क्रिप्स मिशन में कितने सदस्य थे , क्रिप्स मिशन भारत कब आया इस मिशन के अध्यक्ष कौन थे ?

प्रश्न : क्रिप्स मिशन में कितने सदस्य थे , क्रिप्स मिशन भारत कब आया इस मिशन के अध्यक्ष कौन थे ?

1947 में भारत (स्वतंत्रता से पूर्व)

फरवरी 1946 में, ब्रिटेन की एटली सरकार ने भारत में एक उच्चस्तरीय कैबिनेट मिशन भारत भेजने की घोषणा की। इसके तीन सदस्य थे-सर स्टैफर्ड क्रिप्स, लार्ड पैथिक लारेंस एवं ए.बी. अलेक्जेंडर। सर स्टैफर्ड क्रिप्स मिशन के अध्यक्ष थे। इस मिशन का मुख्य कार्य उन साधनों एवं मार्गों की खोज करना था, जिनके द्वारा शांतिपूर्ण तरीके से भारत को सत्ता हस्तांतरित की जा सके। इस मिशन के प्रारूप का निर्धारण क्रिप्स द्वारा किया गया था। केबिनेट मिशन योजना के प्रारूप के लिए प्रारंभिक तौर पर क्रिप्स जिम्मेदार था, जिसने दिल्ली में एक न्यूनतम केंद्रीय सरकार द्वारा समन्वित, भारत के लिए एक त्रिस्तरीय संघ प्रस्तावित किया, जो वैदेशिक मामलों, संचार, रक्षा कार्यों तक सीमित होगा एवं उन वित्तीय मामलों को देखेगा जिनकी उपरिलिखित राष्ट्रव्यापी मामलों की व्यवस्था हेतु अपेक्षा है। साम्प्रदायिक समस्याओं का समाधान उसी संप्रदाय के सदस्यों द्वारा किया जाए। भारतीय देशी नरेशों के राज्य भी संघ में सम्मिलित किए जाएं। केबिनेट मिशन योजना के अनुसार, भारत को प्रांतों के तीन मुख्य समूहों में विभाजित किया जाना थाः समूह ‘क‘ में बम्बई प्रेसीडेंसी के हिंदु-बहुल प्रांत, मद्रास, संयुक्त प्रांत, बिहार, उड़ीसा एवं मध्य प्रांतों को शामिल किया गया; समूह ‘ख‘ में मुस्लिम बहुल क्षेत्र, जिसमें पंजाब, सिंध, उत्तर-पश्चिमी सीमांत क्षेत्र तथा बलूचिस्तान सम्मिलित थे; समूह ‘ग‘ में बंगाल के मुस्लिम बहुल क्षेत्र (जिसका एक भाग पाकिस्तान का पूर्वी भाग बना) तथा हिंदु बहुल असम थे। इसका सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान यह था कि संविधान निर्माण के लिए एक संविधान सभा का गठन किया जाएगा, जिसमें राज्यों तथा प्रांतों के निर्वाचित प्रतिनिधि सम्मिलित होंगे। प्रांत के प्रतिनिधियों का चुनाव उनकी संविधान सभाएं करेंगी तथा राज्य के प्रतिनिधियों के चयन की प्रणाली वार्ता द्वारा तय की जाएगी। समूहों की सरकार वास्तव में हर प्रकार से स्वतंत्र थी परंतु केंद्रीय सरकार के पास सभी विषय आरक्षित थे तथा प्रत्येक समूह में शाही राज्यों के समूहों को अपने पड़ोसी राज्य के साथ संयोजित होना था। स्थानीय प्रांतीय सरकार को समूह को चुनने का अधिकार था, जिसके पक्ष में उसकी अधिकांश जनता मत दे।
6 जून, 1946 को मुस्लिम लीग एवं 24 जून, 1946 को कांग्रेस ने केबिनेट मिशन द्वारा अग्रेषित दीर्घावधिक योजना को स्वीकार किया। जुलाई 1946 में संविधान सभा के लिए प्रांतीय सभाओं में चुनाव आयोजित किए गए, जिसमें कांग्रेस ने 210 में से 199 स्थान प्राप्त किए। इसके बाद नेहरू ने कांग्रेस के पुनर्निर्वाचित अध्यक्ष के तौर पर अपनी प्रथम प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि कोई भी संविधान सभा पूर्व-निर्धारित सवैधानिक सूत्र फॉर्मूला पर नहीं हो सकती। जब तक समूह व्यवस्था की अवधारणा वैकल्पिक है तब तक कैबिनेट मिशन योजना पाकिस्तान के निर्माण के विरुद्ध है। एकल संविधान सभा का गठन विचारणीय है तथा मुस्लिम लीग की वीटो शक्ति समाप्त हो गई है। समूह में सम्मिलित होने की अनिवार्यता भी प्रांतीय स्वायत्तता के सिद्धांत के विपरीत है। दूसरी ओर मुस्लिम लीग ने कहा कि समूहीकरण की शर्त समूह ख एवं ग के लिए अनिवार्य होनी चाहिए तभी भविष्य में पाकिस्तान का निर्माण हो सकेगा। लीग का सोचना था कि कांग्रेस कैबिनेट मिशन योजना को अस्वीकार कर देगी तब सरकार अंतरिम सरकार के गठन के लिए लीग को आमंत्रित करेगी।
नेहरू की टिप्पणी की योजना के सम्पूर्ण परित्याग के तौर पर व्याख्या करके, जिन्ना ने लीग की कार्यकारी समिति की बैठक आयोजित की, जिसने संघ योजना के साथ अपने पूर्व के समझौते को समाप्त कर लिया और 1946 में ‘‘मुस्लिम राष्ट्र‘‘ का आह्वान करने के स्थान पर “प्रत्यक्ष कार्रवाई” शुरू की। 16 अगस्त को लीग ने प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस मनाया। इस प्रकार कैबिनेट मिशन असफल हो गया तथा उसके सदस्य वापस चले गए। कैबिनेट मिशन के वापस जाते ही भारत में तीव्र सांप्रदायिक दंगे प्रारंभ हो गए। 1947 में लार्ड वेवल की जगह लार्ड माउंटबेटन को वायसराय बनाकर भेजा गया। जून 1948 तक ब्रिटेन भारत की सरकार को उत्तरदायी हाथों में सौंपने को तैयार हो गया। किंतु माउंटबेटन ने महसूस किया कि स्थिति अत्यंत नाजुक है, फलतः उन्होंने जल्दी ही सत्ता हस्तांतरण का फैसला कर लिया।
जुलाई 1947 में ब्रिटिश संसद ने भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम पारित किया। 14-15 अगस्त, 1947 को भारत दो अधीनस्थ राज्यों भारत एवं पाकिस्तान में बंट गया।

