मैं नास्तिक क्यों हूँ पुस्तक के लेखक कौन है , मैं नास्तिक क्यों हूँ किताब किसने द्वारा लिखी गयी थी

जाने मैं नास्तिक क्यों हूँ पुस्तक के लेखक कौन है , मैं नास्तिक क्यों हूँ किताब किसने द्वारा लिखी गयी थी ?

उत्तर : इस पुस्तक को भगत सिंह जी के द्वारा लिखा गया था |

प्रश्न: भगतसिंह का क्रांतिकारी आतंकवाद में योगदान बताइए।
उत्तर: ये पजांब के सिख थे। डी.ए.बी. कॉलेज लाहौर में स्नातक की शिक्षा के दौरान अपने दो अध्यापकों भाई परमानंद एवं जयचंद विद्यालंकार से प्रभावित हुए। असहयोग आन्दोलन को एकाएक वापस लिए जाने से युवाओं में निराशा व्याप्त हो गई थी। ऐसे में शक्ति एवं हिंसा के माध्यम से अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने की रणनीति बनाई गई, जिसके प्रमुख स्तम्भ भगतसिंह थे। भगतसिंह के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपलब्किलन एसोसिएशन एवं लाहौर में इन्होंने श्नौजवान सभाश् की स्थापना की। आगे चल कर भगतसिंह के नेतृत्व में अनेक क्रांतिकारी गतिविधियों का संपादन किया गया। 1928 में इन्होंने अंग्रेज अफसर सांडर्स की हत्या लाहौर में कर दी। अप्रैल, 1929 में इन्होंने बी.के. दत्त के साथ मिलकर केन्द्रीय विधानसभा पर बम फेंका था।
यहां ज्ञातव्य है कि भगतसिंह द्वारा निरूपित क्रांतिकारी आतंकवाद कहीं अधिक ‘टेक्नीकल‘ था एवं इसमें विचारधारा की अपनी भूमिका थी। भगतसिंह ने अपने मुकदमे में स्पष्ट रूप से घोषणा की थी कि उसके लिए आन्दोलन महज बम एवं पिस्तौल की उपासना नहीं थी, बल्कि वह सामाजिक व्यवस्था में मूल परिवर्तन का पक्षपाती था, जिससे देशी और विदेशी दोनों शोषक व्यवस्थाओं का अंत हो एवं सर्वहारा का अधिनायकवाद स्थापित हो सके। इन्होंने ‘‘मैं नास्तिक क्यों हूँ‘‘ नामक पुस्तक लिखी। 23 मार्च, 1931 को लाहौर के केन्द्रीय जेल में सुखदेव एवं राजगुरू के साथ इन्हें फांसी दे दी गई। यद्यपि भगत सिंह का क्रांतिकारी आन्दोलन सफल नहीं हो सका। बावजूद इसके उन्होंने महत्वपूर्ण कार्य किए। पूर्ण स्वतंत्रता के लिए उन्होंने अभूतपूर्व बलिदान एवं त्याग का उदाहरण प्रस्तुत किया, जो भारतीयों के लिए सदैव प्रेरणास्रोत रहा।
प्रश्न: भारतीय राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में गांधीजी की भूमिका का वर्णन कीजिए।
उत्तर: 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से लेकर 1916 तक यह धीमी गति से संवैधानिक सुधारों की मांग करती रही तथा उदारवादियों एवं उग्रराष्ट्रवादियों के परस्पर टकराव की नीति के कारण इसका नेतृत्व दुल-मुल रहा, परन्तु गांधीजी द्वारा 1917 से 1920 तक भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अपने सत्याग्रही आंदोलनों की सफलता के उपरान्त 1920 से भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व प्रारम्भ किया गया तथा 1920 से 1947 तक भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन लगभग गांधीजी के नेतृत्व में रहा।
1917 से 1947 तक राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान गांधीजी के योगदान को निम्नानुसार विश्लेषित किया जा सकता है –
ऽ 1917 का चम्पारण सत्याग्रह आंदोलन।
ऽ 1918 का खेड़ा सत्याग्रह आंदोलन।
ऽ 1918 का अहमदाबाद मिल मजदूर आंदोलन।
ऽ 1919 से 1922 तक खिलाफत आंदोलन में सकारात्मक भूमिका।
ऽ 1920 से 1922 तक असहयोग आंदोलन का नेतृत्व।
ऽ 1924 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बेलगाम अधिवेशन की अध्यक्षता।
ऽ 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन का नेतृत्व।
ऽ 1931 का गांधी इरविन समझौता।
ऽ 1932-34 के मध्य पुनः सविनय अवज्ञा आंदोलन।
ऽ द्वितीय गोलमेज सम्मेलन (1931) आई.एन.सी का प्रतिनिधित्व।
ऽ 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन का नेतृत्व एवं करो या मरो का नारा दिया गया।
ऽ भारत विभाजन के दौरान हिन्दू-मुस्लिम दंगों के दौरान शांति दूत के रूप में भूमिका।
इस प्रकार उपर्युक्त आंदोलनों का नेतृत्व करते हुए गांधीजी द्वारा हिन्दू मुस्लिम एकता, मध्यपान निषेध, अस्पृश्यता के अन्त, विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार, स्वदेशी वस्त्रों के निर्माण, चरखे की अनिवार्यता तथा अन्य समाज सुधार कार्यों के माध्यम से राष्ट्रीय आंदोलन को रचनात्मक आंदोलन में परिवर्तित किया तथा अंहिसात्मक सविनय अवज्ञा व सत्याग्रह के द्वारा भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को विशाल जन समाज तक विस्तृत किया तथा युवकों एवं महिलाओं को भी आंदोलन में भाग लेने हेतु प्रेरित किया। 1920 से 1947 के मध्य गांधीजी द्वारा न केवल राजनीतिक नेतृत्व किया गया अपितु भारतीय समाज को सत्य, अंहिसा, अपरिग्रह, अस्तेय एवं ब्रह्मचर्य आदि के रूप में मूल मंत्र प्रदान किये गये तथा अपने न्यासिता सिद्धान्त द्वारा भारतीय निर्धन वर्ग के कल्याण हेतु धनिक वर्ग को आगे आने हेतु प्रेरित किया। ग्रामदान, भूदान, अन्त्योदय आदि संकल्पनाओं के क्रियान्वयन हेतु आधार तैयार किया।
इस प्रकार गांधीजी द्वारा नैतिक, आध्यात्मिक, राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में अपनी व्यावहारिक गतिविधियों द्वारा न केवल भारतीय जनमानस को प्रभावित किया अपितु उन्हें अपना अनुगामी बनाये रखते हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नेतृत्व करते हुए इसे 1947 की 15 अगस्त को भारतीय स्वाधीनता में परिणित किया।

