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महिला सशक्तिकरण का अर्थ एवं परिभाषा क्या है , कारण , परिणाम उदाहरण किसे कहते है women’s empowerment in hindi
women’s empowerment in hindi महिला सशक्तिकरण का अर्थ एवं परिभाषा क्या है , कारण , परिणाम उदाहरण किसे कहते है ?
महिला सत्ताधिकारहीनता के कारण
सशक्तीकरण में रुचि रखने वाले विद्वान जिस मुख्य प्रश्न के समाधान की तलाश में लगे हुए हैं वह यह है कि महिलाओं जैसे एक सत्ताधिकारहीनता समूह विशेष की पराधीनता या उत्पीड़न के आखिर क्या कारण हैं?
एक नजरिया पितृसत्ता को महिला सत्ताधिकारहीनता का मुख्य कारण मानकर चलता है। इस नजरिए के अनुसार पितृसत्ता एक अतिक्रियाशील सामाजिक लिंग सोच (या नातेदारी) व्यवस्था है जो महिलाओं की भूमिका और संबंधों को तय करती है । पुरुष प्रधान पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों को उनकी पारंपरिक भूमिकाओं में ही देखा जाता है जो पुरुषों के नियंत्रण में, उनके अधीन रहती हैं। अगर कोई स्त्री चाहे कि उसे एक स्त्री के रूप में स्वीकार किया जाए तो उसे अति प्रवीण, अति महत्वाकांक्षी, हावी रहने वाली न हो और वह नारीत्व के गुणों में कम न हो।
दूसरा नजरिया महिला सत्ताधिकारहीनता के एक मुख्य क्षेत्र को लेकर चलता है और इसके अनुसार सबसे आम क्षेत्र घर-परिवार ही है। यह नजरिया महिलाओं की जननात्मक या उत्पादक भूमिकाओं को ही केन्द्र मानकर चलता है। से भूमिकाएं स्त्रियां संतान के जनक और गृहणियों के रूप में निभाती हैं। भारतीय परिवारों में लड़कियों से उम्मीद की जाती है कि वे कच्ची उम्र में ही घर के काम-काज संभाल लें। साधारण स्थिति में भी लड़कियों से अपेक्षा यह रहती है कि वे अपनी मां के साथ घरेलू काम-काज जैसे खाना पकाना, बर्तन मांजना, घर की साफ सफाई और छोटे बच्चों यानी अपने भाई बहनों की देखभाल करें। इसलिए ऐसे समाजों में महिला होने का मतलब ही घर में काम-काज करना और अपनी सभी जरूरतों के लिए पूरी तरह से पुरुषों पर निर्भर रहना है। तीसरा नजरिया कहता है कि महिलाओं को बहुविध क्षेत्रों में (एक साथ या क्रमवार) पराधीनता या सत्ताधिकारहीनता के अनुभव से गुजरना पड़ता है। ये क्षेत्र हैं घर, कार्यस्थल और अन्य स्थान । घर में स्त्री से आशा की जाती है कि वह परिश्रमशील नारी के पारंपरिक आदर्श की कसौटी में खरी उतरे, जो अपने परिवार के अन्य सदस्यों की खुशहाली के लिए अपने हितों को न्यौछावर करने के लिए तत्पर रहे और बदले में कुछ भी नहीं मांगे। इसी प्रकार कार्यस्थल पर उसे अपने कार्य में अत्यधिक प्रवीण नहीं होना चाहिए अन्यथा वह पुरुषों के कोप का भोजन बन सकती है। इस तरह की पराधीनता का मुख्य कारण यह है कि बचपन से स्त्री और पुरुष के बीच भेद कर दिया जाता है। लड़की का समाजीकरण कुछ इस तरह से किया जाता है कि वह विनम्र, आज्ञाकरी और शांत, सहनशील बने।
