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Categories: इतिहास

दीदारगंज की यक्ष-यक्षिणी की मूर्ति क्या है | yaksha and yakshini sculpture in hindi यक्ष की प्रतिमा

yaksha and yakshini sculpture in hindi यक्ष की प्रतिमा दीदारगंज की यक्ष-यक्षिणी की मूर्ति क्या है ?

प्रश्न: मौर्यकालीन लोक मूर्तिशिल्प कला पर एक लेख लिखिए।
उत्तर: अशोककालीन कतिपय स्वतंत्र मूर्तियों के उदाहरण भी अत्यन्त उत्कृष्ट हैं। वस्तुतः इन मूर्तियों को लोक कला की श्रेणी के अंतर्गत रखा
जाना ही अधिकं उचित प्रतीत होता है, क्योंकि इन प्रतिमाओं को उनके आकार-प्रकार तथा शैलीगत विशेषताओं के कारण ही राज्याश्रित कला के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता है। ये प्रतिमाएं उड़ीसा, पाटलीपुत्र, वाराणसी, मथुरा, अहिच्छत्रा, विदिशा, कुरुक्षेत्र आदि देश के विस्तृत भू-भागों से प्राप्त हुई हैं। इन प्रतिमाओं को ‘यक्ष-यक्षि’ नामक लोक देवी-देवताओं की मूर्तियों के रूप में पहचाना जाता है तथा शक्ति व शौर्य की प्रतीक समझी जाने वाली ये प्रतिमाएं प्रायः सम्मुख व खडी मुद्रा में निर्मित की गई हैं। भारी-भरकम शरीर वाली ये मूर्तियाँ स्ट्रैला क्रैमरिश के अनुसार सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेषों में अपनी जड़ें ढूंढ़ती प्रतीत होती हैं। ये मूर्तियां मुख्यतया निम्न स्थानों से प्राप्त हुई है
ऽ ंमथुरा जनपद के झींग नगरा ग्राम से प्राप्त यक्ष की मूर्ति।
ऽ मथुरा जनपद के ही बारोदा ग्राम से प्राप्त यक्ष की प्रतिमा।
ऽ भोपाल के निकट बेसनगर से प्राप्त यक्षिणी की मूर्ति जो भारतीय संग्रहालय, कलकत्ता में सुरक्षित है।
ऽ विदिश या भिलसा से प्राप्त यक्ष की मूर्ति।
ऽ बेसनगर से प्राप्त यक्षी की प्रतिमा।
ऽ ग्वालियर जनपद से प्राप्त लेखयुक्त यक्ष की प्रतिमा
ऽ पटना में दीदारगंज से प्राप्त ओपयुक्त यक्षिणी की प्रतिमा।
ऽ वाराणसी के राजघाट से प्राप्त त्रिमुख यक्ष प्रतिमा।
ऽ सोपारा (शूपरिक) से प्राप्त यक्ष की मूर्ति
ऽ उड़ीसा के शिशुपालगढ़ से प्राप्त हुई कई अन्य यक्ष मूर्तियाँ
इनमें से पटना के पास दीदारगंज में प्राप्त हुई और अब पटना संग्रहालय में सुरक्षित श्श्चामर-धारिणी की ओपदार प्रतिमा अशोककालीन मूर्तिकला का एक उत्कृष्ट व अद्वितीय उदाहरण है। यह मूर्ति चुनार के लाल बलुआ पत्थर की बनी हुई है जिसे कोरकर बनाया गया है। प्रतिमा के अंग-प्रत्यंग सुडौल, भरे हुए व गोलाई युक्त हैं, साथ ही इसमें सौष्ठव व लालित्य के दर्शन भी होते हैं। मूर्ति के दाहिने हाथ में चंवर है, केशराशि गुंथी हुई है, हाथ की कलाई में चूड़ियाँ तथा कंगन हैं, गले में मोतियों का दो लड़ा हार पहना हुआ है, कमर में पांच लड़ियों वाली करधनी तथा पैरों में मोटे कडे के आभूषण हैं। मूर्ति के अधो भाग में वस्त्र की चुन्नटों को दिखाने के लिए लहरदार गहरी रेखायें बनाई गई हैं। दीदारगंज की इस यक्षिणी की मूर्ति में भारतीय नारी सौन्दर्य को मूर्तिमान करने में शिल्पकार पूर्ण रूप से सफल रहा है। नारी अवयवों का अंकन अपूर्ण सौन्दर्य से परिपूर्ण है।
अशोक के समय की बनवाई हुई कुछ श्टेराकोटा की मृण्मूर्तियाँ  भी प्राप्त हुई हैं जो कला की दृष्टि से बहुत ही उत्कृष्ट हैं। इनमें से एक मूर्ति हैं- श्श्शिव अथवा कोई यक्ष अपनी अर्धागिनी सहितश्श् जो कि बड़ी ही बारीकी व सुन्दरता से बनाई गई है। इसी प्रकार की एक अन्य मूर्ति पटना में भी प्राप्त हुई है जो सोने के पत्तर पर ठप्पे से बनाई गई है। ये दोनों ही मूर्तियाँ मौर्यकाल के अंतिम प्रहर और आरंभिक शुंगकाल की मानी गई हैं।
