सद्गुण का सिद्धांत क्या है ? what is virtue ethics in hindi सद्गुण का सिद्धान्त किसे कहते हैं किसने दिया
what is virtue ethics in hindi सद्गुण का सिद्धान्त किसे कहते हैं किसने दिया सद्गुण का सिद्धांत क्या है ?
मानकीय नीतिशास्त्र के सिद्धान्त (Normative Ethics Theories)
मानकीय नीतिशास्त्र के तीन प्रमुख सिद्धान्त हैं –
ऽ सद्गुण का सिद्धान्त
ऽ प्रयोजनवादी सिद्धान्त (उपयोगितावाद)
ऽ निःप्रयोजनवादी अथवा कत्र्तव्या – कर्तव्य संबंधी सिद्धान्त (कान्तवाद)
सद्गुण का सिद्धान्त (Virtue Ethics)
सद्गुण चरित्र की विशेष स्थिति है। यह वह स्थायी मानसिक प्रवृत्ति है जो विवेकपूर्ण है। दो प्रकार के सद्गुण होते हैं, नैतिक तथा बौद्धिक। नैतिक सद्गुण का सम्बन्ध भावना से है। संवेदनाओं को विवेक के नियंत्रण में रखकर कार्य करना नैतिक सद्गुण है। अतः इसमें भावना और विवेक का समन्वय है। नैतिक सद्गुण का संबंध ऐच्छिक कर्म से है। इसका संबंध व्यावहारिक ज्ञान से है। चूंकि नैतिक सद्गुण क्रियाओं से जुड़े हैं। अतः वे सुख-दुख से भी सम्बद्ध हैं। सद्गुणी कर्म सुख का सहगामिनी है। सद्गुण जीवन के वास्तविक उद्देश्यों की व्याख्या करता है तथा जीवन के मूल मन्तव्य की मीमांसा भी करता है। प्लेटो तथा अरस्तु के अनुसार सद्गुण का मुख्य उद्देश्य है सामाजिक समरसता। शुभ सद्गुण मूल रूप से चार हैं, जैसा कि प्लेटो का मानना है। ये हैं-
विवेक (Prudence/Wisdom): यह बुद्धि का सद्गुण है जो मानव का मार्गदर्शन करता है।
साहस (Fortitude/Courage): इसका संबंध दृढ़ संकल्प से है जो विषम परिस्थितियों में भी विचलित नहीं होने देता।
आत्मसंयम (Temperance): इच्छा का सद्गुण आत्मसंयम है। यह संयमित एवं अनुशासित रहने के लिए आवश्यक है।
न्याय (Justice): विवेक, साहस तथा आत्मसंयम- इन तीनों सद्गुणों के सामंजस्य से ही न्याय की उत्पत्ति होती है।
सद्गुण सिद्धान्त के प्रतिपादकों का यह मानना है कि सद्गुणों की कुछ खास विशेषताएं हैं जो इन्हें सार्वभौम बनाती है। सद्गुण के नीतिशास्त्रीय सिद्धान्त के कुछ मौलिक पक्ष प्राचीन एवं मध्यकालीन नैतिक मान्यताओं से ही लिए गए हैं। नैतिकता संबंधी पश्चिमी अवधारणाओं का बीज मूल रूप से प्लेटो तथा अरस्तु के नैतिक दर्शन में पाए जाते हैं। वैसे चीन के नैतिक दर्शन में भी सद्गुण सिद्धान्त का महत्वपूर्ण स्थान है।
प्रयोजनवादी (उपयोगितावादी) सिद्धान्त
उपयोगितावाद अथवा प्रयोजनवाद ही वह नीतिशास्त्रीय सिद्धान्त हैं जिसके बारे में अधार्मिक लोगों का यह मानना है कि वे इसका प्रयोग प्रतिदिन करते हैं। प्रयोजनवादी नीतिशास्त्रीय सिद्धान्त के अनुसार जिस क्रिया सम्पादन के पीछे फल प्राप्ति की इच्छा सन्निहित होता है उसे फलवादी क्रिया कहा जाता है और क्रिया का मूल्यांकन क्रिया द्वारा उत्पन्न परिणाम को दृष्टि में रखकर किया जाता है। अतः प्रयोजनवादी नीतिशास्त्रीय सिद्धान्त का संबंध मूलरूप से कर्म के फल से है।
प्रयोजनवादी नीतिशास्त्रीय सिद्धान्त यह शिक्षा देता है कि वही कार्य करना उचित है जिसके परिणाम अच्छे हो। यह सिद्धान्त ‘अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख‘ पर आधारित होता है।
प्रयोजनवादी सिद्धान्त के अंतर्गत ही उपयोगितावाद पर बल दिया जाता है जिसके अनुसार वही कार्य उपयोगी है जिसका परिणाम महत्तम सुख हो। इस तरह उपयोगितावाद (Utilitarianism) प्रयोजनवादी सिद्धान्त का ही एक रूप है जो इस बात में विश्वास करता है कि हमें उसी क्रिया का सम्पादन करना चाहिए जिसका परिणाम सुखकर हो। प्रयोजनवाद को मुख्य रूप से तीन उपवर्गों में विभाजित किया जाता है-
ऽ स्वार्थमूलक सुखवाद (Ethical Egoism)
ऽ परार्थमूलक सुखवाद (Ethical Altruism)
