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बंगाल शैली के संस्थापक कौन थे | Who established Bengal School of Art in hindi बंगाल शैली का जनक
बंगाल शैली का जनक Who established Bengal School of Art in hindi बंगाल शैली के संस्थापक कौन थे ?
प्रश्न: आधुनिक चित्रकला की बंगाल शैली के विकास क्रम एवं विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
उत्तर: 19वीं शताब्दी के परिवर्तनीय युग में भारतीय कला जगत में अवनींद्रनाथ ठाकुर ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अवनीन्द्रनाथ के साहसिक क्रांतिकारी विचारों एवं ई.वी. हैवल के भारतीय कला के प्रति उदार व्यवहार ने ‘बंगाल शैली को जन्म‘ दिया। अवनीन्द्रनाथ ने ‘उमर खय्याम‘ एवं ‘अरेबियन नाइट्स‘ जैसे चित्र बनाये। कलाकार टैगोर के, नन्दलाल बोस, असित कुमार हाल्दार जैसे शिष्यों ने देश के अनेक भागों में ‘टैगोर शैली‘ का प्रचार-प्रसार किया।
पेरिस से लौटी अमृता शेरगिल, गगेन्द्रनाथ ठाकुर, यामिनी राय जैसे कलाकारों के नूतन प्रयोगों ने भारतीय चित्र परम्परा को स्वतंत्र अंकन की ओर प्रेरित किया। बंगाल शैली के चित्र ‘पारदर्शी‘, ‘वॉश‘ और ‘ओपेक‘ सभी तकनीकों से बनाये गये। चित्रों को मुख्यतः वॉश तकनीक, चीनी, जापानी, भारतीय एवं पाश्चात्य आधार पर बनाया गया।
‘आचार्य नन्दलाल बोस‘ (शांतिनिकेतन, कोलकाता), ‘क्षितीन्द्रनाथ मजूमदार‘ (इलाहाबाद), ‘के. वैक्टप्पा‘ (मैसूर), ‘देवी प्रसार रॉय चैधरी‘ (चेन्नई), ‘पुलिन बिहारी दत्त‘ (मुम्बई), ‘मुकुल चन्द्र डे‘, ‘मनीष डे‘ एवं ‘शारदा चरण उकील‘ (दिल्ली), ‘शैलेन्द्रनाथ डे‘ (जयपुर), ‘समरेन्द्रनाथ गुप्त‘ (लाहौर), ‘सुधरी रंजन खास्तगीर‘ (लखनऊ) आदि ने उक्त स्थानों के ‘कला आचार्यों के पद पर रहकर नूतन प्रयोगों द्वारा भारतीय कला एवं संस्कृति की नई परम्पराओं का सूत्रपात किया।
प्रश्न: बंगाल शैली के प्रमुख कलाकारों व उनकी कलाकृतियों के संबंध में बताइए। (इनमें विभिन्न कलाकारों व उनकी कलाकृतियों के संबंध में 15 व 50 शब्दों में प्रश्न पूछे जाते हैं)
उत्तर: अवनीन्द्रनाथ ठाकुर (टैगोर): कोलकाता स्कूल ऑफ आर्ट्स में अवनीन्द्रनाथ ‘सिनोरधि लार्डी‘ के शिष्य रहे।
गगनेन्द्रनाथ ठाकुर (टैगोर): गगनेन्द्रनाथ पेशेवर चित्रकार नहीं थे। उनकी आरम्भिक कृतियों में ‘परियों की कहानी‘ या ‘रोमांटिक पृष्ठभूमि में प्रेम संबंधी विषय‘ है। ‘अंर्जुन व चित्रांगदा‘ के रोमान्सपूर्ण चित्र में नायक-नायिका कठिन परीक्षा के बाद पहाड़ के ऊपर खड़े हैं। उनकी पीछे अस्त होते हुये सूर्य की किरणों से लाल बादलों एवं हिमाच्छादित पर्वतों की पृष्ठभूमि में नायिका का सौन्दर्य हजार गुणा बढ़ गया है। 