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विज्ञान शाखा किसे कहते हैं उदाहरण सहित समझाइए , विज्ञान शाखा के मुख्य कार्य क्या है

पढो विज्ञान शाखा किसे कहते हैं उदाहरण सहित समझाइए , विज्ञान शाखा के मुख्य कार्य क्या है ?

विज्ञान शाखाः संरक्षण गतिविधियों के इन दोनों कदमों के लिए वैज्ञानिक विषय की भूमिका महत्वपूर्ण है। तदनुसार, विज्ञान शाखा द्वारा अध्ययन के उद्देश्य से संरक्षण में वैज्ञानिक अनुसंधान गतिविधियों के एक विशिष्ट उद्देश्य को अपनाया जा रहा है।
ऽ सामग्री क्षरण करती है
ऽ हस्तक्षेप प्रौद्योगिकियों का मूल अध्ययन
ऽ सामग्री पर मूल अध्ययन
ऽ डायग्नोस्टिक प्रौद्योगिकी
विज्ञान शाखा के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैंः
ऽ 18वें विश्व विरासत स्मारकों सहित लगभग 5000 केन्द्रीय संरक्षित स्मारकों का रासायनिक उपचार एवं परिरक्षण करना।
ऽ संग्रहालय प्रदर्शों और उत्खनित वस्तुओं का रासायनिक उपचार एवं परिरक्षण हमारी निर्मित सांस्कृतिक विरासत तथा भौतिक विरासत में हो रही विकृति के कारणों का अध्ययन करने के लिए विभिन्न भवनों की सामग्रियों की सामग्री विरासत पर वैज्ञानिक तथा तकनीकी अध्ययन और अनुसंधान करना जिससे उनके परिरक्षण की स्थिति में सुधार लाने के लिए उपयुक्त संरक्षण उपाय किए जा सकें।
ऽ विदेशों में स्थित स्मारकों और विरासत स्थलों का रासायनिक संरक्षण।
ऽ राज्य संरक्षित स्मारकों और ट्रस्टियों के नियंत्रण वाली सांस्कृतिक विरासत को डिपॉजिट कार्य के रूप में तकनीकी सहायता देना।
ऽ पुरातत्व संस्थान नई दिल्ली से पुरातत्व में स्नातकोत्तर डिप्लोमा प्राप्त करने वाले छात्रों को रासायनिक संरक्षण पर प्रशिक्षण दिलाना।
ऽ वैज्ञानिक संरक्षण कार्यों के संबंध में जागरूकता कार्यक्रम तथा कार्यशाला,ं/सेमीनार आयोजित करना। बागवानी शाखाः भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा अनुरक्षित उद्यान दो श्रेणियों के हैं
ऽ ऐसे जो स्मारक से संबंधित हैं मूल डिजाइन के एक भाग के रूप में जिनके चारों ओर बाग थे, तथा
ऽ ऐसे जो सामान्यतया इतने विस्तृत नहीं थे, जो मूल रूप से बगीचों से संलग्न न रहते हुए स्मारकों की सुन्दरता के लिए बने थे।
प्रथम श्रेणी के अन्तग्रत मुगलों द्वारा बनवा, गए स्मारक आते हैं जो अलंकृत बगीचों तथा फल उद्यानों के प्रति अपने प्रेम के लिए प्रसिद्ध हैं। ऐसे मामलों में, सज्जा तथा सिंचाई दोनों के लिए प्राचीन फूलों की क्यारियां तथा जल चैनलों से उनका संबंध अभी भी विद्यमान है। ऐसे स्मारकों में हुमायूं का मकबरा,सफदरजंग का मकबरा, लाल किला, बीबी का मकबरा, औरंगाबाद, पिंजौर स्थित महल, अकबर का मकबरा, सिकन्दरा, इतमद-ऊ-द्दीन का मकबरा तथा आगरा स्थित रामबाग तथा सर्वाधिक आगरा स्थित ताज शामिल हैं। इन स्मारकों से जुड़े बगीचों का रखरखाव वास्तव में एक कठिन कार्य है, क्योंकि किसी भी नए विन्यास को मूल डिजाइन के अनुसार होना चाहिए तथा इसकी अनुरूपता, इसके मूल निर्माता के विचारों से होनी चाहिए। इन अलंकृत बगीचों का रखरखाव एक आवश्यकता है जो स्वियं स्मारक के रखरखाव से भी कम नहीं है क्योंकि इनके बिना स्मारक अपूर्ण हैं। अन्य मामलों में उदाहरण के लिए दिल्ली स्थित कुतुब तथा लोधी स्मारक के बगीचे प्रारम्भिक रूप से स्मारक के लिएएक व्यवस्था उपलब्ध कराते हैं तथा इसके आसपास के भाग को आकर्षित बनाते हैं। पहली श्रेणी के बगीचों के मुकाबले इनके अभिविन्यास में अधिक स्वतंत्रता होती है।