ऽ उपयोगितावाद (Utilitarianism)
स्वार्थमूलक सुखवाद (Ethical Egoism)
स्वार्थमूल सुखवाद (नैतिक सुखवाद) यह मानता है कि क्रिया का परिणाम सुख हो तो सुख में केवल और केवल कत्र्ता का स्वामित्व होना चाहिए।
परार्थमूलक सुखवाद (Ethical Altruism)
परार्थमूलक सुखवाद (नैतिक परार्थवाद) यह मानता है कि क्रिया का परिणाम सुख हो तो क्रिया से उत्पन्न सुख से सभी को लाभ हो।
उपयोगितावाद (Utilitarianism)
उपयोगितावादी सुखवाद के जन्मदाता 18वीं एवं 19वीं शताब्दी के अंग्रेज दार्शनिक एवं अर्थशास्त्री जेरमी बेंथम और जेम्स मिल हैं। इसका नाम उपयोगितावाद ‘उपयोगी‘ शब्द पर जोर देने के कारण पड़ा है। अर्थात् कर्म की उपयोगिता पर ये लोग अत्यधिक जोर देते हैं। यहां ‘उपयोगी‘ होने का अर्थ थोड़ा भिन्न है। व्यक्ति के लिए तो स्वार्थवादी क्रिया भी उपयोगी है, परन्तु इन दार्शनिकों के अनुसार उपयोगी होने का तात्पर्य उस क्रिया से है जिससे अधिकतम लोगों का लाभ हो। इन दार्शनिकों ने उपयोगिता को परिभाषित करते हुए कहा है, ‘‘क्रिया वही उचित या नैतिक है यदि वह इच्छित या शुभ परिणाम को उत्पन्न करती है। प्रत्येक व्यक्ति वैसे कर्म का सम्पादन करे अथवा वैसे नैतिक नियमों का अनुसरण करे जिससे हर एक व्यक्ति को अधिकतम शुभ या आनंद प्राप्त हो।‘‘ यहां ‘क्रिया‘ और ‘नियम‘ की चर्चा इसलिए की गई है, क्योंकि जहां बेंथम सभी सुखों को गुणात्मक दृष्टि से समान मानते हैं, और केवल परिमाणात्मक दृष्टि से भिन्न मानते हैं, वहीं जॉन स्टुअर्ट मिल सुखों के बीच परिमाणात्मक और गुणात्मक दोनों अन्तर को स्वीकार करते हैं।
क्रियात्मक उपयोगितावाद के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को वैसी क्रिया का सम्पादन अवश्य करना चाहिए जिससे बुराई की अपेक्षा प्रत्येक व्यक्ति के हित में अधिकतम सुख उत्पन्न हो। ये भी क्रिया के परिणाम पर ही जोर देते हैं, अर्थात् कर्ता द्वारा सम्पादित क्रिया से जो भी व्यक्ति प्रभावित हो उन्हें उस क्रिया से अवश्य सुख मिलना चाहिए। इस सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य हमेशा ही समान परिस्थितियों में अपनी सभी क्रियाओं का सम्पादन नहीं करते। चूंकि हमें भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में कर्म का सम्पादन करना पड़ता है, इसलिए क्रिया के लिए कोई नियम स्थापित करना कठिन है। साथ ही सभी मनुष्य परस्पर एक-दूसरे से भिन्न हैं और उनके कर्म और कर्म करने का ढंग भी भिन्न है। अतः कोई भी ऐसा नियम बनाना संभव नहीं है, जो सभी परिस्थितियों में सभी लोगों के लिए समान रूप से अपनाने योग्य हो।
स्वाभाविक है कि प्रत्येक मनुष्य किसी परिस्थिति का आकलन अपनी क्षमता के अनुरूप करेगा कि वह उस परिस्थिति में किसी ऐसे कर्म का सम्पादन करने में कितना सक्षम है, जिससे बुराई की अपेक्षा प्रत्येक संबंधित व्यक्ति के लिए अधिकतम सुख उत्पन्न हो। पुनः वह यह भी सोचेगा कि किस ढंग से उस क्रिया का सम्पादन किया जा सकता है? नियम पर आधारित उपयोगितावाद में अनुभव और तर्क दोनों का सहारा लिया जाता है और इसी को आधार बनाकर क्रिया का सम्पादन किया जाता है। इससे मानवता के हित में सर्वाधिक मात्रा में सुख उत्पन्न होता है। अतः उपयोगितावाद कान्ट के दर्शन से भिन्न है, क्योंकि कान्ट के दर्शन में किसी कार्य को उसके परिणाम के आधार पर उचित या अनुचित नहीं ठहराया जाता।
जेरेमी बेंथम का परिमाणात्मक उपयोगितावाद
(Jeremy Bentham’s Gross or Quantitative Utilitarianism)
