अपरदनात्मक स्थलाकृति क्या है ? अपरदनात्मक स्थलरूप मैदान का अर्थ निक्षेपात्मक कार्य का मतलब
जाने – अपरदनात्मक स्थलाकृति क्या है ? अपरदनात्मक स्थलरूप मैदान का अर्थ निक्षेपात्मक कार्य का मतलब ?
भ्वाकृतिक प्रक्रम स्थलरूपों पर अपनी विशेष छाप छोड़ते हैं तथा प्रत्येक भ्वाकृतिक प्रक्रम स्वयं स्थलरूपों का विशिष्ट समुदाय विकसित करता है (Geomorphic processes leave their distinctive imprints upon landforms and each geomorphic process develops its own characteristic assemblage of landforms)
इस संकल्पना का तात्पर्य है कि – प्रत्येक प्रक्रम विशिष्ट स्थलरूपों के समुदाय का निर्माण करता है तथा इसके स्थलरूप प्रक्रम के द्वारा जाने जा सकते हैं। उदाहरणार्थ यदि हम कहें यह स्थलाकृति ‘इन्सेलवर्ग‘ है तथा साथ ही पवन प्रक्रम इनके साथ जोड़ दें, तो स्पष्ट होता इन्सेलवर्ग का निर्माण पवन के द्वारा शुष्क प्रदेशों में हुआ है। स्थलरूपों तथा प्रक्रमों के सम्बन्धों के विश्लेषण के पूर्व प्रक्रम के विषय में विश्लेषण आवश्यक है। प्रक्रम से तात्पर्य है कि- जिनके द्वारा स्थलखण्डों से पदार्थों को प्राप्त करके, उनको दूसरे स्थानों पर निक्षेप किया जाता है। परन्तु कुछ विद्वानों ने कारक तथा प्रक्रम में भेद स्पष्ट किये है। ये प्रक्रम या कारक सरिता, भूमिगत जल, हिमानी, परिहिमानी, पवन आदि हैं। कुछ प्रक्रम पृथ्वी के अन्दर कार्य करते है, जैसे – पटल विरूपण तथा ज्वालामुखी क्रिया। इन दोनों प्रक्रमों का स्थलरूप के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान होता है। दूसरा प्रक्रम प्रथम प्रक्रम के पदार्थों को एकत्रित करता है, परन्तु प्रथम प्रक्रम पदार्थों को स्वयं उत्पन्न करता है अथवा प्रथम के द्वारा पदार्थों को परिवहित तथा अपरदन करके स्थलखण्ड को समतल बनाता है। वास्तव में, इनका कार्य दो रूपों में विभक्त होता है –
(i) अपरदनात्मक कार्य : इसके अन्तर्गत प्रक्रम अपरदन करके स्थलखण्ड को समतल बनाते हैं, तथा (ii) निक्षेपात्मक कार्य : इसके अन्तर्गत अपरदन से प्राप्त पदार्थों का निक्षेप करते हैं। इनके आधार पर दो स्थलाकृतियों का विकास सभी प्रक्रमों द्वारा किया जाता है – (क) अपरदनात्मक स्थलरूप, तथा (ख) निक्षेपात्मक स्थलरूप। प्रत्येक स्थलखण्ड को प्रक्रमों के साथ जोड़ कर इनकी उत्पत्ति, विकास तथा स्थिति का विश्लेषण कर सकते हैं। प्रक्रमों को निम्न रूपों में विभाजित किया जा सकता है –
