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विधान परिषद क्या है , विधान परिषद वाले राज्य 2019 , सदस्यों की सूची , vidhan parishad in hindi

vidhan parishad in hindi , विधान परिषद क्या है , विधान परिषद वाले राज्य 2019 , सदस्यों की सूची :-
विधान परिशद : एक बहस
विधान परिषद के पक्ष में तर्कः राज्यों में उच्च सदन के रूप में
विधान पारिषद के गठन के समर्थक निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत
करते हैं-
(1) भारत में निम्न सदन का चुनाव सार्वभौम मताधिकार प्रणाली
द्वारा होता है। इसमें मताधिकार के लिए किसी प्रकार की
शैक्षणिक या सम्पति संबंधी आहर्ता नहीं रखी गई है। अतः
निम्न सदन के निर्वाचन में साक्षर एव निरक्षर दोनांे हीं
राजनीतिक आधार पर मतदान करते है। इसलिए यह कहा
जाता है कि यदि लोकतंत्र को निरक्षरों के मौज से बचाना
है तो एक विशेषज्ञ उच्च सदन होना चाहिए।
(2) समाज में जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों के बुद्धिजीवी मौजूद
हैं जो चुनाव नहीं लड़ना चाहते या नहीं लड़ पाते हैं अतः
उनकी विशेषज्ञताओं का लाभ लेने हेतु उच्च सदन लाया
जाना चाहिए ।
(3) विधान परिषद की सीमित शक्तियों के आधार पर इसके
गठन के विरोध करने वालों के विरूद्ध यह तर्क दिया जाता
है कि भले ही निम्न सदन इसकी सिफारिशों को स्वीकार न
करे लेकिन इतना तो अवश्य होगा कि निम्न सदन को यह
अपनी विशेषज्ञ टिप्पणी एवं सहायता देगा साथ हीं विधेयकों
को कुछ समय तक रोक कर उसमें सुधार की अपेक्षा कर
पाएगा।
(4) अल्पसंख्यक समुदाय को प्रतिनिधित्व दिया जा सकेगा।
(5) विधायी कार्यो के बढ़ते बोझ को कम करने में विधान परिषद
की भूमिका हो सकती है। गैर-वित्तीय तथा कम विवादित
मुद्दों को इस सदन में लाया जा सकता है तथा निम्न सदन
के कार्य बोझ को कम किया जा सकता है।
(6) यह स्वीकार्य है कि विधि निर्माण एक समय साध्य प्रक्रिया
है तथा इस प्रक्रिया में जनता के मत को भी ध्यान में रखना
होता है अतः राज्यों में उच्च सदन के होने से जनता में
विचार-विभर्श के लिए ज्यादा समय मिल जाएगा।
(7) विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों की यह संस्था न हीं सिर्फ विशेषज्ञ
विधायी सहायता उपलब्ध कराएगी वरन यह समाज कल्याण
में भी योगदान कर पाएगी।
(8) जिस प्रकार राज्य सभा राज्यों का प्रतिनिधित्व कर केन्द्रीय
संसदीय व्यवस्था को संघात्मक बनाती है उसी प्रकार यदि
राज्य विधान परिषदों को स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं
का प्रतिनिधि बनाया जाए तो इससे हमारी संवैधानिक
व्यवस्था ज्यादा विकेन्द्रीकृत एवं समावेशी बन जाएगी।
विधान परिषद के विपक्ष में तर्क:-
(1) विधान परिषदों की सीमित शाक्तियों के कारण इसकी कमजोर
स्थिति को देखते हुए इसे समाप्त करने की वकालत की जाती
है। कहा जाता है कि यदि विधान परिषद, विधान सभा द्वारा
पारित विधेयक को यथास्थिति मुहर लगा देता है तो यह
गैर-जरूरी है और यदि उसमें बदलाव की सिफारिश करता
है तो यह निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा तैयार कार्यक्रमों, नीतियों
को चुनौती देने वाला शरारतपूर्ण कार्य है।
(2) विधान परिषदों द्वारा विधान सभा पर किसी प्रकार का नियंत्रण
स्थापित नहीं किया जा सकता है क्योंकि इसके अधिकार
सीमित हंै। विधान परिषदों को गैर धन विधेयकों को अधिकत्तम
चार माह तक तथा धन विधेयक को अधिकत्तम 14 दिन तक
अपने पास रखने के सिवाय कोई शक्ति प्राप्त नहीं है।
(3) मंत्री परिषद भी इससे नियंत्रित नहीं होती क्योंकि इसमें
अविश्वास प्रस्ताव नहीं लाया जा सकता ।
(4) इस पर यह भी आरोप लगाया जाता है कि यह प्रगतिशीलता
की विशषता नहीं रखता क्योंकि इसके सदस्य जनता की
संवेदना से रहित होते हैं। इसके सदस्य प्रत्यक्षतः निर्वाचित
नहीं होते हैं। इसके सदस्य अप्रत्यक्षतः निर्वाचित तो कुछ
मनोनित होते हैं। इस प्रकार इसे प्रतिक्रियावादी तथा रूढ़िवादी
कहा जाता है।
(5) यह देखा गया है कि इस सदन का प्रयोग हारे हुए राजनीतिज्ञों
तथा राजनीतिक समर्थकों को स्थान देने के लिए प्रयोग किया
जाता है। न हीं सामजिक कार्यकर्ताओं को या विशिष्ट
व्यक्तियों का इसमें स्थान मिल पाता है।
(6) इसके सीमित अधिकार एवं कार्यकरण से किसी प्रकार का
लाभ न मिलने के कारण इसे राज्य पर एक वित्तीय बोझ के
रूप में देखा जाता है। क्योंकि इसके सदस्यांे को वेतन तथा
अन्य सुविधाओं के तहत् भारी-भरकम राशि आवंटित की
जाती है।
(7) सर्वाधिक महत्वपूर्ण यह है कि अभी तक सिर्फ छः राज्यों में
हीं द्विसदनीय व्यवस्था कार्यरत है एवं इनके अनुभव से ऐसा
नहीं लगता कि ये उपयोगी सिद्ध हुए हैं।
(8) इसके समर्थक इसे विशिष्ट लोगों की सभा कहते है लेकिन
इनके गठन में सिर्फ 1/6 सदस्यों को हीं विशिष्ट अनुभव से
लिया जाता है।
(9) यह संभावना व्यक्त की जाती है कि, क्योंकि यह सदन
अनुभवी, शिक्षित एवं विशेषज्ञों से मिलकर बनती है, इसलिए
यह किसी मुद्दे पर काफी गंभीरता, शांति एवं धैर्य के साथ चर्चा
करेगी लोकिन व्यवहार में यह नहीं देखा जाता । क्योंकि सभी
सदस्य दलगत भावना से प्रेरित रहते हैं अतः हंगामा एवं
राजनीतिक हमले रहते होते है।
(10) यह तर्क भी कि, इससे किसी विधेयक पर लोक चर्चा हेतु
अतिरिक्त समय प्राप्त हो जाता है निराधार सिद्ध होता है
क्योंकि किसी भी विधेयक को पारित होने में इतने चरण होते
हैं कि लोक चर्चा हेतु पर्याप्त समय प्राप्त हो जाता है।
अतः स्पष्ट है कि अभी तक की स्थिति को देखते हुए विधान
परिषदों का गठन संदिग्ध प्रतीत होता हैं । परन्तु यदि इसके
ढँ़ाचे, शक्ति, प्राधिकार एवं प्रक्रिया में बदलाव किया जाए तो
इसके, गठन के पीछे दिए गए तर्कों को हम व्यवहारिक रूप
से सही सिद्ध कर सकते है।
सार्वजनिक धन की रक्षा के लिए
हमारे संविधान में क्या प्रावधान किए गए हैं?