कई मामलों में जहां भूदृश्य शुष्क तथा ऊबड़-खाबड़ होता है, लॉन बना कर तथा कुछ वृक्षों और झाड़ियों के माध्यम से पर्यावरण को विकसित किया जाता है। ऐसे स्मारकों के लिए जो बड़े शहरों के भीतर या पास होते हैं और बड़ी संख्या में दर्शकों को आकर्षित करते हैं के लिए सामान्यता अधिक शानदार बगीचों की योजना बनाई जाती है, किन्तु इस तथ्य को गजरअंदाज नहीं किया जाता कि पुरातत्वविदों का मुख्य उद्देश्य सार्वजनिक बगीचे तैयार करना नहीं है। किसी भी श्रेणी के बगीचे में, बगीचों के आधुनिकीकरण के विरुद्ध सावधानी बरती जाती है।
विदेशों में गतिविधियांः सर्वेक्षण के पुरात्वीय प्रयास उप-महाद्वीप की सीमाओं के बाहर किए गए और विदेशों में इसके सभी अभियान उत्कृष्ट रहे हैं।
अफगानिस्तानः विदेशों में अभियानों का सिलसिला आर.ई.एम. व्हीलर के वर्ष 1946 में किसी समय किए गए अफगानिस्तान के दौरे से आरंभ हुआ। एक दशक के बाद टी. एन. रामचन्द्रतन और वाई. डी. शर्मा ने कला की परम्पराओं, पुरालेखीय अभिलेखों और पुरातत्वीय अवशेषों का पता लगाने और उनके अन्वेषण के लिए मई-जुलाई, 1956 के बीच अफगानिस्तान का दौरा किया। सर्वेक्षण के दौरान कई स्थलों का भ्रमण किया गया और संग्रहालयों में रखे गए पुरातत्वीय अवशेषों का व्यापक अध्ययन किया गया ।
आर. सेन गुप्ता और बी. बी. लाल तथा उनके सहयोगियों के तत्वावधान में बाम्यैन स्थित बुद्ध की प्रतिमा एवं बल्ख स्थित ख्वाज़ा पारसा की मस्जिद का संरक्षण एवं जीर्णा)ार तथा सूफी संत ख्वाज़ा अबू नासर के मक़बरे का बड़े पैमाने पर किया गया मरम्मत कार्य सर्वेक्षण के महत्वपूर्ण प्रयासों में से एक प्रयास था।
बी. के. थापर और उनके दल ने 1975 में अफगानिस्तान के फराह क्षेत्र का दौरा किया। उन्होंने अर्घनदाब नदी के किनारे काफिर किला और किला फरीदां क्षेत्र का पता लगाया।
इंडोनेशियाःएन. पी. चक्रवर्ती और सी. शिवराममूर्ति के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल ने बार्बाडूर स्थित प्रसिद्ध स्मारक का दौरा किया और इसका व्यापक प्रलेखन किया गया।
मिस्रः 1961-62 में प्रागैतिहासिक पुरातत्व की खोज के लिए बी.बी. लाल और उनके दल ने मिò में नूबिया का दौरा किया। उन्होंने अफयेह के निकट नील नदी के टीलों में मध्य एवं परक्ती प्रस्तर युग के औजारों की खोज की। इस दल ने अफयेह स्थित कुछ स्थलों और श्रेणी के लोगों के कब्रिस्तान, जिसमें लगभग 109 कब्र थीं, का उत्खनन भी किया।
नेपालः वर्ष 1961-62 में श्री आर. वी. जोशी तथा डी. मित्र के नेतृत्व में दो अभियान नेपाल में भेजे गए। भैरवा तथा तोलिहावा जिलों में अनेकों स्िलों की खोज के अतिरिक्त मिशन ने कुदान तथा तिलोराकोट में भी उत्खनन किए।