1916-18 ई. के बीच हम गगनेन्द्रनाथ ठाकुर के ‘काले-सफेद रेखा चित्र‘, ‘छवि चित्र‘ व ‘व्यंग चित्र‘ ले सकते हैं, जो उनकी परिवर्तनशील कला रुचि का परिचायक है। ‘काले-सफेद स्याह रेखाचित्रों‘ द्वारा उन्होंने तत्कालीन समाज की कुरीतियों तथा प्रचलित अतिवादी धारणाओं पर करारी चोट की। तीसरे भाग में गगनेन्द्रनाथ के उन चित्रों को लिया जा सकता है, जो उन्होंने ‘प्रकृति से प्रेरित‘ होकर बनाए। ‘रात्रि में दुर्गा पूजा का जुलूस‘, ‘शिक्षक वर्षा में घर को‘ आदि में चारों ओर के वातावरण का सुन्दर चित्रण है। चैथे भाग में हम उनके ‘अमूर्त चित्रों‘ को ले सकते हैं, जो रहस्यमय प्रकाश से युक्त चित्रित हैं। पांचवें भाग में गगनेन्द्रनाथ के ‘घनवादी (क्यूबिज्म) चित्रों‘ को ले सकते हैं, जिनमें चलायमान गतिशील आकृतियां बनी हैं। इनमें वे भविष्यवादी असंतुलन व गति दर्शाते हैं। ‘स्टेला क्रेमरिश‘ ने गगनेन्द्रनाथ के चित्रों की तुलना पेरिस के कलाकारों से की है।
शैलेन्द्रनाथ डे: ‘‘मानव जीवन के मूक भावों को प्रत्यक्ष रूप से दर्शाने वाली कला ही एक चाक्षुष माध्यम है।‘‘ यह कहना था कलाकार शैलेन्द्रनाथ डे का। उनकी कला शिक्षा सुप्रसिद्ध चित्रकार एवं कला मर्मज्ञ ‘अवनीन्द्रनाथ ठाकुर‘ की छत्र-छाया में कोलकाता में हुई।
शैलेन्द्रनाथ डे के प्रारंभिक चित्रों में यथा ‘यशोदा और बालक कृष्ण‘ में राजपूत एवं मुगल कला के निष्प्राण अनुकरणशील तत्व दृष्टिगोचर होते हैं। कालांतर में जैसे-जैसे उनकी कला पुष्ट होती गई, उनके रंग और रेखाएं अधिक सूक्ष्म और गहरी होकर उभरी। ‘यक्ष पत्नी‘, ‘बनवासी यक्ष‘ चित्र भी कोमल भाव दर्शाते हैं। ‘चलते-फिरते भाव मुद्रा‘, ‘नृत्य भंगिमा‘ अन्य सुन्दर चित्र हैं।
क्षितीन्द्रनाथ मजूमदार: क्षितीन्द्रनाथ मजूमदार अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के प्रधान शिष्यों और कला की पुनर्जागृति में योगदान देने वालों में से एक थे। कोलकाता में सामूहिक प्रदर्शनी के दौरान क्षितीन्द्रनाथ के चित्र भी लगे, जिन्हें देखकर ‘वायसराय लेडी हार्डिंग्ज‘ और ‘लार्ड हार्डिंग्ज‘ आश्चर्यचकित रह गये और कलाकार से मिलने की इच्छा प्रकट की और उन्हें घर बुलवाया। 14-15 वर्ष के युवा के इतने सुन्दर चित्रों को देखकर उन्होंने सारे चित्र खरीद लिये और इनके नाम सहित फोटो तथा चित्रों की प्रतिलिपियां अखबार में छपवाई। 16 वर्ष की उम्र में इनके द्वारा बनाये ‘ध्रुव‘ के चित्र की भी लोगों ने प्रशंसा की। इनमें चित्रण यात्रा धार्मिक रंग में रंगी हुई थी। विषय भारतीय पुराण, इतिहास, भागवतपुराण एवं गीत-गोविन्द के प्रसंगों पर आधारित थे। ‘चैतन्य महाप्रभु के जीवन प्रसंग‘ की जो श्रृंखला तैयार की, वह अत्यन्त कारुणिक और मर्मस्पर्शी हैं। उदाहरण के लिये ‘चैतन्य की चटशाला‘, ‘गुरु के द्वार पर‘, ‘चैतन्य का गृह परित्याग‘, ‘संत के रूप में‘, ‘कृष्ण प्रेम में विभोर‘ आदि।
