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उद्योग की अवस्थिति को प्रभावित करने वाले कारक | उद्योगों के स्थानीयकरण के कारण what are the factors of industrial location in hindi
what are the factors of industrial location in hindi उद्योग की अवस्थिति को प्रभावित करने वाले कारक | उद्योगों के स्थानीयकरण के कारण कारकों का वर्णन कीजिए बताइए ?
अवस्थिति को प्रभावित करने वाले कारक
हमने ऊपर उद्योग की अवस्थिति की व्याख्या करने वाले कुछ महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों की समीक्षा की है। अर्थशास्त्रियों में किसी एक सिद्धान्त पर सर्वसम्मति नहीं भी हो सकती है। किंतु इसका यह अभिप्राय नहीं कि हम किसी सिद्धान्त का महत्त्व कम करके आँकें। इन विभिन्न सिद्धान्तों द्वारा सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य यह किया गया है कि वे उद्योगों की अवस्थिति को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारकों की पहचान करने में हमारी सहायता करते हैं।
वास्तविक व्यवहार में, उद्योगों की अवस्थिति ऐतिहासिक, आर्थिक, प्राकृतिक और यहाँ तक कि मनोवैज्ञानिक कारकों द्वारा भी निर्धारित होती है।
ऐतिहासिक कारक
विगत में कई बार बिना किसी विशेष औचित्य के किसी विशेष स्थान अथवा क्षेत्र में अनेक उद्योगों की स्थापना हो गई। यह सूती वस्त्र उद्योग के बारे में भी सत्य है जो यू.के. में लंकाशायर में केन्द्रीकृत हो गया था। लंकाशायर में इसके केन्द्रीकरण का कोई विशेष कारण नहीं था, सिवाए इसके कि वहाँ ऊनी वस्त्र उद्योग पहले से ही विद्यमान था और विदेशियों का काफी आवागमन होता था। इससे पता चलता है कि उद्योगों का स्थानीयकरण सिर्फ आकस्मिक अथवा ऐतिहासिक कारकों के परिणामस्वरूप भी हो सकता है। ए. बीचम ठीक ही लिखते हैं ‘‘जब एक विशेष क्षेत्र को किसी उद्योग के केन्द्रीकरण के लिए जाना जाता है तो उस स्थान से सम्बद्ध प्राकृतिक अनुकूलताओं का पता लगाना सदैव ही आसान हो जाता है।‘‘
कच्चे माल की उपलब्धता
अवस्थिति के चयन को प्रभावित करने वाला एक महत्त्वपूर्ण कारक कच्चे मालों की निकटता है। कच्चे माल की निकटता से दो बातें सुनिश्चित होती हैं:
क) किसी उत्पाद के कुल उत्पादन लागत में कचे माल की लागत का अनुपात
ख) कच्चे माल का स्वरूप
कतिपय उद्योग हैं जिनमें उत्पाद की उत्पादन लागत का प्रमुख घटक कच्चे माल की लागत होती हैं, उदाहरण के लिए चीनी, सूती वस्त्र, जूट वस्त्र, वृक्षारोपण उद्योग इत्यादि । दूसरी ओर, कुछ अन्य उद्योगों में यह अधिक नहीं होता है। उत्पादन की कुल लागत में कच्चे माल की लागत का अनुपात जितना अधिक होगा इस कारक का उतना ही अधिक भारित होगा। विपरीत स्थिति रहने पर यह कच्चे माल का स्वरूप भी इस कारक का सापेक्षिक महत्त्व निर्धारित करता है। कतिपय कच्चा माल या तो अत्यन्त भारी भरकम होता है अथवा जल्द ही नष्ट होने वाला होता है या भारी होता है। इन कच्चे मालों का परिवहन लम्बी दूरी तक नही किया जा सकता है। दूसरी ओर पी वी सी का परिवहन आसानी से काफी दूरी तक किया जा सकता है। पहली स्थिति में, कच्चे माल की निकटता महत्त्वपूर्ण कारक होगा, जबकि दूसरी स्थिति में, इसकी भूमिका अधिक नही होगी।