20वीं सदी के प्रारंभ में भारत

19वीं सदी में किए गए विभिन्न अधिग्रहणों से ब्रिटिश साम्राज्य की सीमाएं अत्यंत विस्तृत हो गयी थीं। कलत के खान से 1877 में अंग्रेजों ने एक संधि संपन्न की, जिसके आधार पर अफगानिस्तान में क्वेटा का अधिग्रहण कर लिया गया। क्वेटा सामरिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण था तथा इसके द्वारा कंधार से जाने वाले मार्ग पर नियंत्रण भी रखा जा सकता था। द्वितीय अफगान युद्ध (1878-79 ई.) के उपरांत कुर्रम, पिशिन एवं सिबी के जिले ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिए गए। इन परिवर्तनों से भारत एवं अफगानिस्तान की सीमाएं एक-दूसरे के करीब पहुंच गईं, जनजातीय क्षेत्र सरकार के सीधे नियंत्रण में आ गए तथा भारत की सीमाएं पश्चिम की ओर और बढ़ गयीं।
1893 में, चित्राल एवं गिलगिट के क्षेत्र ब्रिटिश नियंत्रण में आ गए। इससे पहले कुछ अन्य क्षेत्रों, जिसमें बलूचिस्तान सम्मिलित था, को 1876 में पहले ही अधिग्रहित किया जा चुका था। तृतीय बर्मा युद्ध के उपरांत 1886 ई. में ऊपरी बर्मा को हस्तगत कर लिया गया तथा 1864 में भूटान के साथ युद्ध के पश्चात दुआर भूमि पर कब्जा किया जा चुका था।
20वीं शताब्दी के प्रारंभ में भूटान अपने विदेशी संबंधों को भारत सरकार के परामर्शानुसार संचालित करने हेतु सहमत हो गया।
1913-14 में, असम तथा भूटान की सीमा का निर्धारण कर दिया गया तथा इसका नाम इसके निर्धारक मैकमोहन के नाम पर श्मैकमोहन रेखाश् रखा गया। तिब्बत में गार्टाेक, याटुंग एवं सिगात्से में भी भारतीय सरकार को अपनी सेना रखने तथा उसे संचालित करने का अधिकार मिल गया।
इस समय भारत की तीन राजनीतिक शाखाएं थीं। ब्रिटिश भारत जिसमें 9 प्रमुख प्रांतः बर्मा, असम, बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा (वर्तमान ओडिशा), आगरा एवं अवध के संयुक्त प्रांत, पंजाब, बम्बई, मद्रास एवं मध्य प्रांत का प्रशासन राज्यपालों द्वारा चलाया जाता था। उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांतों के छह छोटे प्रांतों-बलूचिस्तान, अजमेर-मारवाड़, दिल्ली, कुर्ग एवं अंडमान तथा निकोबार द्वीप समूह का प्रशासन उप राज्यपाल या मुख्य आयुक्त चलाते थे। भारतीय रियासतें, जिनकी संख्या लगभग 600 थी, स्थानीय राजाओं द्वारा शासित थीं। सीमांत जिलों का प्रशासन राजनीतिक अभिकर्ताओं एवं अधिकारियों के माध्यम से सीधे गवर्नर-जनरल या वायसराय द्वारा संचालित किया जाता था।