देवी प्रसाद राय चैधरी: ‘‘कला किसी की बपौती नहीं है, कोई भी व्यक्ति इसे धारण कर सकता है।‘‘ ये शब्द थे प्रसिद्ध कला शिल्पी श्री देवी प्रसाद राय चैधरी के। समुचित कला शिक्षा ग्रहण करने के बाद देवी प्रसाद राय चैधरी को अवनीन्द्रनाथ की सहमति से ‘इंडियन सोसायटी ऑफ ओरियन्टल आर्ट‘ में शिक्षक के रूप में रख लिया गया। इतालवी शिल्पी ‘बायस‘ की पाश्चात्य पद्धति में तैल रंगों से चित्र बनाना सीखा और कुछ ही दिनों में तैल चित्रण में सिद्धहस्त हो गये। ‘दुर्गा पूजा यात्रा‘ तैलरंग का उत्कृष्ट चित्र है।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर (टैगोर): एक ओर जहां रवीन्द्रनाथ टैगोर की चित्रकला को पाश्चात्य भारतीय आधुनिक कला के निकट पाते हैं, वहीं दूसरी ओर ‘चाइल्ड आर्ट‘ के करीब भी पाते हैं। रवीन्द्रनाथ सौन्दर्य उपासक व श्रृंगार वृत्ति के कलाकार थे। उनके चित्रों का प्रमुख विषय ‘नारी‘ था। विशेष रूप से ‘भारतीय नारी‘। उनके चित्रों में नारियों के सहज, सरल, भावपूर्ण चेहरे दिखते हैं। उनके प्रमुख चित्रों में विचित्र जन्तु, आत्मनिरीक्षण, कूदता हुआ हिरण, दृश्य चित्र, पक्षी, मशीन मैन, चिड़िया, पक्षी युगल है।
यामिनी राय: समकालीन कला को आधुनिक परिवेश में भारतीय बनाये रखने का श्रेय यामिनी राय को है, जिन्होंने लोक-कला को अपना मूल आधार बना कर उसमें आधुनिकता की सांस फूंक दी। यामिनी राय ने पश्चिमी शैली के अनुकरण पर बढ़ रही भारतीय कला को नया मोड़ दिया व माटी की गंध को अनुभव कर, विशुद्ध बंगाल के लोक-कला रूपों को अपने चित्रों का विषय बनाया। उनके चित्रों की एक निजी शैली थी। ‘मदर एण्ड चाइल्ड‘ चित्र में सादगीकरण भावना का अद्भुत प्रस्तुतीकरण है। ‘ढोलकवादक‘, ‘संथाल स्त्रियां‘, ‘भेंट‘, ‘सीता की अग्नि परीक्षा‘, ‘टैगोर. और बापू‘, ‘पुजारिनें‘, ‘रथयात्रा‘, ‘घोड़ा गाड़ी‘ ‘माँ और शिशु‘ उनके प्रमुख चित्र हैं। रेखाचित्रों में ‘तीन योद्धा‘, ‘घोड़ागाड़ी‘ आदि सुप्रसिद्ध चित्र शीर्षक हैं।
अमृता शेरगिल: अमृता शेरगिल कहा करती थी, ‘‘मुझे प्रसन्नता है कि कला की शिक्षा मुझे विदेश में मिली, क्योंकि इसी से मैं अजन्ता, मुगल और राजपूत कलमों के मूल्य को समझ पाई, जबकि अधिकांश भारतीय चित्रकार उन्हें समझने का सिर्फ ढोंग करते हैं।‘‘
प्रकृति और जनजीवन को अपने चित्रों का विषय बनाया। यूरोप भ्रमण के दौरान ‘पिकासो‘, ‘ब्रॉक‘, ‘मातिस‘ और ‘गोंगा‘ के चित्रों से प्रेरणा ग्रहण की। गोंगा की ‘ताहिती कला‘ (Tahiti Arts) ने अमृता को सर्वाधिक प्रभावित किया। भारत में अमृता को नन्दलाल एवं रवीन्द्रनाथ टैगोर की कला ने भी प्रभावित किया।
अमृता की रुचि केवल चित्रकारी में ही न थी, अपितु उन्होंने समय-समय पर लेखन कार्य भी किया, जिसमें ‘आर्ट एण्ड एप्रिसियेशन‘ ( Art and Appreciation, ), ‘इंडियन आर्ट टुडे‘ ( Indian Art Today ) एवं ‘ट्रेन्ड्स ऑफ आर्ट इन इण्डिया‘ (Trends of Art in India) पर आपने विचार भी लिखे, जिसे कला प्रेमियों ने सराहा।