भारतीय संविधान में सार्वजनिक धन की अभिरक्षा के लिए निम्नलिखित

प्रावधान किए गए हैं-
(1) विधि के प्राधिकार के बिना किसी प्रकार के कर का
अधिरोपण एवं संग्रहण नहीं किया जाएगा।
(2) लोक निधि से किसी भी प्रकार का व्यय संविधान के
उपबंधों के अनुसार हीं किया जाएगा।
(3) कार्यपालिका लोक धन का व्यय उसी रीति से करेंगी जो
संसद तथा राज्य विधायिका द्वारा स्वीकृति दी गई है।
(4) केन्द्र सरकार के सभी आय तथा व्यय दो मदों यथा संचित
निधि एवं लोक लेखा में रखा जाएगा।

(5) भारत सरकार को प्राप्त सभी राजस्व, सरकार द्वारा राज
हुंडिया निर्गमित करके, उधार द्वारा या अर्थोपाय अग्रिमो द्वारा
लिए गए सभी उधार और उधारों के प्रतिसंदाय में उस
सरकार को प्राप्त सभी धनराशियों को भारत की संचित
निधि में जमा किया जाएगाा।
(6) भारत की संचित निधि या राज्य की संचित निधि में से कोई
भी धनराशि विधि के अनुसार तथा इस संविधान में उपबंधित
प्रयोजनों के लिए और रीति से हीं विनियोजित की जाएंगी
अन्यथा नहीं ।
(7) भारत सरकार या राज्य सरकार द्वारा या उसकी ओर से
प्राप्त सभी लोक धनराशियों, यथास्थिति, भारत के लोक
लेखे में या राज्य के लोक लेखे में जमा की जाएंगी।
(8) अप्रत्याशित परिस्थिति से निपटने के लिए आकस्मिक निधि
का भी सृजन किया गया है।
(9) अन्य रक्षोपाय के रूप में सरकार के व्यय का अंकेक्षण
नियंत्रक महा लेखा-परीक्षक द्वारा किया जाता है जिसकी
रिपोर्ट संसद में रखी जाती है।
(10) संसद की लोक लेखा समिति नियंत्रक महा-लेखा परीक्षक
की रिर्पोट का परीक्षण करती है। यह परिपाटी विकसित की
गई है कि इसका अध्यक्ष लोक सभा के विपक्षी दल का हो।

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