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संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद का मुख्यालय कहाँ है | संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त का मुख्यालय कहां स्थित है
(united nations and human rights in hindi ) संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त का मुख्यालय कहां स्थित है , संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद का मुख्यालय कहाँ है मानव अधिकार के विकास में संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका
उत्तर : इसका मुख्यालय स्वीटजरलैंड के जेनेवा (Geneva, Switzerland) में स्थित है |
संयुक्त राष्ट्र एवं मानवाधिकार
संयुक्त राष्ट्र ने विश्व के विभिन्न भागों में मानवाधिकारों के प्रचार एवं संरक्षण में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। सन् 1948 की सार्वभौमिक घोषणा के बाद संयुक्त राष्ट्र ने अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के सहयोग से अनेक समझौते कराए जिनके द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार आन्दोलन के मानकों की व्याख्या की गई और उनका विस्तार किया गया। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण समझौतों के नाम इस प्रकार हैं – जाति संहार को रोकने तथा तत्संबंधित अपराधों के लिए दंड का समझौता (1948), सैन्य बलों में बीमारों एवं घायलों की दशाओं में सुधार हेतु जेनेवा समझौता (1949), कैदियों के उपचार से संबंधित जेनेवा समझौता (1949), शरणार्थियों की स्थिति से संबंधित जेनेवा समझौता (1951), महिलाओं के राजनीतिक अधिकारों का समझौता (1954), हर प्रकार के जातीय भेदभाव के निराकरण का समझौता (1966), वर्ण भेद के दमन तथा तज्जन्य अपराधों के लिए दंड का समझौता (1975), दास प्रथा और दास व्यापार के उन्मूलन का समझौता (1976), बच्चों के उत्पीड़न के विरुद्ध समझौता तथा उनके अधिकारों के लिए एक अन्य समझौता (1989)। इन सभी समझौतों का मूल प्रयोजन यह था कि राष्ट्रीय सरकारों को इस बात पर सहमत कराया जा सकें कि वे सभी मनुष्यों के प्रति उनकी जाति, वर्ण, राष्ट्रीयता, आदि से निरपेक्ष रूप में उपयुक्त व्यवहार करें तथा मानव की प्रतिष्ठा को उच्चतर स्तर प्रदान करें।
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग, सदस्य राज्यों द्वारा मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों की ओर ध्यान आकर्षित कराने वाला एक प्रभावकारी साधन है। आयोग की ‘कार्यसूची में बिन्दु 13‘ नामक मद पूरी तरह, संसार भर में कही भी होने वाले मानवाधिकार-उल्लंघन की व्याख्या करता है। इस मद में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के सदस्य राज्यों को यह अवसर दिया जाता है कि वे विनिर्दिष्ट देशों में, गंभीर एवं अत्यावश्यक स्थितियों पर अपने मत व्यक्त करें। आयोग ने समयसमय पर विविध विषयोंय जैसे अरब राज्य क्षेत्रों, चिल्ली एवं दक्षिण अफ्रीका में मानवाधिकारय एल सेल्वाडोर, ईरान एवं पोलैण्ड में आत्म-निर्णय के अधिकार के निषेध पर विचार किया है। नवें दशक में इसने विविध मुद्दों, जैसे, विलोपन, दासत्व तथा देसी लोगों के साथ व्यवहार आदि में अनुसंधान कार्य प्रारंभ किया। आयोग किसी भी राज्य के गलत कार्य की सूचना देने, उस ओर ध्यान आकर्षित कराने और कम से कम गलती करने वाले को उलझन में डालने की सामर्थ्य तो रखता है, हालांकि उसके पास किसी प्रकार की सख्त एवं ठोस कार्रवाई करने की शक्ति नहीं है।
यद्यपि शीतयुद्ध के युग में उदारपंथी और समाजवादी देशों के बीच मानवाधिकारों की प्रकृति को लेकर तीखें मतभेद रहे हैं किन्तु शीतयुद्धोत्तर युग में मानवाधिकारों की रूपरेखा परिवर्तित हुई है और मानवाधिकारों के स्तरों का विकास करने में संयुक्त राष्ट्र एक महत्वपूर्ण संस्था के रूप में उभरा है।
वियना में 1993 में हुई मानवाधिकार विश्व कांग्रेस में कहा गया था कि ‘मानवाधिकारों का प्रोत्साहन एवं संरक्षण संपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की वैध चिंता है। उसमें संयुक्त राष्ट्र संघ मानवाधिकार उच्चायुक्त के पद की स्थापना भी की गई। हाल ही में संयुक्त राज्य ने इराक, सोमालिया एवं बोसनिया में मानवीय अंतःक्षेप के द्वारा लोगों के अधिकार की रक्षा के लिए कदम उठाए थे। उसने भूतपूर्व युगोस्लाविया तथा खाण्डा में जाति-संहार तथा मानवता विरोध जैसे अपराधों के आरोपी लोगों के अभ्यारोपण एवं उत्पीड़न से प्रभारित अधिकरणों की स्थापना भी की थी।
बोध प्रश्न 5
नोटः क) अपने उत्तरों के लिए नीचे दिए गए स्थान का प्रयोग कीजिए।
ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तरों से अपने उत्तर मिलाइए।
1) संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा मानवाधिकारों के प्रचार एवं सरंक्षण के लिए क्या भूमिका निभाई गई है?