ये सभी नजरिए कई मामलों में एक-दूसरे से हालांकि भिन्न हैं लेकिन सभी यह मानकर चलते हैं कि स्त्रियों को सिर्फ घर पर नहीं बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और संस्थाओं के स्तर पर शक्तिहीनता या लाचारी का अनुभव होता है।
महिलाओं का सशक्तीकरण
महिलाओं के सशक्तीकरण में रुचि रखने वाले विद्वानों के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि महिलाओं की पराधीनता या उत्पीड़न के लिए जिम्मेदार कारणों को दूर करने का सबसे उत्तम उपाय क्या हो।
दक्षिण एशिया में महिला सशक्तीकरण पर श्रीलता बाटलीवाला
का अध्ययनकार्य
श्रीलता बाटलीवाला ने दक्षिण एशिया में महिलाओं के सशक्तीकरण पर 1994 में एक अध्ययनकार्य किया था । इस अध्ययनकार्य में उन्होंने तीन स्वयंसेवी संगठनों के अलग-अलग नजरिए को समझा। समेकित विकास का नजरिया, आर्थिक नजरिया और स्थानीय स्तर पर काम न करने वाले स्वयंसेवी संगठनों द्वारा जागरुकता लाने और शोध कार्य करने तथा संसाधनदाता एजेंसी के रूप में काम करने के बजाए न करने का नजरिया।
बाटलीवाला के अनुसार सशक्तीकरण दो तरह का होता हैः
क) आर्थिक सशक्तीकरण
ख) पूर्ण सशक्तीकरण
सरकार और विभिन्न एजेन्सियों को लगता है कि समेकित ग्रामीण विकास कार्यक्रम या उद्यमशीलता विकास कार्यक्रमों के जरिए विभिन्न प्रकार के संसाधन मुहैय्या कराके महिलाओं को सबल और अधिकार-संपन्न बनाया जा सकता है। लेकिन यह जरूरी नहीं है कि आर्थिक सशक्तीकरण से पूर्ण सशक्तीकरण हो जाए या उनकी हैसियत बढ़ जाती हो। उदाहरण के लिए धनाढ्य परिवारों की महिलाओं के पास सारे संसाधन और साधन होते हुए भी उन्हें खुद निर्णय करने का अधिकार नहीं होता। इसलिए उन्हें सबल और सत्ताधिकार संपन्न नहीं कहा जा सकता है। संसाधनों की कमी सत्ताधिकारहरण का कारण नहीं बल्कि सत्ताधिकारहरण उसका परिणाम है । इसके मूल में ऐतिहासिक कारक हैं। जैसे स्त्रियों की निम्न स्थिति-प्रतिष्ठा, पुरुष प्रधान समाज इत्यादि । इसलिए महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण से जरूरी नहीं कि उनका पूर्ण सशक्तीकरण हो जाए। इससे यह जरूर हो सकता है कि आर्थिक रूप से महिला स्वतंत्र हो जाए। लेकिन अपने परिवार में निर्णय करने का अधिकार तब भी उसके हाथ में नहीं रहता। उसके घर-परिवार पर वास्तविक नियंत्रण उसके पति या पिता के हाथों में ही रहता है।
जैसा कि बाटलीवाला ने भी पाया है इन दृष्टिकोणों में अंतर हम सैद्धांतिक स्तर पर ही कर सकते है। व्यवहार में ये अंतर अक्सर धुधंले नजर आते हैं। अधिकांश विकास कार्यक्रमों में इन दृष्टिकोणों का मिश्रण रहता है। बाटलीवाला अपने वर्गीकरण में जिन अनुभवों को दर्ज किया था उन्हें हम समेकित ग्रामीण विकास या आर्थिक नजरिए की श्रेणी में रख सकते हैं। मगर इन सभी का आधार जागरुकता लाना और संगठित करना है और सभी प्रकट या अप्रकट रूप से महिलाओं के सत्ताधिकारहरण के लिए अनेक कारकों को दोषी मानते हैं न सिर्फ एक कारक को।
ग्रामीण बांगलादेश में महिला सशक्तीकरण पर सिडनी शुलर
