वर्नर का सिद्धांत उदाहरण सहित समझाइए के अनुप्रयोग क्या है के कोई दो प्रमुख बिंदु लिखिए

जाने वर्नर का सिद्धांत उदाहरण सहित समझाइए के अनुप्रयोग क्या है के कोई दो प्रमुख बिंदु लिखिए

वर्नर का सिद्धान्त (Werner’s Theory)

उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अधिकांश कार्य कार्बनिक यौगिकों पर केन्द्रित था। उस समय तक वैज्ञानिकों की रूचि यह जानने में जागृत हो चुकी थी कि किसी अणु में विभिन्न परमाणु किस प्रकार में बंधित होते हैं तथा उस पदार्थ के विभिन्न गुणों की बंधन द्वारा किस प्रकार व्याख्या की जा सकती है। एक सर्वमान्य सिद्धान्त यह था कि परमाणुओं में संयुक्त होने की क्षमता, जिसे संयोजकता कहते हैं. पाई जाती है तथा परमाणु इस निश्चित संयोजकता के संतुष्ट होने तक आबंध बनाते हैं। एक परमाणु जितने आबंध बनाता है, उसकी संयोजकता कहलाती है। कार्बनिक यौगिकों के गुणों तथा बंधन की व्याख्या उनके अवयवी परमाणुओं की संयोजकता (C की 4, N की 3, O की 2, H की 1 इत्यादि) के आधार पर सफलतापूर्वक की जा सकी थी। संयोजकता द्वारा अकार्बनिक यौगिकों की व्याख्या के भी प्रयत्न किए गए। सामान्य अकार्बनिक यौगिकों, जैसे लवण, ऑक्साइड, सल्फाइड के लिए सफलता तो मिली थी लेकिन अन्य बहुत से अकार्बनिक यौगिकों को, जिन्हें अब उपसंहयोजन यौगिक कहा जाता है, कार्बनिक योगिकों वाले सिद्धान्तों की सहायता से सूत्रबद्ध नहीं किया जा सका था। वर्नर ने इस समस्या को दूसरे ही दृष्टिकोण से देखा तथा अपने विचार प्रस्तुत किए जिन्हें वर्नर का सिद्धान्त कहते हैं। चूंकि परमाणु में इलेक्ट्रॉनिक व्यवस्था (बोर सिद्धान्त 1913) तथा संयोजकता के इलेक्ट्रॉनिक सिद्धान्तों का विकास वर्नर सिद्धान्त के बहुत बाद में हुआ था, वर्नर का सिद्धान्त परमाणुओं की संयोजकता की धारणा पर ही आधारित था न कि इलेक्ट्रॉनिक विन्यास पर ।

वर्नर ने कोबाल्ट क्लोराइड तथा अमोनिया की अभिक्रिया से बहुत से कोबाल्ट ऐम्मीन क्लोराइड बनाये तथा उनका विस्तार से अध्ययन किया। उसने देखा कि यद्यपि इन ऐम्मीन यौगिकों के संघटन मैं बहुत कम अन्तर पाया जाता है (ये यौगिक मात्र अमोनिया अणुओं की संख्या में भिन्नता रखते हैं)। लेकिन गुणों में परिवर्तन अत्यधिक होता है। प्राप्त परिणामों के आधार पर 26 वर्षीय वर्नर ने 1893 में जो संकल्पना प्रस्तुत की उसे वर्नर का सिद्धान्त कहते हैं जिसके लिए इन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनके अनुसार धातु की दो प्रकार की संयोजकताएँ होती हैं-

  1. प्राथमिक या प्रमुख संयोजकता (Primary or principal valency)
  2. द्वितीयक या सहायक या अवशिष्ट संयोजकता (Secondary or valency)
  3. प्राथमिक या प्रमुख संयोजकता-

(i) यह धातु की ऑक्सीकरण अवस्था प्रदर्शित करती है।

(ii) इनकी संतुष्टि से सामान्य अकार्बनिक यौगिकों का निर्माण होता है।

(iii) ये ऋणायनों से संतुष्ट होते हैं तथा आयननीय हैं, अर्थात् विलयन् में ऋणायन देते हैं।