दूसरे दल ने पलैस्टोसेन अवधि की भू आकृति विज्ञानीय विशेषताओं की खोज की थी। वर्ष 1963 में कृष्णा देव ने नेपाल में प्रतिमा विज्ञानीय सर्वेक्षण किया। दुर्लभ मूर्तियां जैसे एक पद त्रिमूर्ति के रूप में शिव, गीज के रथ पर सवार चन्द्र, महेश समहास तथा अ)र्नारी में विष्णु अत्यधिक उत्कृष्ठ खोजों में थे। एसबी. देव तथा भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने वर्ष 1965 में नेपाल में भवरा से त्रिवेणी घाट के बीच के क्षेत्र का अन्वेषण किया। इन्होंने बंजारही, लुम्बिनी तथा पैसा का दक्षिणी भाग का भी उत्खनन किया।
कम्बोडियाः कम्बोडिया में अंकोरवाट का संरक्षण बाहर के देशों में सर्वेक्षण की सर्वाधिक उत्कृष्ठ परियोजनाओं में से संभवतः एक है। श्री आर. सेन गुप्ता बी.एन. टंडन तथा आर. दत्ता गुप्ता, जिन्होंने अक्टूबर, 1980 में मंदिर का दौरा किया था, ने भवन में देखे गए नुकसान तथा कमियों के आकलन के लिए एक स्थिति रिपोर्ट तैयार की । वर्ष 1982 में के.एम. श्रीवास्तव तथा उनके दल ने एक परियोजना रिपोर्ट तैयार की तथा संरक्षण परियोजना पर प्रयोग किया । एम. एस. नागराज राव के अधीन पांच सदस्यीय दल ने अंकोरवाट का दौरा किया तथा श्रीवास्तव द्वारा पहले तैयार की गई रिपोर्ट में कुछ टिप्पणी शामिल करते हुए एक व्यापक संरक्षण रिपोर्ट तैयार की। परिणामस्वरूप 1986-1992 के बीच के. पी. गुप्ता, बी.एस. नयाल, सी. आई. सूंरी तथा बी. नरसिम्हैया के नेतृत्व वाले तथा उनके मिशन दल ने सफलतापूर्वक इस मंदिर के संरक्षण तथा जीर्णाद्धार कार्य को पूरा किया।
बहरीनः सरकार के अनुरोध पर श्री के.एम. श्रीवास्तव के नेतृत्व में तेरह सदस्यीय दल ने वर्ष 1983 में उत्खनन किया । इन्होंने लगभग 70 कब्रों को खोदा। प्राप्त की गई अन्य वस्तुओं में से छः इंडस सीले, पारम्परिक इंडस लिपि सहित एक गोलाकार सेलखड़ी सील महत्वपूर्ण वस्तुएं थीं।
मालद्वीप समूहः सार्क तकनीकी सहायता कार्यक्रम के अन्तग्रत बी.पीबोर्डीकर के नेतृत्व में एक दल ने मालदीव द्वीप समूह में इस्लाम पूर्व अवशेष की जांच की। अर्जाडु, कुदाहुवान तथा कुरूमथी, टोड्ड तथा निलांडू प्रवालदीव में अन्वेषण तथा वैज्ञानिक सफाई लघु उत्खननों से बौद्ध विशेषताएं प्रकाश में आई हैं।
भूटानः नेखांग-लखांग टोंगजा डी जॉग के मिथरागये-लखांग तथा डो डे ड्राक मठों के भित्ति-चित्रों के परिरक्षण और भित्ति-चित्रों के रासायनिक परिरक्षण के लिए श्री एन. वेंकटेश्वर तथा जयराम सुन्दरम के नेतृत्व में वर्ष 1987-88-89 के बीच दो मिशनों को भूटान भेजा गया।
अंगोलाः अंगोला की राजधानी लुआंडा में साओ मिग्ऊएल के किले में केंद्रीय सशस्त्र सेना संग्रहालय का जीर्णा)ार तथा पुनग्रठन किया गया। वर्ष 1988-89 के बीच पहले श्री डी.के. सिन्हा तथा बाद में श्री एम. खातून के नेतृत्व वाले भारतीय दल ने प्रागैतिहासिक तथा पुर्तगली दीर्घा द चौपल, कामरेउ अगोस्टीन्हो नेटो दीर्घा तथा स्वतंत्रता के लिए संघर्ष दीर्घा में प्रदर्शों को पुनः व्यवस्थित किया।
वियतनामः डॉ. के. टी. नरसिम्हा तथा श्री एम.एम. कनाडे ने वियतनाम के स्मारकों का दौरा किया जो जीर्ण-शीर्ण अवस्था में थे तथा संरक्षण उपायों के लिए परियोजना रिपोर्ट प्रस्तुत की।
