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Categories: Geologyindian

एकरूपतावाद सिद्धांत क्या होता है अर्थ , परिभाषा किसे कहते है Uniformitarianism in hindi meaning

Uniformitarianism in hindi meaning एकरूपतावाद सिद्धांत क्या होता है अर्थ , परिभाषा किसे कहते है ?

 एक रूपताबाद (Uniformitarianism)
18वीं शताब्दी में एक एकरूपता का अभ्युदय हो गया था तथा आकस्मिकवाद की विचारधारा क्षीण पड़ गयी थी। इस विचारधारा के मुख्य प्रवर्तक हटन (1726-1797 ई०) थे। इन्होंने लेखों तथा पुस्तकों के माध्यम से अपने विचारों को रखने का प्रयास किया। इनका विचार था कि – वर्तमान स्थलरूपों को देखकर अतीत के विषय में ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इसी आधार पर इन्होंने इस संकल्पना – ‘वर्तमान भूत की कुंजी है‘ का प्रतिपादन किया। इन्होंने अपने अध्ययनों तथा पर्यवेक्षणों के आधार पर बताया कि -‘स्थलरूप के निर्माण में जो प्रक्रम कार्यरत हैं, वे अतीत काल में भी समान रूप से कार्यरत थे।‘ इसी आधार पर इन्होंने इस संकल्पना का प्रतिपादन किया कि – ‘भूगर्मिक प्रक्रम भूगर्भिक इतिहास के प्रत्येक काल में समान रूप से सक्रिय थे।‘ इन्होंने आगे बताया कि भूगर्भिक इतिहास का एक चक्रीय-क्रम होता है। इसी आधार पर इन्होंने अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन किया कि – ‘‘न तो आदि का पता है, न तो अन्त होने की आशा है।‘‘ सागरीय तथा नदी दोनों अपरदनों का अध्ययन किया, परन्तु नदी अपरदन को अधिक महत्व प्रदान किया। ये ग्रेनाइट की उत्पत्ति, ज्वालामुखी के उद्गार से निःसृत पदार्थ के शीतलीकरण के कारण बताये। इनके बाद दूसरे प्रमुख विद्वान चार्ल्स ल्येल महोदय आते हैं, इन्होंने ‘आधुनिक ऐतिहासिक भू-विज्ञान‘ का अध्ययन किया।
आधुनिक विचारधारा
19वीं शताब्दी तक पहुँचते-पहुँचते इस भू-आकृति विज्ञान का काफी विकास हो गया। नयी संकल्पनाओं, सिद्धान्तों तथा विचारों का भू-आकृति विज्ञान में समावेश होता गया। अमेरिका तथा यूरोप में बड़े पैमाने पर अध्ययन किया जाने लगा। यूरोपियन विद्वानों के अन्तर्गत प्लेफेयर, चार्ल्स स्पेल, लूई आगासीज, वेनेज, रैमसे, वेगनर, स्वीजिक, वाल्टर फेंक तथा पेंक महोदय विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। यूरोप में सरिता अपरदन, हिमानी अपरदन, सागरीय अपरदन तथा कार्ट स्थलाकृति-चक्र की व्याख्यायें प्रस्तुत की गई। हिमानी के विषय में लुई आगासीज, जान प्लेफेयर (1815 ई०), वेनेज (1821 ई०), एस्मार्क (1824 ई0), जीन डी कारपेन्तेर आदि विद्वानों ने अपना-अपना अध्ययन प्रस्तुत किया। यूरोप में नदी घाटी के विकास सम्बन्धी तथ्यों पर जोर दिया गया। जुकेस (1862 ई०) अनप्रस्थ तथा अनदैर्ध्य सरिता की संकल्पना का व्याख्या प्रस्तुत की। अपरदन-चक्र के विषय में वाल्टर पेंक डेविस की आलोचना करते हुए अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। इन्होंने बताया कि – स्थलखण्ड का प्रारम्भ में उत्थान होगा, परन्तु मन्दगति से, बीच में उत्थान तीव्र हो जायेगा तथा अन्त आते-आते बिल्कुल समाप्त हो जायेगा। पेंक महोदय ने अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन बड़ी गहराई से किया है, परन्तु इनकी पुस्तक जर्मन भाषा में है, जिस कारण ठीक से अनुवाद नहीं हो पाया था। परिणामस्वरूप अनेक भ्रांन्तियाँ रह गई हैं।
यूरोप में सागरीय-अपरदन का भी बड़े पैमाने पर अध्ययन किया गया। रैमसे तथा रिक्तोफेन आदि विद्वानों ने सागरीय लहरों द्वारा कटाव की व्याख्या प्रस्तुत की। इसके अलावा थोड़ा बहुत कार्य मरुस्थली क्षेत्रों की स्थलाकृतियों पर भी किया गया था।
भू-आकृति विज्ञान के क्षेत्र में जितना कार्य अमेरिका में किया गया, उतना अन्य देशों में नहीं किया गया है। इसी समय स्थलरूपों में चक्रीय पद्धति का विकास किया गया। अमेरिकी विद्वानों में गिल्बट, पावेल, उटन तथा डेविस विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। पावेल (1934-1902 ई०) ने कोलोरेडो पठार का अध्ययन बड़े पैमाने पर किया। नदी अपरदन के विषय में ये सराहनीय कार्य किये। इनका विचार है – कि नदियों की अपरदन की एक सीमा होती है, इससे अधिक अपरदन नहीं करती हैं। यह सीमा सागर-तल द्वारा निश्चित होती है। अपरदन के बाद की स्थलाकृति के विषय में इन्होंने किसी का नाम नहीं दिया है। गिलबर्ट (1843-1918 ई०) ने नदी के अपरदन में नदी के वेग, ढाल, बोझ के बीच सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया तथा इसकी विशद् व्याख्या प्रस्तुत करने का प्रयास किया। नियाग्रा प्रपात की उत्पत्ति के विषय में भी अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन किया तथा सरिता के अपरदन पर पड़ने वाले प्रभावों का विवेचना किया। –
1. डटन (1841-1912) – कोलोरैडो पठार के स्थलरूपों तथा अपरदन-सतहों का अध्ययन किया। ये प्रथम विद्वान थे, जिन्होंने संतुलन सिद्धान्त की व्याख्या प्रस्तुत की।
2. डेविस – भू-आकृति विज्ञान के चिप्रसिद्ध विद्वान हैं। इन्होंने स्थलरूपों के विकास में व्यवस्था का प्रतिपादन किया। इनका विचार है कि – जब किसी स्थलखण्ड का उत्थान हो जाता है, तो अपरदन-चक्र प्रारम्भ होता है। यह चक्र तरुणा, प्रौढ़ा तथा जीर्णावस्था में गुजर कर एक सम्प्राय मैदान के रूप परिवर्तित हो जाता है। इसे अपरदन-चक्र या भ्वाकृतिक-चक्र के नाम से जाना जाता है। इसके अलावा शुष्क-अपरदन-चक्र, सागरीय अपरदन-चक्र, हिमानी अपरदन-चक्र आदि का उल्लेख किया। आगे चलकर इन संकल्पनाओं के आधार पर एक नवीन संकल्पना का जन्म हुआ – ‘‘स्थल रूप संरचना, प्रक्रम तथा अवस्थाओं का प्रतिफल होता है।‘‘
आधुनिक भू-आकृति विज्ञान
वर्तमान में भू-आकृति विज्ञान का स्वरूप पूर्णरुपेण गणितीय हो गया है, परन्तु यह गणितीय तथ्य विषय बोधगम्य बनाने के बजाय दुरुह बना रहा है। इसमें सांख्यिकीय तथा भौतिकशास्त्र के सूत्रों का समावेश विद्वानों ने धड़ल्ले से किया है। इसकी पथ और दिशा दोनों अज्ञात हैं। यदि इसी तरह विषय दुरुह बनता रहा, तो आज के बीस वर्षों बाद इसका अध्ययन वही कर सकेगा, जिसने अध्ययन किया है।
भू-आकृति विज्ञान के क्षेत्र में प्रादेशिक संकल्पना का समावेश होता जा रहा है। प्रादेशिक अध्ययन कई रूपों में किया जा रहा है –