(iv) प्राथमिक संयोजकता से जुड़े ऋणायनों को उपसहसंयोजन यौगिकों में कोष्ठक के बाहर रखा जाता है। इस प्रकार, बाह्य क्षेत्र (outer sphere) का निर्माण करते हैं।

(v) प्राथमिक संयोजकता परिवर्तनीय हो सकती है। उदाहरणार्थ, Fe परमाणु द्विसंयोजकीय तथा त्रिसंयोजकीय यौगिक बना सकता है।

  1. द्वितीयक संयोजकता-

(i) प्रत्येक धातु की द्वितीयक संयोजकता की संख्या निश्चित होती है। द्वितीयक संयोजकता की संख्या ही धातु की समन्वय संख्या है।

(ii) इनकी संतुष्टि से यौगिक के संकुल भाग का निर्माण होता है। उदाहरण के लिए CoCl2 में Co की प्राथमिक संयोजकता CH- आयनों द्वारा संतुष्ट होती है। लेकिन जब यह यौगिक अमोनिया से अभिक्रिया करता है तो छः अमोनिया अणु कोबाल्ट की द्वितीयक संयोजकताओं से बधंकर [Co(NH3)6]3+ उपसहसंयोजन आयन का निर्माण करते हैं।

(ii) ये ऋणायनों तथा उदासीन अणुओं (लिगण्ड) द्वारा संतुष्ट होती हैं। किसी यौगिक में एक प्रकार के लिगण्ड प्राथमिक तथा द्वितीयक संयोजकताओं से बंधित हो सकते हैं लेकिन प्रत्येक अवस्था में धातु आयन की समस्त द्वितीयक संयोजकताओं की संतुष्टि आवश्यक है । बाद के अध्ययन से यह सिद्ध हो चुका है कि कुछ धनायन भी द्वितीयक संयोजकता द्वारा बंधित हो सकते हैं। द्वितीयक संयोजकता आयननीय नहीं होती अर्थात् जो ऋणायन द्वितीयक संयोजकता द्वारा बंधित होते हैं वे विलयन में ऋणायन नहीं देते। आधुनिक व्याख्या के अनुसार द्वितीयक संयोजकता धातु तथा लिगण्ड के मध्य का उपसहसंयोजकता आबंध है।

(iv) धातु तथा इसकी द्वितीयक संयोजकता से बंधित लिगण्डों को संकुल के सूत्र में कोष्ठक के अन्दर रखा जाता है। इस प्रकार यह भाग उपसंहसंयोजन यौगिक का समन्वय मण्डल अर्थात् आन्तर क्षेत्र का निर्माण करता है।.

(v) ये प्राथमिक संयोजकता की अपेक्षा प्रबल बंध बनाती हैं।

(vi) द्वितीयक संयोजकता केन्द्रीय परमाणु के चारों ओर अन्तराल में निश्चित दिशाओं की ओर अभिलक्षित होते हैं। छः द्वितीयक संरचनाएँ एक अष्टफलक के केन्द्र से उसके कोनों की ओर तथा चार संयोजकताएँ एक चतुष्फलक या वर्ग के कोनों की ओर लक्षित होती हैं जैसा कि चित्र 3.1 में दिखाया गया है।

एक स्थाई यौगिक के निर्माण हेतु केन्द्रीय परमाणु अपनी प्राथमिक व द्वितीयक दोनों प्रकार की संयोजकताएँ संतुष्ट करता है। ऊपर बताया जा चुका है। कि ऋणायन दोनों प्रकार की संयोजकताओं को संतुष्ट करने में सफल हो सकते है। इस प्रकार, आवश्यकता पड़ने पर एक ऋणायन एक धातु की प्राथमिक एव द्वितीयक संयोजकताओं को एक साथ संतुष्ट कर सकता है लेकिन द्वितीयक संयोजकता द्वारा प्रबलतर बंध बनाने के कारण यह ऋणायन उपसहसंयोजन यौगिक के अन्तर क्षेत्र (यानि समन्वय मण्डल) का भाग होता है न कि बाह्य क्षेत्र का ।