बोध प्रश्न 5 उत्तर
1) संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानवाधिकारों को प्रोत्साहन एवं संरक्षण देने के लिए मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा और कई दूसरे समझौतों के अपनाने के साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग की स्थापना की। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए उसने कई संधि निकायों की स्थापना की।
मानवाधिकार संबंधी संयुक्त राष्ट्र घोषणा
जैसा ऊपर कहा जा चुका है कि मानवाधिकारों का प्रावधान द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनी के फासीवादियों के शासनकाल में किए गए अपराधों के प्रसंग में किया गया था। एक ओर जहाँ ‘मानवता के विरुद्ध अपराधों के लिए अनेक जर्मन नेताओं पर मुकदमें चलाए गए थे वहीं दूसरी ओर भावी मानकों के निर्धारण हेतु, संयुक्त राष्ट्र ने ‘मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा‘ का प्रारूप तैयार करने के लिए 1948 में एक विशेष समिति की नियुक्ति की थी। इस घोषणा में ‘सभी लोगों तथा सभी राष्ट्रों की उपलब्धियों के समान मानक‘ की उद्घोषणा की गई थी। उसमें घोषित किया गया था कि सभी मानव ‘समान प्रतिष्ठा तथा समान अधिकारों के साथ स्वतंत्र रूप में जन्में हैं। अतः जाति, वर्ण, लिंग, भाषा, धर्म, राजनीतिक या अन्य विचार, राष्ट्रीय या सामाजिक मूल, संपत्ति, जन्म या अन्य हैसियत के अंतर पर ध्यान न देते हुए इस घोषणा में उल्लिखित सभी अधिकारों तथा स्वतंत्रताओं को भोगने के अधिकारी हैं।
संयुक्त राष्ट्र घोषणा में अधिकारों के दो समुच्चय गिनाए गए हैंः
प) नागरिक एवं राजनीतिक अधिकार तथा
पप) सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक अधिकार
नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों में, व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता एवं सुरक्षा का अधिकार, दास प्रथा एवं दासता से मुक्ति, कानून की ओर से सभी को समान सुरक्षा, दोष के सिद्ध होने से पूर्व निरपराध माने जाने का अधिकार, संचलन की स्वतंत्रता, विचार एवं धर्म स्वतंत्रता, मत एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, साहचर्य एवं सभा का अधिकार तथा सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर समय-समय पर होने वाले चुनावों में भाग लेने का अधिकार आदि आते हैं। सामाजिक आर्थिक सांस्कृतिक अधिकारों में, सामाजिक सुरक्षा, कार्य, विश्राम एवं अवकाश, रहन-सहन का उपयुक्त स्तर, शिक्षा प्राप्ति तथा सामुदायिक सांस्कृतिक जीवन में भाग लेने के अधिकार शामिल हैं। इसमें यह भी माना गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को ऐसी सामाजिक एवं अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था प्राप्त करने का अधिकार है जिसमें इन अधिकारों तथा स्वतंत्रताओं को पूर्ण रूप से क्रियान्वित किया जा सके।
संयुक्त राष्ट्र घोषणा ने मानव जाति की श्रेष्ठता में दृढ़तापूर्वक विश्वास व्यक्ति किया और मानवाधिकारों की सार्वभौमिकता की बात कही – ‘मानवाधिकार‘, अर्थात् ऐसे अधिकार जो किसी भी राज्य के कानून से निरपेक्ष रूप में, केवल मनुष्य होने के नाते प्राप्त होते हैं। इस (घोषणा) में मानवीय स्वतंत्रता के महत्वपूर्ण पक्षों को शामिल किया गया है और सरकार को इन से संबंधित दायित्वों के निर्वाह का कर्तव्य सौंपा गया है। मानवाधिकारों के समुदाय में व्यक्तियों, संस्थाओं (जिनमें सब रहते है) एवं सरकार के अंगों के संदर्भ में मनुष्य तथा समाज, के प्रमुख अधिकारों तथा कर्तव्यों का स्पष्ट उल्लेख किया गया है।
