हिंदी माध्यम नोट्स
कोणार्क सूर्य मंदिर का निर्माण किसने करवाया , who built konark sun temple in hindi , किस प्रकार की कला का उदाहरण है
कोणार्क किस प्रकार की कला का उदाहरण है ? कोणार्क सूर्य मंदिर का निर्माण किसने करवाया , who built konark sun temple in hindi ?
कोणार्क (19°53‘ उत्तर, 86.06° पूर्व)
ओडिशा के पुरी जिले में स्थित कोणार्क (जिसका अर्थ है-सूर्य का किनारा) ओडिशा की मंदिर वास्तुकला की सुंदरतम शैली का प्रतीक है। कोणार्क के मंदिरों के संबंध से कई मिथक एवं गाथाएं संबंधित हैं। गाथाओं के अनुसार, भगवान कृष्ण ने अपने पुत्र सांबा पर क्रोधित होकर कोढ़ग्रस्त होने का अभिशाप दे दिया। 12 वर्षों तक कोढ़ से तड़पने के पश्चात सूर्यदेव की कृपा से सांबा को इस व्याधि से मुक्ति मिली। इसके बाद सांबा ने भगवान सूर्य की स्मृति में यहां एक मंदिर का निर्माण करवाया।
ऐतिहासिक दृष्टि से यहां के सूर्य मंदिर का निर्माण 13 शताब्दी ईस्वी में गंग वंश के शासक नरसिंह देव प्रथम ने करवाया था। यह मंदिर वास्तुकला का एक अत्यंत सुंदर एवं सुनियोजित उदाहरण है। मंदिर में एक विशाल रथ है, जिसमें 12 जोड़ी पहिए लगे हुए हैं। रथ को सात घोड़े खींच रहे हैं। मंदिर में तीन मंजिले हैं। मंदिर में पाषाण के उपयोग से वास्तुकला को एक सुंदर अभिव्यक्ति प्रदान की गई है। यहां जीवन के प्रत्येक पहलू को प्रदर्शित किया गया है तथा मानवीय प्रेम के विभिन्न रूपों को जीवंतता से दर्शाया गया है। मंदिर में दो छोटे बाहरी कक्ष हैं, जो मुख्य मंदिर से स्पष्टतया पृथक हैं। रथों की बनावट भी अत्यंत सुंदर है। इस विशाल एवं सुंदर रथ में भगवान सूर्य विराजमान हैं।
सूर्य मंदिर को ‘ब्लैक पैगोडा‘ के नाम से भी पुकारा जाता है। क्योंकि मंदिर निर्माण में प्रयुक्त पत्थरों में काले पत्थर भी हैं। इसकी यह विशेषता इसे भुवनेश्वर के लिंगराज के सफेद मंदिर से एक अलग पहचान प्रदान करती है।
वर्तमान समय में विश्व धरोहर सूची में दर्ज इस मंदिर के ‘जगमोहन‘ को 1903 में बंगाल के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर में बंद कर दिया था, जिससे कि इसे नष्ट होने से बचाया जा सके।
कावेरीपट्टनम/पुहार (11.44° उत्तर, 79.85° पूर्व)
कावेरीपट्टनम, जिसे पुहार या पुम्पुहार के नाम से भी जाना जाता था, कावेरी नदी के मुहाने पर तमिलनाडु में स्थित था। कावेरीपट्टनम या पुहार प्रारंभिक चोलों की राजधानी थी। संगम काल में यह एक प्रमुख बंदरगाह था तथा व्यापार एवं वाणिज्य का प्रमुख केंद्र था। यूनानी लेखक टालमी ने उसका उल्लेख ‘खाबेरीज’ के रूप में किया है।
पुरातात्विक उत्खनन से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि प्रथम शताब्दी ईस्वी में कावेरीपट्टनम का रोमन साम्राज्य से घनिष्ठ व्यापारिक संबंध था। यहां से रोमन बस्तियों एवं बड़े बंदरगाहों के साक्ष्य भी पाए गए हैं। प्रसिद्ध चोल शासक कारिकाल के शासन काल में, यह तमिल भूमि के एक प्रसिद्ध शहर के रूप में उभरा। यद्यपि उसके उत्तराधिकारियों के काल में चोल शक्ति का धीरे-धीरे पतन होने लगा।