और सैयद हाशमी का अध्ययन कार्य
बांगलादेश के देहाती इलाकों में महिलाओं के सशक्तीकरण पर अपने अध्ययन कार्य में सिडनी शुलर और सैयद हाशमी (1993) ने अपने शोध को बांगलादेश ग्रामीण विकास समिति (बांगलादेश रूरल एडवांडसमेंट कमेटी) और ग्रामीण बैंक की महिला कार्यकर्ताओं के अनभव की रोशनी में सशक पर केन्द्रित किया। ये दोनों संगठन व्यक्ति के निजी आर्थिक सशक्तीकरण का नजरिया लेकर चल रहे हैं। शुलर और हाशमी के अनुसार बांगलादेश में महिला सशक्तीकरण के छः विशिष्ट घटक हैंः
1) निजी-व्यक्तित्व का बोध और भविष्य की दृष्टि
2) गतिशीलता और दृश्यमानता
3) आर्थिक सुरक्षा
4) घर-परिवार में स्थिति-प्रतिष्ठा और निर्णय करने का अधिकार
5) सार्वजनिक कार्यक्षेत्र में प्रभावशाली ढंग से परस्पर-व्यवहार करने की क्षमता
6) गैर-पारिवारिक समूहों में सहभागिता
सामूहिक सशक्तीकरण और काररवाई के रूप में वे उन उदाहरणों का उल्लेख करते हैं, जिनमें महिला समूहों के सदस्य अपने समूह के उन सदस्यों के पतियों के खिलाफ काररवाई करते हैं जो उन्हें मारते हों या जिन्होंने अपनी पत्नियों को तलाक दे दिया हो। ये महिला समूह चुनावों में अपने प्रत्याशी खड़ी करते हैं और स्थानीय चुनावों में अपनी इच्छा से वोट डालते हैं।
महिलाओं को निजी तौर पर आर्थिक रूप से सशक्त, सबल बनाने का यह नजरिया सामूहिक राजनीतिक प्रभाव पैदा कर सकता है। .
महिला शिक्षा सशक्तिकरण का एक महत्वपूर्ण स्रोत है
साभार: किरणमई बुसी
भारत में महिला आंदोलन पर लेजली कॉलमैन का अध्ययनकार्य
अपने अध्ययन में लेजली कॉलमैन ने भारत के महिला आंदोलन में दो प्रमुख वैचारिक और सांगठनिक प्रवृत्तियां पाई हैः
प) विशाल शहरी आधार वाला आंदोलन जिसका मुख्य सरोकार अधिकार और समानता के मुद्दे हैं
पप) गांव और शहर दोनों में जिसका आधार है जो सशक्तीकरण और मुक्ति के मुद्दे पर लड़ता है।
कॉलमैन के अनुसार महिला अधिकारों के पैरोकार महिलाओं के सरोकारों को नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के रूप में लेते है जिनका उद्देश्य कानून की नजर में समानता पाना है। लेकिन महिला सशक्तीकरण के समर्थक महिलाओं के सरोकारों को आर्थिक और सामाजिक अधिकारों के रूप में देखते हैं। इसका अर्थ है आजीविका और अपना भाग्य खुद तय करने का अधिकार । इसका लक्ष्य निर्धन महिलाओं का निजी और सामुदायिक स्तर पर सशक्तीकरण करना है।
सशक्तीकरण की दिशा में संगठन बनाने के लिए पहला कदम है महिला समूहों का मिलजुलकर अपनी समस्याओं का विश्लेषण और फिर उनके समाधान के लिए सामूहिक काररवाई करना। कॉलमैन के वर्गीकरण में सेवा (सेल्फएम्प्लाइड) वीमेंस एसोसिएशन) सशक्तीकरण संगठन का अग्रणी उदाहरण है। बल्कि उनके वर्गीकरण में प्रशिखा को भी एक सशक्तीकरण संगठन माना जा सकता है।
बोध प्रश्न 1
नोटः अपने उत्तर को इकाई के अंत में दिए गए उत्तर से मिला लीजिए।
1) सही या गलत बताइए
ं) महिलाओं को दुर्बलता या सत्ताधिकारहीनता का एहसास सिर्फ आर्थिक संस्थाओं में ही होता है।
