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कामगार वर्ग का मतलब क्या है | कामगार वर्ग किसे कहते है , परिभाषा क्या है इन इंग्लिश working class in hindi meaning

(working class in hindi meaning) कामगार वर्ग का मतलब क्या है | कामगार वर्ग किसे कहते है , परिभाषा क्या है इन इंग्लिश ?

कामगार वर्ग
भारत में आधुनिक कामगार वर्ग का आविर्भाव उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में आधुनिक उद्योगों, रेलमार्गों, डाक-तार नेटवर्क, बागानों और खनन के विकसन के साथ ही हुआ। आरंभ में यह भारतीय कामगार वर्ग अकिंचनकृत किसानों और तबाह शिल्पकारों से ही निकलकर आया। ये किसान ऊँचे भू-कर, जोतों की अपूर्णता और बढ़ती ऋणग्रस्तता के कारण दरिद्र हुए। शिल्पकारों को कामगारों की श्रेणी में शामिल होने के लिए दवाब डाला गया क्योंकि उनके उत्पाद इंग्लैण्ड से आने वाली अपेक्षाकृत सस्ती मशीन-निर्मित वस्तुओं के साथ प्रतिस्पर्धा में नहीं ठहरते थे। ये कामगार अमानवीय और अपमानजनक स्थिति में रहते थे जहाँ उनके लिए प्राधिकारियों द्वारा किए जाने वाले निम्नतम कर्त्तव्यों का भी नामोनिशां नहीं होता था । एस.वी. पारुलकर, जो 1938 में जेनेवा में हुए अंतर्राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन में भारत के प्रतिनिधि थे, ने भारतीय कामगारों की स्थिति को वर्णन इन शब्दों में किया – ‘‘भारत में कामगारों की विशाल जनसंख्या को इतनी-सी मजदूरी मिलती है कि वह उनको जीवन की घटिया-से-घटिया अनिवार्य वस्तुएँ मुहैया कराने के लिए भी पर्याप्त नहीं है।‘‘ आर.पी. दत्त के अनुसार, ‘‘मध्य ब्रिटिश राज के प्रबुद्ध संरक्षण में भारतीय कामगारों की गंदगी भरी स्थितियों, असीमित शोषण और अधिसेविता को बड़े उत्साहपूर्वक बनाए रखा गया।‘‘

श्रमिक आंदोलन एक संगठित रूप में प्रथम विश्व-युद्ध की समाप्ति के बाद ही शुरू हुए । युद्ध से पूर्व होने वाली हड़तालों व आंदोलन अधिकतर यत्रतत्रिक. साहजिक, दूरगामी लक्ष्यों के अभाव वाले, वर्ग चेतना से रहित, और स्थानीय व तत्काल शिकायतों पर आधारित होते थे। युद्धोपरांत आर्थिक संकट के कारण कामगारों की दिन-ब-दिन बिगड़ती आर्थिक स्थिति, रूस में समाजवादी क्रांति, देश में असहयोग तथा खिलाफत आंदोलन ने 1920 में वह पृष्ठभूमि तैयार की जिसमें मुख्यतः एन.एम. जोशी, लाला लाजपतराय और जोसेफ बैस्टिस्ट जैसे नेताओं के प्रयासों से अखिल भारतीय श्रमिक संघ कांग्रेस (ऐटक-।ण्प्ण्ज्ण्न्ण्ब्ण्) का जन्म हुआ। इसका कथित उद्देश्य था आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक मामलों में भारतीय श्रमिकों के हितों को बढ़ावा देने के लिए भारत के सभी प्रांतों में सभी संगठनों की गतिविधियों को समन्वित करना। 1922 में अपने गया अधिवेशन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने ऐटक‘ के निर्माण का स्वागत किया और इसके कार्यों में मदद करने हेतु प्रमुख कांग्रेसीजनों की एक समिति बनाई। विपिनचन्द्र के अनुसार, आरंभ के राष्ट्रवादियों ने श्रमिकों की अधम स्थिति होने के बावजूद उनके प्रश्न पर अपेक्षाकृत कम ही ध्यान दिया क्योंकि श्रमिक बनाम देशज नियोक्ता के मामलों को उठाने से साम्राज्यवाद के विरुद्ध आम संघर्ष कमजोर पड़ जाता। कामगारों के मुद्दों को न उठाने का एक अन्य कारण आरंभ के राष्ट्रवादियों का यह विश्वास था कि औद्योगीकरण दरिद्रता की समस्याओं को हल कर सकता है।

1920 के दशक के उत्तरार्ध में देश में विचारधारा वाली शक्तियों का दृढ़ीकरण हुआ। श्रमिक संघ आंदोलन में भी एक वामपंथी नेतृत्व विकसित हो गया। 1928 में कम्यूनिस्ट वादियों समेत वामपंथ ‘ऐटक‘ के भीतर प्रभावशाली स्थान बनाने में सफल हुआ। जोशी गुट के प्रतिनिधित्व वाला पुराना नेतृत्व अल्पमत में रह गया। इससे ‘ऐटक‘ में दरार पड़ गई। कामगारों ने कम्यूनिस्टवादियों और उग्र राष्ट्रवादियों के प्रभाव में आकर देशभर में अनेक हड़तालों और प्रदर्शनों में भाग लिया। उन्होंने सायमन बहिष्कार प्रदर्शन में भी भाग लिया। सरकार ने लगभग समूचे उग्र उन्मूलनवादी नेतृत्व को मेरठ षड्यंत्र केस में फंसा दिया।