म्यांमारः डॉ.एस.वी.पी. हलाकट्टी तथा श्री ए. एच. अहमद ने म्यांमार के स्मारकों का दौरा किया तथा संरक्षण उपायों की विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत की। इसके अतिरिक्त सांस्कृतिक विनियमन कार्य के अधीन भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के विद्वान तथा विशेषज्ञ नियमित रूप से बाहर के देशों का दौरा करते हैं।
उत्खननः भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की विभिन्न शाखाओं और मण्डलों ने देश के विभिन्न भागों में पुरातत्वीय उत्खनन किए हैं। स्वतंत्रता से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, राज्य के पुरातत्व विभागों, विश्वविद्यालयों और अन्य संगठनों ने देश के विभिन्न भागों में पुरातत्वीय उत्खनन किए हैं। पिछली शताब्दी के दौरान किए गए उत्खननों के संबंध में स्थलों की सूची ‘‘इंडियन आर्किलोजी
ए रिव्यू ए लिस्ट ऑफ दि साइट्स’’ में उपलब्ध सूचना के आधार पर 2000 से दिए गए उत्खननों की राज्यवार सूचना इस भाग में दी गई है।
समुद्री पुरातत्व इकाईः जलमग्न बंदरगाहों और जहाजों के उत्खनन एवं अन्वेषण की दृष्टि से इस इकाई की स्थापना राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान, गोवा में हुई। सूचना एवं तकनीक विभाग की मदद से इस परियोजना ने गुजरात की धार्मिक नगरी द्वारका के अपतटीय सर्वेक्षण का बीड़ा उठाया है। श्रीकृष्ण द्वारा रचित यह नगरी जलमग्न हुई मानी जाती है। समुद्र देवता मंदिर के पुरातन बंदरगाह पर पानी के भीतर खुदाई से बड़ी इमारतों के जलमग्न ढांचे मिले हैं। इसी तरह तटवर्ती खुदाई से समुद्र द्वारा नष्ट तीन मंदिर (पहली से नौवीं ए. डी.) और दो नगर (10-15 बी.सी.) मिले हैं। ओखा पोर्ट स्थित बेट द्वारका द्वीप के अपतटीय उत्खनन द्वारा कृष्ण से संबंधित 14-15 ईसा पूर्व जलमग्न हुए नगर के सांकेतिक अवशेष मिले हैं। पानी के भीतर उत्खनन से महत्वपूर्ण आद्यैतिहासिक प्राप्तियों में सिंधु घाटी के चिन्ह और एक लिखित जार मिला है जिसमें समुद्र देव का उल्लेख और उनसे रक्षा की याचना की गई है।
समुद्र देव मंदिर के 700 मीटर समुद्रोन्मुखी दिशा में अरब सागर में उत्खनन से चूने के पत्थर से बनी किलाबंद दीवारों और गड्ढों के अवशेष मिले हैं जिससे द्वारका नगरी के होने और महाभारत में वर्णित उसकी किलेबंदी की पुष्टि होती है। इसे वरीदुग्र (पानी में गढ़) कहा गया है। दीवार के एक भाग से निकले मिट्टी के बर्तन की अवधि लगभग 3520 साल है। पुरातत्वीय प्रमाणों के अनुसार महाभारत को भी इतने वर्ष हो गए हैं।
राष्ट्रीय एवं प्रांतीय अभिलेखागार के समुद्री रिकार्ड के मुताबिक भारतीय समुद्रों में करीब दो सौ पोतभंग हुए हैं। समुद्री पुरातत्वीय खोज का लक्ष्य समुद्री व्यापार के इतिहास की पुनर्रचना, पोत निर्माण और सांस्कृतिक प्रवास है। इसी के साथ नाविक स्थापत्य और तलछट शास्त्रियों के उपयोग हेतु आंकड़ों को संवारना भी इसका उद्देश्य है।

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