प्रारम्भ में, प्रक्रमों के द्वारा निर्मित स्थलरूपों का सामूहिक अध्ययन किया जाता था, परन्तु अब प्रक्रम का अलग-अलग अध्ययन किया जाता है। प्रत्येक प्रक्रम द्वारा अलग-अलग स्थलरूपों का निर्माण होता इनमें कुछ विशेषताएं होती हैं, जिनके आधार पर उनको जान सकते हैं। उदाहरणार्थ नदी प्रक्रम द्वारा जलोट पंख. बाढ़ का मैदान, डेल्टा. नदी विसर्प, बेटिकायें, प्रपात आदि. भूमिगत जल प्रक्रम द्वारा-घोलरध्र. होलाइन. गुफायें, रेलेक्टाइट एवं स्टैलेमाइट आदि, पवन प्रक्रम द्वारा – ज्यूजेन, यारडंग, भू-स्तम्म, वातागर्त, बालुका स्तूप, लोयस आदि, हिमानी प्रक्रम द्वारा हिमोद. डूमलिन, एम्कर आदि महत्वपूर्ण स्थलाकृतियों का निर्माण होता है ऐसा नहीं है कि – कोई विशिष्ट प्रक्रम सभी स्थलाकृतियों का निर्माण करता। हाँ इतना अवश्य होता है कि कोई दूसरा प्रक्रम कभी कभी सहायक होता है। इस तरह का विचार सर्वप्रथम डेविस ने भू-आकृति विज्ञान में विश्लेषित किया था। जब तक प्रक्रमों को स्थलरूपों के साथ नहीं जोड़ते। तब तक सही माने में हम इनके वास्तविक अर्थ को स्पष्ट नहीं कर सकते। उदारणार्थ – मैदान, कटक, ढाल, कगार, स्तम्भ, ढेर टेबुल, गर्तिका या गर्त. घाटी, छिद्र या रंध्र, गुफायें. स्तूप वेदिकाये आदि स्थलाकृतियाँ है, परन्तु जब तक इनके साथ प्रक्रमों को नहीं जोहते हैं, तब सक इनको नही जान सकते है। उदाहरणार्थ स्तम्भ के साथ यदि वायु प्रक्रम जोड़ दे तोे स्पष्ट हो जायेगा कि वायु के द्वारा निर्मित स्थलाकृति है। ज्यों ही हम प्रकम जोड़ते है, त्योंही उस स्थलरूप की उत्पत्ति, भूगर्मिक इतिहास, विकास तथा इतिहास का बोध मस्तिष्क में अपने आप होने लगता है। इसी प्रकार सभी स्थलरूपों कंे साथ प्रक्रम को जोड़कर हम इनका मान प्राप्त कर सकते हैं।
उपयुक्त विश्लेषण मे स्पष्ट है कि प्रत्येक प्रक्रम द्वारा निर्मित विभित्र स्थलाकृतियों में उनकी विशेषतायें निहित होती है। इन विशेषताओ से स्थलरूपों की उत्पत्ति विकाम अदि समस्याओें के विषय में वास्तविक मान प्राप्त किया जा सकता है।
1. चट्टानों के स्तरों की व्यवस्था तथा स्थिति का स्थलरूपों पर प्रभाव
इसमें चट्टान की घ्यवस्था देखते हैं कि इस प्रकार की है? अर्थात् चट्टान की अवस्था वलित है अथवा गुम्बदीय अथवा भ्रंशित है। हम इन तीनों अवस्थाओं में स्थलरूपों की व्याख्या प्रस्तुत करेंगे –
(i) वलित संरचना का स्थलरूप – जब किसी विशिष्ट मैदान का आन्तरिक शक्तियों के कारण वलन होता है, तो इसमें मोड़ों का निर्माण होता है। परिणामतः कुछ अपनतियों तथा अमिनितियों का निर्माण होता है, जिससे नदियाँ ढालों के अनुरूप प्रवाहित होने लगती हैं। एक दूसरे से ये नदियाँ समकोण पर मिलती हैं। इसे परवर्ती नदी कहते हैं। जो नदियाँ इनके विपरीत होती हैं, उन्हें अनुवर्ती नदी कहते हैं। इस प्रकार नदियों का जाल सा बिछ जाता है तथा जालीनुमा प्रवाह-प्रणाली का विकास होता है। कभी-कभी ये नदियाँ अपरदन इतना अधिक कर लेती हैं कि अपनति के स्थान पर अभिनति तथा अभिनति के स्थान पर अपनति का निर्माण होता है। चक्र के अन्त में अपनतीय कटक, अपनतीय घटियाँ, अभिनतीय कटक तथा अभिनतीय घाटियाँ, एक दिगन्त कटक तथा एक दिगन्त घाटियों का निर्माण होता है। इस तरह की स्थालकृतियाँ अप्लेशियन पर्वत पर विशेष रूप से देखने को मिलती हैं।
