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आधुनिक रंगमंच किसे कहते हैं , वर्तमान में हिंदी रंगमंच की क्या स्थिति है , का विकास कब हुआ ?
वर्तमान में हिंदी रंगमंच की क्या स्थिति है , का विकास कब हुआ ? आधुनिक रंगमंच किसे कहते हैं ?
आधुनिक रंगमंच
जब हम आधुनिक रंगमंच की बात करते हैं तो हमें पिछले डेढ़ सौ वर्षों की गतिविधियों का आकलन करना होगा। पारंपरिक नाट्य-संस्कृति और संस्कृत रंगमंच की पुरानी संकल्पनाओं को विस्तार देते हुए बाहरी संस्कृतियों के साथ सम्पर्क प्रभाव और अपनी आंतरिक आवश्यकताओं के अनुरूप हमारे देश का रंगकर्म विकसित हुआ। नई अंग्रेजी हुकूमत के साथ भारत की सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक स्थितियों में जो परिवर्तन परिलक्षित हो रहे थे, उन्होंने ही रंगमंच को भी कई अर्थों में प्रभावित किया।
अंग्रे्रजों के साथ उनका थियेटर भी भारत आया। किंतु हमारी ढाई हजार साल पुरानी परंपरा की मौजूदगी में उनकी अवधारणाओं के साथ इसका संघर्ष भी प्रारंभ हुआ। थोड़े-बहुत तालमेल के साथ रंगयात्रा जारी रही। वस्तुतः हिन्दी रंगमंच की शुरुआत भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटकों से होती है। पारसी थियेटर तो काफी पहले से मौजूद था परंतु उनकी वेशभूषा, भाषा शैली या यूं कहें कि उनकी रंग-संकल्पना भिन्न थी।
1857 की क्रांति के दौरान चले दमन-चक्र ने रंगमंच को भी नई ऊर्जा दी। इसी समय भारतेंदु ने ‘सत्य हरिश्चंद्र’ (1875), ‘भारत दुर्दशा’ (1876), ‘अंधेर नगरी’ (1881) जैसे नाटक लिखे और उनका मंचन किया। इसके पहले 1868 में ‘जागकी मंगल’ (शीतला प्रसाद त्रिपाठी) नाटक का मंचन हो चुका था। बंगाल में दीनबंधु मित्र का ‘नीलदर्पण’ (1860) काफी लोकप्रिय हुआ था। देश के कई प्रदेशों में कई नाट्य संस्थाएं गठित हुईं। इप्टा की स्थापना कई मायनों में महत्वपूर्ण रही। इप्टा के ही हबीब तनवीर, शीला भाटिया, उत्पल दत्त, शंभू मित्र, बलराज साहनी जैसे कलाकारों ने देश में रंगकर्म को स्थापित करने में गिर्णायक भूमिका निभाई।
रंगमंच की दुनिया में पारसी रंगमंच विशेष स्थान रखता है। हिन्दी व अन्य रंगमंच ने भी पारसी थियेटर से काफी कुछ ग्रहण किया। किंतु, पारसी नाट्य आंदोलन विक्टोरियाई शैली से प्रभावित था, यहां तक कि मुंबई और कालीकट में पहले जिन नाट्यगृहों का निर्माण हुआ, उनको लंदन के ‘ड्यूटी लेन’ और ‘कावेटे थिएटर’ की वास्तुशैली के अनुसार बनाया गया था। इस नाट्य गृह के रंगद्वार, पाश्र्व और मंच वन, नदी, पर्वत, प्रासाद एवं दुग्र के दृश्यों से चित्रित पर्दों से युक्त होते थे। सामने के पर्दे को ड्राॅप कहा जाता था। भव्य दृश्य-विधान, अतिनाटकीयता, रंगमंच पर ज्यादा प्रकाश, भारी-भरकम भड़कीली सीनरी, यूरोपीय शैली के स्तम्भ, वास्तु विधान और फर्नीचर विक्टोरियन शैली की सभी बातें पारसी रंगमंच में अपना ली गई थीं। संगीत में भी पाश्चात्य एवं भारतीय संगीत का मिश्रण होता था। पारसी रंगमंच में लगभग प्रत्येक अंक का अंत झांकी से होता था।
1870 में पहली पारसी थियेटर कंपनी बनाई गई थी। बाद में अन्य कंपनियां भी बनीं। ये हिन्दी, उर्दू, गुजराती, अंग्रेजी कई भाषाओं में नाटक करती थी। आगा हशरा कश्मीरी को पारसी थियेटर का भारतीय शेक्सपीयर माना जाता है।