कालांतर में इस नगर का अधिकांश हिस्सा नष्ट हो गया तथा समुद्र के आगोश में समा गया।
पुरातात्विक उत्खननों से इस तथ्य की भी पुष्टि होती है कि यहां से कावेरी नदी से जल प्राप्त करने वाला एक जलाशय भी था। यहां से बुद्ध के प्रतिरूप वाले एक बौद्ध मठ की प्राप्ति से इसके बौद्ध धर्म का एक प्रमुख केंद्र होने की पुष्टि होती है। यहां से उत्तरवर्ती चोलों का (10वीं-12वीं शताब्दी) का एक मंदिर भी पाया गया है।
कीझडी पल्लई संधाईपुदुर तमिलनाडु के सिवगंगा जिले में स्थित कीझडी पल्लई संधाईपुदुर गांव में भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण (एएसआई) के विशेषज्ञ दल, जिसमें के. अमरनाथ रामकृष्ण, राजेश एवं वीराघवन शामिल थे, द्वारा वर्ष 2015 में किए गए उत्खनन के दौरान आभूषणपरक डिजाइन वाली मिट्टी की एक अंगूठी सहित लगभग 3,000 वर्ष प्राचीन शिल्पकृतियां मिली हैं।
दरअसल 2013-14 में भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण (एएसआई) ने वेगई नदी घाटी के साथ-साथ 293 स्थलों, जिनमें थेनी, डिंडिगुल, मदुरई, सिवगंगा तथा रामनाथपुरम जिले शामिल हैं, में खोज कार्य शुरू किया। सिवगंगा जिले में स्थित कीझडी को उत्खनन हेतु चुना गया। कीझडी के पल्लीचन्थई थिडाल में उत्खनन के दूसरे चरण में मिली कलाकृतियां वेगई नदी के किनारे एक प्राचीन सभ्यता की ओर इशारा करती हैं।
फरवरी 2017 में कीझडी स्थल के चारकोल पर आधारित कार्बन डेटिंग से स्पष्ट हुआ कि यह सभ्यता 200 ईसा पूर्व की है। इस प्रकार उत्खनन ने सिद्ध किया कि तमिलनाडु में शहरी सभ्यता संगम काल से मौजूद थी।
एएसआई द्वारा किए गए उत्खनन में भूमिगत जल-निकासी तंत्र प्राप्त हुआ है, जोकि हड़प्पा सभ्यता के जल-निकासी तंत्र के समान है। मल-जल निकासी तंत्र पकी मिट्टी की पाइप लाइन में बिछाया गया है। यहां से मुद्रा, बाण, लौह तथा तांबे के औजार, खुरचकर चिन्हित करने वाली कील तथा दुर्लभ आभूषण प्राप्त हुए हैं। ये खोज संकाकला तमिल सभ्यता पर प्रकाश डालती हैं। यहां से प्राप्त मृदभांडों के टुकड़ों पर तमिल-ब्राह्मी लिपि में अभिलेख हैं। संगम काल 400 ईसा पूर्व से 200 ईस्वी तक तमिलनाडु के उस स्वर्णिम काल को दर्शाता है जब तमिल सभ्यता अपने चरमोत्कर्ष पर थी तथा भाषा में उत्कृष्ट साहित्य तथा कला का निर्माण हो रहा था। इस काल का नाम संगमों (विद्वानों), तमिलनाडु के कवियों तथा रचनाकारों के नाम पर रखा गया, जोकि मदुरई या आस-पास के क्षेत्र में थे। उस समय तमिलनाडु में केरल, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक तथा श्रीलंका के क्षेत्र सम्मिलित थे।
यद्यपि यह उत्खनन अभी तक विवाद का विषय बना हुआ है तथा भिन्न दल अपने भिन्न विचारों को इस स्थल के लिए प्रतिपादित कर रहे हैं। इस उत्खनन ने राजनैतिक दलों को दो मत वाले दलों में विभक्त कर दिया है। कुछ के अनुसार यह खोज स्वतंत्र तमिल सभ्यता को दर्शाती है जबकि अन्य के अनुसार, ऐसा मान लेना अनुचित है।