(ii) गुम्बदीय संरचना का स्थलरूप – कभी-कभी गुम्बदों का निर्माण विरूपण के कारण तथा कभी-कभी आग्नेय शैलों के धरातल के नीचे प्रवेश करने के कारण होता है। जब कोई गुम्बद उत्थित होता है, तो नदियाँ इस पर अपना अपरदन कार्य प्रारम्भ कर देती हैं, जिससे विचित्र प्रकार की स्थलाकृतियों का निर्माण होता है, जिन्हें हागबैग की संज्ञा दी जाती है। इसके अलावा क्वेस्टा तथा कटक का भी निर्माण होता इस पर केन्द्रीय प्रवाह-प्रणाली का विकास होता है।
(iii) अंशित संरचना का स्थलरूप – कभी-कभी दरार पड़ जाने से कोई भाग ऊपर उठ जाता है तथा कोई भाग नीचे फँस जाता है, जिससे भ्रंश कगार का निर्माण होता है। इस प्रकार अन्य कई स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। यदि अपरदन क्रिया सक्रिय रहती है, तो यह भाग धीर-धीरे नीचे चला जाता है तथा नीचे के भाग के सहारे भ्रंश का निर्माण होता है, इस तरह प्रत्यानुवर्ती भ्रंश रेखा कगार का निर्माण हो जाता है। कभी-कभी भ्रंश कगार के निर्माण के बाद उस पर मलवा का निक्षेप होता है। बाद में, जब नदियाँ अपरदन करती हैं, तो पुनः दिखाई पड़ने लगता है। इसे अनावृत्त कगार की संज्ञा दी जाती है।
2. चट्टान के संगठन का स्थलरूपों पर प्रभाव – इसके अन्तर्गत चट्टानों की कठोरता, भेदयता, रंध्रता तथा रासायनिक बनावट का
अध्ययन किया जाता है। यदि कोई चट्टान कठोर है, तो उसमें भिन्न प्रकार की स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। विशेष कर ट आकृत्ति की घाटी का निर्माण होता है। यदि चट्टान मुलायम है, तो पार्श्ववर्ती अपरदन अधिक होगा। परिणामस्वरूप चैड़ी-चैड़ी घाटियों का निर्माण होता है यदि चट्टानें भेद्य हैं, तो जल रिसकर नीचे चला जाता है तथा वाही जल का कार्य नगण्य होता है। चूना-पत्थर की चट्टानों में ऐसा देखने को मिलता है कि यदि चट्टानें अभेद्य हैं, तो जल रिसकर नीचे नहीं जाता। इस पर बाही जल का कार्य सक्रिय रहता है। यह क्रिया धरातल के ऊपर होती है। जबकि घुलनशीलता के कारण धरातल के नीचे तरह-तरह की स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। शैल सन्धियों का प्रभाव रासायनिक तथा भौतिक दोनों अपक्षयों पर पड़ता है। यदि शैल सन्धियाँ कम होती हैं, तो अपक्षय क्रिया कम तथा यदि शैल सन्धियाँ अधिक होती हैं, तो अपक्षय की क्रिया अधिक होती है। यदि जोड़ों का विकास रहता है, तो नदियों अपरदन इन जोड़ों के सहारे अधिक करती हैं। यदि शैलों का स्तरीकरण कठोर है तो उसमें मेज की आकृति की स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। शैल का स्तरीकरण ऊपर से नीचे है, तो सोपानकार स्थलाकृतियों का निर्माण होता है।
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