इ) महिला सत्ताधिकारहीनता के चिंतन का एक नजरिया पितृसत्ता को लेकर चलता है।
ब) सशक्तीकरण अपेक्षतया विकास की एक नई अवधारणा है और यह पूरी तरह से परिभाषित नहीं है।
2) खाली स्थान भरिए
ं) भारत में महिला आंदोलन का अध्ययन किया है।
इ) महिला की सत्ताधिकारहीनता का कारण और महिलाओं की भूमिका पर ही जोर देना है।
ब) कॉलमैन के वर्गीकरण के अंतर्गत एक अग्रणी उदाहरण है।
सशक्तीकरणः व्यक्तिपरक अध्ययन (केस स्टडीज)
अपने तर्क को स्पष्ट करने के लिए अब हम कुछ व्यक्तिपरक अध्ययनों (केस स्टडीज) पर रोशनी डालेंगे।
व्यक्तिपरक अध्ययन प्रू महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण के
प्रति प्रशिखा का नजरिया
बांगलादेश में निर्धनों के संगठनों को खड़ा करने का सबसे पहला श्रेय प्रशिखा को जाता है। प्रशिखा की दृष्टि में महिला सशक्तीकरण विकास की प्रक्रिया के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसके अनुसार देश में व्याप्त गरीबी, निरक्षरता, कुपोषण, निम्न उत्पादकता और बेरोजगारी की समस्या के मूल में महिलाओं को अधिकारों और अवसरों से वंचित रखा जाना है। प्रशिखा महिला समूहों के सदस्यों के लाभ के लिए मानव संसाधन विकास प्रशिक्षण पाठ्यक्रम चला रही है। ये प्रशिक्षण पाठ्यक्रम इस तरह से बनाए गए हैं कि इनसे गरीब महिलाएं अपने सामने खड़ी होने वाली कठिनाइयों को पहचानें, उन्हें समझ सकें और फिर इनके समाधान के लिए विकास की समुचित रणनीतियां जान सकें उन पर अमल कर सकें। इन पाठ्यक्रमों और कार्यक्रमों का मूल उद्देश्य महिलाओं का सशक्तीकरण करना है ताकि वे दहेज, पत्नी की पिटाई, झूठे आरोपों पर तलाक देने और असमान वेतन जैसे चलन के खिलाफ सामूहिक आवाज उठा सकें। चूंकि गरीब महिलाओं को नेतृत्वकारी या प्रबंधकीय पदस्थानों पर कार्य करने के अवसर नहीं मिलते थे, इसलिए इन कार्यक्रमों के जरिए उन्हें महिला समूहों और अपने समुदाय में ऐसे पदों पर कार्य करने के लिए अनिवार्य योग्यता अर्जित करने का अवसर भी मिलता है।
प्रशिखा की दृष्टि में महिला की आमदनी होना उनके सशक्तीकरण की दिशा में पहला कदम है। परिवार की आमदनी में योगदान करके महिलाओं को अपने परिवार में निर्णय करने का अधिकार मिलने लगता है। कमाने योग्य होने पर महिलाएं अपने जीवनयापन और आत्मनिर्भरता के लिए आवश्यक साधन जुटाने में समर्थ हो जाती हैं। प्रशिखा महिलाओं को घर से बाहर भी आर्थिक क्रिया-कलाप करने के लिए प्रोत्साहित करती है यह श्रम के सामाजिक लिंग सोच जन्य विभाजन को बदलने और महिलाओं को नई प्रवीणताएं अर्जित करने के साथ साथ नई और उन्नत प्रौद्योगिकी का उपयोग करने के अवसर जुटाने में सहायक हो रहा है।
प्रशिखा ने आर्थिक सशक्तीकरण का जो नजरिया अपनाया है वह हमें जमुना महिला समिति जैसे संगठनों के उदय और विकास से स्पष्ट हो जाता है।
व्यक्तिपरक अध्ययन प्प्रू ‘सेवा‘ द्वारा तंबाकू श्रमिकों की
यूनियन में लामबंदी
