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सिविल सेवा में मूल्य व नैतिकता क्या है ? (Values for Civil Service in hindi) सार्वजनिक मूल्य की बहुलता (Public Value Pluralism)
सार्वजनिक मूल्य की बहुलता (Public Value Pluralism) सिविल सेवा में मूल्य व नैतिकता क्या है ? (Values for Civil Service in hindi) ?
सिविल सेवा अभिरुचि और बुनियादी मूल्य
मूल्यों की, महत्ता क्यों है? (Why are Values Important)
प्रत्येक संगठन की अपनी एक कार्य संस्कृति होती है। मूल्य किसी संस्था या संगठन से जुड़े इसी कार्य संस्कृति के महत्वपूर्ण घटक होते हैं जो संगठन से जुड़े व्यक्ति के व्यवहारों को नियंत्रित कर सही मार्ग की ओर निर्देशित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मूल्यों में आदेश सूचक एवं अनिवार्यता के तत्व होते हैं तथा ये किसी संगठन, संस्था अथवा संस्कृति के विभिन्न स्तरों या आयामों में व्यक्ति के अनुकूलन की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण प्रोत्साहन व मार्गदर्शन करते हैं। जहां तक सिविल सेवा का प्रश्न है तो यहां भी मूल्यों की भूमिका काफी मायने रखती है। लोक सेवकों द्वारा सेवा-भावना से जुड़े मूल्यों को अपनाया जाता है, उनमें आस्था प्रकट की जाती है तथा इन्हीं मूल्यों के अनुरूप कार्य निष्पादन किया जाता है। इससे उन्हें जनसाधारण का विश्वास हासिल होता है और लोग उन पर यकीन करने लगते हैं, उनके कार्यों की सराहना करते हैं। एक लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था में ऐसी बातें बहुत महत्वपूर्ण होती हैं। लोक सेवकों द्वारा इन सामाजिक व मानवीय मूल्यों की अनदेखी करने पर नौकरशाही एवं आम जनता के संबंध सौहार्दपूर्ण नहीं रह पाते जिसका परिणाम होता है लोकतांत्रिक मूल्यों का ह्रास। ऐसी स्थिति में लोक सेवकों को निर्णयन प्रक्रिया में दुविधा का सामना करना पड़ता है क्योंकि मूल्यों से हटकर वे जनसाधारण का विश्वास खो बैठते हैं।
लोकसेवकों की तटस्थता, ईमानदारी एवं कत्र्तव्यपरायणता सुनिश्चित करने हेतु यद्यपि कई नियम, कानून एवं विनियामक बनाए गए हैं परन्तु अभी भी प्रशासन से संबंधित कई ऐसे क्षेत्र हैं जहां औपचारिक नियमों एवं तौर-तरीकों से काम नहीं चलता बल्कि लोक सेवकों को स्वविवेक से काम लेना पड़ता है। ओटो किरचिमर का तो यह मानना है कि स्वविवेक से निर्णय लेने वाली परिस्थितियों एवं कार्यों के औचित्य के निर्धारण में तो निरीक्षण तथा पर्यवेक्षण भी कारगर सिद्ध नहीं हो सकते क्योंकि इन क्षेत्रों में लिए गए निर्णय आत्मनिष्ठ होते हैं जो व्यक्ति विशेष की मनोवृत्ति से निर्देशित होते हैं। अतः इसके लिए एक ऐसे एजेन्ट की आवश्यकता पड़ती है जो स्वचालित रूप से लोकसेवकों के कार्य-व्यवहार को नियंत्रित कर उनकी कार्य क्षमता एवं कर्तव्यपरायणता को बनाए रखे। ऐसा एजेन्ट या सूत्र एक प्रकार से एक मानक अथवा मानदंड का काम करता है तथा इन मानकों से हटकर किया गया कोई भी कार्य जनसाधारण में स्वीकृति प्राप्त नहीं कर सकता। मेवकैनी के शब्दों में कहा जाए तो स्वविवेक से निर्णय लेने योग्य क्षेत्रों में व्यक्ति को स्वयं अपने अन्तर्मन को जवाब देना पड़ता है, उसे स्वयं अपनी गरिमा व प्रतिष्ठा का ख्याल करना पड़ता है, अपने सहकर्मियों के मनोविचार के अनुसार भी सोचना पड़ता है और सबसे बढ़कर स्वयं यह सोचना पड़ता है कि जिस तन्मयता एवं ईमानदारी से उसने अपना काम किया है वो किस हद तक सर्वसाधारण के लिए लाभकारी सिद्ध होगा?
