WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

द्वितीय नगरीकरण पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए प्राचीन भारत में द्वितीय नगरीकरण किस काल में हुआ कब हुआ

प्राचीन भारत में द्वितीय नगरीकरण किस काल में हुआ कब हुआ द्वितीय नगरीकरण पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए ?

प्रश्न: द्वितीय नगरीकरण से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर: प्राचीन भारत में नगरों के उदय और विकास की प्रक्रिया को नगरीकरण की संज्ञा दी जाती है। भारत में नगरों का उदय सर्वप्रथम हड़प्पा संस्कृति में हुआ, अतः इसे प्रथम नगरीकरण कहा जाता है। हडप्पा सभ्यता के पतन के पश्चात् प्राक् मौर्य युग में पुनः नगरों का उल्लेख प्राप्त होता है अतः छठी शताब्दी ई.पू. को द्वितीय नगरीकरण कहा जाता है।
द्वितीय नगरीकरण की अवस्था अनायास निर्मित नहीं हई बल्कि तदयगीन परिस्थितियों ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कृषि अधिशेष के आधार पर छठी शताब्दी ई.पू. से अनेक नए व्यावसायिक वर्गों का उदय हुआ। इनका कृषि से कोई सम्बन्ध नहीं रहा। इनमें से कुछ शिल्पों से जुड़े थे। इनके निवास स्थल नगर का आकार लेने लगे जहां व्यावसायिक गतिविधियों को सम्पन्न किया जाता था।
नए व्यवसायों के उदय के साथ ही ऐसी बस्तियों का भी निर्माण हुआ जहां एक ही प्रकार के व्यवसायी रहते थे। इनकी स्थापना ऐसे स्थलों पर हुई जहां कच्चे माल की सुगमता हो एवं प्रमुख मार्गों अथवा नदियों के निकट हो, जिससे विनिर्मित उत्पादों को आसानी से विक्रय किया जा सके। ऐसी बस्तियाँ, बाजारों और बाजारों से व्यावसायिक केन्द्रों और नगरों में परिवर्तित हो गई।
शिल्प और व्यवसाय के विकास के साथ-साथ व्यावसायिक संघों या श्रेणीयों का भी उदय हुआ। इन संघों ने शिल्पियों एवं कारीगरों का नियमन किया तथा उत्पादन और वितरण की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई एवं उद्योगों का स्थानीयकरण बढ़ा जिसने नगरीकरण की प्रगति में सहायता पहुँचाई। इसके साथ ही देशी एवं विदेशी व्यापार में वृद्धि के फलस्वरूप सार्थवाह, वणिक, सेट्ठी आदि बड़े व्यापारी नगरों में निवास करने लगे और नगरों का विकास हुआ।
नगरों के विकास को राजनीतिक परिवर्तनों ने भी प्रभावित किया। महाजनपदों के उदय के साथ ऐसे केन्द्रों का भी उदय हुआ जो राजधानी या राजनीतिक सत्ता के केन्द्र के रूप में विकसित हुए जो सामरिक एवं व्यापारिक दृष्टिकोण से बसाए गए। यहां राजा सहित प्रशासक वर्ग, सेना, शिल्पी, कारीगर और व्यापारी भी निवास करने लगे। इससे राजधानी केन्द्रों के रूप में नगरों का विकास सम्भव हुआ।
नगरीय संरचना के विकास में उत्तर वैदिक युगीन सामाजिक संरचना का भी योगदान रहा है। छठी शताब्दी ई.पू. तक आर्थिक परिवर्तनों के कारण वैश्यों की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हुई परन्तु वर्ण आधारित व्यवस्था के कारण ग्रामों में इन्हें उचित सम्मान और अधिकार नहीं दिए गए अतः वैश्य वर्ण धीरे-धीरे व्यापारिक और औद्योगिक केन्द्रों की ओर आकर्षित हुआ। इस प्रकार वैश्यों की आर्थिक सम्पन्नता ने नगरों के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
धर्म सुधार आन्दोलनों और जैन एवं बौद्ध धर्मों ने वैदिकीय कर्मकाण्डों का निषेध कर पशुधन के संरक्षण का कार्य किया जो नई अर्थव्यवस्था के विकास के लिए आवश्यक था। इसके अतिरिक्त इन धर्मों का दृष्टिकोण व्यक्तिगत सम्पत्ति, कर्ज एवं सूद प्रथा और नगरीय जीवन की अन्य विशेषताओं के प्रति सहज था अतः नगरीकरण की प्रक्रिया का विकास सम्भव हुआ।.
द्वितीय नगरीकरण के दौरान जिन नगरों का उत्थान एवं विकास हुआ उन्हें लौह युगीन नगर कहा जाता है। अतः इनके विकास में लोहे की भूमिका को विस्मृत नहीं किया जा सकता। लोहे की जानकारी और इसके व्यवहार ने न सिर्फ आर्यो के गंगाघाटी में प्रसार में सहायता पहुँचाई बल्कि उनकी अर्थव्यवस्था को भी क्रान्तिकारी रूप से प्रभावित किया। लोहे के उपकरणों के प्रयोग से कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई जिससे अधिशेष की अवस्था निर्मित हुई।
इस अधिशेष उत्पादन के आधार पर समाज में अनेक ऐसे शिल्पों का उदय हुआ जिनके शिल्पी कृषि पर आश्रित नहीं थे जिससे नगरीय केन्द्रों की भूमिका निर्मित हुई।
अतः लोहे के ज्ञान और इसके कृषि में व्यवहार ने आरम्भिक आर्यों की पशुचारण अर्थव्यवस्था को उन्नत कृषि अर्थव्यवस्था में परिवर्तित कर नगरों के उदय का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