 वर्नर के सिद्धान्त की सफलताएँ

उपसहसंयोजन यौगिकों के सुव्यवस्थित अध्ययन के लिए वर्नर का सिद्धान्त श्रेष्ठतम साबित हुआ। जो यौगिक पूर्व में जटिल प्रतीत होते थे वे अब आसानी से समझ में आने लगे। इस सिद्धान्त द्वारा उपसहसंयोजन यौगिकों के रासायनिक आचरण की व्याख्या के अतिरिक्त उनके अन्य पहलुओं को भी भली प्रकार समझाया जा सका, त्रिविम रसायन की व्याख्या की जा सकी तथा सूत्र के आधार पर उसके समावयवों की संख्या का अनुमान भी लगाया जा सका । इस सिद्धान्त की कुछ प्रमुख उपलब्धियों का वर्णन आगे किया गया है

  1. संकुलों की संरचना की व्याख्या:-

उन्नीसवीं सदी के अन्त तक ऐसे बहुत से संकुल यौगिक बनाये जा चुके थे जिनके गुणों तथा बंधन की व्याख्या उस समय प्रचलित संयोजकता के सामान्य नियमों द्वारा संभव नहीं थी । उदाहरण के लिए हम CoCl3 तथा NH3 द्वारा निर्मित यौगिकों की एक श्रृंखला पर विचार करते हैं। इस श्रृंखला में CoCl3. 6NH6, CoCl3, 5NH3. H2O, CoCl3. 5NH3, CoCl3.4NH3 (बैंगनी), CoCl3.4NH3 (हरा), तथा CoCl3.3NH3 यौगिक हैं।

वर्नर के सिद्धान्त से पूर्व बडे कार्बनिक अणुओं की भाँति इन संकुल यौगिकों के लिए परमाणुओं की लम्बी श्रृंखलाओं युक्त संरचनाओं का सुझाव दिया गया था। लेकिन ये संरचनाएँ संकुलों के आचरण के अनुरूप नहीं थी । अतः अस्वीकार कर दी गई।

वर्नर की मान्यताएँ कि प्रत्येक धनायन की एक निश्चित संख्या में द्वितीयक संयोजकता होती है तथा एक स्थाई संकुल के निर्माण हेतु यह आवश्यकता कि धनायन की सभी द्वितीयक संयोजकताएँ संतुष्ट होनी चाहिए, हमें संकेत देती हैं कि संकुलों में उदासीन आण्विक समूह (उदाहरणार्थ, उपर्युक्त संकुलों में NH3) द्वितीयक संयोजकताओं को संतुष्ट करते है तथा यदि इन उदासीन समूहों की संख्या इतनी कम है कि सभी द्वितीयक संयोजकताओं के संतुष्ट करने में अपर्याप्त रहते हैं तो ऋणायन इन शेष द्वितीयक संयोजकताओं को संतुष्ट कर स्थाई संकुलों का निर्माण करते हैं। इस प्रकार उपर्युक्त संकुलों में यह माना जाता है कि सभी अमोनिया तथा जल अणु द्वितीयक संयोजकता द्वारा धातु परमाणु से संलग्न हैं। लेकिन यदि समस्त अमोनिया तथा जल अणु द्वितीयक संयोजकता को सन्तुष्ट करने में अपर्याप्त रहते हैं तो शेष द्वितीयक संयोजताओं को संतुष्ट करने हेतु कुछ क्लोरिडो समूह उपसहसंयोजन क्षेत्र में प्रवेश कर जाते हैं। ये क्लोरीन परमाणु जो अब द्वितीयक संयोजकता द्वारा संलग्न हैं, मुख्य संयोजकता द्वारा बंधित क्लोरीन परमाणुओं से भिन्न तथा अधिक दृढ़ता से बंधे होते हैं। इस प्रकार वर्नर के सिद्धान्तानुसार एक संकुल एककेन्द्रीय धातु आयन का बना होता है जिससे विभिन्न अणु तथा ऋणायन सीधे ही बंधित होते हैं। संकुल की यह तस्वीर पूर्ववर्ती मान्यताओं से भिन्न है जिनमें संकुलों को कार्बनिक अणुओं की भाँति लम्बी श्रृंखलायुक्त अणु माना जाता था। उपर्युक्त CoCI3 तथा NH3 के संकुलों की संरचना की अतः निम्न प्रकार व्याख्या की जा सकती है-