सिविल सेवा में मूल्य व नैतिकता (Values for Civil Service)
लोक-सेवकों के लिए नैतिक मूल्यों एवं मानकों का निर्धारण एक कठिन कार्य हैं। इस प्रक्रिया की अपनी कुछ सीमाएं हैं और यह स्पष्ट भी है क्योंकि विश्व के हर क्षेत्र या फिर राष्ट्र का विकास एकसमान नहीं हुआ है। इनके सामाजिक, सांस्कृतिक प्रतिमान एवं ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया भिन्न-भिन्न रही है। जहां तक लोकसेवकों के कार्यों का प्रश्न है तो यह उत्तरोत्तर जटिल होता जा रहा है और स्वयं इन कार्यों एवं उद्देश्यों में भी कई बार विरोधाभास देखने को मिलता है। उदाहरणस्वरूप हम लोक सेवकों के कर्तव्यों एवं दायित्वों पर गौर करें तो पाएंगे कि एक तरफ उन्हें लोकसेवा से संबंधित कई कार्यों में गोपनीयता बरतनी पड़ती है तो दूसरी तरफ उनसे उनके कार्यों में पारदर्शिता की उम्मीद भी की जाती है। बृहद परिप्रेक्ष्य में उन्हें हितों के संघर्ष की स्थिति में तटस्थ भी रहना पड़ता है तो उनसे यह भी उम्मीद की जाती है कि सभी के प्रति समान जवाबदेही का प्रदर्शन करे। जनसाधारण लोकसेवकों के समक्ष एक समान है परन्तु कई बार उन्हें स्वविवेक से निर्णय लेते हुए कुछ खास वर्गों को तरजीह भी देनी पड़ती है जो एक तरह से प्रशासनिक बाध्यता भी है।
इन जटिल परिस्थितियों में लोकसेवकों को अपना काम करना पड़ता है जो अपने आप में एक चुनौती है। इन दुविधाजनक क्षणों में मूल्य व मानक ही वे सूत्र हैं जो उनके व्यवहार को सही दिशा देते हैं, उनका मार्गदर्शन करते हैं तथा परिस्थितिजन्य आवश्यकताओं के अनुरूप कार्य करने में अथवा निर्णय लेने में मदद करते हैं। अतः किसी संस्था अथवा संगठन के विभिन्न पक्षों से संबंधित जो मूल्य होते हैं, उनमें एक प्रकार्यात्मक संबंध होता है जिसके कारण संगठन के संबंध एवं कार्यों का ताना-बाना टूटता नहीं एवं इनमें तालमेल की स्थिति बनी रहती है इससे संगठन संतुलित रूप से कार्य करता है। अतः ये मूल्य जितने स्पष्ट होते हैं संगठन का कार्य उतना ही सुचारू रूप से चलता है। परन्तु अगर ये यथोचित नहीं होते हैं या फिर बदलती आवश्यकताओं व आकांक्षाओं का प्रत्युत्तर देने में सक्षम नहीं होते हैं। वैसी स्थिति में लोकसेवकों को दुविधाओं का सामना करना पड़ता है। वे बेहतर निर्णय ले पाने में कठिनाई महसूस करते हैं। इससे संगठन के अंदर भी ताल-मेल टूटने लगता है तथा समूह-भावना खत्म होने लगती है। इसके कारण जनसाधारण के साथ भी इनका संपर्क टूटने लगता है तथा संगठन अन्दर से कमजोर होने लगता है।
वैसे तो लोकसेवकों के लिए अर्थात् सिविल सेवा में मूल्यों एवं मानकों का एक सेट होना अनिवार्य है परन्तु प्रशासन से जुड़े विभिन्न पक्षों में एक ही पैटर्न के मूल्यों मानकों से काम नहीं चलता। सिविल सेवा के अन्तर्गत तकनीकी, नियामक तथा प्रशासनिक दायित्वों में अंतर स्पष्ट किया जाना चाहिए। नौकरशाही के कुछ ऐसे कार्य हैं जिनका जनसाधारण से प्रत्यक्ष संबंध होता है। वहीं कुछ दायित्व ऐसे भी हैं जिसके अन्तर्गत जनसाधारण से संपर्क की बाध्यता नहीं रहती हालांकि ये कार्य भी जनता से हीे संबंधित होते हैं।
आमतौर पर एक कुशल सिविल सेवा के लिए निम्नलिखित मूल्य अत्यंत महत्वपूर्ण माने जाते हैं-
ऽ ईमानदारी और सत्यनिष्ठा
ऽ निष्पक्षता कानून के प्रति आदर और सम्मान
ऽ जनसाधारण के प्रति आदर और सम्मान
ऽ कर्मठता
ऽ मितव्ययिता एवं उद्देश्यपरकता
ऽ जवाबदेयता
ऽ अनुक्रियाशीलता एवं सहानुभूति
.