1937 में प्रांतीय सरकारों के लिए चुनावों से पूर्व कांग्रेस ने श्रम विवादों को निबटाने और संघ बनाने व हड़ताल पर जाने के अधिकारों को सुनिश्चित करने हेतु कदम उठाने का वायदा किया। कांग्रेस सरकार के तत्त्वावधान में नागरिक स्वतंत्रताएँ बढ़ गई थीं। यह बात श्रमिक संघों में आश्चर्यजनक रूप से बढ़ोत्तरी में प्रतिबिम्बित हुई। बम्बई श्रमिक विवाद अधिनियम जैसे अलोकतांत्रिक और पूँजीवाद-समर्थक विधानों के कुछ आरोप लगाए गए तथा श्रमिक सभाओं पर प्रतिबंध लगाने और श्रमिक नेताओं के बंदीकरण के मामले आए। 1939 में, जब द्वितीय विश्व-युद्ध आरंभ हुआ, बम्बई का कामगार वर्ग विश्व में सबसे पहले युद्ध-विरोधी हड़ताल करने वालों में एक था जिसमें कि 90,000 कर्मचारियों ने भाग लिया था। 1941 में सोवियत संघ पर नाजियों के हमले के साथ ही कम्यूनिस्टवादियों ने तर्क दिया कि युद्ध का स्वरूप साम्राज्यवादी समर से बदलकर जन-संग्राम हो गया है। उनका विचार था कि कामगार वर्ग को अब समवर्गी शक्तियों का समर्थन करना चाहिए और स्वयं को 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन से विलग कर लेना चाहिए। इस ओर कम्यूनिस्टवादियों की उदासीनता के बावजूद, भारत छोड़ो आंदोलन का कामगारों पर अपना प्रभाव था। गाँधीजी व अन्य नेताओं की गिरफ्तारी के बाद पूरे देश में हड़ताले हुईं। 1945-47 के बीच कलकत्ता में आजाद हिन्द फौज के बन्दियों के समर्थन में हड़तालें तब हुई जब उन पर मुकदमा चलाया जाने लगा। 1946 में नौसैनिक वर्ग की श्विद्रोहपूर्ण एकात्मकता‘ में बम्बई के कामगारों द्वारा हड़ताले की गई।

भारत में नए वर्गों का उद्गमन एक व्यापक निहितार्थों वाली घटना सिद्ध हुआ। सामान्यतः इन वर्गों के प्रबुद्ध प्रवर्गों ने स्वतंत्रता संघर्ष को मजबूती प्रदान की लेकिन कुछ प्रतिक्रियात्मक प्रवृत्तियाँ भी थीं । बुद्धिजीवी वर्ग के के प्रतिक्रियावादी प्रवर्ग ने विभिन्न समुदायों के बीच अविश्वास बढ़ाया जो कि सम्प्रदाय के वृद्धि में व्यक्त हुआ। जमींदारी का उन्मूलन ग्रामीण जन-साधारण की स्थिति में सुधार के लिए आवश्यक था। भारतीय पूँजीपति वर्ग ने इस माँग का कभी समर्थन नहीं किया। एक अन्य । महत्त्वपूर्ण तथ्य था कि जिस वक्त ये वर्ग स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए एकजुट थे स्वतंत्रोत्तर भारत का उनका सपना, और राज्य का स्वरूप सामाजिक-आर्थिक संरचना अपसारी थे।

बोध प्रश्न 3
नोट: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए रिक्त स्थान का प्रयोग करें।
ख) अपने उत्तरों की जाँच इकाई के अन्त में दिए गए आदर्श उत्तरों से करें।
1) साइमन आयोग के प्रति कामगार वर्ग का क्या रवैया था?
2) कामगार वर्ग के प्रति कांग्रेस के नेतृत्व वाली प्रांतीय सरकारों का क्या रवैया था?

 बोध प्रश्नों के उत्तर
बोध प्रश्न 3
1) उन्होंने इसका विरोध किया।
2) कांग्रेस सरकारों ने श्रम-विवादों को निबटाने, और कामगार वर्ग के अधिकारों को सुनिश्चित करने हेतु कदम उठाए। बहरहाल, बम्बई जैसे प्रान्तों में इसने श्रमिक-वर्ग-विरोधी कदम उठाए।

 सारांश
औपनिवेशिक काल के दौरान भारत में अनेक नए वर्ग उद्गमित हुए। इनमें शामिल थे – ग्रामीण क्षेत्रों में जमींदार, काश्तकार, भूमिधारी, साहूकार और कृषि श्रमिक, और शहरों में पूँजीपति, आधुनिक बुद्धिजीवी और कामगार वर्ग। वे पूँजीवादी व्यवस्था के विकास, नए प्रशासनिक ढाँचे और शिक्षा-प्रणाली के परिणामस्वरूप जन्में । इन वर्गों ने अपनी-अपनी स्थिति और हितों पर निर्भर रहते हुए राष्ट्रीय आंदोलन में भूमिकाएँ अदा की।

 कुछ उपयोगी पुस्तकें
चन्द्रा, बिपन, व अन्य कॅलोनिअलिज्म, फ्रीडम स्ट्रगल एण्ड नैशनलिज्म इन् इण्डिया, दिल्ली।
दत्त, आर पी०, इण्डिया टुडे, कलकत्ता, 1970।
देसाई, ए०आर०, सोशल बैकग्राउंड ऑव इण्डियन नैशनलिज्म, बम्बई, 1976 ।
मिश्रा, बी.बी., दि इण्डियन मिडिल क्लास, लंदन, 1961 ।

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