राष्ट्रमंडल में भारत की सदस्यता क्या है ? | राष्ट्रमंडल में भारत की सदस्यता का सत्यापन कब हुआ ?
राष्ट्रमंडल में भारत की सदस्यता का सत्यापन कब हुआ ? राष्ट्रमंडल में भारत की सदस्यता क्या है ?
भारत 1947 में राष्ट्रमंडल के सदस्य बना था |
राष्ट्रमंडल की सदस्यता: भले ही स्वाधीनता के बाद भी भारत ने राष्ट्रमंडल का सदस्य बने रहने का निर्णय किया, पर इसने प्रभुत्वसपन्न राष्ट्र के रूप मे या एक गणराज्य के रूप में अपनी स्थिति के बारे में किसी तरह का कोई समझौता नहीं किया या अपनी प्रतिष्ठा में किसी कमी का संकेत नहीं दिया। वास्तव में, राष्ट्रमंडल का ही रूपातरण हो गया। ब्रिटिश राष्ट्रमंडल से यह राष्ट्रों का राष्ट्रपडल बन गया। वह समान तथा पूर्ण प्रभुत्व संपन्न राज्यों का एक स्वच्छंद संगम हो गया जिसमें क्राउन को केवल स्वच्छद संगम के एक प्रतीक के रूप में स्वीकार कर लिया गया। राष्ट्रमंडल ने विशिष्ट रूप से भारत की स्थिति को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न स्वतंत्र गणराज्य के रूप में स्वीकार किया। नेहरू जी के शब्दों में नया राष्ट्रमंडल “स्वेच्छा से किया गया एक करार है‘‘ जिसे किसी भी समय “स्वेच्छा से समाप्त किया जा सकता है।‘‘ इसलिए, राज्य के प्रभुत्व संपन्न, लोकतंत्रात्मक या गणराज्यीय स्वरूप पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
सामाजिक तथा आर्थिक लोकतंत्रः मात्र राजनीतिक दृष्टि से कल्पित लोकतत्र का अर्थ यह है कि प्रत्येक नागरिक को नियत समय पर होने वाले चुनावों में स्वच्छद रूप से मतदान करने का अधिकार है। सभी लोकतंत्रात्मक चुनावों में ‘एक व्यक्ति, एक वोट‘ के जिस सिद्धांत को लागू किया जाता है, उसका उद्गम इस तथ्य की स्वीकृति से हुआ है कि सभी व्यक्तियों के अधिकार समान हैं चाहे वे उच्च शिक्षा प्राप्त हैं या निरक्षर, विशेषज्ञ हैं या टेक्नोक्रेट, उद्योगपति हैं या श्रमिक। किंतु हमारे संविधान निर्माताओं की दृष्टि में लोकतंत्र का अर्थ राजनीतिक लोकतंत्र या नियत समय पर लोगों द्वारा अपने प्रतिनिधियों को चुनने के लिए मतदान करने का अधिकार मात्र नहीं है । सामाजिक तथा आर्थिक लोकतत्र के बिना भारत जैसे गरीब देश में राजनीतिक लोकतत्र का कोई अर्थ नहीं है। डा. अंबेडकर के अनुसार, सामाजिक तथा आर्थिक लोकतंत्र वास्तविक उद्देश्य तथा अंतिम लक्ष्य है। उन्होंने कहा था कि संसदीय लोकतंत्र तभी सार्थक होगा जब उसका सदुपयोग आर्थिक लोकतंत्र के वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए किया जाए। जवाहरलाल नेहरू ने बाद में विचार व्यक्त किया था कि उनकी कल्पना का लोकतंत्र लक्ष्य को प्राप्त करने का साधन मात्र है। लक्ष्य यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को ऐसा उत्तम जीवन मिले जिसमें कुछ हद तक आवश्यक आर्थिक जरूरतों की पूर्ति हो। जिस परिमाण मे लोकतत्र आर्थिक समस्याओं को हल करने में सफल होता है, उसी परिमाण में वह राजनीतिक क्षेत्र मे भी सफल होता है। यदि आर्थिक समस्याएं हल नहीं होती तो राजनीतिक ढाचा कमजोर होता जाता है तथा टूट जाता है। इसलिए, हमें राजनीतिक लोकतत्र से आर्थिक लोकतत्र की ओर बढ़ना चाहिए, जिसका अर्थ है, ‘‘कुछ हद तक समस्त लोगों के कल्याण के लिए कार्य किग जाए।‘‘ इसे कल्याणकारी राज्य कहा जा सकता है। कितु इसका अर्थ यह भी है, “आर्थिक क्षेत्र मे कुछ हद तक अवसर की समानता के लिए कार्य किया जाए।‘‘ इस बात को उद्देशिका के इन शब्दों द्वारा स्पष्ट कर दिया गया है कि गणराज्य के सभी नागरिकों को ‘सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय‘ मिले।
न्याय
उद्देशिका मे सभी नागरिको को न्याय का आश्वासन दिया गया है। न्याय का अर्थ है, व्यक्तियो के परस्पर हितों, समूहो के परस्पर हितो के बीच और एक ओर व्यक्तियो तथा समूहो के हितो तथा दूसरी ओर समुदाय के हितो के बीच सामजस्य स्थापित हो । सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि उद्देशिका मे न्याय को स्वतत्रता, समानता और बधुता के सिद्धांतो से ऊंचा स्थान दिया गया है। न्याय की सकल्पना वस्तुतया अति व्यापक है। यह केवल सकीर्ण कानूनी न्याय तक सीमित नहीं जो न्यायालयो द्वारा दिया जाता है। हमारे न्यायालय, आखिरकार, विधि न्यायालय हैं। न्याय की परिभाषा या व्याख्या सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के रूप में की गई है। इसमें भी सामाजिक तथा आर्थिक न्याय को राजनीतिक न्याय से उच्चतर स्थान दिया गया है।