(i) CoCl3.6NH3 तथा CoCI3. 5NH3. H2 O की संरचना – इन संकुलों में से प्रत्येक में अमोनिया तथा जल अणु कोबाल्ट की सभी छः द्वितीयक संयोजकताओं को संतुष्ट कर देते हैं। फलतः तीनों क्लोरीन कोबाल्ट की प्राथमिक संयोजकता से बंधित होंगे जो आयननीय होने के कारण विलेय होने पर सभी CI- आयनों को संकुल आयन से मुक्त कर देते हैं। CoCl3.5NH3. H2O को CoCl3.6NH3 से एक NH3अणु के H2O द्वारा विस्थापन से प्राप्त यौगिक माना जा सकता है। इन्हें चित्र 3.2 में दिखाया गया है, जहाँ टूटी लाइनें आयनिक आबन्ध प्रदर्शित करती हैं। अतः इन्हें [Co(NH3)6]Cl3 तथा [Co(NH3)5 H2O]Cl3 सूत्रों द्वारा प्रदर्शित किया जाना उचित है।

(ii) CoCl3.5NH3 की संरचना – CoCl3.5NH3 में हमारे पास केवल पांच अमोनिया अणु है जो पांच द्वितीयक संयोजकताओं द्वारा Co से बन्ध जाते हैं। अतः शेष एक द्वितीयक संयोजकता

को सन्तुष्ट करने के लिए एक क्लोरीन परमाणु कोबाल्ट के H3N उपसहसंयोजन क्षेत्र में घुस आता है। इस प्रकार तीन क्लोरीन परमाणुओं में से एक तो धातु परमाणु से दृढ़तापूर्वक जुड़ा होगा जबकि शेष दोनों क्लोरीन परमाणु आयनिक बन्ध द्वारा बन्धित H,N होने के कारण उपसहसंयोजन क्षेत्र से बाहर रहते हैं। अतः इन्हें [Co(NH3)5Cl]Cl2 सूत्र द्वारा लिखा जाता है। तथा इसकी संरचना सामने दी गयी है। इस प्रकार एक संकुल अणु में तीन क्लोरीन की उपस्थिति के उपरान्त विलयन में दो ही क्लोराइड आयन प्राप्त होंगे।

(iii) CoCl3.4 NH3 की सरचना- इस यौगिक में मात्र चार NH3 अणु हैं। Co की छः द्वितीयक संयोजकताओं की संतुष्टि हेतु दो क्लोरीन उपसहसंयोजन क्षेत्र में प्रवेश कर जाते हैं जिसके फलस्वरूप CoCl3.4NH3 में दो क्लोरीन परमाणु द्वितीयक संयोजकता द्वारा बन्धे होंगे तथा शेष एक CI रूप में होगा। अतः इस यौगिक को [Co(NH3) 4 Cl2] सूत्र द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। संघटन CoCl3.4NH3 के दो यौगिक बनाये जा चुके हैं जिनमें से एक बैंगनी रंग का है तथा दूसरा हरे रंग का इन यौगिकों का सूत्र एक ही होने के उपरान्त इनके रासायनिक आचरण एक-दूसरे से भिन्न हैं। वर्नर ने संकुलों समावयवता (isomerism ) के अस्तित्व का सुझाव देते हुए कहा कि बैंगनी तथा हरे रंग के यौगिक दो समावयव हैं। उपसहसंयोजक क्षेत्र में दृढ़तापूर्वक बन्धे दो क्लोरीन परमाणु एक दूसरे की तुलना में दो तरह व्यवस्थित किये जा सकते हैं। पहला वह जिसमें ये दोनों क्लोरीन परमाणु पड़ौसी है तथा सिस (cis) स्थान ग्रहण करते हैं जैसा कि चित्र 3.3 (a) में दिखाया गया है तथा दूसरा वह जिसमें ये एक दूसरे से विपरीत स्थित होकर ट्रान्स (trans) स्थान ग्रहण करते हैं जैसाकि चित्र 3.3(b) में दिखाया गया है। क्योंकि ये दोनों पृथक-पृथक यौगिक हैं, अतः इनके रंग भी अलग-अलग है।