बेंथम के उपयोगितावाद को सफल परार्थवाद (Gross altruism) भी कहते हैं। इनके मत को सफल परार्थवाद इसलिए कहा जाता है कि ये ‘अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुखों‘ में गुणात्मक अंतर नहीं मानते। बेंथम के अनुसार अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख ही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। अधिक से अधिक व्यक्तियों को अधिक से अधिक सुख पहुंचाना ही प्रत्येक व्यक्ति का कत्र्तव्य हो जाता है। बेंथम सुखों में गुणात्मक भेद नहीं मानते। सुख गुण की दृष्टि से उच्च या निम्न कोटि के नहीं कहे जा सकते। सुखों में केवल परिणाम की दृष्टि से अंतर होता है। बेंथम ने सुखों में गुणात्मक भेद न मानकर अपने सुखवाद को सफल परार्थवाद बना लिया। बेंथम ने सभी सुखों को एक जैसा माना। बेंथम के शब्दों में, ‘‘सुख का परिमाण बराबर होने पर पुस्पिन (एक खेल) उतना ही शुभ है, जितनी कविता‘‘।
बेंथम ने परार्थवाद का आधार मनोवैज्ञानिक उपयोगितावाद (सुखवाद) बताया है। हम स्वभाव से ही सुखलाभ और दुखनिवृत्ति के लिए कर्म करते हैं। सुख और दुख ही मनुष्य के कर्मों के प्रेरक हैं। इसलिए मनुष्य के जीवन का परम लक्ष्य सुख की प्राप्ति है। मनुष्य स्वभाव से ही स्वार्थी होता है। मनुष्य की परार्थमूलक प्रवृत्तियों की जड़ में स्वार्थमूलक प्रवृत्तियां मौजूद हैं।
मिल का गुणात्मक उपयोगितावाद
(Mills Refined or Qualitative Utilitarianism)
मिल का मत सुखवादी है। अतः मिल के अनुसार कोई कर्म उसी अनुपात में उचित है जिस अनुपात में उससे आनंद की प्राप्ति होती है और उतना ही अनुचित, जितनी उससे दुःख की उत्पत्ति होती है। आनन्द का अर्थ है सुख और दुख का अभाव और दुःख का अर्थ है सुख का अभाव। सुख प्राप्ति और दुःख निवारण ही वांछनीय लक्ष्य है। आनंद या सुख मानव कर्मों का एकमात्र उद्देश्य है। यही एकमात्र वांछनीय आदर्श है, जिसे जीवन का चरम लक्ष्य बनाया जा सकता है।
मिल का सुखवाद परार्थवादी है। बेंथम की भांति उसने भी सामान्य या सार्वजनिक सुख को जीवन का परम आदर्श माना है, स्वार्थ सुख को नहीं। कत्र्ता का अधिकतम सुख नहीं, अपितु सब मिलाकर सुख की अधिकतम मात्रा को ही मापदण्ड मानना चाहिए। उसने बतलाया कि अपने और अन्य के सुख में चुनाव करना हो तो निष्पक्ष रूप से विचार करना चाहिए। सारांश यह हुआ कि मनुष्य को ऐसा कर्म करना चाहिए, जिससे अधिकतम व्यक्तियों को अधिकतम सुख मिले। इसलिए इस मत को परार्थवाद करना चाहिए, जिससे अधिकतम व्यक्तियों को अधिकतम सुख मिले। इसलिए इस मत को परार्थवाद या उपयोगितावाद भी कहा जाता है। यहां तक मिल का मत बेंथम के समकक्ष है। बेंथम ने परार्थवाद के लिए कोई तार्किक प्रमाण नहीं दिया था, पर मिल ने उसके लिए तार्किक युक्ति दी है।
मिल ने सुखों के गुणात्मक भेद को माना है। मिल ने बतलाया है कि सुखों के गुण की दृष्टि स,े भिन्न स्तर हैं। सुखों में, गुण और परिमाण, दोनों दृष्टियों से भेद होता है। यदि सुखों में चुनाव करना पड़े तो गुण और परिमाण, दोनों की तुलना करनी चाहिए। सुख के अनेक प्रकार हैं और उनमें कुछ अधिक वांछनीय हैं दूसरों से। कोई सुख परिमाण की दृष्टि से दूसरों से श्रेष्ठ हैं, पर गुण की दृष्टि से निम्न स्तर का हो सकता है या परिमाण की दृष्टि से निम्न, पर गुण की दृष्टि से उच्च स्तर का हो सकता है। ऐसी अवस्था में बुद्धिमान लोग उसे ही चुनते हैं, जो गुण की दृष्टि से श्रेष्ठ हो ।
मिल का मानना है कि सुख की कामना मनुष्य में स्वाभाविक है। अतः सुख ही उसके जीवन का लक्ष्य होना चाहिए- सुख निजी नहीं, अपितु अधिकतम व्यक्तियों का। मनुष्य स्वभाव से स्वार्थी है, पर उसी से परमार्थ की भावना भी उदित होती है तथा बाह्य कारकों एवं आन्तरिक अनुशस्तियों के कारण परोपकार के लिए हम बाध्य होते हैं।
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