खजुराहो (24.83° उत्तर, 79.91° पूर्व)
खजुराहो वर्तमान समय में मध्य प्रदेश में है। यह चंदेल शासकों की गाथा से जुड़ा हुआ एक ऐतिहासिक स्थल है। चंदेल शासकों ने मात्र 100 वर्षों की छोटी अवधि (950-1050 ई.) में ही खजुराहो को मंदिर स्थापत्य के सुंदर नमूनों से भर दिया। यहां निर्मित मूल 85 मंदिरों में से अब मात्र 22 ही बचे हैं। यहां के मंदिर तीन भौगोलिक विभाजनों में समूहीकृत हैंः पश्चिमी समूह‘- इसमें कंदेरिया महादेव मंदिर, चैसठ योगिनी मंदिर, चित्रगुप्त मंदिर, विश्वनाथ मंदिर, लक्ष्मण मंदिर एवं मातंगेश्वर मंदिर सम्मिलित हैं। पूर्वी समूह में अधिकांशतया जैन मंदिर हैं। इनमें पाश्र्वनाथ मंदिर, घंटाई मंदिर एवं आदिनाथ मंदिर सम्मिलित हैं। दक्षिणी समूह में दुलादेव मंदिर एवं चतुर्भुज मंदिर सम्मिलित हैं। खजुराहो के इन सभी मंदिरों में चैंसठ योगिनी मंदिर सबसे प्राचीन एवं कंदेरिया महादेव का मंदिर सबसे विशाल एवं सबसे सुंदर मंदिर है। चित्रगुप्त मंदिर खजुराहो का एकमात्र सूर्य मंदिर है, जिसे चंदेल शासकों द्वारा ही बनवाया गया था।
खजुराहो के मंदिर शिल्पकला की दृष्टि से प्रशंसनीय हैं। इन मंदिरों में बनी मूर्तियां कलात्मक दृष्टि से उच्चकोटि की तथा कामोद्दीपक हैं। इसका कारण या तो कामसूत्र का निदर्शन है अथवा ये तांत्रिक संप्रदाय क्लानुख- एक शैव संप्रदाय, जिसके चंदेल शासक अनुयायी थे, के कर्मकाण्डों के प्रतीक हैं। समग्र रूप से खजुराहो की वास्तु तथा शिल्प दोनों ही कलाएं अत्यंत प्रशंसनीय हैं तथा दर्शकों का मन सहज ही अपनी ओर मोह लेती हैं। खजुराहो को यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर सूची में स्थान दिया गया है। इन मंदिरों ने तीसरी सहस्राब्दी ईस्वी के प्रारंभ पर अपने निर्माण के 1000 वर्ष पूर्ण कर लिए हैं।
किब्बनहल्ली (13.30° उत्तर, 76.64° पूर्व)
किब्बनहल्ली, दक्षिणी कर्नाटक में एक प्रसिद्ध पुरापाषाण स्थल है। यहां पर पुरापाषाण काल की बस्तियां तथा वस्तुएं मिली हैं। पुरातत्वविदों द्वारा 90 वर्षों के अनुसंधान से यहां पुरापाषाण औजारों व इस काल की पाषाण तकनीक के बारे में काफी जानकारियां प्राप्त हुई हैं। हालांकि किब्बनहल्ली में निकट के अन्य स्थलों की तुलना में व्यवस्थित तथा व्यापक अनुसंधानों की कमी रही है। हाल के अनुसंधान से यह सिद्ध होता है कि यहां की सभी पुरापाषाण बस्तियां बानसंद्रा गिरिपीठ के एक किलोमीटर के दायरे में हैं। पहले ऐसा माना जाता है कि ये स्थल बानसंद्रा पहाड़ियों के उत्तर-पूर्व में ही सीमित थे।