संरचना – CoCl3.3NH3 में सभी छ: समूह – तीन अमोनिया व तीन क्लोरीन द्वितीयक संयोजकताओं को संतुष्ट करने में काम में आते हैं तथा कोई भी क्लोरीन परमाणु आयनिक रूप में नहीं होता। यही कारण है कि CoCl3.3NH3 में कोई आयननीय क्लोरीन नहीं है तथा यह संकुल बाह्य क्षेत्र रहित है। इसे [Co(NH3)3Cl3] सूत्र द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। इस सूत्र के लिए भी [Co(NH3)4Cl2] की भांति NH3 (एवं CI) को दो भिन्न आपेक्षिक स्थितियों में व्यवस्थित किया जा सकता है जो चित्र 3.4 (a) व (b) में दिखाई गई हैं। चित्र 3.4(a) में तीनों CI तथा तीनों NH3 परस्पर निकट की स्थिति अर्थात् cisस्थिति में हैं जबकि चित्र 3.4(b) में दो NH3  2CI- एक-दूसरे से दूर अर्थात् trans स्थिति में हैं। प्रकार के केवल एक-एक ही संकुल बनाये जा सके हैं। अतः इन संकुलों के लिए केवल सममित ज्यमिति ही स्वीकार की गई क्योंकि इनमें सभी कोने (लिगण्ड a व b की स्थिति) केन्द्र (धातु M) से समान दूरी पर स्थित होने के कारण सिद्धान्तः एक ही सकुल बनाया जा सकता है। इस आधार पर वर्नर ने 4 समन्वय संख्या के लिए चतुष्फलकीय व वर्गाकार (चित्र सं. 3.13) तथा 6 समन्वय संख्या के लिए अष्टफलकीय, षटकोणीय तथा त्रिभुजीय प्रिज्मेटी ज्यामितियों को प्रथम दृष्ट्या चुना (चित्र सं. 3.29) ।

सिद्धान्तत: Ma, b, प्रकार के यौगिकों के लिए चतुष्फलकीय संरचना होने पर एक तथा वर्गाकार = संरचना होने पर दो संकुल बन सकते हैं। वर्नर ने (PI (NH3)2CI2 ] के दो समावयव (सिस व ट्रान्स) बनाने में सफलता प्राप्त की। इस आधार पर [PI(NH3)2Cl2] संकूल के लिए वर्गाकार ज्यामिति निर्धारित की। चार समन्वय संरचना वाले संक्रमण धातु संकुलों के लिए सामान्यतः यही ज्यामिति पाई जाती है।

इसी प्रकार, [Ma4b2] प्रकार के संकुलों द्वारा उपयुक्त ज्यामिति का चयन किया जा सकता है। समतलीय बेंजीन जैसी तथा त्रिकोणीय प्रिज्म व्यवस्थाओं में चूंकि 2.3 तथा 4 बिन्दु 1 से समान दूरी पर नहीं है ‘b’ समूहों को (1.2). (1. 3) तथा ( 1. 4) स्थानों पर रखकर तीन समावयव प्राप्त किये जा सकते हैं। जबकि अष्टफलकीय संरचना होने पर दो संरचनाएँ (चित्र 3.28) सिस – व ट्रान्स- ही प्राप्त होंगी। प्रयोगशाला में [Co(NH3),CI2]CI यौगिक के बैंगनी तथा हरा दो समावयव बनाये जा चुके हैं। चूँकि अष्टफलकीय ज्यामिति के लिए पूर्व अनुमानित समावयवों की संख्या प्रयोगशाला में वास्तव में बनाये जा सकने वाले समावयवों की संख्या के समान है. 6 समन्वय संख्या वाले यौगिकों की अष्टफलकीय संरचना मानी जाती है। बाद के अनुसंधानों से भी समन्वय संख्या 4 के चतुष्फलकीय या वर्गाकार तथा 6 समन्वय संख्या के लिए अष्टफलकीय ज्यामिति पाये जाने की पुष्टि हो चुकी है।