फिर भी, यह घोषणा, सिद्धान्तों का कथन मात्र थी, कानून नहीं। सन् 1966 में संयुक्त राष्ट्र ने मानवाधिकारों से संबंधित दो प्रसंविदाओं को अंगीकार किया – नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों की अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदा तथा आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों की अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदा। हस्ताक्षरकर्ता राज्य इन प्रसंविदाओं का पालन करने को बाध्य हैं। राज्यों की आवश्यक संख्या द्वारा अनुमोदित होने के बाद 1976 में ये प्रसंविदाएँ लागू हो गई। संयुक्त राष्ट्र घोषणा तथा प्रसंविदाएँ मिलकर मानवाधिकारों के मानक निर्धारक यंत्रों के रूप में उभरे हैं।
इस संदर्भ में यह तथ्य ध्यान देने के योग्य है कि कुछ राज्यों ने आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों तथा नागरिक राजनीतिक अधिकारों में स्पष्ट अंतर माना है। संयुक्त राज्य अमेरिका ऐसा पहला राज्य था जिसने सार्वभौमिक मानवाधिकारों को दो प्रसंविदाओं में विभाजित करने का आग्रह किया था। उसने घोषणा की कि आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकार कम प्रामाणिक अधिकार थे और इनके साथ जुड़े हुए बाध्यताकारी कर्तव्य कम थे। दूसरी ओर, नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों को, प्रसंविदाओं के सभी हस्ताक्षरकर्ता राज्यों पर तत्काल लागू किया जाना चाहिए था। संयुक्त राष्ट्र ने समक्ष समय पर इस विचार का समर्थन किया है कि सभी अधिकार (समान रूप से) मानवाधिकार हैं। विभिन्न संयुक्त राष्ट्र सम्मेलनों एवं अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार सम्मेलनों में यही मत व्यक्त किया गया है कि मानवाधिकार एवं मौलिक स्वतंत्रताएँ अविभाज्य हैं और सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों का समुचित उपयोग किए बिना नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों का पूरी तरह उपभोग किया ही नहीं जा सकता।
बोध प्रश्न 3
नोटः क) अपने उत्तरों के लिए नीचे दिए गए स्थान का प्रयोग कीजिए।
ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तरों से अपने उत्तर मिलाइए।
1) 1948 की मानवाधिकार संबंधी संयुक्त राष्ट्र घोषणा क्या है?
बोध प्रश्न 3 उत्तर
1) संयुक्त राष्ट्र आम सभा ने 10 जनवरी 1948 को ‘मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा की उद्घोषणा की। इस घोषणा में श्सभी लोगों तथा सभी राष्ट्रों की उपलब्धियों के समान मानक की उद्घोषणा की गई थी। यह मानव जाति में समानता और मानवाधिकारों की सार्वभौमिकता के महत्व पर आधारित थी।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद मानवाधिकारों की माँग
द्वितीय विश्वयुद्ध से पूर्व मानवाधिकार संबंधी ऐसा कोई अन्तर्राष्ट्रीय कानून नहीं था जो सभी राष्ट्रों की सरकारों पर बाध्यतापूर्वक लागू होता हो। फिर भी दो सामाजिक आन्दोलनों को आज की मानवाधिकार शासन प्रणाली के पूर्ववर्ती माना जा सकता है। पहला आन्दोलन, दास प्रथा एवं दासों के व्यापार के उन्मूलन के लिए 18वीं शताब्दी में ब्रिटेन में प्रारंभ हुआ जिसने एक गैर सरकारी संगठन, ‘दासता विरोधी समुदाय‘ (एण्टी स्लेवरी सोसायटी) को जन्म दिया जो आज भी समसामयिक दासता के विरुद्ध संघर्ष करता है और जिसके द्वारा किए गए मत-निर्माण की प्रक्रिया के फलस्वरूप प्रारंभिक दासता विरोधी संधियाँ अस्तित्व में आई थीं। दूसरा आन्दोलन रेडक्रॉस था जिसका प्रारंभ क्राइमी युद्ध में घायल सैनिकों की असह्या एवं अपरिमित पीड़ा को देखकर एक स्विस व्यापारी, हेनरी ड्यूनाँ, के हृदय-परिवर्तन के फलस्वरूप हुआ था।