अब हम गुजरात के खेड़ा जिले में महिला तंबाकू श्रमिकों के यूनियनीकरण की प्रक्रिया और उसके फलस्वरूप उन में आए आर्थिक और सामाजिक बदलाव पर चर्चा करेंगे। स्वरोजगार में लगी महिलाओं के संगठन ‘सेवा‘ (सेल्फ एम्प्लाइड वीमेंस एसोसिएशन) ने खेडा जिले में अपनी यूनियन गतिविधियां 1986 में शुरू की थी जिसके बाद से यह जिले की सबसे मुख्य ट्रेड यूनियन बन गई है। पूरे जिले में इसके सदस्यों की कुल संख्या 1994 के अंत तक 14500 हो गई थी। सेवा की सबसे मुख्य सांगठनिक शक्ति उसकी इस क्षमता में निहित है जिसके चलते वह अधिक वेतन या मजदूरी के लिए की जाने वाली सौदेबाजी की शुद्धतः ट्रेड यूनियन गतिविधि को सामाजिक सुरक्षा से जोड़ लेती है जैसे बच्चों की देखरेख, बचत, बीमा। इसके साथ-साथ वह रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए भी कार्य करती है। खेड़ा जिले में ‘सेवा‘ के प्रयास निश्चय ही इसका उल्लेखनीय उदाहरण हैं कि सशक्तीकरण की दिशा में ले जाने वाली सामूहिक काररवाइयों के माध्यम से वे क्या कुछ हासिल कर सकती हैं। खेड़ा की गिनती गुजरात के सबसे समद्ध जिलों में होती है। मगर इसमें असमानताएं भी उतनी ही ज्यादा हैं। धनाढ्य दुग्ध उत्पादकों, कपास और तंबाकू के किसानों और तंबाकू के कारखानों के साथ-साथ दरिद्र और शोषित श्रमिक भी रहते हैं जो कि जिले की बहुसंख्य आबादी हैं। यूं तो मजदूरों को खेती के लिए गुजरात में तय न्यूनतम मजदूरी मिलनी चाहिए थी लेकिन वास्तविकता में उन्हें इसकी आधी मजदूरी ही मिलती थी क्योंकि उन के हितों की रक्षा के लिए कोई संगठन या यूनियन नहीं थी। महिलाएं घंटों तक तंबाकू की पत्तियों को पीटने, उन्हें मशीन में डालने और फिर निर्मित तंबाकू को थैलियों में भरने के कामों में लगी रहती थीं। ये सारे काम वे तंबाकू की धूल से भरी गुबार में सांस लेते हुए करती थीं, जिसमें उन्हें तंबाकू के भारी-भारी बोझ भी उठाने पड़ते थे। इन कठोर परिस्थितियों में काम करने से महिलाएं शारीरिक थकान और कमर दर्द जैसी बीमारियों के अलावा सांस संबंधी रोगों से भी पीड़ित रहती थीं।
असंगठित अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों में महिलाओं की ही बहुलता देखन में आती है। इसके बावजूद भी अधिकांश ट्रेड यूनियनें महिलाओं के प्रति उदासीन रवैया अपनाती हैं। मगर ‘सेवा‘ समष्टिवादी नजरिए से महिलाओं की समस्याओं को देखती है। वह महिलाओं को सिर्फ एक व्यक्तिगत प्राणी ही नहीं बल्कि संयुक्त पारिवारिक समूह का सदस्य भी मान कर चलती है। खेड़ा में चल रही ऐसी गतिविधियों में शिशुसदनों (केश), बचत समूहों का संचालन, बीमा, स्वास्थ्य, ग्रामीण क्षेत्रीय महिला एवं बाल विकास समूहों का संचालन इत्यादि शामिल हैं।
