवाहन कहते हैं।
(2) अपघर्षण (Abrsaion) – वायु जिन धूलकण, बालूकण व कंकड़-पत्थर को उठा ले जाती है वे मार्ग में आने वाली चट्टानों को रेतमाल की तरह रगड़ते चलते हैं। इस क्रिया को अपघर्षण कहते हैं। इससे मार्ग में आने वाली चट्टानें घिसकर कटती -छंटती रहती हैं।
(3) सन्निघर्षण (Attrition) – तीव्र वायु के प्रवाह में निहित कण आपस में टकराकर छोटे कणों में विभाजित होते रहते हैं। यह क्रिया सन्निघर्षण कहलाती है।
वायु के अपरदन पर निम्नलिखित कारकों का प्रभाव पड़ता है
(1) वायु का वेग – वायु के वेग से ही वायु में अपवाहन की क्षमता पैदा होती है व इसी से उसकी अपरदन क्षमता निर्धारित होती है, जितना अधिक चट्टान चूर्ण वायु के साथ उड़ता है उतनी अधिक वायु की अपरदन क्षमता बढ़ती है।
(2) शैल संरचना – अपरदन की मात्रा चट्टानों की संरचना से प्रभावित होती है। कठोर चट्टानों में अपरदन कम व कोमल चट्टानों में अधिक होता है।
(3) जलवायु – शुष्क जलवायु में ही वायु द्वारा अपरदन होता है। ठंडे व नम प्रदेशों में इसका कार्य सीमित रह जाता है। वायु अपरदन में अपक्षय क्रिया का महत्वपूर्ण योगदान होता है।
वायु अपरदन से निर्मित स्थलाकृतियों
(Relife features formed by Wind erosion)
शुष्क एवं अर्द्धशुष्क प्रदेशों में वायु के अपरदन से कई भूआकृतियों का जन्म होता है-
(1) अपवाह बेसिन या वात गर्त – (Deflation Bsain or Blow out) – शुष्क प्रदेशों में धरातलीय चट्टानों मे निरन्तर अपक्षय होता रहता है। इससे जमा असंगठित शैल चूर्ण को हवा अपनी तीव्र गति से उखाड़कर ले जाती है। इस क्रिया से पहले एक उथला गर्त बनता है। धीरे-धीरे निरन्तर वायु द्वारा चट्टान चूर्ण के अपवाहन से गति का आकार व गहराई बढ़ती जाती है। मरुस्थलों में भूमिगत जलस्तर भी बहुत नीचा होता है, इससे ऊपरी परतों का अपरदन आसान हो जाता है। इन गों की आकृति तश्तरीनुमा हो जाती है। इस ही वात गर्त कहा जाता है। सहार का कतारा गर्त इसी प्रकार निर्मित हुआ है। यह समुद्र तल से 400 फुट गहरा है।
(2) ज्यूगेन (jeugen) – इस प्रकार की आकृति शुष्क प्रदेशों में परतदार चट्टानों वाले इलाके में बनती है। इसके निर्माण में क्षैतिज रूपा से कोमल व कठोर चट्टानों का पाया जाना आवश्यक होता है। कठोर चट्टानों की संधियों में हवा के अपघर्षण एवं यांत्रिक अपक्षय के कारण धीरे-धीरे संधियां चौड़ी होने लगती हैं। जब संधियाँ कोमल चट्टान तक अपरदित हो जाती हैं तब अपरदन तेजी से होने लगता है। कोमल चट्टान में तेजी से कटाव होता है व गहरी घाटी बन जाती है जबकि ऊपरी कठोर चट्टान कम अपरदित होती है। इस तरह एक दवात (U) जैसी आकृति बनती है जिसे ज्यूगेन कहा जाता है। सहारा मरुस्थल में यह विशेष रूपा से देखे जा सकते है।
(3) चारदंग (Yardang) – कठोर व कोमल चट्टाने जब लम्बवत अवस्था में पायी जाती है तब यह आकृति बनती है। कोमल चट्टाने शीघ्रता से कटती है जबकि कठोर चट्टाने का कटती है। इस प्रकार जगह-जगह नालियाँ बन जाती है जिन्हें पारडंग कहा जाता है। मध्य एशिया में ऐसी आकृतियों देखी जा सकती है।