मुंबई में रहने वाले संपन्न पारसी समुदाय के व्यावसायिक प्रयास के रूप में पारसी रंगमंच में संकरता के सभी तत्व थे। 1853 में आरंभ होकर यह बड़ी लोकप्रियता से तीस और चालीस के दशक तक चलता रहा। यह पहले तो मूक फिल्मों और फिर सवाक् फिल्मों से होड़ न कर सका और समाप्त हो गया। परंतु पहले की मूक फिल्मों और सवाक् फिल्मों में इसका प्रभाव आया। पारसी रंगमंच के लोकप्रिय नाटक जैसे ‘इंद्रसभा’, ‘आलमआरा’, या ‘खूनेनाहक’ (हैमलेट की कहानी) पर फिल्में बनी। सिनेमा में पारसी रंगमंच की मंचन तकनीक और रूढ़िया ले ली गईं जैसे गीतों और नृत्य की अधिकता। यह देखना प्रासंगिक होगा कि व्यावसायिक पारसी रंगमंच के आरंभ से पूर्व कई सालों से बड़ा सक्रिय अव्यावसायिक नाट्य आंदोलन चल रहा था जो अंग्रेजी, हिंदुस्तानी और गुजराती में नाटक करता था। अव्यावसायिक नाट्य कार्रवाई के कारण नाटक के प्रति रुचि उत्पन्न होती गई और उसके दर्शक बन गए। इसका लाभ उठाते हुए धनी पारसियों ने नाट्य कंपनियां बनाईं। इनमंे से कछु नाटय् शालाएं थीं अलफिस्ंटन नाट्यगृह (1853), एडवर्ड नाट्यगृह (1860), गेयटी थियेटर (1860), एम्पायर थियेटर (1898), ट्रिवोली थियेटर (1898), नाॅवल्टी थियेटर (1898), राष्ट्रीय थिएटर (1898), विक्टोरिया थिएटर, रायल आॅपेरा हाउस, एल्फ्रेड कंपनी, विलिंग्डन सिनेमा और हिंदी नाट्यशाला। मुंबई में स्थापित कुछ पारसी थिएटर कंपनियां और नाट्य क्लब इस प्रकार हैंः ‘पारसी नाटक मंडली’, अल्ंिफस्टन नाट्य क्लब, पारसी स्टेज प्लेयर्स, जोरोआस्ट्रियन नाटक मंडली, ओरियंटल नाटक मंडली, ओरियंटल ड्रामेटिक क्लब, जोरोआस्ट्रियन ड्रामेटिक क्लब, जोरोआॅस्ट्रियन क्लब, पारसी क्लब, अल्बर्ट नाटक मंडली शेक्सपियर नाटक मंडली, विक्टोरियन नाटक मंडली, ओरिजनल विक्टोरियन क्लब, पारसी विक्टोरियन आॅपेरा ट्रईप तथा हिंदी नाटक मंडली इत्यादि। मुंबई के साथ कुछ दूसरे नगरों और बड़े कस्बों में भी नाट्य कंपनियां स्थापित की गईं। राजस्थान एवं कई राज्यों में अपनी थिएटर कंपनियां थीं।
पारसी रंगमंच के प्रमुख तत्व अतिनाटकीयता, रहस्यमयता और सनसनीखेज प्रभाव वाले थे। परम्परागत दृश्यों महल, किला, नदी, पहाड़ आदि के लिए चित्रित परदे होते थे और एक अग्र परदा अंक के अंत की सूचना देने के लिए होता था। नाटक में चरम सीमा के बिंदु पर एक प्रभावी झांकी दृश्य के साथ भी अग्र परदे का प्रयोग होता था। यदि दर्शक उत्साहपूर्ण होते और बराबर ताली बजाते रहते तो अग्र परदा बार-बार उठाया-गिराया जाता था और झांकी दृश्य स्थिर बना रहता था। विस्तृत दृश्यबंध, भव्य दृश्य और करतब वाले दृश्यों पर हमेशा जोर-से तालियां बजती थीं।
वेशभूषा और दृश्यबंध की रचना के लिए पारसी रंगमंच राजा रवि वर्मा की ‘कैलेंडर कला’ पर निर्भर करता था। 20वीं शताब्दी के आरंभ में राजा रवि वर्मा ने तैल रंगों की तकनीक और चित्रकला की यूरोपीय परम्परा के अनुसार आधुनिक चित्रकला शुरू की थी। वे स्वयं पारसी रंगमंच से पौराणिक विषयों को चुनते थे और दृश्य बनाने के लिए भी इनसे प्रभावित होते थे। उनके चित्र ‘सीता स्वयंवर’ और ‘सीता भूप्रवेशम’ पारसी रंगमंच के दृश्य से प्रतीत होते हैं।