(i) विश्व भू-आकृति विज्ञान – इसमें महाद्वीप तथा महासागर का प्रवाह, अपरदन-सतह आदि का अध्ययन किया जा रहा है। विश्व-व्यापी अपरदन सतहों के अध्ययन में किंग
1. Powell, J.W., 1876: Explanation of Calorado River of the West, P.  203.
2. Gilbert, G. K. 1877: Report on Geology of the Henery mountains, PP. 170-172.
3. Gilbert, G. K. 1895: Niagra falls and their History, Nati, Geog. Mag-1, PP.  203.230.
महोदय लगे हैं,

(ii) महाद्वीपीय भू-आकृति विज्ञान – इसके अन्तर्गत पर्वतीय मेंखला, प्राचीन दृढ भरखण्ड बेसिन, भू-भ्रंश घाटी आदि का अध्ययन किया जाता है,

(iii) लघु क्षेत्रों का भू-आकृति विज्ञान – इसके अन्तर्गत अनाच्छादन कालानुक्रम का अध्ययन किया जाता है, तथा

(iv) सागर – नितल भू-आकति विज्ञान सागर तली आदि का अध्ययन किया जाता है। आज भिन्न-भिन्न देशों में प्रयोगशालाओं के आधार पर धाराओं तथा नदियों के जलीय नियमों का अध्ययन किया जा रहा है।
1930-1940 ई० तक हार्टन महोदय ने भू-आकृति विज्ञान में गणित का प्रयोग बड़े पैमाने पर किया। 1950 ई० के बाद स्ट्रालर महोदय गणित के प्रयोग द्वारा इसके विकास में उल्लेखनीय योगदान दिया। 1950-1960 ई० के बीच कम्प्यूटरों की सहायता से गणित का समावेश किया गया। आज सांख्यिकी का प्रयोग बड़े पैमाने पर किया जा रहा है।

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