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श्रीलंका कब आजाद हुआ था | श्रीलंका देश को आजादी कब मिली थी when did sri lanka got independence from the british in hindi
when did sri lanka got independence from the british in hindi श्रीलंका कब आजाद हुआ था | श्रीलंका देश को आजादी कब मिली थी ?
भारत और श्रीलंका
भारत का एक और महत्वपूर्ण पड़ोसी दक्षिण में श्रीलंका है। श्रीलंका हिंद महासागर में स्थित एक द्वीपीय गणराज्य है। श्रीलंका ४ फरवरी १९४८ को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुआ। भारत की ही भाँति श्रीलंका भी उसके स्थापना वर्ष १९६१ से गुट निरपेक्ष आंदोलन का सक्रिय सदस्य रहा है। वह दक्षेस का भी सदस्य है और संयुक्त राष्ट्र तथा विश्व शांति की अवधारणा में उसकी पूर्ण आस्था है। इस तरह भारत का यह दक्षिणी पड़ोसी भारत से इतना साम्य रखता है कि एक बार विश्वास नहीं होता कि दोनों देशों के बीच विवाद का कोई मुद्दा भी हो सकता है।
भारत और श्रीलंका के संबंध सामान्यतः सौहार्दपूर्ण रहे हैं, हालांकि दोनों देशों के बीच तनावों का मुख्य कारण भारतीय मूल के लोगों-खासकर श्रीलंका में रहने वाले तमिलों और सिंहलियों के बीच जातीय संघर्ष रहा है। सामान्यतः एक छोटा देश बड़े पड़ोसी के प्रति आशंकित रहता है। लेकिन भारत ने कभी भी बड़ा पड़ोसी होने के नाते वर्चस्व जताने का प्रयास नहीं किया। भारतीय विदेश नीति हमेशा अपने पड़ोसियों से मित्राता पर आधारित रही है। श्रीलंका की जातीय समस्याओं के बावजूद भारत ने कभी भी अपनी इच्छा श्रीलंका पर थोपने की कोशिश नहीं की है।
तमिल समस्या
उत्तरी श्रीलंका के जाफना प्रांत में तमिल लोगों का बाहुल्य है। इस समस्या ने तब गंभीर रूप ले लिया जब उत्तरी श्रीलंका के १८००० वर्ग किलोमीटर क्षेत्रा में तमिलों ने अपने लिए एक अलग राष्ट्र ईलम गणराज्य की मांग करनी शुरू कर दी। श्रीलंका में तमिलों की दो कोटियाँ हैं। बहुत पहले भारत से श्रीलंका पलायन कर गए तमिलों के वंशजों की संख्या इस समय करीब दस लाख है। इन्हें सीलॉन तमिल कहा जाता है। दूसरी कोटि में भी करीब दस लाख तमिल आते हैं जो उन्नीसवीं शताब्दी में भारत से श्रीलंका आए थे। इनमें से अधिकांश की कोई नागरिकता नहीं है। इन लोगों की नागरिकता का सवाल पहले भारत और श्रीलंका के संबंधों में मायने रखता था। सीलॉन तमिलों के साथ संघर्ष बाद में सामने आया। इस संघर्ष के पीछे प्रमुख कारण यह है कि सिंहलियों को तमिल वर्चस्व से भय का बोध होता है।
आजादी के बाद श्रीलंका के तत्कालीन प्रधानमंत्री डुडले एस. सेनानायके ने तमिलों को न्याय का आश्वासन दिया। उनकी मृत्यु के बाद तमिलों के साथ भेदभाव शुरू हो गया। प्रधानमंत्री भंडारनायके ने हालांकि तमिलों के साथ एक समझौता संपन्न किया, लेकिन इससे तमिलों को राहत नहीं मिली। अहिंसा में विश्वास खो चुके तमिल युवकों ने खुद को मुक्तिचीतों के रूप में संगठित कर लिया। इन चीतों का उद्देश्य एक संप्रभु तमिल राज्य या ईलम की स्थापना करना था। इस जातीय समस्या का हल ढूंढने की दिशा में शुरुआती प्रयास के रूप में भारत के प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू और श्रीलंका के प्रधानमंत्री कोटेलावाला के बीच १९५४ में एक समझौते पर दस्तखत किए गए। तमिलों ने आरोप लगाया कि नेहरू-कोटेलावाला समझौते का गंभीरतापूर्वक क्रियान्वयन नहीं किया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि भारतीय मूल के अधिकांश लोगों को श्रीलंका की नागरिकता नही मिल सकी और वे ‘राज्यविहीन व्यक्तियोंश् की श्रेणी में आ गए। इसने भारत-श्रीलंका संबंधों के बीच तनाव पैदा कर दिया जो १९५६ के भाषाई विवाद के बाद और गहरा गया। श्रीलंका की जनता ने भारत को इन तनावों के लिए जिम्मेदार ठहराया।
राज्यविहीन व्यक्तियों की समस्या
भारत के प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री और श्रीलंका के प्रधानमंत्री भंडारनायके के बीच चली लंबी वार्ता के बाद अक्टूबर १९६४ को राज्यविहीन व्यक्तियों की समस्याओं को हल करने की दिशा में एक समझौता हुआ। इसमें नौ लाख ७५ हजार राज्यविहीन लोगों की समस्याओं को संबोधित किया गया था। इनमें से करीब तीन लाख लोगों को श्रीलंका की नागरिकता दी जानी थी और करीब पाँच लाख २५ हजार लोगों को भारतीय नागरिकता दिए जाने का प्रावधान था। इसके अतिरिक्त शेष डेढ़ लाख लोगों की किस्मत का फैसला भविश्य पर छोड़ दिया गया था। अपने दूसरे प्रधानमंत्रित्वकाल में १९७४ में श्रीमती भंडारनायके की भारत यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मुलाकात के बाद एक ताजा समझौता हुआ जिसके मुताबिक आधे राज्यविहीन व्यक्तियों को श्रीलंका की नागरिकता दी जानी थी और शेष को भारत की। इस प्रकार से राज्यविहीन व्यक्तियों की इस समस्या का समाधान सफलतापूर्वक कर लिया गया।
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