इसी प्रकार ‘इप्टा’ (भारतीय जन नाट्य संघ) की स्थापना 1942 में कोलकाता में हुई। यह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का सांस्कृतिक मंच था। इसका तात्कालिक कारण था बंगाल का अकाल जिसमें शासक वग्र की लापरवाही के कारण तीन लाख लोग भूख के कारण काल-कवलित हो गए। 1944 में कलकत्ता में ‘इप्टा’ के संस्थापकों में एक बिजन भट्टाचार्य ने ‘नवान्न’ (नई फसल) नामक नाटक लिखा। उसमें भू-स्वामियों द्वारा किसानों का शोषण नाटकीय रूप में दिखाया गया है। भट्टाचार्य ने एक दूसरा नाटक ‘जबानबंदी’ भी लिखा। 1942-43 में अल्मोड़ा का उदय शंकर केंद्र, जिसमें आधुनिक सृजनात्मक नर्तकों को प्रशिक्षण देकर विकसित किया जाता था, बंद हो चुका था। इसके परिणामस्वरूप कुछ नर्तक जैसे शांतिवर्धन, नरेन्द्र शर्मा और शचीन शंकर संगीतकार रवि शंकर के साथ इप्टा के केंद्रीय दल में शामिल हो गए।
इप्टा का आंदोलन हर राज्य में अपनी शाखाओं के साथ फैल गया। उसमें नाट्य कलाकार, नर्तक, संगीतकार, लोक गायक और अभिनेता भी शामिल थे। इस पार्टी में गाथा-गीतों के गायन जैसे आंध्र प्रदेश की ‘बुर्रा कथा’, और महाराष्ट्र का ‘पवाड़ा’ इत्यादि भी शामिल कर लिए गए। पार्टी में राजनीतिक मतभेद थे। 1947 में केंद्रीय दल बंद हो गया। अब भी कुछ राज्यों में इप्टा दल हैं परंतु उनका कलात्मक स्तर विशेष अच्छा नहीं है।
महाराष्ट्र में भी संगीतमय रंगमंच का काफी विकास हुआ। बालगंधर्व और खादिलकर ने इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया। बाद में पृथ्वीराज कपूर ने पृथ्वी थियेटर (जो कि घुमंतू मंडली ही थी) की स्थापना 1944 में की। इनके द्वारा खेले गए यथार्थवादी शैली के सुधारवादी नाटकों ने पारसी रंगमंच की अतिनाटकीयता को संयत किया। पारसी रंगमंच समाप्त हो चुका था और देश का नाट्य जीवन सूना हो गया था। ऐसे में पृथ्वी थिएटर की स्थापना हुई। भले ही यह व्यक्तिगत प्रयास था परंतु इसकी शक्ति और प्रभाव एक आंदोलन का-सा था। राष्ट्रीयता और सामुदायिक एकता के भावों से परिपूर्ण उनके नाटक थे, ‘दीवार’, ‘पठान’, ‘गद्दार’ और ‘आहुति’। उन्होंने संस्कृत नाटक ‘शंकुतला’ भी प्रस्तुत किया। उनका दल का दौरा पूरे उत्तर भारत में होता था और उनकी प्रस्तुतियां अधिकतर सवेरे सिनेमाघरों में होती थीं क्योंकि नाट्यशालाएं तब थी ही नहीं। प्रस्तुति के बाद वे दर्शकों के बीच पैसा इकट्ठा करने के लिएझोली फैलाकर घूमते थे। दुःख की बात है कि उन्हें इसे 1960 में बंद करना पड़ा। परंपरा की इसी कड़ी में कमलादेवी चटोपाध्याय द्वारा स्थापित इंडियन नेशनल थियेटरए जो अखिल भारतीय संस्था थी, की विभिन्न शाखाओं के कार्य आते हैं। इसी संस्था ने छइे दशक के प्रारंभिक वर्षों में पहली बार प्रादेशिक स्तर पर अव्यवसायिक रंगमंच को संगठित करने का कार्य किया।
हिन्दी रंगमंच को यदि जयशंकर प्रसाद से लेकर धर्मवीर भारती तक ने समृद्ध किया तो ईश्वर चंद नंदा और नोरा रिचड्र्स जैसे नाटककारों ने पंजाबी में अप्रतिम योगदान दिया। दूसरी तरफ राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (1959) की स्थापना ने नाटकों को उसके अर्थ, व्यक्तित्व, ऊर्जा और संभावनाओं से रू-ब-रू किया। इस संस्था से प्रशिक्षित रंगकर्मियों ने देश के विभिन्न भागों में जाकर नाट्य मंडलियां बनाई हैं और रंगकर्म के रचनात्मक उपयोग के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