(4) छत्रकशिला (Msaroom root) – मरुस्थलीय क्षेत्रों में कठोर चट्टानों के टीले निरन्तर अपक्षय एवं वाय अपरदन से प्रभावित होते रहते है जो एक छत्रक की आकृति में बदल जाते है। इन्हें छत्रकशिला या गाय कहा जाता है। वायु में चट्टान चुर्ण निचली परतों में अधिक होते हैं अतः वायु जब चट्टान से टकाराती है तो निचले भाग में अपरदन अधिक होता है एवं ऊपरी भाग में कम। वायु की ऊपरी परतों में कम व महीन कण पाये जाते इस कारण ऊपरी भाग में अपरदन शक्ति कम होती है। लम्बे समय बाद निचला हिस्सा कमजोर पड़ जाता है व चट्टान टूटकर गिर जाती है। कोलोरेडो मरुस्थल व कालाहारी में इन्हें देखा जा सकता है।
(5) तिपहल शिलाखण्ड (äeikanter)- मरुस्थलीय क्षेत्रों में नकीले कोने वाले चट्टानी टुकड़े तिपहल शिलाखण्ड होते है। ये तीन पार्श्व वाले शिलाखण्ड होते हैं जिन पर वाय अपरदन से खरोंच पड़ जाती है एवं हवा की बदलती दिशा के कारण किनारे नुकीले हो जाते हैं।
(6) टिब्बा या इंसेलबर्ग (Inselberg) – वायु व जल के अपरदन से मरुस्थल जब समतल मैदान में बदल जाता है तब जगह- जगह नालियाँ बन जाती हैं। ऐसे प्रदेशों में जगह-जगह कछ कठोर चट्टाने टीलों की तरह खड़ी रह जाती है। इस प्रकार की चट्टानें द. अफ्रीका, युगाण्डा, नाइजीरिया में देखी जा सकती है। ये प्रायः ग्रेनाइट शैलों के अवशिष्ट होते हैं। इन्हें इंसेलबर्ग कहा जाता है।
(7) भूस्तंभ – इसी प्रकार अगर कठोर चट्टान के आवरण से कोमल चट्टान ढंकी होती है तो वह स्तम्भ के रूपा में खड़ी रह जाती है व आस-पास की खली चट्टानें कट जाती हैं। इसे भूस्तम्भ (Demoisellesae) कहा जाता है। जब कभी कठोर चट्टान के मध्य कोमल चट्टान का टुकड़ा होता है तब कोमल चट्टान कट जाती है व छेद बन जाता है। जब अनेक छोटे-छोटे छिद्र बनते हैं तब इसे जालीदार शिला (Stone Lattic) कहते हैं। जब एक बड़ा छिद्र बनता है तब इसे वायु खिड़की (Wind window) कहा जाता है।
वायु द्वारा परिवहन (Transportation by Wind) – शुष्क एवं मरुस्थलीय क्षेत्रों में वाय द्वारा धरातल के असंगठित पदार्थों का परिवहन होता है। आर्द्र प्रदेशों में इसका प्रभाव कम दिखायी पड़ता है क्योंकि धरातल पर चट्टान चूर्ण व धूलिकण असंगठित नहीं होते तथा वनस्पति परिवहन में बाधा डालती है। मरूस्थलों में वनस्पति के अभाव धूलिकणों का परिवहन दूर तक किया जाता है। वायु के परिवहन का कार्य उसकी दिशा एवं गति के अनुसार होता है। रेत व धूलि कण हवा में लटके रहते हैं। धरातल के निकट इनकी मात्रा अधिक होती है तथा जैसे-जैसे ऊँचाई बढ़ती जाती हैं वैसे-वैसे इनकी मात्रा घटती जाती है। ऊपरी परतों में सिर्फ महीन धूल के कण ही पाये जाते हैं व उनमें अपरदन क्षमता कम पायी जाती है। मध्यम आकार के कण वायु के साथ निचली परतों में उड़ते हुए आगे बढ़ते हैं तथा भारी कण धरातल पर लुढ़कते हुए चलते हैं। वायु द्वारा इन तीनों क्रियाओं को क्रमशः निलम्बन (Suspended), उत्परिवर्तन (Saltation) एवं पृष्ठीय विसर्पण (Sufrace creep) कहा जाता है। परिवहन द्वारा पदार्थों के स्थानान्तरण की मात्रा वायु वेग पर बहुत अधिक निर्भर करती है। तीव्र सिरोकू हवायें अफ्रीका की सहारा की रेते योरोप तक उड़ा कर ले जाती हैं। मंद पवन थोड़ी दूर तक ही पदार्थों को उड़ा पाती है।