किब्बनहल्ली का पुरातात्विक पक्ष रेगोलिथ (तमहवसपजी) अथवा कोलवियल (ब्वससनअपंस) निक्षेप भी है जो बाबाबुदन निर्माण (ठंइंइनकंद वितउंजपवद) के विभिन्न पहलुओं द्वारा उत्पन्न होता है। यह प्रक्रिया इस क्षेत्र में चिन्हित सभी पुरापाषाण स्थलों में उभयनिष्ठ है। इसके अतिरिक्त, पाषाण औजारों में प्रयोग किए जाने वाले प्रमुख कच्चे पदार्थों में अपरिष्कृत दानेदार क्वार्टजाइट, प्रज्वलित क्वार्टजाइट अथवा क्वार्टजाइट का प्रयोग एक गोंण पदार्थ के रूप में किया गया है। यहां से प्राप्त कुल्हाड़ी, छेनी तथा अन्य पुरापाषाण पदार्थों को बंगलुरू के केंद्रीय महाविद्यालय के भूगर्भशास्त्र विभाग के संग्रहालय में रखा गया है।
किशनगढ़ (26.57° उत्तर, 74.87° पूर्व)
वर्तमान समय में किशनगढ़ अजमेर, राजस्थान में है। आमेर रियासत के अंतर्गत यह एक छोटी रियासत थी, जिसकी स्थापना 1611 में किशन सिंह ने की थी। इसे लघु चित्रकला की किशनगढ़ शैली के लिए भी जाना जाता है।
चित्रकला की किशनगढ़ शैली गीतमय एवं कभी-कभी संवेदनशील प्रतीत होती है। महाराजा सावंत सिंह, जिन्हें 18वीं शताब्दी में (1699-1764) नागरी दास के नाम से भी जाना जाता था, ने इस शैली को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यद्यपि मुगलों का धर्मनिरपेक्ष प्रभाव राजस्थान के प्रत्येक दरबार में परिलक्षित होता है, किशनगढ़ शैली में हिन्दू भक्ति का ही गहरा प्रभाव दिखाई देता है।
सावंत सिंह के संरक्षण में, इस शैली की मुख्य विषयवस्तु राधा एवं कृष्ण का भावनात्मक प्रेम संबंध था। निहाल चंद इस शैली के एक प्रतिभाशाली चित्रकार थे। इस शैली में निर्मित महिलाओं के चित्रों में उन्हें अत्यंत सुंदरता एवं कोमलता से दर्शाया गया है। तीखे नयन-नक्श एवं चेहरे की सुंदर बनावट ने राजस्थानी चित्रकला में नारी चित्रों की एक नई परम्परा की शुरुआत की। ‘बणी-ठणी‘ इस चित्रकला शैली की सबसे सुंदर अभिव्यक्ति मानी जाती है।
कोप्पम (15.96° उत्तर, 76.65° पूर्व)
कोप्पम प्राचीन काल में सामरिक महत्व का क्षेत्र था, जो कृष्णा नदी के तट पर स्थित था। 1054 में यहां चालुक्य शासक सोमेश्वर प्रथम एवं चोल युवराज राजाधिराज के मध्य एक युद्ध हुआ था। सोमेश्वर प्रथम के अभिलेख के अनुसार उसने इस युद्ध में चोल शासक राजेंद्र को मार डाला था। यद्यपि चोल अभिलेखों के अनुसार, राजेंद्र चोल ने सोमेश्वर प्रथम को 1058 ई. में यहीं राप्ती नदी के तट पर एक युद्ध में हराया था। प्रसिद्ध लेखक एवं इतिहासकार बिल्हण के अनुसार चालुक्य सेनाएं चोल प्रदेशों में घुसकर उनकी राजधानी कांची तक पहुंच गई थीं। राजाधिराज, जो राजेंद्र के साथ था, उसने तत्परता से सेना का नेतृत्व संभाला तथा युद्ध को जीत लिया।
कोरकई (8°38‘ उत्तर, 78°40‘ पूर्व)
‘कोल्ची‘ के नाम से भी जाना जाने वाला कोरकई तमिलनाडु के तिरुनेलवेल्ली जिले में स्थित है। पांड्य शासकों का यह प्रसिद्ध बंदरगाह था। ‘पेरिप्लस ऑफ द इरीथ्रियन सीश् तथा संगम साहित्य में इसका उल्लेख मोतियों के एक प्रसिद्ध केंद्र के रूप में किया गया है।
पुरातात्विक उत्खननों से यहां मध्यपाषाणकालीन अवशेष पाए गए हैं। ऐसा अनुमान है कि ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में रोमन सभ्यता से घनिष्ठ व्यापारिक संबंधों की वजह से यह स्थान महत्वपूर्ण बन गया।
