नदी के किस भाग में स्थलाकृति का निर्माण होता है , ऐसी स्थलाकृति का निर्माण क्या होता है क्यों होता है ?

 लेख – नदी के किस भाग में स्थलाकृति का निर्माण होता है , ऐसी स्थलाकृति का निर्माण क्या होता है क्यों होता है ? 

स्थलरूपों का वर्गीकरण
क्षेत्र-पर्यवेक्षण एवं गणितीय परिकलन के आधार पर स्थलरूपों का दो वर्गीकरण किया जाता है. (i) अजननिक वर्गीकरण, तथा (ii) जननिक वर्गीकरण
(i) अ-जननिक वर्गीकरण – इसका आधार गणितीय परिकलन है, परन्तु इसके द्वारा स्थलरूपों के उत्पत्ति एवं विकास की वोधगम्यता का अभाव परिलक्षित होता है। उदाहरणार्थ – पहाड़ी ढाल के कोणों के आधार पर वर्गीकरण किया जाय तो – उत्तल ढाल, मुक्तपृष्ठ ढाल, सरल रेखीय ढाल एवं अवतल ढाल आदि वर्गीकरण होता है। परन्तु यह गणितीय परिकलन पर आधारित है, जिस कारण स्थलरूपों की उत्पत्ति एवं विकास का वास्तविक वोध सम्भव नहीं होता है। सरिता, सागरीय तरंगों आदि का भी वर्गीकरण इसी आधार पर किया जाता है।
(ii) जननिक वर्गीकरण (Genetic Classification) – स्थलरूपों के वर्गीकरण में जव इनकी उत्पत्ति को आधार मानकर वर्गीकरण किया जाय, तब वह जननिक वर्गीकरण कहलाता है। उदाहरणार्थ – एकाकी स्थलरूपों का वर्गीकरण, संयुक्त स्थलरूपों का वर्गीकरण आदि। एकाकी स्थलरूपों का निम्न वर्गीकरण किया जाता है –
(क) पर्वत का जननिक वर्गीकरण – वलित, अवरोधी, गुम्बदाकार, अवशिष्ट पर्वत आदि ।
(ख) आदि घाटियों का जननिक वर्गीकरण – अनुवर्ती, परवर्ती, प्रत्यानुवर्ती, नवानुवर्ती, अनुक्रमवर्ती आदि।
(ग) ढाल का जननिक वर्गीकरण – विवर्तनिक, अपरदनात्मक, संचयात्मक आदि।
एकाकी स्थलरूपों के अलावा वर्तमान में भू-आकृति विज्ञान में स्थलरूपों के विश्लेषण-हेतु संयुक्त स्थलरूपों का वर्गीकरण किया जाता है-
(क) तरुण स्थलाकृति, प्रौढ़ स्थलाकृति एवं जीर्ण स्थलाकृति आदि।
(ख) एक चक्रीय स्थलाकृति, बहुचक्रीय स्थलाकृति, अनावृत्त स्थलाकृति एवं पुनर्जीवित स्थलाकृति आदि।
‘जलवायु का स्थलाकृति के सृजन में महत्वपूर्ण योगदान होता है।‘ इस तथ्य को मानने वाले अनेक विद्वानों ने जलवायु के आधार पर स्थलरूपों का वर्गीकरण किया है। पेंक महोदय ने आर्द्र, अर्ध आर्द्र, शुष्क, अर्ध शुष्क, हिमानी आदि स्थलरूपों का वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। पेल्टियर महोदय ने हिमानी, परिहिमानी, बोरियल, सागरीय, सेल्वा, माडरेट, सवाना, अर्धशुष्क, शुष्क आदि स्थलरूपों का वर्गीकरण किया है। इन वर्गीकरणों के अध्ययनों से स्थलरूपों की उत्पत्ति एवं विकास का बोध होता है।
स्थलरूपों की व्याख्या
स्थलरूपों के आधार पर इनकी उत्पत्ति, संकल्पना एवं विकास की व्याख्या की जाती है। भू-आकृति विज्ञान में स्थलरूपों के अध्ययन में जननिक एवं अ-जननिक दोनों प्रकार के वर्गीकरण का महत्व है। स्थलरूपों के अध्ययन की निम्न आधार पर व्याख्या प्रस्तुत की जाती है-
(क) विकास उपगमन के आधार पर स्थलरूपों की व्याख्या- स्थलरूपों के विकास में सहायक तथ्यों के आधार पर स्थलरूपों की व्याख्या की जाती है। डेविस के अनुसार – संरचना, प्रक्रम तथा अवस्थाओं का प्रतिफल स्थलरूप होता है। समस्त भू-आकृति विज्ञानवेत्ता मतैक्य नहीं हैं। ‘स्थलरूपों के विकास में भूगर्भिक संरचना महत्वपूर्ण नियन्त्रक कारक होती है।