सामाजिक न्याय से मंतव्य यह है कि सभी नागरिकों को समान समझा जाता है और जन्म, मूलवंश, जाति, धर्म, स्त्री-पुरुष, उपाधि आदि के कारण समाज में उनकी प्रतिष्ठा का न्याय के मामलों में कोई लिहाज नहीं किया जाता। अनुच्छेद 15 में सार्वजनिक स्थानों में प्रवेश के मामले में विभेद या निर्योग्यता का निषेध किया गया है। अनुच्छेद 38 में राज्य को निर्देश दिया गया है कि वह “ऐसी सामाजिक व्यवस्था की, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करे, भरसक प्रभावी रूप में स्थापना और संरक्षण करके‘‘ लोक कल्याण की अभिवृद्धि का प्रयास करे। जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में: “सामाजिक न्याय ने सदैव संवेदनशील व्यक्तियों को आकर्षित किया है। मेरे विचार में, मार्क्सवाद के प्रति करोड़ों लोगों का बुनियादी आकर्षण इसलिए नहीं था कि उसने वैज्ञानिक सिद्धांत को अपनाने का प्रयास किया बल्कि उसका कारण था सामाजिक न्याय के प्रति उसका गहरा लगाव।‘‘
काम की मानवोचित दशाओ, प्रसूति सहायता, अवकाश, पिछड़े वर्गो के आर्थिक हितो की अभिवृद्धि, न्यूनतम मजदूरी, बेगार के प्रतिषेध आदि से संबंधित समस्त प्रावधानो (अनुच्छेद 23 तथा 43) का लक्ष्य सामाजिक न्याय है।
आर्थिक न्याय मे अपेक्षा की जाती है कि अमीरो तथा गरीबो के साथ एक-सा व्यवहार किया जाए और उनके बीच की खाई को पाटने का प्रयास किया जाए। आर्थिक न्याय के उद्देश्य के अनुसरण में, अनुच्छेद 39 राज्य को निदेश देता है कि वह इस बात को सुनिश्चित करे कि सभी नागरिको को जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त हों, समाज की भौतिक संपदा के स्वामित्व और नियत्रण का बटवारा इस प्रकार हो कि उससे सामूहिक हित सर्वोत्तम रूप से सिद्ध होय आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले कि उससे धन और उत्पादन के साधनों का सकेद्रण सामूहिक हित के प्रतिकूल न हो, पुरुषों और स्त्रियो दोनों को समान कार्य के लिए समान वेतन मिलेय स्त्रियो और बच्चो का दुरुपयोग न हो और आर्थिक आवश्यकता से विवश होकर नागरिको को ऐसे रोजगारों में न जाना पड़े जो उनकी आयु या शक्ति के अनुकूल न हो और बच्चो को स्वतत्र तथा गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधाए दी जाए और बालको की सुकुमार अवस्था की शोषण आदि से रक्षा की जाए।
वास्तव में संविधान के भाग 4 मे विभिन्न अन्य अनुच्छेदों (अनुच्छेद 36 से 51) का लक्ष्य भी न्याय से अनुप्राणित एक नयी सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था सुनिश्चित करना है। इस प्रकार, इसमें कुछ दशाओं में काम, शिक्षा और लोक सहायता पाने के अधिकार का, काम की न्यायसगत और मानवोचित दशाओं का तथा प्रसूति सहायता का, कर्मकारों के लिए निर्वाह मजदूरी आदि का, बालकों के लिए निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा का, कमजोर वर्गों के शैक्षिक तथा आर्थिक हितों की अभिवृद्धि का और कार्यपालिका से न्यायपालिका के पृथक्करण आदि का उपबंध किया गया है।
राजनीतिक न्याय का अर्थ यह है कि जाति, मूलवंश, संप्रदाय, धर्म या जन्मस्थान के आधार पर विभेद के बिना सभी नागरिकों को राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेने के अधिकारों में बराबर का हिस्सा मिले। अनुच्छेद 16 में लोक नियोजन के विषय में अवसर की समानता की गारंटी दी गई है और अनुच्छेद 325 तथा 326 में सभी वयस्कों को चुनावों में भाग लेने के बराबर के अधिकार दिए गए हैं।
नेहरू तथा अंबेडकर जैसे संविधान निर्माताओं का यह स्पष्ट मत था कि आर्थिक न्याय के बिना राजनीतिक न्याय निरर्थक है। धर्म, जाति एवं सप्रदाय के भेदभावों से ग्रस्त हमारे समाज में आर्थिक न्याय तब तक काफी नहीं है जब तक उसके साथ सामाजिक न्याय जुड़ा हुआ न हो। डा. अंबेडकर ने कहा था ।
26 जनवरी, 1950 को हम अंतर्विरोधो के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में हमें समानता प्राप्त होगी और सामाजिक तथा आर्थिक जीवन मे हमे समानता प्राप्त नहीं होगी। राजनीति में, हम ‘एक व्यक्ति एक वोट‘ और ‘एक वोट एक मूल्य‘ सिद्धात को मान्यता देंगे। हमारे सामाजिक तथा धार्मिक जीवन में, हम, हमारे सामाजिक तथा आर्थिक ढांचे के कारण, ‘एक व्यक्ति एक मूल्य‘ के सिद्धात को नकारते रहेगे।
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