  1. संकुलों के अस्तित्व का पूर्वानुमान -वर्नर के सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक धातु परमाणु की एक निश्चित द्वितीयक संयोजकता होती है। स्थायी यौगिक बनाने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी सभी संयोजकताएँ संतुष्ट हों। लेकिन यदि बंधन के लिए उपलब्ध समूहों की संख्या द्वितीयक संयोजकता की संख्या से कम है तो धातु की सभी संयोजकताओं के संतुष्ट होने का प्रश्न ही नहीं उठता। अतः ऐसे संकुलों का निर्माण नहीं किया जा सकेगा। उदाहरण के लिए कोबाल्ट ऐम्मीन संकुल श्रृंखला में [Co(NH3)3Cl3 ] अंतिम स्थायी यौगिक है, क्योंकि यहाँ उतने ही समूह (6) है जितनी कि Co की द्वितीयक संयोजकता। यदि उपलब्ध समूहों की संख्या 5.4 आदि ही हो तो स्थायी यौगिक नहीं बन सकेंगे। यही कारण है कि [Co(NH3)2Cl3], [Co(NH3),C2]’, [Co(NH3 ) Cl3 ] आदि सूत्र वाले यौगिक बनाए नहीं जा सके हैं क्योंकि इनमें कुल लिगण्डों की संख्या धातु की द्वितीयक संयोजकता (समन्वय संख्या) से कम है।

 वर्नर के सिद्धान्त के प्रायोगिक प्रमाण (Experimental verification of Werner’s theory )

यह कहा जाता है कि बर्नर को एक रात सपना आया और उसके पश्चात् दोपहर तक उसने वह क्रान्तिकारी शोधपत्र तैयार कर लिया था जिसका विवेचन पिछले पृष्ठों में किया गया है। इसके बाद के बीस वर्षों के लिए वर्नर ने अपने मूल सिद्धान्तों की अभिधारणाओं को सिद्ध करने हेतु अपने समर्पित कर दिया। यह महत्वपूर्ण है कि इस सिद्धान्त की प्रत्येक अभिधारणा न केवल वर्नर द्वारा आपतु बहुत से अन्य वैज्ञानिकों द्वारा प्रयोगों की सहायता से प्रमाणित की गई। वर्नर के उपसहसंयोजन यौगिकों के क्षेत्र में दिये गये उनके योगदान के लिए वर्नर को उपसहसंयोजन रसायन का पिता कहते हैं। वर्नर के सिद्धान्त के पक्ष में कुछ प्रायोगिक प्रमाणों का विवेचन नीचे किया गया है—

  1. AgNO3 विलयन के साथ संकुलों की अभिक्रिया – CoCI3 तथा NH3 के उपर्युक्त सभी यौगिकों में तीन क्लोरीन परमाणु हैं, लेकिन यदि प्रत्येक यौगिक के जलीय विलयन में अधिकता में सिल्वर नाइट्रेट विलयन डाला जाये तो तुरन्त अवक्षेपित हो जाने वाले क्लोरीन परमाणुओं की संख्या CoCl3.6NH3 तथा CoCl3.5NH3 H2O से तीन-तीन, CoCl3.5NH, से दो तथा CoCl3.4NH3 एक है, लेकिन CoCI3.3NH3 से कोई क्लोरीन अवक्षेपित नहीं होता है। इससे स्पष्ट रूप से यह संकेत मिलता है कि इन यौगिकों में दो तरह के क्लोरीन परमाणु है- एक वे जिन्हें Ag+ आयनों से अवक्षेपित किया जा सकता है, दूसरे वे जिन्हें इस प्रकार से अवक्षेपित नहीं किया जा सकता। यह तभी संभव है। जब पहली प्रकार के क्लोरीन परमाणु आयनिक बन्धों तथा दूसरी तरह के क्लोरीन परमाणु प्रकार बंध द्वारा धातु परमाणु से बंधित हों। CoCI3 तथा NH3 के इन यौगात्मक यौगिकों के आयनन से मिलने वाली क्लोरीन की भिन्न-भिन्न संख्याएँ केन्द्रीय धातु आयन की प्राथमिक तथा द्वितीयक संयोजकताओं के अस्तित्व के पक्ष में प्रमाण उपलब्ध कराती है। इन अभिक्रियाओं से यह भी प्रमाणित होता है कि किसी धातु आयन के लिए द्वितीयक संयोजकताओं की संख्या निश्चित होती है तथा संकुल के निर्माण हेतु सभी द्वितीयक संयोजकताओं का संतुष्ट होना आवश्यक है।