प्रश्न: एम.एन. रॉय के मानववाद एवं लोकतंत्र सम्बन्धी विचारों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर: रॉय मानववाद के महान समर्थक थे। मानववाद स्वतंत्रता का दर्शन है इसलिए मानववाद कहता है कि मनुष्य को हमेशा स्वतंत्र रहना चाहिए, स्वतंत्र लोग ही स्वतंत्र विचार देते हैं उनसे ही क्रांति होती है जैसे – मार्क्स ने रूस में स्वतंत्र विचार दिये व क्रांति हो गई। इसलिए मनुष्य को किसी ……… पर बलिदान नहीं करना चाहिए मनुष्य अपना भाग्य स्वंय बनाता है। उसमें किसी ईश्वर का कोई हाथ नहीं है। मनुष्य को अंध विश्वासी नहीं होना चाहिए विज्ञान ने हमारी आँखें खोल दी है। कॉपरनिकस ने हमें रास्ता दिखाया। मनुष्य को अपने विवेक का प्रयोग करना चाहिए ताकि वो नये शोध कर सके ऐसे स्वतंत्र लोग ही दुनिया में क्रांति ला सकते है इसे रॉय का रूमानी क्रांतिवाद कहते हैं। जन 1948 में रॉय ने देहरादून में अपने मित्रों की एक बैठक बुलाई उसमें घोषित किया कि उसने अपनी रेडिकल डेमोक्रेटिक पार्टी को भंग कर दिया व अब उन्होंने 22 सूत्रीय कार्यक्रम प्रस्तुत किया। जिसे उसका उग्र मानववाद कहा जाता है। अब रॉय कहते हैं कि स्वतंत्र लोग ही स्वतंत्र चिन्तन कर सकते है इसलिए दल व्यवस्था नहीं होनी चाहिए क्योंकि पार्टियां हिंसा व भ्रष्टाचार फैलाती हैं पार्टी के सदस्यों की स्वतंत्रता कुचल दी जाती है, क्योंकि हर पार्टी का कोई सर्वोच्च नेता होता है जो वास्तव में हिटलर की तरह फासीवादी हो जाता है। इसलिए रॉय कहते है कि भारत में सांस्कतिक नवजागरण होना चाहिए ताकि लोगों को लोकतंत्र के बारे में जानकारी मिले व इसी क्रांति के बाद भारत में लोकतंत्र को सफल बनाया जा सकता है।