सन् 1935 ई. में बनाये चित्र ‘मदर इंडिया‘, ‘हिल मैन‘, ‘हिल वूमैन‘, भूख की त्रासदी अभिव्यक्त करते हैं। ‘तीन बहनें‘, ‘पोर्टेट ऑफ माई फादर‘, ‘केले बेचते हुये‘, ‘हाट जाते हुये‘, ‘ब्रह्मचारी‘, ‘गणेश पूजन‘, ‘हाट बाजार‘, ‘टू वूमैन‘, ‘आराम‘, ‘दक्षिण भारतीय‘, ‘हल्दी पीसती औरतें‘, ‘सिक्ख गायक‘, ‘विश्राम करती स्त्री‘, ‘हाथी का स्नान‘ आदि चित्रों में भावपर्ण चेहरे, बोलती आंखें और हाथ-पैरों की मुद्राएं प्रमुख हैं। ‘बालिका वधू‘, ‘अछूत-बालिका‘ नामक चित्रों में ‘गोगां की ताहिती कला‘ का प्रभाव दिखाई देता है।
प्रश्न: शांतिनिकेतन शैली व उसके प्रमुख कलाकारों के संबंध में बताइए।
उत्तर: बंगाल स्कूल की विशिष्ट कला-प्रवृत्तियों ने कला-चेतना की अलख इस प्रकार जगाई कि उससे प्रभावित हुये बिना कोई न रह पाया। शांतिनिकेतन शैली बंगाल स्कूल से ही प्रेरित थी, किन्तु इन दोनों में काफी अन्तर है। सन् 1897 ई. में बंगाल स्कूल की स्थापना उस समय हुई, जब अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के तत्वावधान में नंदलाल बसु और उनका समसामयिक सहयोगी दल प्राच्य और पाश्चात्य प्रणालियों में समन्वय स्थापित करने में लगा था। परवर्ती पीढ़ी के कलाकारों में वॉश पद्धति, वातावरण का आभास और दृश्य चित्रण एक निष्प्राण रूढ़ि बन कर रह गई, जिसके बाद आकृष्ट करने वाले तत्त्व शनैः-शनैः क्षीण होते गये। परन्तु शांतिनिकेतन की साधना-भूमि में तात्कालिक सृजन प्रक्रिया को न सिर्फ अनुकूल वातावरण मिला, अपितु सही दिशा भी प्राप्त हुई। उन्मुक्त वातावरण, प्रकृति का निकट साहचर्य, उसकी हरी-भरी क्रीड़ास्थली में कला के बिम्ब अधिक संुदर व सुस्पष्ट रूप में निखरे। यहां पर चित्रकला और मूर्तिकला के अतिरिक्त बातिक, एचिंग, ग्राफिक, भित्ति चित्रण, वुडकट, शिल्पकला, हस्तकला, मांगलिक सज्जा (अल्पना) और लोक-कला की अनेकानेक शैलियों की खोज की गई।
‘नन्दलाल बसु‘ के बाद अनेक प्रबुद्ध कलाकारों ने नये-नये प्रयोगों द्वारा उत्तरोत्तर प्रगति की थी। प्रमुख रूप से ‘विनोद बिहारी मुखर्जी‘, ‘रामकिंकर बैज‘ को नामजद किया जा सकता है। अन्य कलाकारों में धीरेन्द्र कुमार देव वर्मन, मनीन्द्र भूषण गुप्त, ‘रमेन्द्रनाथ चक्रवर्ती‘, ‘सुधीर रंजन खासतगीर‘, ‘मनीष डे‘ और ‘किरण सिन्हा‘ हैं।
विनोद बिहारी मुखर्जी: विनोद बिहारी मुखर्जी बुजुर्ग पीढ़ी के उन सचेत कलाकारों में से हैं, जो वर्तमान में नई पीढी के साथ कदम मिलाकर अविरल गति से आगे बढ़े थे। विनोद बिहारी मुखर्जी ने भित्ति चित्र में भी ख्याति अर्जित की। ग्रामीण जीवन, मध्यकालीन संत एवं संत कवि आदि के चित्र उल्लेखनीय हैं। जया अप्पास्वामी ने उन्हें ‘भारतीय कला से आधुनिक कला का सेतुबंध‘ माना है।
इन्होंने जल रंग, तैलरंग एवं टेम्परा पद्धति से कार्य किया है। उनके द्वारा चित्रित ‘टी लवर‘ चित्र में वृक्षों एवं पौधों की लाल व नीली उभरी हुई पत्तियों, आकृतियों के गहरे नीले केश, ठिगनी स्थूल पुरुषाकृति एवं उनकी मुख मुद्रा चित्रण में विशिष्ट वातावरण उत्पन्न करते हैं। दैनन्दिन जीवन प्रसंगों को लेकर आसपास का वातावरण चित्रित किया, जैसे – ‘गली में चलते-फिरते‘, ‘सामान्य व्यक्ति‘, ‘औरतें‘, ‘बालक‘, ‘वृद्ध‘ आदि। ‘केश विन्यास‘, ‘बाग में चहलकदमी‘, ‘नेपाली दृश्यांकन‘ अन्य प्रमुख चित्र हैं।