धर्मवीर भारती, मोहन राकेश, जगदीशचंद्र माथुर, लक्ष्मीनारायण लाल, बृजमोहन शाह, असगर वजाहत, विजय तेंदुलकर, बादल सरकार, मनोज मित्र, महेश एल्कुंचवार, शिवराम कारंत, मोहन उप्रेती, चंद्रवदन मेहता, जयशंकर सुंदरी, प्रवीण जोशी,गोवर्धन पांचाल, प्रो. रामचंद्र शंकर नायक, पुंडलीक नारायण नायक, रोमोला येन्सेम्बम, रमेश पाणिग्रही आदि नाटककारों व रंगकर्मियों ने देश में रंगमंच और उससे जुड़े संस्कारों को स्थापित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है।
यह सही है कि सिनेमा के आगमन व प्रचार-प्रसार से नाटकों पर प्रभाव तो पड़ा है, किंतु सिनेमा स्वतंत्र विधा नहीं है। इसमें रंगमंच, उपन्यास, कहानी, फोटोग्राफी, नृत्य स्थापत्य, संगीत, मूर्ति-शिल्प, चित्रकला, आदि सभी का योगदान हैं। देखा जाए तो रंगमंच इसके मूल में विद्यमान है। तथापि, नाटकों, खास तौर पर मौलिक नाटकों से रंगमंच को समृद्ध करते हुएऐसे धरातल का निर्माण अपेक्षित
है, जिससे बरसों से चली आ रही हमारी नाट्य परंपरा नई चुनौतियों का सामना करते हुए भी अपनी पहचान बना, रखे।
भारतीय अंग्रेजी रंगमंच
इसकी शुरुआत तब हुई जब 1837 में कृष्ण मोहन बगर्जी ने द पर्सक्यूटिड लिखा। लेकिन भारतीय अंग्रेजी रंगमंच की वास्तविक शुरुआत तब हुई जब 1871 में माइकल मधुसूदन दत्त की इज दिस काॅल्ड सिविलाइजेशन कृति साहित्य क्षितिज पर प्रकट हुई। रबीन्द्र नाथ टैगोर एवं श्री अरबिंदो, भारत के दो मशहूर विचारक-कवि, को अंग्रेजी में प्रथम नाटककारों के तौर पर देखा जाता है।
यद्यपि स्वतंत्रता पूर्व का अंग्रेजी रंगमंच अपने कवित्त श्रेष्ठता, थीमेटिक वेरायटी, तकनीकी गुणवत्ता, प्रतीकात्मक महत्ता एवं मानव एवं नैतिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता के लिए विचारणीय एवं गौरतलब हैं। स्वतंत्रता पश्चात् भारतीय अंग्रेजी रंगमंच, हालांकि, भारतीय अंग्रेजी साहित्य में सामान्य तौर पर और भारतीय अंग्रेजी रंगमंच में विशेष तौर पर विदेशी देशों की रुचि बढ़ने के कारण लाभान्वित हुआ। आसिफ क्यूरिभ्यो, प्रताप शर्मा एवं गुरचरण दास जैसे भारतीय नाटककारों ने बड़ी संख्या में इंग्लैंड एवं अमेरिका में सफलतापूर्वक नाटक किए। लेकिन भारत में किसी भी नियमित भारतीय अंग्रेजी रंगमंच संस्थान की स्थापना नहीं की गई।
सिनेमा के आगमन के साथ, नाटक या रंगमंच की लोकप्रियता में बेहद गिरावट आई। हालांकि, इसने स्वतंत्रता पश्चात् काफी प्रोत्साहन प्राप्त किया। ‘राष्ट्रीय थियेटर’ के सृजन के लिए स्वदेशी रंगमंच रूप की भरसक कोशिश की गई। परम्परागत रंगमंच के साथ प्रयोग किए गए और नई तकनीकियां सामने आईं और पुराने एवं नए रंगमंच को जोड़ना प्रारंभ हुआ। जिससे एक नवीन थियेटर उत्पन्न किया गया। अंतरराष्ट्रीय रूप से जागे-पहचाने लेखकों का अध्ययन किया गया और भारतीय रंगमंच में उनके अर्थपूर्ण व्यवहार के सारतत्व को आत्मासात् किया गया। समकालीन भारतीय रंगमंच, शास्त्रीय एवं यूरोपियन माॅडल से विचलन होकर, थीमेटिक एवं तकनीकी गुणवत्ता के लिहाज से नवोन्मेषी एवं प्रयोगात्मक बना। इसने समकालीन सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों के संदर्भ के साथ इतिहास, महान व्यक्तित्वों, भ्रमों, धर्म एवं लोक परम्परा को फिर से खंगालकर विश्व रंगमंच के इतिहास में एक अलग प्रकार की परम्परा की नींव रखी। मोहन राकेश, बादल सिरकर, विजय तेंदुलकर एवं गिरीश कर्नाड द्वारा संवारी गई संचयी थियेटर परम्परा ने समकालीन भारतीय अंग्रेजी थियेटर के लिए पृष्ठीाूमि निर्मित की।
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