‘ इस मत को अधिकांश विद्वान मानते हैं। जलवायु स्थलरूपो के विकास एवं उद्भव में महत्वपूर्ण योगदान देती है। किसी स्थान की जलवायु के आधार पर वहाँ का स्थलरूप सृजित होता है। उदाहरणार्थ- आर्द्र प्रदेश के चूनापत्थर वाले क्षेत्र में कास्ट स्थलाकृतियोंय अर्द्ध शुष्क प्रदेश में पेडीमेण्ट, बजाडा, प्लेया आदि स्थलाकृतियों का निर्माण एवं विकास होता है। इसी प्रकार आद्र्र प्रदेशों में उत्तल एवं अवतल ढाल का निर्माण होता है। इन तथ्यों के आधार पर इस संकल्पना का प्रतिपादन किया गया है कि ‘प्रत्येक जलवायु प्रकार अपना विशिष्ट स्थलरूप निर्मित करता है।‘ स्थलरूपों के विकास में संरचना का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। जिस प्रकार की संरचना होगी, उसी प्रकार का स्थलरूप सृजित होगा। इस आधार पर – ‘स्थलरूपों के निर्माण में संरचना सबसे महत्वपूर्ण नियन्त्रक कारक होती है‘ संकल्पना का विश्लेषण किया गया है।
(ख) कालानक्रम उपगमन के आधार पर स्थलरूपों की व्याख्या – किसी स्थान की स्थलाकतियों में प्राचीन स्थलाकृतियों के अवशेष पाये जाते हैं। इन स्थलरूपों को देखकर यह व्याख्या की जाती है कि – इसका प्रारम्भिक स्वरूप कैसा था? वर्तमान स्वरूप कैसे प्राप्त हुआ? वर्तमान स्वरूप प्राप्त करने में कितना समय लगा? वर्तमान समय में भू-आकृति विज्ञान में इसका अध्ययन तीव्रगति से किया जा रहा है। इसके अन्तर्गत प्राचीन अपरदन के अवशेष की पहिचान, उसका तिथीकरण तथा विकास की अवस्था की व्याख्या की जाती है। इस व्याख्या के आधार पर इस संकल्पना का प्रतिपादन किया गया है – ‘वर्तमान स्थलरूप वर्तमान जलवायु का प्रतिफल होता है, परन्तु इसमें अतीत की जलवायु के द्वारा निर्मित स्थलरूप भी परिलक्षित होते हैं।‘
सागर तटवर्ती क्षेत्रों के विकास का अध्ययन सागर-तल में परिवर्तन के आधार पर किया जाता है। सागर तल में जितनी बार परिवर्तन होता है, स्थलरूप उतनी अवस्थाओं को पार करता है। ग्रीन महोदय ने सागर के तटवर्ती क्षेत्रों के प्रवणित वक्र का अध्ययन निम्न सूत्र द्वारा किया है –
Y= a – k Log (P-X)
y = सागर-तल से नदी की ऊँचाई,
a-k = नदी के अचर,
P = नदी की लम्बाई, तथा
x = नदी के मुहाने से दूरी।
(ग) प्रकमरूप उपगमन के आधार पर स्थलरूप की व्याख्या- स्थलरूप विशेष प्रकार के प्रक्रम के प्रतिफल होते हैं। जिस प्रकार का प्रक्रम होता है उसी प्रकार की स्थलाकृतियों का उद्भव होता है। उदाहरणार्थ – पवन प्रक्रम द्वारा छत्रकशिला, यारडंग, बालुका स्तूप, ज्यूजेन आदि, नदी प्रक्रम द्वारा नदी घाटी, जलप्रपात, विसर्प, बाढ़ का मैदान आदिः तथा हिमानी प्रक्रम द्वारा U आकार के घाटी, मोरेन, हिमगह्वर आदि स्थलाकृतियों का सृजन होता है। ‘प्रत्येक प्रक्रम अपना अलग स्वरूप निर्मित करता है‘ इस संकल्पना का प्रतिपादन उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर किया गया है।
(घ) संयुक्त उपगमन के आधार पर स्थलरूप की व्याख्या – वर्तमान में प्रादेशिक भू-आकारिकी का अध्ययन तीव्रगति से किया जा रहा है। इसके अन्तर्गत संयुक्त उपगमन के आधार पर स्थलरूपों की व्याख्या प्रस्तुत की जाती है। कई उपागमन के आधार पर अध्ययन में उत्कृष्टता का समावेश होता है।
स्थलरूपों के विकास के अध्ययन में अनेक जटिलताओं एवं भ्रान्तियों का उद्भव होता है। यदि गणितीय परिकलन भ्रान्ति उत्पन्न करता है, तब क्षेत्र-पर्यवेक्षण इसको दूर करता है। दुर्गमता की जटिलता से यदि क्षेत्र-पर्यवेक्षण कठिन होता है, तब गणितीय परिकलन व्याख्या में सहायक होता है।