वर्नर सिद्धान्त की सहायता से इन यौगिकों को सूत्रबद्ध कर इनका आयनन निम्न प्रकार दर्शाया जा सकता है-

CoCl3.6NH3 तथा CoCl3. 5NH3. H2O आयनन के पश्चात् तीन CI- आयन उपलब्ध कराते हैं। यही कारण है कि AgNO3 विलयन डालने पर सभी क्लोरीन तुरन्त AgCI के रूप में अवक्षेपित हो जाते हैं। CoCl3.5NH3 तथा CoCl3.4NH3 में क्रमशः 2 व 1 CI- आयन अवक्षेपित होते हैं क्योंकि इन संकुलों के आयनन से इतनी ही संख्या में क्लोराइड आयन प्राप्त होते है। CoCl3.3NH3 के विलयन में AgNO3 डालने पर कोई अवक्षेप इसलिए प्राप्त नहीं होता क्योंकि इसमें आयननीय क्लोरीन है ही नहीं। AgNO3 विलयन के साथ इन संकुलों की अभिक्रियाएँ निम्न प्रकार प्रदर्शित की जा सकती हैं।

  1. HCl तथा H2SO4 के साथ अभिक्रियाएँ हम जानते हैं कि HCl अमोनिया के साथ तेजी से अभिक्रिया करके अमोनियम क्लोराइड के सफेद धूम देता है। तथापि, जब इन यौगिकों को हाइड्रोक्लोरिक अम्ल के साथ गर्म किया जाता है तो 110°C तक भी इनमें से अमोनिया तथा जल अणु नही निकल पातहैं जो इन अणुओं को कोबाल्ट परमाणु के साथ दृढ़तापूर्ण बन्धे होने का सुझाव देते हैं।

संकुलों का यह आचरण वर्नर की इस धारण को बल प्रदान करता है कि द्वितीयक संयोजकता द्वारा समूह दृढ़तापूर्वक बंधे होते हैं।

द्वितीयक संयोजकता से बने बंधों की दृढ़ता इन संकुलों की H2SO4 के साथ अभिक्रिया से भी सिद्ध होती है। हम जानते हैं कि आयनिक क्लोराइड सल्फ्यूरिक अम्ल के साथ HCl के रूप में निकल जाते. है । इन संकुलों की जब H2SO4 के साथ अभिक्रिया की जाती है तो CoCl3.6NH3 तथा CoCl3.5NH3. H2O से तीनों CI- तथा CoCl3.5NH3 एव CoCl3.4NH3 से क्रमशः दो व एक C1- ही HCI के रूप में बाहर निकलते हैं, जबकि CoCl3.3NH3 से HCl बनता ही नहीं है। जो क्लोरो समूह पीछे रह जाते है वे द्वितीयक संयोजकता से दृढ़ता से बंधे रहने के कारण H2 SO4 से अप्रभावित रहते हैं। इस प्रकार, प्राथमिक संयोजकता से बंधित क्लोरीन द्वितीयक संयोजकता से बंधित क्लोरीन की आसानी से मुक्त हो जाती है। इस प्रयोग से वर्नर सिद्धान्त को पुनः बल मिलता है।