प्रश्न: हिन्दू मंदिर वास्तुकला की प्रमुख विशेषताओं के बारे में बताइए।
उत्तर: योजना विन्यास और मण्डल – शिल्पशास्त्रों में वास्तु को चतुर्विध माना गया है- भूमि, प्रासाद, यान एवं शयन। परन्तु श्वास्तुश् का मौलिक अर्थ भवन की आयोजित भूमि है। हिन्दू प्रासाद अथवा मंदिर का वास्तु-विन्यास एवं स्थापत्य श्वास्तु पुरुष मण्डलश् पर ही आधारित होता है। वास्तु पुरुष मण्डल में अनेक देवताओं को उनकी श्स्थितिश् एवं श्महत्ताश् के अनुरूप स्थान प्रदान किया जाता है, केन्द्र में श्ब्रह्माश् रहते हैं।
मंदिर गर्भ – मंदिर की प्रतिष्ठा के समय प्रासाद का गर्भ स्थापित किया जाता है। यह एक प्रकार की श्गर्भाधान क्रियाश् है जो भूमि पर की जाती है।
विमान – यह पूर्ण रूप से परिमापन किया हुआ देवगृह, देवालय और देव शरीर है।
प्रासाद – वस्तुतः प्रासाद गर्भगृह का कक्ष है।
स्थपति और मंदिर स्थापत्य
हिन्दू मंदिर के स्थापत्य के तीन मुख्य भाग होते हैं
(1) गर्भगृह – गर्भगृह वर्गाकार योजना का छोटा व साधारणतया अन्धेरा कमरा होता है। इसमें केवल पुजारी प्रवेश करता है।
(2) अधिष्ठान अथवा पीठिका रू सम्पूर्ण मंदिर का शरीर जिस आधार पर स्थिर रहता है उसे पीठिका या श्जगती पीठश् अथवा अधिष्ठान कहते हैं। इसी पीठ पर मंदिर की भित्ति खड़ी की जाती है।
(3) विमान – विमान वस्तुतः मंदिर की ऊँचाई अथवा ऊपरी भाग है जिस पर मंदिर की छत होती है।
शिखर – हिन्दू मंदिर स्थापत्य में शिखर में रचना प्रमुख एवं स्थायी महत्व की होती है। वस्तुतः शिखर से ही किसी मंदिर की शैली की पहचान होती है। गर्भगृह के ऊपरी भाग को शिखर कहते हैं। यह पर्वत की भांति ऊपर से पिरामिडीय होता है। वास्तुशास्त्रों में श्शिखरश् मंदिर के उस भाग को कहा गया है जो ऊपर से पिरामिडीय होता है तथा जिसके शीर्ष पर श्आमलकश् होता है।
गवाक्ष – इसका शाब्दिक अर्थ है श्वृषभ-आँखश् अर्थात् यह गाय या बैल के आँख के आकार की खिड़की या वातायान है।
आमलक – आमलक नागर मंदिरों का श्शीर्षश् होता है। दक्षिण भारतीय द्रविड़ शैली के शिखरों पर आमलक नहीं होता।
कीर्तिमुख – मंदिर के प्रवेश द्वार तथा वातायन आदि देवता तक पहुंचने के मानवीय मार्गो। के वास्तु प्रतीक हैं। ये बहुधा अलंकृत किये जाते हैं। इनके विविध अलंकरणे में श्कीर्तिमुखश् सर्वथा उल्लेखनीय हैं।
मिथुन आकृति – भारतीय कला में, विशेष रूप से हिन्दू मंदिरों के बाह्य भाग, स्तम्भ, भित्ति-स्तम्भों व प्रवेशद्वार का शाखा पर अथवा दीवार पर श्मिथुन आकृतियांश् उत्कीर्ण देखी जा सकती हैं। वस्तुतः मिथुन श्आत्मा और परमात्माश्, प्रकृति और पुरुष के साक्षात्कार का प्रतीक है। यही कारण है कि मिथुन आकृति के अंतर्गत स्त्री और पुरुष को प्रगाढ़ आलिंगन की अवस्था में दिखाया जाता है। यह अर्धनारीश्वर का भी प्रतीक है।
मण्डप – विमान के सामने और गर्भगृह के प्रवेश द्वार से सटा हुए एक परिस्तम्भित (खुला अथवा ढंका हुआ) कक्ष हात है। इसमें उपासक और भक्त बैठकर पूजा-प्रार्थना करते हैं। इसी वास्तु रचना को ही श्मण्डपश् कहा जाता है। जिन मा में प्रदक्षिणापथ होता है उन्हें श्सांधार प्रासाद भी कहा जाता है। मण्डप को ही महामण्डप भी कहते हैं। प्रदक्षिणा प तथा महामण्डप के बरामदों को अर्थमण्डप कहते हैं। मण्डप वर्गाकार अथवा आयताकार होता है।
अन्तराल – मण्डप को प्रासाद के साथ मिलाने वाला एक छोटा कक्ष भी निर्मित किया जाता था, जिसे अंतराल का हैं। अंतराल प्रासाद का मुखमण्डप बनाता है।