मूल्य और सार्वजनिक मूल्य (Values and Public Values)
आमतौर पर किसी वस्तु के ‘मूल्य‘ को उस वस्तु की उपयोगिता के संदर्भ में परिभाषित किया जाता है अर्थात् मूल्य वह है जो हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति करे। सरकारी तंत्र में मूल्यों का अभिप्राय कुछ अलग है। अगर हम लोक मूल्यों अर्थात् सार्वजनिक मूल्यों की बात करें तो इसका निर्धारण अब जनता करती है। वस्तुतः सार्वजनिक (लोक) मूल्य कुछ और नहीं बल्कि सरकार व प्रशासन के कार्य का लेखा-जोखा है जो जनसाधारण द्वारा किया जाता है। जनता इसकी पहचान इसलिए करती है ताकि यह स्पष्ट हो सके कि प्रशासन अपने कार्यों व उद्देश्यों में जनता के द्वारा तय की गई कसौटी पर कहां तक खरी उतरी है। सार्वजनिक मूल्यों की संकल्पना के प्रतिपादन का श्रेय मूर को दिया जाता है। उसने निजी एवं सरकारी दोनों क्षेत्रों के लिए क्रमशः निजी एवं सार्वजनिक मूल्यों की संकल्पना प्रस्तुत की थी।
सार्वजनिक अथवा लोक मूल्य किसी सरकार अथवा प्रशासन के लिए एक मानक (मानदंड) होता है जिस पर आम सहमति होती है। ये मूल्य कुछ इस प्रकार हैं।
ऽ उन सुविधाओं, अधिकारों तथा विशेषधिकारों का स्पष्टीकरण (खुलासा) जिन पर आप नागरिकों का हक है या फिर नहीं है।
ऽ समाज, राज्य तथा स्वयं एक-दूसरे के प्रति आम नागरिकों के कर्तव्य एवं उनकी जवाबदही।
ऽ सरकार तथा उसकी नीतियों के सैद्धान्तिक आधार।
मूर का यह मानना है कि सार्वजनिक मूल्यों पर आम सहमति तभी संभव हो पाती है जब सरकार की नीतियां तथा उसकी प्रबंधन-व्यवस्था राजनीतिक रूप से वैध, व्यावहारिक, उपयुक्त तथा कार्यान्वयन के योग्य रहती है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अगर सरकारी कार्य-कलाप लोकान्मुख हो अर्थात् लोक-कल्याण के प्रति समर्पित हो तो सार्वजनिक मूल्यों की पहचान आसान हो जाता इसके विपरीत, अगर सरकार गलत निर्णय लेती है, लोगों की आकांक्षाओं से सरोकार नहीं रखती, उपर्युक्त नीतियों का निर्माण नहीं करती तथा लोक सेवा प्रदान करने में गलत कार्य-प्रणालियों का सहारा लेती है तो ऐसे में लोक (सार्वजनिक) मूल्यों को तय कर पाना मुश्किल हो जाता है, बल्कि इनका क्षय हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में जहां सार्वजनिक मूल्यों का निर्माण सरकार की प्रबंधन व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग है, वहीं सेवा प्रदाता के रूप में लोक सेवकों का उद्देश्य मुख्य रूप से नागरिक समुदायों तथा उनकी क्षेत्रीय आवश्यकताओं व जरूरतों को पूरा करना है और यह प्राधिकार लोक सेवकों को स्वयं इन्हीं नागरिक समुदायों से प्राप्त होती है।
सार्वजनिक मूल्यों से इतर सिर्फ ‘मूल्य‘ शब्द पर यदि विचार करें तो यह स्पष्ट है कि मूल्य एक व्यक्तिनिष्ठ अवधारणा है जो व्यक्ति विशेष के ज्ञान व उसके मनोभावों पर निर्भर करता है। मूल रूप से ये व्यक्तिगत निर्णय होते हैं जिसमें व्यक्ति के संज्ञानात्मक एवं भावात्मक दोनों ही पक्ष शामिल होते हैं। इस अर्थ में मूल्य अपेक्षाकृत स्थायी प्रकृति के होते हैं जो व्यक्ति के व्यवहार को निर्देशित भी करते हैं।
सार्वजनिक मूल्य की बहुलता (Public Value Pluralism)
सार्वजनिक मूल्यों की बहुलता अथवा मूल्यों के बहुलवाद का तात्पर्य यह है कि समाज के विभिन्न पक्षों या विभिन्न कार्यकलापों से संबंधित विभिन्न प्रकार के मूल्यों का सह-अस्तित्व संभव हो सकता है अर्थात् एक ही समाज में भिन्न-भिन्न प्रकार की मूल्यात्मक प्रवृत्तियां देखने को मिल सकती हैं और ये सभी मूल्य समान रूप से वैध, उचित तथा मौलिक भी माने जा सकते हैं। परन्तु ऐसा भी संभव है कि कुछ मूल्यों का सहअस्तित्व संभव न हो या फिर वस्तुनिष्ठ रूप से यह तय कर पाना भी मुश्किल हो सकता है कि इन मूल्यों का सोपानक्रम क्या है। अर्थात् इनमें से कौन उच्चतर एवं श्रेष्ठ मूल्य है और कौन अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण?