  1. वैद्युत चालकता (Electrical Conductance) – हम जानते हैं कि आयनों से निर्मित पदार्थ विद्युत चालक होते हैं। विलयन की चालकता के मापन से उसमें उपस्थित आयनों की संख्या निकाली जा सकती है। वर्नर के सिद्धान्त के अनुसार धातु से उसकी द्वितीयक संयोजकता के माध्यम से समूह इतनी से बंधित होते हैं कि ये समूह तथा धातु एक आयन का निर्माण करते हैं। इस प्रकार प्रत्येक संकुल में ll कोष्ठक के अन्दर का सम्पूर्ण पदार्थ, अर्थात समन्वय मण्डल (coordination sphere), एक आयन का कार्य करता है तथा इस कोष्ठक के बाहर की प्रजाति भी आयनिक होती है। यदि वर्नर की यह अभिधारणा सही है तो संकुलों में आयनों की संख्या का सही निर्धारण सिद्धान्तः संभव होना चाहिए। सारणी-3.3 में प्लेटीनम (IV) संकुलों की श्रृंखला के लिए धनायन तथा ऋणायनों की संख्याओं के योग द्वारा विलयन में आयनों की कुल संख्या (प्रति अणु) की सैद्धान्तिक गणना की गई है तथा अन्तिम कॉलम में वैद्युत चालकता प्रयोगों द्वारा निकाली गई आयनों की कुल संख्या दी गई है। दोनों विधियों से बिल्कुल एक जैसे प्राप्त परिणाम वर्नर सिद्धान्त की प्रमाणिकता की पुष्टि करते हैं।
  2. द्विध्रुव आघूर्ण (dipole moment) तथा विलेयता – [Ma2b2] तथा [Ma4b2] प्रकार के सकुलों के ट्रान्स- समावयव सममित होने के कारण अध्रुवीय होने चाहिए है, जबकि असममित सिस समावयव ध्रुवीय होंगे। प्रयोगों द्वारा यह पाया जाता है कि सिस- समावयवों, उदाहरण के लिए सिस [Pt(NH3)2CI2] तथा सिस (Co (NH3)4 Cl2], के लिए द्विध्रुव आघूर्ण का कुछ मान अवश्य होता है जबकि ट्रान्स समावयवों के लिए द्विध्रुव आघूर्ण शून्य होता है। इसके अतिरिक्त सिस- समावयव जल जैसे ध्रुवीय विलयकों में ट्रांस- समावयवों की तुलना में अधिक विलेय हैं। ये दोनों प्रयोगिक परिणाम वर्नर सिद्धान्त द्वारा निकाले गये निष्कर्ष की प्रमाणिकता की पुष्टि करते हैं।

(v) स्पेक्ट्रमी प्रमाण -X – किरण विवर्तन (X-ray diffraction), अवशोषण स्पेक्ट्रा (absorption spectra) तथा नाभिकीय चुम्बकीय अनुनाद स्पेक्ट्रॉमिती ( nuclear magnetic resonance spectros copy) जैसी बहुत सी आधुनिक भौतिक विधियाँ उपलब्ध है जो निस्संदेह वर्नर के इस दृष्टिकोण को बल प्रदान करती हैं कि उपसहसंयोजन यौगिकों में धातु आयन केन्द्र पर स्थित होता है तथा आण्विक एवं आयनिक समूह, जिन्हें लिगण्ड कहते हैं, इससे बंधित होते हैं। क्रिस्टलीय ठोस के X- किरण अध्ययन से धातु-लिगण्ड दूरी का सीधे ही पता चल जाता है। उपसहसंयोजन यौगिकों के लिए उपलब्ध बहुत से प्रकार के स्पेक्ट्रमों की व्याख्या केवल धातु-लिगण्ड बन्ध की उपस्थिति तथा लिगण्ड समूहों के मह य बन्धन की अनुपस्थिति मानकर की जा सकती हैं। इसके अतिरिक्त अष्टफलकीय, वर्गाकार समतलीय तथा चतुष्फलकीय सर्वाधिक सामान्य ज्यामितियाँ निकाली गई हैं- ये वे ज्यामितियाँ है जिनका सुझाव वर्नर द्वारा दिया गया था, यद्यपि आधुनिक अध्ययनों से पता चलता है कि अधिकांश उपसहसंयोजन यौगिकों की आकृतियाँ, पूर्णतः नियमित न होकर कुछ विकृत पाई जाती है।