अशोककालीन मूर्तियों की यह विशेषता थी कि उसमें बहुत बारीकी व समानता थी और उसमें भद्दापन या भौंडापन आदि नहीं पाया जाता है। अधिकतर मूर्तियाँ कोरकर बनाई गई हैं। नारी सौन्दर्य में सुन्दरता का पूरी तरह से पालन किया गया है जिनसे मातृत्व का भान होता है।
प्रश्न: मौर्यकालीन स्तम्भ निर्माण कला विषयक विवाद क्या है? विवेचना कीजिए।
उत्तर: अशोक ने बड़ी संख्या में साम्राज्य के भिन्न-भिन्न भागों में स्तंभ बनवाए। मौर्यकालीन कला के सर्वोत्कृष्ट निदर्शन एक ही प्रस्तर खंड में
निर्मित (एकाश्म) स्तंभ या लाट हैं, जिनके शीर्षों पर भव्य पशु मूर्तियाँ प्रतिष्ठापित हैं। ये स्तंभ अपनी विस्मयकारी पॉलिश एवं सजीव पशु आकृतियों के कारण कला का एक उत्कृष्ट निदर्शन है।
कुछ इतिहासकार जैसे – जॉन मार्शल, पर्सी ब्राउन, स्टेला कैम्रिश आदि अशोक के स्तम्भों पर ईरानी कला का प्रभाव सीधा-सीधा मानते हैं। जबकि श्रामशरण अग्रवाल जैसे इतिहासकार अशोक के स्तम्भों पर ईरानी कला के प्रभाव स्वीकार नहीं करते और इन दोनों में अंतर बताते है। जो निम्नलिखित हैं
1. मौर्य स्तम्भ एकाश्म प्रस्तर से निर्मित हैं जबकि पर्शियन (ईरानी) स्तम्भ प्रस्तर खण्डों से निर्मित हैं।
2. अशोक स्तम्भ सपाट हैं तथा नीचे से ऊपर की ओर क्रमशः पतले होते गए हैं जबकि पार्शियन स्तम्भ नालीदार हैं तथा चैड़ाई नीचे से ऊपर तक एक समान है।
3. अशोक स्तम्भ स्वतंत्र रूप से स्थित हैं जबकि पार्शियन चैकी पर आधारित हैं।
4. अशोक स्तम्भों में उल्टा कमल लटकाया गया है जबकि पर्शियन में ऐसा नहीं है।
5. अशोक के स्तम्भों में पशु आकृतियाँ स्वतंत्र रूप से बनायी गयी हैं जबकि पर्शियन में ऐसा नहीं है।
6. ईरानी स्तम्भ विशाल भवनों में लगाए गए हैं जबकि अशोक के स्तम्भ स्वतंत्र से है।
7. अशोक के स्तम्भों पर की गई पॉलिश अत्यधिक महत्वपूर्ण है, जिनकी चमक आज तक बरकरार है जो मौर्य पॉलिश के नाम से जानी जाती है। ऐसा ईरानी स्तम्भों में नहीं है। ऐसे अवशेष सारनाथ, नन्दगढ़ आदि में मिलते हैं।
स्यूनर का विचार है कि मौर्य स्तंभों पर जो ओपदार पॉलिश है, वह ईरान से ही ग्रहण की गई है। लेकिन वासुदेव शरण अग्रवाल ने आपस्तंभ सूत्र तथा महाभारत में ऐसे उदाहरण खोज निकाले हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि यह पॉलिश भारतीया को बहुत पहले से ही ज्ञात थी। उनके अनुसार आपस्तंभसूत्र में मृद्भांडों को चमकीला बनाने की विधि के प्रसंग मे श्लोक्षणीकरण तथा शलक्षणीकुर्वन्ति (चिकना करने के मसालों से उसे चिकना किया जाता था) शब्द प्रयुक्त किया गया है जो ओपदार पॉलिश की प्राचीनता का सूचक है। पिपरहवा बौद्ध स्तूप की धातुगर्भ-मंजूषा, पटला की यक्ष प्रतिमाएँ, लोहानीपुर से प्राप्त जैन तीर्थकरों के धड़, आदि सभी में चमकीली पॉलिश लगाई गई है। इस संबंध में एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि पूर्व मौर्य युग के उत्तर भारत के विभिन्न स्थलों से काले रंग के चमकीले भांड मिले हैं जिनका समय 600-200 ई.पू. निर्धारित है। इन्हें एन.बी.पी. कहा जाता है। यह बर्तनों पर पॉलिश करने की प्राचीनता को ईसा पूर्व छठी शताब्दी में ले जाता है। ऐसी दशा में स्तंभों पर पॉलिश करने का ज्ञान ईरान से लेने की भारतीयों को कोई आवश्यकता ही नहीं थी। अतः मौर्यकालीन स्तंभ तथा उनकी पॉलिस पूर्णतया भारतीय है। अग्रवाल के शब्दों में श्मौर्य स्तंभों की परंपरा को लौरिया नन्दगढ़ के काष्ठ यूपों में ढूँढना अधिक समीचीन होगा जो हमारे यहां ही मौजूद है। बौद्ध साहित्य और महाभारत में ऐसे खम्भों का उल्लेख है जो धार्मिक एवं सार्वजनिक स्थानों में लगाए जाते थे।

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