कोई भी यूनियन सबसे पहले एक नए इलाके में प्रवेश करने के प्रयास में मांग-पत्र तैयार करती है, कुछ सदस्यों का पंजीकरण करवाती है और नियोक्ता के सामने मांग रखती है। इस तरह की रणनीति सिर्फ आर्थिक लाभ अर्जित करने के लिए बनाई जाने वाली यूनियन के लिए उचित रहती है। मगर सेवा अपनी गतिविधि की शुरुआत लक्षित क्षेत्र में सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण से करती है। इस सर्वेक्षण का उद्देश्य संगठनकर्ताओं को महिलाओं की समस्याओं से अवगत कराना होता है। इसके बाद उसका अगला कदम उन्हें इन समस्याओं और संभावित समाधानों के बारे में जागरूक बनाना होता है। संगठनकर्ता मजदरों के लिए शिक्षण कार्यक्रम चलाते है जिनसे महिलाओं को अपने कानूनी अधिकारों की जानकारी मिलती है। इन शिक्षण कार्यक्रमों का उद्देश्य महिलाओं को जागरूक बनाना और उन्हें प्रेरित करना है ताकि वे समुचित काररवाई के लिए खुद निर्णय लें और पहल करें। हालांकि यह साधारणतया अधिकांश ट्रेड यूनियनों द्वारा अपनायी जाने वाली प्रक्रिया से ज्यादा लंबी है लेकिन इसमें मजदूरों के बाहरी समर्थन पर निर्भर रहने के बजाए खुद उन्हीं की ओर से काररवाई शुरू करने का प्रयास रहता है।
शुरू में जब खेड़ा के चिकोडेरा गांव की इंदिराबेन ने मजदूरों की शिक्षा के लिए कक्षाएं आरंभ की तो उन्हें कोई विशेष समर्थन नहीं मिला। महिलाओं को डर था कि अगर उन्होंने इन कक्षाओं में भाग लिया तो उनका नियोक्ता इस बारे में जान जाएगा और उन्हें सताएगा। कई औरतें तो इस तरह के प्रयासों की आलोचना करती थीं। उन्हें लगता था कि अगर वे अपने कानूनी अधिकारों के बारे में जागरूक हो भी जाएंगी तो वे मालिक के सामने अपनी मांगें कभी नहीं रख पाएंगी क्योंकि वह काम से उनकी छुट्टी ही कर देगा। महिलाओं में भूस्वामियों और कारखाने के मालिकों का सामना करने का साहस या आत्मविश्वास भी नहीं था। इस तरह कम मजदूरी, निम्न सामाजिक स्थिति और तिस पर उनका स्त्री होना, इन सबके चलते वे असहाय और असंगठित थीं।
अभी तक ट्रेड यूनियनों ने तंबाकू श्रमिकों को संगठित करने के जो भी प्रयास किए थे उनका लक्ष्य सिर्फ पुरुष श्रमिक ही थे। इसलिए ट्रेड यूनियनों की ओर से महिलाओं को आकर्षित करना अत्यंत कठिन था। फिर जो गिनी-चुनी महिलाएं ट्रेड यूनियन की सदस्य बनीं, जब उन्होंने श्रम विभाग से यह शिकायत की कि उनके कारखाने में काम करने वाले मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी नहीं मिलती तो कारखाने के मालिकों ने ऐसी 17 महिला मजदूरों को नौकरी से निकाल दिया हालांकि वे उनमें वर्षों से काम कर रही थीं। इस घटना से भी महिलाओं के मन में डर बैठ गया था।
‘सेवा‘ ने अपनी ट्रेड यूनियन गतिविधियों की शुरुआत 1986 में शिक्षण कक्षाएं खोलकर की। महिलाओं में धीरे-धीरे अपने कानूनी अधिकारों के प्रति जागरुकता बढ़ी, जैसे न्यूनतम मजदूरी, कार्यसमय इत्यादि । इन् शिक्षण कार्यक्रमों के माध्यम से वे अब अपनी समस्यओं पर विचार विमर्श करने लगीं और उन्हें सामूहिक शक्ति के महत्व का पता चल गया।