रामकिंकर बैज: शांतिनिकेतन में ‘किंकर दा‘ नाम से प्रसिद्ध राम किंकर बैज का जन्म सन् 1910 ई. में बंगाल राज्य के ‘बाँकुरा‘ शहर के पास ‘जुग्गीपाड़ा गांव‘ में हुआ। रामकिंकर ने चित्रकला के साथ-साथ मूर्तिकला भी सीखी। सन् 1940 तक रामकिंकर बैज ने अनेक चित्रों की रचना की, जिनमें ‘सुजाता‘, ‘कन्या तथा कुत्ता‘, ‘अनाज की ओसाई‘ विशेष प्रसिद्ध हैं।
प्रश्न: भारतीय चित्रकला में हाल की प्रवृत्तियों का उल्लेख करते हुए आधुनिक भारतीय चित्रकारों का नामोल्लेख कीजिए।
उत्तर: कलाकारों को आज तक इतना व्यापक क्षेत्र नहीं मिला और वे साहसिक प्रयासों की चुनौतियां स्वीकार कर रहे हैं। चंूकि कलाकरों में विविध प्रवृत्तियां और दृष्टिकोण स्वाभाविक रूप से विकसित होते दिखाई दे रहे हैं, इसीलिए इन्हें, नव-परंपरावादी, लोक-कलाकार और प्रयोगवादी कहा जा रहा है। ‘नव-परंपरावादी कलाकार‘ देश की प्राचीन कला की परंपराओं के प्रशंसक हैं और वे इन्हें नए रूप में बनाए रखना और विकसित करना चाहते हैं। ‘प्रति बिंबवादियों‘ की कोशिश है कि कला में वास्तविक जीवन और प्रकृति प्रतिबिंबित हो, लेकिन ऐसा करते समय वे उन व्यक्तिगत आभासों का सहारा लेते हैं जो उन्हें चीजों के देखने से मिलते हैं। तीसरे वर्ग में लोक कलाकार आते हैं उनका उद्देश्य ग्रामीण भारत के लोकजीवन को सहज सुंदर, यथार्थवादी ढंग से लेकिन परंपरागत रंगों में प्रस्तुत करना है। चैथे वर्ग में प्रयोगवादी आते हैं जो अति प्रगतिशील आधुनिक विचारों वाले कलाकार हैं जो इस विश्व को पूर्णतया मुक्त दष्टि से देखते हैं और अपनी कला को परंपराओं के बंधनों से छुड़ा कर इसे क्रांतिकारी बनाना चाहते हैं। वे व्यक्ति की अंतः स्फूर्ति और भावनाओं को अधिकाधिक अनाकार अभिव्यक्तियों या संज्ञा-प्रभावों से चित्रित करना चाहते हैं।
भारत में इन विभिन्न वर्गों और मतों के बहुत से कलाकार हैं। इनमें से कुछ के नाम हैं-यामिनी राय, अमृता शेरगिल, बीरेश्वर सेन, सुधीर खास्तगीर, कृष्ण हेब्बर, सैलोज मुखर्जी, ’भावेश चन्द्र सान्याल’, शीला आडेन, ए. ए. अलमेलकर, के. माधव मेनन, शियाबक्स चावड़ा, बिश्वनाथ मुखर्जी, गोरांग सोम, अबानी सेन, जे. सुत्तन अली, गोपाल घोष, के. एच. आरा, एस. एच. रजा, दीनानाथ बल्ली, आर. एन. पसरीचा, हरकृष्णवाल, पी. एल. नरसिम्हा मूर्ति, के. श्रीनिवासुलू, नारयण श्रीधर बेन्द्रे, हरे अम्बादास गड़े, सतीश गुजराल, एम. एफ. हुसैन, के. एस. कुलकर्णी, कंवल कृष्ण, बीरेन दे, रसिक डी. राबल, कृष्ण खन्ना, रामकुमार, ज्योतिष भष्टाचार्य, गुलाम रसूल संतोष, के. सी. एस. पनिकर, दिनकर कौशिक, लक्ष्मण पाई, जेहरा रहमतुल्ला, जसवंतसिंह और सूर्य रथ। इन कलाकारों को आधुनिक भारतीय चित्रकला में मूल्यवान योगदान के लिए ख्याति प्राप्त हुई है।
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