प्रथम विश्वयुद्ध और द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच के समय में कई अन्य उल्लेखनीय कार्यों का प्रारंभ हुआ। ‘अल्पसंख्यक-संधियों के द्वारा वैयक्तिक संरक्षण प्रदान करने के प्रयत्न किए गए जिनमें संबद्ध राज्य अपने अधिकार क्षेत्र में न केवल अल्पसंख्यकों को कुछ अधिकार तथा सद्व्यवहार का अनिवार्य न्यूनतम स्तर प्रदान करने को वचनबद्ध हुए वरन् इन समझौतों के समुचित पालन के दायित्व निर्वाह के कार्य के लिए एक सीमा तक राष्ट्र संघ द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय पर्यवेक्षण के लिए भी सहमत हुए। अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की स्थापना के साथ आर्थिक एवं सामाजिक अधिकारों को अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त होने लगी तथा 1921 में अन्तर्राष्ट्रीय तत्वावधान में, शरणार्थियों के लिए राष्ट्र संघ के उच्चायोग की स्थापना के साथ शरणार्थियों को सर्वप्रथम सहायता उपलब्ध कराई गई।
फिर भी, नाजी अत्याचारों का आतंक वह मूल कारण था जिस के प्रत्युत्तर में गैर सरकारी संगठनों ने अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून की अवधारणात्मक एवं वैधानिक आधारशिला तैयार करने के लिए राज्यों पर दबाव डालना प्रारंभ किया। गैर सरकारी संगठनों ने ही संयुक्त राष्ट्र अधिकार पत्र की प्रस्तावना तथा छह अलग-अलग अनुच्छेदों में मानवाधिकारों को शामिल कराया था। और सरकारी संगठन ही थे जिन्होंने अनेक सरकारों को यह स्वीकार करने के लिए सहमत कर लिया था कि संयुक्त राष्ट्र तंत्र में मानवाधिकारों का स्थान केन्द्रीय स्तंभों में से एक होना चाहिए।
द्वितीय विश्वयुद्ध के तुरन्त बाद गठित संयुक्त राष्ट्र में शामिल की गई मानवाधिकार व्यवस्था एक महत्वपूर्ण परिवर्तन की द्योतक थी। हिटलर के शासन काल में अपनाई पूरी की पूरी जाति के संहय की निर्मम नीतियों के विरुद्ध आक्रोशजन्य भावना परिवर्तन का प्रत्यक्ष परिणाम इस रूप में मूर्त हआ था। इस भावना परिवर्तन के परिणामस्वरूप विजेता राष्ट्रों ने अनेक जर्मन नेताओं पर ऐसे अपराध के लिए मुकदमें चलाए जिसका कानून की किसी भी पुस्तक में उल्लेख नहीं था वरन् अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के निर्णयों के आधार पर जो अस्तित्व में आया था। इस अपराध को ‘मानवता के विरुद्ध अपराध‘ कहा गया था।
नूरेमबर्ग विचारण अधिकरण ने इतिहास में पहली बार यह सिद्धान्त निर्धारित किया कि जब कभी आधारभूत मानवीय मूल्यों के सरंक्षक अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों तथा किसी राज्य के कानूनों में विरोध हो तो नागरिक राज्य के कानून का उल्लंघन करने का अधिकारी है। नूरेमबर्ग के विचारणों के कानूनी ढाँचे में ‘सैनिक अनुशासन‘ के सिद्धान्त को चुनौती दी गई थी और ‘राष्ट्रीय संप्रभुता‘ के विचार को समाप्त कर दिया गया था। तत्कालीन अन्तर्राष्ट्रीय कानून ने अधिकरण के मत का समर्थन किया और शान्ति तथा मनुष्यता के विरुद्ध अपराधों के उत्तरदायित्व के मामले में वरिष्ठ की आज्ञा को अस्वीकार करने को हृदयपूर्वक पुष्ट किया। सन् 1948 में, भविष्य के मानक के रूप में संयुक्त राष्ट्र की एक विशेष समिति ने ‘मानवाधिकारों की घोषणा‘ का प्रारूप तैयार किया। संयुक्त राष्ट्र घोषणा के बाद मानवाधिकार तथा मौलिक स्वतंत्रताओं के संरक्षण के लिए 1950 में यूरोपीय अधिवेशन 1966 में संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन तथा अनेक यूरोपीय, लेटिन अमरीकी, अफ्रीकी तथा दक्षिण एशियायी देशों के सम्मेलन हुए हैं। धीरे धीरे मानवाधिकारों की अवधारणा विश्वव्यापी हो गई और आज संसार के लगभग सभी देशों में मानवाधिकारों के सरंक्षण, समर्थन एवं सुरक्षा के लिए अनेक सरकारी तथा गैर सरकारी संगठन अस्तित्व में आ चुके हैं।
बोध प्रश्न 2
नोटः क) अपने उत्तरों के लिए नीचे दिए गए स्थान का प्रयोग कीजिए।
ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तरों से अपने उत्तर मिलाइए।
1) उन्नीसवीं शताब्दी में हुई मानवाधिकारों से संबंधित कुछ संधियों के नाम लिखिए।
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