ग्रामीण क्षेत्रीय महिला एवं बाल विकास योजना के तहत महिलाओं ने अपने मंडल बनाए और वे कुछ धनापार्जन गतिविधियां करने लगी। श्सेवाश् ने उन्हें बचत समूह बनाने के लिए प्रोत्सहित किया ताकि उन्हें कर्ज के लिए अपने मालिकों पर आश्रित नहीं रहना पड़े। सेवा ने अपनी स्वास्थ्य योजना के स्वास्थ्य स्वयंसेवियों की एक अनूठी सहकारिता बनाई जिसने गरीब रोगियों को सस्ती दवाइयां उपलब्ध कराने के साथ-साथ स्वास्थ्य और साफ-सफाई के बारे में लोगों में जागरुकता फैलाई। एक ट्रेड यूनियन के रूप में ‘सेवा‘ की शक्ति उसकी इस क्षमता में निहित है जिसके चलते इसने कई सहायक प्रणालियों का विकास करके उन्हें अपनी ट्रेड यूनियन गतिविधियों का हिस्सा बनाया है। सेवा ने महिलाओं को कर्ज और अनुदान जुटाने में भी सहायता की है। इसने कामकाजी महिलाओं के छोटे बच्चों की देखभाल के लिए 21 दिसंबर 1994 को श्री शैशव महिला बाल सेवा सहकारी मंडल की स्थापना की। कारखाने के मालिक भी अपने कारखानों में शिशुसदन चलाने के लिए इसे जगह देने को राजी हो गए। इसने जीआईसी (जनरल इंश्योरेंस कॉरपोरेशन) के सहयोग से निर्धनों की सहायता के लिए एक बीमा योजना भी चलाई है। श्सेवाश् आगे की पीढ़ी यानी किशोरियों के लिए अवसरों को बढ़ाने के प्रयास में लगी हुई है। यहां गौर करने की मुख्य बात यह है कि महिलाएं अपनी सामूहिक काररवाई से शक्ति प्राप्त कर रही हैं। उनमें अब इतना आत्मविश्वास तो आ ही गया है कि वे फर्श पर बैठने के बजाए कुर्सी पर बैठ सकती हैं।
बोध प्रश्न 2
1) प्रशिखा ऐसा क्यों मानती है कि महिलाओं का धनोपार्जन करना महिला सशक्तीकरण की दिशा में पहला कदम है? पांच पंक्तियों में बताइए।
2) खेड़ा में महिलाओं को ट्रेड यूनियनों की ओर आकर्षित कर पाना कठिन क्यों था? पांच पंक्तियों में बताइए।
बोध प्रश्नों के उत्तर
बोध प्रश्न 1 .
1) ं) गलत
इ) सही
ब) सही
2) ं) लेजली कॉलमैन
इ) पितृसत्ता, जननात्मक
ब) सेवा
बोध प्रश्न 2
1) प्रशिखा की दृष्टि में महिलाओं का धनोपार्जन करना महिला सशक्तीकरण की दिशा में पहला कदम है क्योंकि परिवार की आमदनी में योगदान करके महिलाओं को अपने परिवार में निर्णय करने का अधिकार मिलने लगता है। इससे उसे अपने जीवनयापन और आत्म-निर्भरता के लिए आवश्यक साधन मिल जाते हैं। घर से बाहर उत्पादक क्रिया कलापों में भाग लेने से श्रम का लिंग सोच जन्य विभाजन बदल जाता है। इससे महिलाओं के लिए नई प्रवीणताएं अर्जित करने और नई उच्च प्रौद्योगिकी का उपयोग करने के दरवाजे खुल जाते हैं।
2) महिलाओं को ट्रेड यूनियनों की ओर आकर्षित करना इसलिए बेहद कठिन था कि तंबाकू श्रमिकों को यूनियनों के रूप में संगठित करने के अभी तक जो भी प्रयास हुए थे उन्हें पुरुष श्रमिकों तक सीमित रखा गया था। जिन महिला श्रमिकों ने श्रम विभाग को शिकायत करने का साहस किया कि उन्हें न्यूनतम मजदूरी नहीं मिल रही है, उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया था और वे तब से बेरोजगार थीं। इस घटना ने भी उनमें डर पैदा कर दिया था।
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