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वर्नर का सिद्धांत : उपसहसंयोजक यौगिकों का वर्नर सिद्धांत (werner’s theory of coordination compounds in hindi)
(werner’s theory of coordination compounds in hindi) वर्नर का सिद्धांत : उपसहसंयोजक यौगिकों का वर्नर सिद्धांत : सन 1823 में स्विस के महान बैज्ञानिक अल्फ्रेड वर्नर ने जटिल यौगिकों या उपसहसंयोजन यौगिक की संरचना और इन यौगिकों के गठन को समझाने के लिए बहुत अध्ययन करने के बाद अपने विचार रखे जिसे हम वर्नर का सिद्धांत कहते है , अपन इस सिद्धान्त के कारण उन्हें नोबल पुरस्कार दिया गया और इनके इस सिद्धान्त के कारण ही उन्हें उपसहसंयोजन रसायन विज्ञान का जनक भी कहा जाता है।
यह सिद्धांत देने से पूर्व उन्होंने कई यौगिक बनाये फिर इनके भौतिक और रासायनिक गुणों और व्यवहार का अध्ययन करके समझाया।
वर्नर के सिद्धांत की मुख्य अभिधारणायें निम्न प्रकार है –
यह सिद्धांत देने से पूर्व उन्होंने कई यौगिक बनाये फिर इनके भौतिक और रासायनिक गुणों और व्यवहार का अध्ययन करके समझाया।
वर्नर के सिद्धांत की मुख्य अभिधारणायें निम्न प्रकार है –
- किसी भी उपसहसंयोजन यौगिक में मध्य का धातु या धातु परमाणु दो प्रकार की संयोजकता प्रदर्शित करता है जिन्हें हम प्राथमिक और द्वितीयक संयोजकता कहते है।
- किसी यौगिक की प्राथमिक संयोजकता इसकी ऑक्सीकरण अवस्था से सम्बंधित होता है तथा द्वितीयक संयोजकता इसकी संयोजकता संख्या से सम्बंधित होती है।
- किसी भी धातु परमाणु के लिए द्वितीयक संयोजकता का मान निश्चित होता है अर्थात किसी भी धातु के लिए संयोजकता संख्या का मान नियत या स्थिर या निश्चित होता है।
- किसी यौगिक में धातु परमाणु दोनों प्रकार की संयोजकता को संतुष्ट करने की कोशिश करता है , किसी यौगिक की प्राथमिक संयोजकता को ऋणात्मक आयन संतुष्ट करता है और यौगिक की द्वितीयक संयोजकता को ऋणात्मक आयन या उदासीन अणु द्वारा संतुष्ट किया जाता है।
- द्वितीयक संयोजकता स्पेस में निश्चित स्थान को प्रदर्शित करता है और यही कारण होता है कि उप सहसंयोजक यौगिको का आकार निश्चित होता है , इसे हम निम्न उदाहरण द्वारा समझ सकते है – मान लीजिये किसी उपसहसंयोजक यौगिक की द्वितीयक संयोजकता 6 है तो इस यौगिक के केन्द्र धातु आयन के सापेक्ष अष्टभुजाकार आकृति होगी। ठीक इसी प्रकार अगर किसी धातु की द्वितीयक संयोजकता का मान चार है तो केंद्र धातु परमाणु के सापेक्ष यौगिक या तो चतुष्फलकीय होगा या वर्ग समतलीय होगा।
- इसलिए हा कह सकते है कि प्राथमिक संयोजकता अदिष्ट अर्थात अदिशात्मक होती है जबकि द्वितीयक संयोजकता त्रिविम संरचना ज्ञात करने के लिए काम में आती है।
वर्नर के सिद्धांत के उदाहरण (Examples Based on Werner’s Theory)
अब हम यहाँ कुछ उदाहरण पढ़ते है कि किस प्रकार यह सिद्धांत उपसहसंयोजक यौगिको की संरचना के गठन के लिए आवश्यक है।
कोबाल्ट के एमाइन की विभिन्न संरचनाओं को हम वर्नर के सिद्धांत द्वारा आसानी से समझा सकते है –
कोबाल्ट की प्राथमिक संयोजकता अर्थात ऑक्सीकरण अवस्था 3 होती है तथा कोबाल्ट की द्वितीयक संयोजकता अर्थात समन्वय संख्या छ: होती है।
याद रखे कि प्राथमिक संयोजकता टूटी रेखा (- – – – -) द्वारा प्रदर्शित किया जाता है जबकि द्वितीयक संयोजकता को पतली लाइन (-) द्वारा प्रदर्शित करते है।
उदाहरण 1 : CoCl3.6NH3 यौगिक : इस यौगिक में कोबाल्ट की समन्वय संख्या छ: होती है और इसमें NH3 अणु सभी छ: द्वितीयक संयोजकता या समन्वय संख्या को संतुष्ट करता है। यहाँ क्लोराइड आयन तीन प्राथमिक संयोजकता को संतुष्ट करता है , चूँकि प्राथमिक संयोजकता अदिशात्मक होती है इसलिए ये तीन अदिशात्मक गुण वाले होंगे। एक जटिल आयन और तीन क्लोराइड आयन , अर्थात कुल चार आयन हो जाते है और इसकी संरचना निम्न प्रकार होगी जैसा चित्र में दिखाया गया है –
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