यहां हमारा उद्देश्य मुख्य रूप से यह स्पष्ट करता है कि लोक प्रशासकों के लिए ढेर सारे मूल्यों एवं मानकों का निर्धारण किया गया है और इस बात में भी दो राय नहीं है कि इन मूल्यों के बीच निरंतर संघर्ष चलता रहता है।
इसे एक उदाहरण द्वारा इस प्रकार समझा जा सकता है कि जहां लोक सेवकों से पारदर्शी एवं विधिसम्मत बने रहने की उम्मीद की जाती है वहीं दूसरी तरफ उन्हें अपनी दक्षता, निपुणता प्रभावशीलता को भी सिद्ध करना पड़ता है। अगर देखा जाए तो मूल्यों के थे दो भिन्न-भिन्न सेट परस्पर विरोधी प्रकृति के हैं जिनका सहअस्तित्व मुश्किल है। इसी तरह अगर स्वतंत्रता एवं समानता की अवधारणा पर विचार किया जाए तो यह समझना मुश्किल नहीं कि ये दो सर्वथा विपरीत अवधारणाएं हैं। ठीक इसी प्रकार न्याय तथा दया, इन दोनों में से किसी एक पर ही अमल किया जा सकता है या फिर स्वेच्छारिता तथा सुरक्षा-दोनों एक साथ संभव नहीं हो सकता।
मूल्य प्रशिक्षण
वैसे तो अनौपचारिक रूप से भी मूल्यों की शिक्षा दी जा सकती है परन्तु किसी औपचारिक विधि द्वारा मूल्यों के विकास से ज्यादा बेहतर परिणाम मिल सकता है। सबसे चर्चित औपचारिक विधि (इंडक्शन कोर्स) आगमनात्मक विधि है जिसमें नये स्टाफ को केस स्टडीज तथा सहभागी निरीक्षण के द्वारा मूल्यों की शिक्षा दी जाती है। यह विधि बिल्कुल व्यावहारिक है। इस विधि में इस बात पर बल दिया जाता है कि लोक सेवक कार्य-स्थान से संबंध बनाना सीखे तथा लोक सेवा से जुड़े सभी मामलों व वक्तव्यों के द्वारा मूल्य सम्प्रेषण परामर्श सहयोग आदि अवधारणाओं को समझ सके।
लोक सेवा से जुड़े स्टाफ के लिए सेमिनार एवं वर्कशॉप (कार्यशालाएं) भी काफी कारगर साबित होती हैं जिनके द्वारा कार्य स्थल एवं कार्यप्रणाली से जुड़े नैतिक मूल्यों को समझ पाने में इन्हें आसानी होती है। इससे कर्मचारियों को संगठन के संबंध में यथोचित जानकारी प्राप्त होती है तथा उन्हें इस बात का भी ज्ञान होता है कि संगठन से जुड़े उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को किस प्रकार के कार्य-व्यवहार द्वारा हासिल किया जा सकता है। इससे स्वयं संगठन को भी फायदा मिलता है क्योंकि इससे संगठन के कार्यों की भी दिशा तय होती है; यथा-भविष्य में इसे किस प्रकार अपनी भूमिका को और बेहतर एवं सार्थक बनाना है।
मूल्य प्रशिक्षण के द्वारा स्टाफ को इस बात की सीख नहीं दी जाती कि मूल्यों के संघर्ष की स्थिति में उन्हें कैसे कार्य-व्यवहार अपनाने चाहिए अर्थात् नैतिकता संबंधी दुविधा की स्थिति में किस प्रकार का कार्य-व्यवहार अपनाना है ताकि उन्हें इस बात का भय न हो कि अपने निर्णयों के लिए व्यक्तिगत रूप से स्वयं उन्हें बुरे परिणाम भुगतने होंगे। लोक प्रबंधन में मूल्यों के संघर्ष को संगठन के लिए बाधा के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि स्टाफ को यह शिक्षा देनी चाहिए कि उन्हें इन विकट परिस्थितियों से कैसे निपटना है। एक अच्छे लोक प्रबंधन व्यवस्था की यही मुख्य पहचान है।
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