बाजार की अभिगम्यता
उपभोग केन्द्र भी एक उद्योग की अवस्थिति में समान रूप से महत्त्वपूर्ण निर्धारक है। यहाँ पुनः, इस कारक का सापेक्षिक महत्त्व उत्पाद की प्रकृति पर निर्भर करता है। भारी भरकम और जल्द ही नष्ट होने वाले उत्पादों का बाजार छोटे भौगोलिक क्षेत्र तक सीमित होता है। उन मामलों में, उद्योगों के उपभोग केन्द्रों के आसपास समूहित होने की प्रवृत्ति होती है।
दूसरी ओर यदि तैयार माल का परिवहन आसानी से लम्बी दूरी तक करना संभव हो तो कोई कारण नहीं कि उद्योग किसी विशेष स्थान पर ही केन्द्रीकृत हो।
औद्योगिक कार्यकलापों के विकेन्द्रीकरण में नए बाजारों का विकास एक महत्त्वपूर्ण घटक है।
परिवहन सम्पर्क
औद्योगिक अवस्थिति इस कारक से भी प्रभावित होता है कि कोई विशेष स्थान परिवहन और संचार के साधनों द्वारा दूरवर्ती स्थानों से कितनी अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। संचार के नए साधनों के विकास से कुछ सेवा उद्योगों का विकेन्द्रीकरण हुआ है। परिवहन अभिगम्यता कच्चे मालों की उपलब्धता और तैयार मालों को सुदूर बाजारों तक पहुंचाने, दोनों को प्रभावित करता है।
परिवहन के आधुनिक साधनों की बढ़ी हुई उपलब्धता और कार्य कुशलता ने उद्योगों की अवस्थिति के चयन के मामले में विगत की अपेक्षा अधिक स्वतंत्रता प्रदान की है।
विद्युत संसाधन
आधुनिक उद्योग के प्रचालन के लिए विद्युत सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आदान है। किसी भी उद्योग का उपयुक्त और उचित मात्रा में निर्बाध विद्युत आपूर्ति के बिना काम नहीं चल सकता। इसलिए, वे क्षेत्र जहाँ विद्युत की निर्बाध आपूर्ति होती है, उन क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक उद्योगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं जहाँ विद्युत संसाधन का अभाव है।
श्रम संबंध
श्रम के मामले में दो बातें हैं।
एक, कम मजदूरी पर श्रमिकों की उपलब्धता है। पहले मुम्बई क्षेत्र और बाद में अन्तवर्ती कस्बों जैसे अहमदाबाद, शोलापुर, नागपुर और कानपुर में वस्त्र उद्योग के बड़े पैमाने पर केन्द्रीकरण के लिए यही कारक उत्तरदायी था। इसी प्रकार, जमशेदपुर में लौह और इस्पात उद्योग की स्थापना काफी हद तक सतत् श्रम आपूर्ति के कारण संभव हुआ था।
तथापि, इस एक कारक का प्रभाव अब काफी कुछ कम हो रहा है। अब परिवहन और संचार के साधनों के विकास के साथ किसी भी दूरस्थ स्थान से श्रम की बढ़ी हुई पूर्ति का प्रबन्ध करना अधिक संभव होता जा रहा है। उदाहरण के लिए, कॉल सेंटरों का विकास।
दो, इस निर्णय में श्रम-संबंध भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उन क्षेत्रों में जहाँ ट्रेड-यूनियनों का प्रभाव अधिक है, को सामान्यता कम प्राथमिकता दी जाती है। ट्रेड यूनियनों की उपस्थिति से भी अधिक महत्त्वपूर्ण यूनियनों की गतिविधियों के प्रति सरकार का रवैया है। सरकार ने जिन क्षेत्रों में अधिक संघर्षवादी यूनियनों को सख्ती से नियंत्रित करने का प्रयास किया है उन क्षेत्रों में उद्योगों के फलने-फूलने की प्रवृत्ति होती है। इसके विपरीत, जहाँ सरकार ट्रेड यूनियनों की अवैध गतिविधियों की मूक-दर्शक बनी रहती हैं वहाँ से उद्योगों के हट जाने की घटना सर्वविदित हैं।
आधारभूत संरचना सेवाएँ
विकसित स्थलों की कम मूल्य पर आसानी से उपलब्धता और साथ ही जन उपयोगी सेवाओं की सुलभता उद्योगों को अधिक आकृष्ट करते हैं, विशेष क्षेत्रों द्वारा प्रदत्त सामाजिक सुविधाएँ जैसे आवास और चिकित्सा सुविधाएँ उद्योगों के लिए विशेष आकर्षण होते हैं। पुनः, जब एक उद्योग सापेक्षिक रूप से छोटे क्षेत्र में स्वयं को केन्द्रीकृत करता है तो बहुधा केन्द्रीकरण की मितव्ययिताश् के परिणामस्वरूप लाभ मिलता है। इनमें बाह्य मित्व्ययिताएँ भी सम्मिलित हैं जो अलग-अलग फर्मों को एक-दूसरे से अधिक जोड़ती हैं।
वित्तीय सेवाएँ
बीते दिनों में, उद्योगों की अवस्थिति के निर्धारण में भरोसेमंद और सस्ती वित्तीय सुविधाओं एवं सेवाओं की उपलब्धता ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
किंतु अंतरण और संचार के इलैक्ट्रॉनिक साधनों के विकास के कारण इस कारक का महत्त्व घट गया है। किंतु वह विशेष क्षेत्र या प्रदेश इसका अपवाद है जहाँ उद्योगों को आकर्षित करने के लिए सरकार उदार शर्तों पर साख सुविधएँ प्रदान करती हैं।
प्राकृतिक और जलवायु संबंधी दशाएँ
क्षेत्र का भौगोलिक स्वरूप, अपवाह सुविधाएँ और अपशेषों का निस्तारण उद्योगों की अवस्थिति को प्रभावित करता है।
इसी प्रकार, उद्योग विशेषकर वे उद्योग जो कृषिगत कच्चे मालों पर निर्भर करते हैं की अवस्थिति के निर्धारण में जलवायु महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
व्यक्तिगत कारक
उद्यमी सदैव ही अपने औद्योगिक उपक्रमों की अवस्थिति के बारे में निर्णय लेने में विशुद्ध आर्थिक कारणों से ही प्रभावित होगा, ऐसी बात नहीं है। इसमें व्यक्तियों की व्यक्तिगत पसंद और पूर्वाग्रह भी उतने ही महत्त्वपूर्ण होते हैं जो अवस्थिती को निर्धारित करते हैं।
रणनीतिक कारण
हाल के वर्षों में औद्योगिक अवस्थितियों में रणनीतिक कारणों को विशेष महत्त्व दिया गया है। इस कारक के कारण कभी-कभी उद्योग विकेन्द्रीकृत और फैले हुए होते हैं।
संक्षेप में, उद्योग की अवस्थिति के लिए स्थान के चयन को कई कारक निर्धारित करते हैं। बहुत बड़ी संख्या में कारकों का जटिल सम्मिश्र है जो इस संबंध में निर्णय की प्रक्रिया को प्रभावित करता है।
बोध प्रश्न 3
1) ऐतिहासिक कारक उद्योग की अवस्थिति को कैसे निर्धारित करते हैं?
2) उद्योग की अवस्थिति के निर्धारक के रूप में कच्चे मालों की निकटता का क्या महत्त्व
3) उद्योग की अवस्थिति को श्रम किस तरह से प्रभावित करता है?
अवस्थिति को प्रभावित करने वाले कारण
वेबर ने अवस्थिति को प्रभावित करने वाले कारणों को दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया हैः
क) उद्योगों के प्रादेशिक वितरण के प्रादेशिक कारक, अथवा प्राथमिक कारण
ख) उद्योगों के पुनर्वितरण के लिए उत्तरदायी संचयी और विसंचयी कारक अथवा गौण कारण
क) प्रादेशिक कारक
वेबर ने उद्योग की अवस्थिति को प्रभावित करने वाले प्रादेशिक कारकों को चिन्हित करने के प्रयास में, विभिन्न उद्योगों की लागत संरचना का अध्ययन किया । वेबर ने दो प्रादेशिक कारकों की पहचान कीः
प) परिवहन लागत
पप) श्रम लागत
ये दो प्रादेशिक कारक औद्योगिक अभिविन्यास के लिए बुनियादी ढाँचा का सृजन करते हैं:
प) परिवहन लागतें दो बातों से निर्धारित होती हैं
क) परिवहन की जाने वाली सामग्री का भार . .
ख) तय की जाने वाली दूरी
पहले प्रत्येक उद्योग की स्थापना उन स्थानों पर होगी जो कच्चे माल के स्रोतों और बाजार दोनों के मामले में परिवहन की दृष्टि से सबसे अनुकूल होगा।
कच्चे माल का निम्नलिखित विभिन्न श्रेणियों में वर्गीकरण किया जा सकता है:
किसी उद्योग की अवस्थिति को सर्वव्यापक कच्चे माल की अपेक्षा स्थानीय कच्चा माल अधिक प्रभावित करता है। इसी प्रकार किसी विशिष्ट स्थान के प्रति कोई उद्योग कहाँ तक आकर्षित होता है वह इस बात पर भी निर्भर करता है कि उत्पादन की प्रक्रिया में कच्चे माल का भार किस हद तक घटता है। उन सामग्रियों जिनका भार उत्पादन की प्रक्रिया में कम होता है, शुद्ध माल की अपेक्षा अधिक पसंद किए जाते हैं।
उपर्युक्त सरल निगमनों के आधार पर ही बेबर ने परिवहन अभिविन्यास का अपना नियम प्रतिपादित किया था। उनका विश्वास है कि तैयार वस्तु की तुलना में स्थानीय मालों के भार का अनुपात विनिर्माण उद्योगों की अवस्थिति पर निर्धारक प्रभाव डालता है। यदि यह अनुपात (जिसे वह भौतिक सूचीश् कहते हैं) अधिक है तो उद्योग की प्रवृत्ति कच्चे माल के भण्डार के समीप अवस्थित होने की रहेगी। यदि भौतिक सूची कम है तो उद्योग की प्रवृत्ति खपत के केन्द्र के समीप अवस्थित होने की रहेगी।
पप) वेबर ने श्रम लागतों को दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रादेशिक कारण माना है
श्रम लागतें न्यूनतम परिवहन लागतों से विचलन को स्पष्ट करता है। जब श्रम लागतों में अंतर है. तो परिवहन अभिविन्यास के कारण उद्योग अनुकलतम बिन्दु से विचलित हो सकता है। यह सिर्फ तभी संभव होगा जब नए केन्द्र पर अतिरिक्त परिवहन लागत की, श्रम लागतों में बचतों से कहीं अधिक प्रतिपूर्ति हो जाए। इस प्रकार, परिवहन लागतों के आधार पर प्राप्त संतुलन की स्थिति में सस्ते श्रम लागतों के प्रभाव के कारण परिवर्तन हो सकता है।
दान अवस्थिति को आकर्षित करने की शक्तियाँ दो कारकों पर निर्भर हैं:
क) श्रम लागत सूचकांक (उत्पाद के मूल्य की तुलना में श्रम लागत का अनुपात)
ख) स्थानीय परिमाण (उत्पादन की पूरी प्रक्रिया के दौरान परिवहन किए जाने हेतु भार)
संक्षेप में, परिवहन लागतें और श्रम लागते प्रादेशिक अथवा प्राथमिक कारक हैं जो एक उद्योग की अवस्थिति को स्पष्ट करते हैं। प्रत्येक उद्योग विशेष, अवस्थिति के संबंध में निर्णय लेने से पहले परिवहन लागत लाभों और श्रम लागत लाभों के बीच संतुलन स्थापित करना चाहता है।
ख) संचयी और विसंचयी कारक
ये उद्योगों की अवस्थिति का निर्धारण करने वाले गौण कारक हैं।
संचयी कारक एक ही स्थान पर उद्योग के केन्द्रीकरण के परिणामस्वरूप उत्पादन लागत में आने वाली मितव्ययिता से संबंधित है। दूसरे शब्दों में, संचयी कारक पैमाने की बाह्य मितव्ययिता से संबंधित है।
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विसंचयी कारक उद्योग के विकेन्द्रीकरण के कारण उत्पादन लागत में कमी से संबंधित है। यह सामान्यतया केन्द्रीकरण के परिणामस्वरूप स्थानीय करों और भूमि के मूल्य में वृद्धि के कारण होता है।
संचयी और विसंचयी कारक विपरीत दिशाओं में काम करते हैं। जिन उद्योगों के कुल उत्पादन लागत में विनिर्माण व्ययों का अधिक अनुपात होता है, के केन्द्रीकरण की जबर्दस्त प्रवृत्ति होती है क्योंकि तब बाह्य मितव्ययिताएँ प्राप्त की जा सकती हैं।
एक उद्योग को किसी विशेष स्थान पर आकर्षित करने के लिए संचयी कारक की शक्तियाँ दो घटकों पर निर्भर करती है:
प) कुल उत्पादन मूल्य में विनिर्माण लागतों का अनुपात (विनिर्माण सूची); और
पप) विनिर्माण की पूरी प्रक्रिया के दौरान परिवहन की जाने वाली सामग्रियों का भार (स्थानीय परिणाम)
स्थानीय परिमाण में विनिर्माण लागतों के अनुपात को वेबर ने ‘विनिर्माण गुणांक‘ (विनिर्माण-फल) कहा है।
यदि विनिर्माण गुणांक अधिक हो तो उद्योग एक ही स्थान पर इकट्ठे होने लगते हैं जबकि विनिर्माण गुणांक कम हो तो उद्योग भिन्न-भिन्न स्थानों पर स्थापित होने लगते हैं। इस प्रकार प्रत्येक संचयी प्रवृत्ति से विचलनकारी बल का सृजन होता है जो परिवहन नेटवर्क (संजाल) को विकृत कर देता हे।
एक से अधिक स्थानों पर अवस्थिति
वेबर ने उस स्थिति में जब एक उद्योग में उत्पादन के विभिन्न चरण स्वतंत्र रूप से और अलग-अलग स्थानों पर पूरे किए जा सकते हैं तब एक उद्योग के एक से अधिक स्थानों पर अवस्थिति की संभावना पर भी विचार किया है।
उस स्थिति में जब उत्पादन के विभिन्न चरण अलग-अलग स्थानों पर पूरे किए जा सकते हैं तो उद्योग अलग-अलग स्थानों पर स्थापित होंगे।
अधिकांशतया उत्पादन का प्रथम चरण वह चरण है जिसमें बेकार सामग्रियों को नष्ट कर दिया जाता है। दूसरे चरण में शुद्ध माल को परिष्कृत किया जाता है।
उत्पादन के दूसरे चरण को पहले चरण से कोई आर्थिक लाभ प्राप्त नहीं होता है।
ऊपर वर्णित सापेक्षिक प्राथमिक और गौण कारकों पर विचार करते हुए उद्योग को. दो अलग-अलग स्थानों पर स्थापित किया जाता है।
बोध प्रश्न 1
1) वेबर के औद्योगिक अवस्थिति के सिद्धान्त में कौन-कौन से प्रादेशिक कारक हैं।
2) संचयी और विसंचयी कारकों में भेद कीजिए।
3) वेबर के सिद्धान्त की मान्यताएँ क्या हैं?
4) वेबर के सिद्धान्त की कुछ महत्त्वपूर्ण आलोचनाओं का उल्लेख कीजिए।
5) वेबर के सिद्धान्त में उपान्तरों का सुझाव दीजिए।
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