यहां से प्राप्त वस्तुओं में चांदी की सी, दांतेदार मृदभांड, छिद्रयुक्त टेराकोटा की पट्टी, क्रिस्टल के मनके, तांबे एवं लोहे की वस्तुएं प्रमुख हैं।
कौसाम्बी/कौशाम्बी
(25.33° उत्तर, 81.39° पूर्व)
प्राचीन भारत का एक महत्वपूर्ण नगर कौशाम्बी छठे तीर्थंकर का जन्म स्थान है। कोसाम से प्रस्तर का एक स्तंभ लेख भी पाया गया है, जिसमें इस स्थान का नाम कोसाम्बी या कौशाम्बी दर्ज है। महान व्यापारिक मार्ग, जो उत्तर में साकेत को श्रावस्ती से जोड़ता था तथा पैठन को गोदावरी के तट पर दक्कन से जोड़ता था, यहीं से होकर गुजरता था। इस मार्ग पर यात्रा करने वाले व्यापारियों एवं यात्रियों के लिए कौशाम्बी एक विश्राम स्थल भी था। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 7वीं शताब्दी में यहां की यात्रा की थी।
कोटदिजी (27°20‘ उत्तर, 68.42‘ पूर्व)
कोटदिजी सिंधु नदी के बाएं तट पर स्थित है तथा प्राक-हड़प्पा सभ्यता चरण का प्रतिनिधित्व करता है। यह स्थल रक्षात्मक भित्तियों तथा अच्छी तरह से संरेखित गलियां तथा बड़े सार्वजनिक अग्नि स्थलों के साथ घरों को दर्शाता है। यह चक्र पर बनी उत्कृष्ट कोटि के मृदभांड के साथ-साथ पत्थर, तांबा तथा कांसे के औजार तथा हथियार के साथ-साथ कलात्मक खिलौने भी दर्शाता है। इसलिए यह स्थल सिंधु घाटी के कलाकारों तथा शिल्पकारों की योजना, संगठन तथा कुशलता के प्रमाण देता है।
यहां से प्राप्त विभिन्न साक्ष्यों से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि व्यापक अग्निकांड में यह स्थान नष्ट हो गया था।
Recent Posts
मालकाना का युद्ध malkhana ka yudh kab hua tha in hindi
malkhana ka yudh kab hua tha in hindi मालकाना का युद्ध ? मालकाना के युद्ध…
कान्हड़देव तथा अलाउद्दीन खिलजी के संबंधों पर प्रकाश डालिए
राणा रतन सिंह चित्तौड़ ( 1302 ई. - 1303 ) राजस्थान के इतिहास में गुहिलवंशी…
हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ? hammir dev chauhan history in hindi explained
hammir dev chauhan history in hindi explained हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ?…
तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच हुआ द्वितीय युद्ध Tarain battle in hindi first and second
Tarain battle in hindi first and second तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच…
चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी ? chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi
chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी…
भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया कब हुआ first turk invaders who attacked india in hindi
first turk invaders who attacked india in hindi भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया…