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Categories: sociology

वाद संवाद प्रक्रिया की अवधारणा क्या है |  वाद संवाद प्रक्रिया के नियम परिभाषा किसे कहते है wad sanwad process in hindi

wad sanwad process in hindi  वाद संवाद प्रक्रिया की अवधारणा क्या है |  वाद संवाद प्रक्रिया के नियम परिभाषा किसे कहते है ?

वाद संवाद प्रक्रिया की अवधारणा
वाद-संवाद प्रक्रिया का अर्थ वाद-संवाद (dialogue) की बौद्धिक विवेचना पद्धति से है। यह तर्कशास्त्र की अवधारणा है। यूनानी दार्शनिक अरस्तू (384-322 ईसा पूर्व) के अनुसार, इसे प्रश्नोत्तर द्वारा तर्क वितर्क के लिये प्रयुक्त किया जाता है। अरस्तू से पूर्व, एक अन्य यूनानी दार्शनिक प्लेटो (427-397 ईसा पूर्व) ने इस अवधारणा को अपने दार्शनिक विचारों के सन्दर्भ में विकसित किया था। प्लेटो से पूर्व, एक और यूनानी दार्शनिक सुकरात (470-390 ईसा पूर्व) ने इस अवधारणा को सभी विज्ञानों की मूल धारणाओं के परीक्षण हेतु प्रयुक्त किया था। मध्य काल के अंत तक, यह अवधारणा तर्कशास्त्र का एक हिस्सा बनी रही। इस अवधारणा की तर्क-वितर्क (तमंेवद) की परम्परा के अनुसार जर्मन दार्शनिक इमानुएल काँट (1724-1804) ने यूरोप के आधुनिक दर्शन में इसका प्रयोग किया। उसने वाद-संवाद प्रक्रिया का प्रयोग इस बात की विवेचना करने के लिये किया कि आनुभाविक प्रघटनाओं को नियंत्रित करने वाले नियमों से गैर-आनुभाविक वस्तुओं की व्याख्या नहीं की जा सकती है।

वाद-संवाद प्रक्रिया का एक और भी अर्थ है। इसके अनुसार वाद-संवाद को एक प्रक्रिया समझा जाता है। इसका तात्पर्य है कि वाद-संवाद प्रक्रिया तर्क वितर्क (तमंेवद) की आरोही (ंेबमदकपदह) एवं अवरोही (कमेबमदकपदह) स्वरूपों में प्रक्रिया है। वाद-संवाद प्रक्रिया के आरोही स्वरूप से अध्यात्मिक यथार्थ के अस्तित्व को दर्शाया जा सकता है, उदाहरण के लिये, ईश्वर के स्वरूपों को। वाद-संवाद प्रक्रिया के अवरोही स्वरूप से आनुभाविक प्रघटना जगत में अध्यात्मिक यथार्थ की अभिव्यक्ति की व्याख्या की जा सकती है।

आइए, हम देखें कि कार्ल मार्क्स ने वाद-संवाद प्रक्रिया की अवधा णा का प्रयोग कैसे किया। यहां हमें यह याद रखना होगा कि मार्क्स ने वाद-सवांद प्रक्रियापरक भौतिकवाद की अवधारणा को जर्मन दार्शनिक हीगल के प्रत्ययवादी सिद्धांतों की आलोचना के आधार पर विकसित किया। आपको याद होगा कि आपको हीगल के बारे में इकाई 6 के कोष्ठक 6.1 तथा 6.2 में अवगत कराया गया था कि हीगल एक प्रत्ययवादी दार्शनिक था। वह यथार्थ को मानस में विचारों की रचना मानता था (कोष्ठक 6.1 तथा 6.2 पुनः पढ़िए)।

हीगल ने वाद-संवाद प्रक्रिया की अवधारणा के तर्क-वितर्क एवं प्रक्रिया – दोनों स्वरूपों को मिलाकर विकसित किया । मौटे तौर पर उसने वाद-संवाद प्रक्रिया को एक तार्किक प्रक्रिया के रूप में प्रयुक्त किया और सूक्ष्म स्तर पर उसने इस प्रक्रिया को तार्किक प्रक्रियाओं की संचालक शक्ति का स्रोत माना। हीगल की मान्यता थी कि ईश्वर के बारे में आत्मज्ञान मानवीय ज्ञान के माध्यम से होता है। दूसरे शब्दों में, मानवीय विचारों की अवधारणाएं मानव अस्तित्व के वस्तुपरक स्वरूपों के बराबर होती है तथा इसी के साथ-साथ तर्क मानव प्रकृति के सिद्धांत पर आधारित होता है। इसके विपरीत, हीगल ने यह भी प्रतिपादित किया कि वाद-संवाद प्रक्रिया अधिक सूक्ष्म स्तर पर विपरीत स्थितियों को एकता के संदर्भ में समझने की चेष्टा है। हीगल ने इसे एक ऐसी प्रक्रिया बताया जो अंतर्निहित तत्वों को स्पष्ट करती है। इस प्रकार, प्रत्येक विकास अथवा परिवर्तन कम-विकसित या पूर्व अवस्था का परिणाम है। इस प्रकार से, नया विकास पूर्व अवस्था की परिणति है। अतः एक स्वरूप तथा उससे नये स्वरूप बनने की प्रक्रिया के बीच सदैव एक अप्रकट तनाव बना रहता है। हीगल ने इतिहास को स्वतंत्रता की चेतना की प्रगति के रूप में समझा है (कोष्ठक 6.2 देखिये) ।

प्रारंभ में मार्क्स हीगल के दर्शन से प्रभावित था, परन्तु बाद में उसने इसकी प्रत्ययवादी प्रकृति की आलोचना की तथा स्वयं वाद-संवाद प्रक्रियापरक भौतिकवाद का प्रतिपादन किया। हीगल द्वारा पदार्थ (उंजजमत) के स्थान पर विचारों (पकमंे) को अधिक महत्व देने की भी मार्क्स ने आलोचना की। उसने कहा कि वैज्ञानिक रूप से वैध वाद-संवाद प्रक्रियापरक पद्धति पाने के लिये हीगलवादी वाद-संवाद प्रक्रिया को पूरी तरह से उल्टा करना पड़ेगा। हीगल से अलग हटकर मार्क्स ने कहा कि पदार्थ ही सर्वोपरि है और हीगल की तरह वाद-संवाद प्रक्रिया में विचारों को सर्वोच्च समझना ठीक नहीं है।

आइए, अब हम मार्क्सवादी अवधारणाओं तथा वाद-संवाद प्रक्रिया की विवेचना करें। परन्तु आगामी भाग (9.3) का अध्ययन करने से पूर्व आप सोचिए और करिए 1 को पूरा कीजिये।

सोचिए और करिए 1
इस खंड में प्रयुक्त संदर्भो के आधार पर मार्क्स द्वारा लिखी गई पुस्तकों की एक संदर्भ सूची बनाइये तथा इसकी तुलना इस खंड के अन्त में दी गई संदर्भ सूची में मार्क्स द्वारा लिखित पुस्तकों से कीजिये। पुस्तक सूची बनाते समय यह याद रखिये कि आपको ये निम्न बातें बतानी हैं – (प) पुस्तक के लेखक का नाम, (पप) पुस्तक के प्रकाशन का वर्ष, (पपप) पुस्तक का शीर्षक, (पअ) पुस्तक के प्रकाशन का स्थान, तथा (अ) पुस्तक के प्रकाशक का नाम। इनमें से कोई भी एक जानकारी न होने पर संदर्भ सूची अपूर्ण रह जाती है।

 वाद-संवाद प्रक्रिया के नियम
मार्क्स द्वारा विकसित वाद-संवाद प्रक्रियापरक भौतिकवाद हीगलवादी वाद-संवाद प्रक्रिया से बिल्कुल विपरीत है। यह प्रत्येक वस्तु की व्याख्या पदार्थ के विरोधाभास के संदर्भ में करता है। वाद-संवाद प्रक्रियापरक भौतिकवाद प्राकृतिक एवं सामाजिक परिवर्तन के लिये अमूर्त नियम प्रदान करता है। तत्त्व मीमांसा (उमजंचीलेपबे) के ठीक विपरीत वाद-संवाद प्रक्रियापरक भौतिकवाद की मान्यता है कि प्रकृति में वस्तुएं अंतर्सम्बन्धित व अंतर्निभर होती हैं तथा एक दूसरे के द्वारा निर्धारित की जाती हैं। इसमें प्रकृति को एक एकीकृत समष्टि (ूीवसम) माना जाता है। वाद-संवाद प्रक्रियापरक भौतिकवाद के अनुसार परिवर्तन का नियम ही यथार्थ का नियम है। सम्पूर्ण मानवीय जगत और अजैवकीय जगत में निरंतर परिवर्तन होते रहते हैं। वस्तुतः विश्व में कुछ भी शाश्वत रूप में स्थायी नहीं है, अपितु प्रत्येक वस्तु निरंतर परिवर्तन के दौर से गुजर रही है। ये परिवर्तन क्रमिक न होकर यकायक क्रांतिकारी रूप से होते हैं। मार्क्स के सहयोगी एंजल्स ने वाद-संवाद प्रक्रियापरक भौतिकवाद के तीन प्रमुख नियम दिये हैं, जो निम्नलिखित हैं।

9.3.1 विपरीत की एकता एवं संघर्ष का नियम
हमने अभी तक यह अध्ययन किया है कि प्रत्येक वस्तु परिवर्तित होती है और हमने परिवर्तन की प्रकृति एवं दिशा के बारे में भी जाना है। हमें अभी यह जानना बाकी है कि परिवर्तन के पीछे क्या कारण होता है। किसके कारण परिवर्तन घटित होता है ? विपरीत की एकता एवं संघर्ष का नियम वाद-संवाद प्रक्रिया का केन्द्रीय पक्ष है। यह नियम भौतिक जगत में विकास तथा शाश्वत परिवर्तन के वास्तविक कारणों अर्थात् स्रोतों को उजागर करता है।

इसके अनुसार वस्तुओं या प्रघटनाओं में आंतरिक प्रवृत्तियां (जमदकमदबपमे) तथा शक्तियां (वितबमे) होती हैं जो परस्पर विपरीत होती हैं। इन परस्पर विपरीत प्रवृत्तियों अथवा विरोधाभासों के अभिन्न अंतर्सम्बन्ध विपरीत की एकता के लिये उत्तरदायी होते हैं । विश्व की वस्तुओं एवं प्रघटनाओं का यह विरोधाभास सामान्य व सार्वभौमिक प्रकृति का होता है। विश्व की कोई भी वस्तु अथवा प्रघटना ऐसी नहीं है, जिसे विपरीत में विभक्त न किया जा सके। इन परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों अथवा विपरीत में सहअस्तित्व होता है तथा एक के बिना दूसरे के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। फिर भी ये विपरीत शक्तियां किसी भी वस्तु में शांति से सहअस्तित्व में नहीं रह सकतीं। इन विपरीत शक्तियों की परस्पर विरोधी प्रकृति इनमें अनिर्वायतरू संघर्ष पैदा करती है। प्राचीन एवं नवीन, नवोदित एवं पुरातन के मध्य संघर्ष अनिवार्य है। यहाँ यह बात जाननी महत्वपूर्ण है कि विपरीत की एकता संघर्ष की एक आवश्यक दशा है, क्योंकि संघर्ष तब ही घटित होता है, जब किसी एक वस्तु अथवा प्रघटना में विपरीत शक्तियां अस्तित्व में होती हैं। विपरीत का संघर्ष व विरोध ही चेतना एवं पदार्थ के विकास के मुख्य स्रोत हैं। विपरीत के संघर्ष से ही विकास होता है। प्रायरू इन विरोधी शक्तियों में से एक शक्ति यथास्थिति को बनाये रखना चाहती है और दूसरी शक्ति यथास्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन लाना चाहती है। इस संघर्ष के कारण अनेक मात्रात्मक (ुनंदजपजंजपअम) परिवर्तनों पश्चात् जब भी परिपक्व अवस्थाएं अस्तित्व में आती हैं तो एक नई स्थिति, वस्तु, प्रघटना या अवस्था या परिवर्तन का जन्म होता है। यह क्रांतिकारी परिवर्तन गुणात्मक (ुनंसपजंजपअम) परिवर्तन है। इस प्रकार वाद-संवाद प्रक्रियापरक भौतिकवाद के तीन नियमों में तार्किक अंतर्संबंध देखे जा सकते हैं।

उन बाह्य प्रभावों की भूमिका की उपेक्षा करना त्रुटिपूर्ण होगा, जो कि परिवर्तन लाने में सहायक हो सकते हैं अथवा बाधा डाल सकते हैं। सभी प्रकार के परिवर्तनों का स्रोत आंतरिक विरोधाभास है। नये विरोधाभासों का प्रादुर्भाव एक नये प्रकार के परिवर्तनों को जन्म देता है जबकि इन विरोधाभासों की विलुप्ति एक और नये प्रकार के परिवर्तन का कारण बनती है। इस नए परिवर्तन के लिये अन्य विरोधाभास उत्तरदायी होते हैं। विपरीत तत्त्वों में कभी समभाव नहीं आ पाता है। विपरीत तत्त्वों का समान प्रभाव अस्थायी व सापेक्षिक होता है, जबकि उनके बीच संघर्ष हमेशा चलता रहता है।

निषेध का निषेध नियम तथा मात्रात्मक से गुणात्मक परिवर्तनों में परिवर्तन का नियम (देखिए उपभाग 9.3.2 तथा 9.3.3), ये दोनों नियम विपरीत की एकता व संघर्ष के नियम के विशेष उदाहरण माने जा सकते हैं। प्रस्तुत नियम सभी प्रकार के विकास एवं परिवर्तन के स्रोतों को व्यक्त करते हैं।

विपरीत की एकता व संघर्ष के इस अमूर्त नियम को सामाजिक विकास के इतिहास की क्रमिक उत्पादन प्रणाली पर लागू किया जाये तो इसको सरलता से समझा जा सकता है।

उद्देश्य
यह इकाई वाद-संवाद प्रक्रिया की अवधारणा की तथा सामाजिक परिवर्तन में वाद संवाद प्रक्रिया के योगदान की जानकारी देती है। इसको पढ़ने के बाद आपके द्वारा संभव होगा
ऽ वाद-संवाद प्रक्रिया एवं सामाजिक परिवर्तन की मार्क्सवादी अवधारणाओं की विवेचना करना
ऽ वाद-संवाद प्रक्रिया के नियमों की व्याख्या करना
ऽ सामाजिक परिवर्तन को समझने हेतु वाद-संवाद प्रक्रिया के नियमों का योगदान बताना
ऽ सामाजिक परिवर्तन एवं क्रांति के संदर्भ में मार्क्स के विचारों को प्रस्तुत करना।

प्रस्तावना
इस खंड की पूर्ववर्ती इकाईयों (6,7 तथा 8) में आपने समाज के विकास के इतिहास के बारे में मार्क्सवादी चिन्तन के मौलिक सैद्धांतिक एवं अवधारणात्मक रूप के बारे में जाना। उत्पादन की शक्तियों. उत्पादन के संबंधों तथा उत्पादन के तरीकों के संदर्भ में मानवीय इतिहास की भौतिकवादी वैज्ञानिक व्याख्या में मार्क्स के विशिष्ट योगदान का अध्ययन करने के पश्चात् वर्ग एवं संघर्ष पर उसके विचारों को समझना भी आवश्यक होता है। वर्ग एवं वर्ग संघर्ष पर लिखी गई इकाई 8 में इन विचारों की चर्चा की गई है।

प्रस्तुत इकाई के दो प्रमुख उद्देश्य हैंः (प) आपको वाद-संवाद प्रक्रिया एवं परिवर्तन की महत्वपूर्ण मार्क्सवादी अवधारणाओं से अवगत कराना (पप) सामाजिक परिवर्तन से संबंधित कार्ल मार्क्स द्वारा प्रदत्त सम्पूर्ण अवधारणात्मक एवं सैद्धांतिक संरचना को संक्षेप में प्रस्तुत करना। इस इकाई को चार भागों में विभक्त किया गया है।

पहले भाग (9.2) में आपको वाद-संवाद प्रक्रिया की अवधारणा से अवगत कराया गया है। इसके साथ-साथ वाद-संवादपरक प्रक्रिया भौतिकवाद एवं सामाजिक परिवर्तन की सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य में विवेचना की गई है।

दूसरे भाग (9.3) में वाद संवाद प्रक्रिया के नियमों को प्रस्तुत किया गया है।

तीसरे भाग (9.4) में सामाजिक परिवर्तन व मार्क्सवादी चिन्तन को एक और दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है। यह भाग सामाजिक परिवर्तन एवं उत्पादन की बदलती हुई प्रणालियों के बारे में है। पूर्ववर्ती इकाईयों में भी, इस बात की विवेचना की गई है, परन्तु यहां पर समाज में परिवर्तन के ऐतिहासिक वाद-संवाद प्रक्रिया पक्ष पर प्रकाश डालने पर जोर दिया गया है।

चैथे भाग (9.5) में सामाजिक परिवर्तन एवं क्रांति के संदर्भ में मार्क्स के विचारों को संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है।

वाद-संवाद प्रक्रिया एवं सामाजिक परिवर्तन
इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
प्रस्तावना
वाद-संवाद प्रक्रिया की अवधारणा
वाद-संवाद प्रक्रिया के नियम
विपरीत की एकता एवं संघर्ष का नियम
निषेध का निषेध नियम
मात्रात्मक से गुणात्मक परिवर्तनों में परिवर्तन का नियम
वाद-संवाद प्रक्रियापरक भौतिकवाद के नियमों का प्रयोग
आदिम साम्यवादी समाज
दास प्रथावादी समाज
सामंतवादी समाज
पूंजीवादी समाज
सामाजिक परिवर्तन एवं क्रांति
सारांश
शब्दावली
कुछ उपयोगी पुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर

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